बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीरथ बरत न मेला। झोली पत्र बिभूति न बटवा, अनहद बैन बजावे। मांगि न खाइ न भूखा सोवे, घर अंगना फिरि आवे। पांच जना की जमाति चलावे, तास गुरू मैं चेला। कहे कबीर उनि देसि सिधाये बहुरि न इहि जग मेला।
शनिवार, 15 सितंबर 2012
सोमवार, 3 सितंबर 2012
कशमकश ऐसी कि मत पूछो
ग़ज़लकार ओम प्रकाश यती की रचनाओं पर गंभीर चर्चा हुई। सलिल वर्मा उर्फ बिहारी ब्लागर ने कहा कि ओम प्रकाश यती की ग़ज़लों को देखकर मुझे श्रीलाल शुक्ल और मनोहर श्याम जोशी जी की याद आ गयी। आपको अटपटा लगेगा। ये दोनों साइंस के ग्रैजुएट थे, मगर अदब की दुनिया में इनका कोई सानी नहीं। ब्लॉग की दुनिया में जितने भी अदबी लोग मिले तकरीबन ८०% इंजीनियर। और आज एक और इंजीनियर साहब से मुलाक़ात हो गयी उनकी ग़ज़लों के मार्फ़त। सिविल इंजीनियर हैं, लिहाजा ग़ज़लों और अशआर को इस तरतीब से तराशा है कि हर शे’र का हुस्न निखर कर सामने आ गया है।
सुभाष जी, सबसे पहले मैं गज़ल की तरतीब के बारे में कहूँगा कि पिछली बारी में मैंने यही बात कही थी जो आज देखने में आ रही है। एक के बाद दूसरी गज़ल बेहतर से बेहतरीन होती गयी है। पहली गज़ल, लफ़्ज़ों की बुनाई के हिसाब से बहुत अच्छी है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं कि मुँह से ‘कमाल’ निकल जाए। पहले कहीं सुनी-सुनाई सी बातें लगती हैं। लेकिन अपनी बातों को वापस लेने का जी चाहता है जब अगली गज़ल के इन दो शे’र से सामना होता है:
कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
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ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
इन दोनों शेर पर बेसाख्ता “वाह” निकल जाती है। तीसरी गज़ल में देवता को इतने रूप में पेश किया है कि आसमान से लेकर धरती और यहाँ तक कि नकली (टीवी सीरियल वाले) देवताओं को भी इन्होंने नहीं बख्शा है। मगर मासूमियत से भरा शेर है ..
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता.
जिसे पढकर अपना बचपन याद आ जाता है। मेरा सबसे पसंदीदा शेर है यही। और अगले ही शेर में बयान कडवी सचाई :
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता.
अगली गज़ल में “सहसा” खटकता है मतले के अंदर और मतले में छिपा फलसफा खुलकर सामने नहीं आ पाया। आसान से अशआर और एक अच्छी गज़ल। मक्ते में छिपा दर्द बहुत ही खुलकर सामने आया है। और आखिर में बाबूजी का पोर्ट्रेट। इस गज़ल का मर्म वही समझ सकता है जिसने “वो ज़माना” देखा है। एक-एक शेर के साथ लगता है जैसे एक तस्वीर उभरती जाती है और मक्ते तक आकर एक मुकम्मल तस्वीर धोती, कुर्ता, टोपी लगाए बाबूजी की। एक स्केच है यह गज़ल और शायद याद दिलाए कितने घरों में फ्रेम में जड़े बाबूजी की।
आखिर में बस इतना ही कि यती साहब की ग़ज़लों में सादाबयानी है और एक्सप्रेशन की क्लैरिटी है। कुल मिलाकर इंजीनियर साहब एक अच्छे शायर है और इनकी गज़लें मुतासिर करती हैं।
मशहूर शायर अशोक रावत के मुताबिक ओम प्रकाश यती जी मेरे मित्र हैं लेकिन उनसे मित्रता का पहला कारण उनकी ग़ज़लें ही हैं। भाषा के मुहाबरे पर उनकी पकड़, कहन का मासूम अंदाज़ और अपने आस पास की दुनिया मे रमे यती जी अलग खड़े नज़र आते हैं। कोई बनावट नहीं, कोई सजावट नहीं, कोई आक्रामकता नहीं, कोई शिकायत नहीं, कोई धारा नहीं, कोई नारा नहीं बस सीधी-सादी बातें और मासूम अंदाज़। उनकी गज़लें एक दिन हिंदी गज़लों की पहचान बनेंगी मेरा पक्का विश्वास है।
लंदन से ग़ज़लकार प्राण शर्मा ने कहा, यूं तो ओम प्रकाश यती की सभी ग़ज़लें अच्छी हैं लेकिन पहली ग़ज़ल का कोई जवाब नहीं। उसका एक-एक शेर दिल में उतरता है। उनकी एक गज़ल का मिसरा है, देखिये आते हैं अब कब तक निकल कर देवता। इस मिसरे में कब तक के साथ अब का इस्तेमाल मुझे अच्छा नहीं लगा। यती की ग़ज़लें पढ़वाने के लिए सुभाष जी का हार्दिक धन्यवाद।
.शायर तिलक राज कपूर ने कहा, क्या यह एक संयोग भर है कि लगातार तीसरा सिविल इंजीनियर ग़ज़लों के साथ प्रस्तुत है और वह दुष्यंत कुमार के रंग में डूबा हुआ। भाई बड़ी दमदार ग़ज़ल हैं। बधाई। दिगंबर नासवा के अनुसार यती जी की ग़ज़लें समाज की सच्चाइयों से जुडी ... उनपे गहरा कटाक्ष करती हुयी हैं । किसी एक गज़ल को यहाँ कोट करना आसान नहीं।. बस आनद ही लिया जा सकता है। वाणभट्ट ने कहा, यती जी की गज़लें एकदम दिल के करीब से निकलीं...और दिल तक पहुँचीं।
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
क्या बात है...
वीरेंद्र कुमार शर्मा ने तारीफ की। शाहिद मिर्जा ने कहा, सुभाष जी, यती जी को पढ़ने का सौभाग्य पहले भी मिला है। आज आपके ब्लॉग के माध्यम से और उम्दा कलाम पढ़ने को मिला। कवि और सायर रूप चंद्र शास्त्री मयंक ने इन ग़ज़लों की लिंक चर्चा मंच पर लगायी।
आठ सितंबर शनिवार को नीरज गोस्वामी की ग़ज़लें
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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012
शनिवार, 18 अगस्त 2012
ओम प्रकाश यती की ग़ज़लें
ओम प्रकाश यती |
1.
घर जलेंगे उनसे इक दिन तीलियों को क्या पता
है नज़र उन पर किसी की बस्तियों को क्या पता
ढूँढ़ती हैं आज भी पहली सी रंगत फूल में
ज़हर कितना है हवा में तितलियों को क्या पता
हाल क्या है ? ठीक है, जब भी मिले इतना हुआ
किसके अन्दर दर्द क्या है, साथियों को क्या पता
धूप ने, जल ने, हवा ने किस तरह पाला इन्हें
इन दरख्तों की कहानी आँधियों को क्या पता
जाएगा उनके सहारे ही शिखर तक आदमी
फिर गिरा देगा उन्हें ही सीढ़ियों को क्या पता
वो गुज़र जाती हैं यूँ ही रास्तों को काटकर
अपशकुन है ये किसी का, बिल्लियों को क्या पता
हौसले के साथ लहरों की सवारी कर रहीं
कब कहाँ तूफ़ान आए कश्तियों को क्या पता
वो तो अपना घर समझकर कर रहीं अठखेलियाँ
जाल फैला है नदी में मछलियों को क्या पता
2.
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझ सा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला
कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला
जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
3.
आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूप के तन पर गिरे अक्सर फिसल के देवता
बाढ़ की लाते तबाही तो कभी सूखा विकट
किसलिए नाराज़ रहते हैं ये जल के देवता
भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता
की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता
लोग उनके पाँव छूते हैं सुना है आज भी
वो बने थे ‘सीरियल’ में चार पल के देवता
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता
शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता
4.
बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है
कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है
छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है
भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है
भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम होती है तो तन्हा छूट जाता है
5.
दुख तो गाँव - मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में ख़ुद जरते आए बाबूजी
कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी
बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी
रोज़ वसूली कोई न कोई, खाद कभी तो बीज कभी
इज़्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी
हाथ न आया एक नतीजा, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट - कचहरी करते आए बाबूजी
नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी
जन्म 3 दिसम्बर सन् उन्नीस सौ उन्सठ को बलिया, उत्तर प्रदेश के “ छिब्बी " गाँव में.
प्रारंभिक शिक्षा गाँव में. सिविल इंजीनियरिंग तथा विधि में स्नातक और हिंदी साहित्य में एम.ए. ग़ज़ल संग्रह " बाहर छाया भीतर धूप" राधाकृष्ण प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित.
कमलेश्वर द्वारा सम्पादित हिन्दुस्तानी ग़ज़लें, ग़ज़ल दुष्यंत के बाद....(1), ग़ज़ल एकादशी तथा कई अन्य महत्वपूर्ण संकलनों में ग़ज़लें सम्मिलित.
नागपुर में आयोजित प्रसार भारती के सर्व भाषा कवि-सम्मलेन में कन्नड़ कविता के अनुवादक कवि के रूप में भागीदारी.
सम्प्रति : उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता पद पर कार्यरत . ई-मेल:yatiom@gmail.com
सोमवार, 13 अगस्त 2012
कहन की बारीकियाँ जरूरी
तिलक राज कपूर की गजलों पर चर्चा हुई. कुछ गंभीर बातें हुईं। अशोक रावत ने कहा, ग़ज़ल
कोई रचनाकार कैसे लिखता है, इस विषय को पाठक शायद ही कोई महत्व देते हों
पाठक का सरोकार तो सिर्फ रचनाओं की गुणवत्ता से होता है. कुछ लोगो
को यह बात बुरी लग सकती है लेकिन देवनागरी लिपि में बिना उर्दू जानने वाले
उर्दूमिज़ाज के रचनाकारों की गज़लें हों या हिंदी के रचनाकारों की
गज़लें,भाषा के मुहावरे के प्रति उदासीनता(शायद अज्ञानता) और अपनी ग़ज़लों
को परखने के लिये अलग नज़र, कुछ ऐसे कारण हैं जिससे ख़याल अच्छा होते हुए भी
बात बनते बनते रह जाती है.ग़ज़ल सदैव कहन के लिये याद की जाती रही है और
रहेगी. कहन का सीधा रिश्ता भाषा के मुहावरे से है. कोई बच्चन जी के गीत पढ़
कर देखे और फिर ग़ज़ल की कहन से तुलना करे. इस कहन और हिंदी भाषा के सौंदर्य
का सबसे सटीक उदाहरण मधुशाला है. हिंदी भाषा के वैभव को
ग़ज़ल अभी छू भी नहीं पाई है. जिन्होंने कोशिश की वे सिर्फ़ भाषा की
फ़िक्र में रहे, गज़ल को भूल गये. ग़ज़ल की बारीकियाँ कहन की बारीकियाँ ही
हैं.
मैं कोई उस्ताद नहीं इसलिये किसी की रचनाओं पर सार्वजनिक रूप से
टिप्पणी करना उचित नहीं समझता, जब तक कि कोई ख़ुद ही न कहे. कोई किसी को
नहीं समझा सकता.
तिलक राज कपूर
ने विनम्रतापूर्वक कुछ कमियां, आज के जीवन की कुछ सीमाएं स्वीकार कीं।
मुझे लगता है कि अच्छी ग़ज़ल या काव्य कहने के लिये विशद् शब्द-ज्ञान के
साथ-साथ काव्य के तत्वों का भी गहन अध्ययन होना चाहिये और मुझे यह
स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि इनके लिये मैं समय नहीं देता। बहुत हुआ
तो किसी ने कोई कमी बताई तो उसका भविष्य में ध्यान रखने का प्रयास किया।
शायद यही आज के अधिकॉंश ग़ज़ल या अन्य काव्य कहने वालों की स्थिति है
अन्यथा सशक्त हस्ताक्षरों की कमी न होती। एक अंतर और है जो स्पष्ट है,
वह यह कि इतिहास के सशक्त हस्ताक्षर साहित्य के अतिरिक्त किसी अन्य
माध्यम से परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था करते भी थे तो वह भी लेखन के
आस-पास का ही व्यवसाय होता था। मॉं सरस्वती की विशेष कृपा एक विशिष्ट
स्थिति हो सकती है अन्यथा स्तरीय साहित्य सृजन समय मॉंगता है जबकि आज का
युग मात्रा में अधिक विश्वास रखता है।
रचना को कुछ समय छोड़कर फिर से पढ़ने से मुझे लगता है कि आत्ममुग्धता की
स्थिति से बचा जा सकता है।दिगंबर नासवा ने कहा कि शिल्प के माहिर और विशिष्ट अंदाज़ में अपनी बात रखने वाले तिलक जी नेट पे गज़ल कहने वालों में एक जाना पहचाना नाम हैं. उनकी गज़लों का खजाना एक साथ देख के मज़ा आ गया. हर गज़ल लाजवाब शेरों से सज्जित है. युगों की प्यास का मतलब उसी से पूछिये साहब जिसे मरुथल में मीलों तक कहीं बादल नहीं मिलता. कितनी आसानी से अपनी बात को रक्खा है. ये हुनर तिलक जी के पास ही है. हमको न इस की फि़क्र हमें किसने क्या कहा, जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं। बेबाकी से कही गई है यह बात. रात हो या दिन, कभी सोता नहीं, सूर्य का विश्राम पल होता नहीं। थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला। मतले ही इतने लाजवाब हैं की दांतों तले ऊँगली अपने आप ही आ जाती है.
गजलकार नीरज गोस्वामी का कहना है कि तिलक जी बहुत निराले शायर हैं...लाखों में एक...सबसे बढ़िया बात ये है के वो जितने अच्छे शायर हैं उस से भी अच्छे और प्यारे इंसान हैं और जैसी प्रतिभा उनमें है वैसी इश्वर हर किसी को नहीं देता...आसपास की चीजों पर उनकी पकड़ ग़ज़ब की है...मैंने कई बार देखा है जिस शेर पर माथापच्ची करने के बाद मैं उनकी शरण में मदद के लिए जाता हूँ वो उसे चुटकी में कह देते हैं....ये ग़ज़लें मेरी उनके बारे में व्यक्त की गयी धारणा की पुष्टि करती हैं... उनकी ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व और सोच का आइना हैं... जुनूँ की हद से आगे जो निकल जाये शराफ़त में, हमें इस दौर में ऐसा कोई पागल नहीं मिलता। जैसा शेर जैसे उन्होंने ने अपने लिए ही कहा है. तिलक जी की रचना प्रक्रिया जटिल नहीं है वो आसान और ठोस शब्दों में अपनी बात कहते हैं और ये ही उनकी बहुत बड़ी खूबी है. चेहरा पढ़ें हुजूर नहीं झूठ कुछ यहॉं कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं। हमेशा हँसते हंसाने वाले तिलक जी ही ऐसा शेर कह सकते हैं कहा किसी ने बुरा कभी तो, चुभन हमेशा, रही दिलों में कभी किसी को, लगे बुरा जो, न बोल ऐसा जहन में आए। उनकी हर ग़ज़ल से हम ज़िन्दगी जीने का सलीका सीखते हैं।
तिलक जी की विनम्रता का कोई जोड़ नहीं है, कहते हैं, प्रशंसा तो इंसान को अतिरिक्त उर्जा देती ही है लेकिन कहीं कोई दोष छूट गया हो तो वह इंगित होने से भविष्य के लिये सुधार होता है।
मशहूर ब्लॉगर रविन्द्र प्रभात का मानना है की तिलक जी की गजलों का स्वाद बेहद मीठा और कहने का अंदाज तीखा लगता है । विंब और कथ्य बिलकुल अलग किन्तु शिल्प से कोई समझौता न होना इनकी गज़लों की सबसे बड़ी विशेषता है । अपनी गज़लों की मजाई के बारे में इन्होंने साफ-साफ कह दिया है, इसलिए उसपर किसी भी प्रकार की टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है । इनकी गज़लों को पढ़ने के बाद जुबान से आह भी निकलती है और बाह भी । बेहद सुंदर और सारगर्भित गजल के लिए आभार. मदन मोहन शर्मा ने कहा, सार्थक और सुन्दर रचनाएँ. निर्मला कपिला का मानना है, तिलक भाई की गज़लों के क्या कहने. मै तो उन्हे पढने को हमेशा लालायित रहती हूँ। अभी कम्प्यूटर बन्द करने वाली थी कि तिलक पढ कर बन्द नही कर पाई बस एक ब्लाग पढना ही सफल रहा। उनकी उस्तादाना गज़लों पर मै क्या कहूँगी। एक से बढ कर एक। उनसे बहुत कुछ सीखा है। आशा है आगे भी उनका योगदान बना रहेगा।
18 अगस्त शनिवार को ओम प्रकाश यती की ग़ज़लें
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शनिवार, 28 जुलाई 2012
तिलकराज कपूर की ग़ज़लें
रचनाकार का वक्तव्य
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तिलकराज कपूर |
ग़ज़ल कहने की मेरी प्रक्रिया और
किसी अन्य की प्रक्रिया में शायद ही कुछ अंतर हो। बस यकायक कोई शेर बन
जाता है, कोशिश रहती है कि पहला ही शेर मत्ले के रूप में हो जाये। यदि ऐसा
नहीं हुआ तो शेर के बाद मत्ले का शेर ही होता है। बस उसके बाद फ़ुर्सत का
ही प्रश्न रह जाता है। एकाध हफ़्ते में ग़ज़ल का ढॉंचा तैयार हो जाता है।
यदा-कदा उस ढॉंचे को देखता रहता हूँ और मंजाई चलती रहती है। कई ग़ज़ल ऐसी
रहीं कि एक-दो महीने के अंतराल पर उन्हें देखने पर मज़ा नहीं आया और पूरी
की पूरी खारिज हो गयीं। जब कोई 'तरही' का अवसर मिलता है तो समय बंधन ग़ज़ल
लिखवा ही लेता है। मेरी रचना प्रक्रिया में एक भारी दोष है, जब तक नया
शब्द काफि़या के लिये मिलता जाये, नया शेर बनता जाता है। उद्देश्य रहता
है अधिक से अधिक शेर कहने का, जिससे बाद में कमज़ोर शेर हटाकर एक पुख्ता
ग़ज़ल को अंतिम रूप दिया जा सके; लेकिन फिर कभी सम्पादन का अवसर ही नहीं
मिल पाता और ग़ज़ल में कई शेर ऐसे छूट जाते हैं, जिन्हें भरती का माना जा
सकता है। आदत की बात है, लगता है धीरे-धीरे जायेगी।
शेर
कहने में सबसे अधिक मज़ा आता है चुनौती के रूप में। अक्सर घर में कहता
हूँ कि कुछ शब्द दो। फिर कोशिश रहती है सभी शब्दों को एक ही शेर में लेने
की। मुझे लगता है इससे शब्दों को बॉंधने का अभ्यास अच्छी तरह होता है।
तिलकराज कपूर की ग़ज़लें
1.
ज़माने को हुआ क्या है, कोई निश्छल नहीं मिलता
किसी मासूम बच्चे सा कोई निर्मल नहीं मिलता।
युगों की प्यास का मतलब उसी से पूछिये साहब
जिसे मरुथल में मीलों तक कहीं बादल नहीं मिलता।
जुनूँ की हद से आगे जो निकल जाये शराफ़त में
हमें इस दौर में ऐसा कोई पागल नहीं मिलता।
यक़ीं कोशिश पे रखता हूँ, मगर मालूम है मुझको
अगर मर्जी़ न हो तेरी, किसी को फल नहीं मिलता।
जहॉं भी देखिये नक़्शे भरे होते हैं जंगल से
ज़मीं पर देखिये तो दूर तक जंगल नहीं मिलता।
समस्या में छुपा होगा, अगर कुछ हल निकलना है
नियति ही मान लें उसको, अगर कुछ हल नहीं मिलता।
हर इक पल जिंदगी का खुल के हमने जी लिया 'राही'
गुज़र जाता है जो इक बार फिर वो पल नहीं मिलता।
2.
हुस्नो-अदा के तीर के बीमार हम नहीं
ऐसी किसी भी शै के तलबगार हम नहीं।
हमको न इस की फि़क्र हमें किसने क्या कहा
जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं।
जैसा रहा है वक्त निबाहा वही सदा
हम जानते हैं वक्त की रफ़्तार हम नहीं
चेहरा पढ़ें हुजूर नहीं झूठ कुछ यहॉं
कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं।
हमको सुने निज़ाम ये मुमकिन नहीं हुआ
तारीफ़ में लिखे हुए अश'आर हम नहीं।
उम्मीद फ़ैसलों की न हमसे किया करें,
खुद ही खुदा बने हुए दरबार हम नहीं।
फि़क़्रे-सुखन हमारा ज़माने के ग़म लिये
हुस्नो अदा को बेचते बाज़ार हम नहीं।
3.
किसी को मस्ती, मज़े का आलम, प्रभु तुम्हारे भजन में आए
हमें मज़ा ये ग़ज़ल में तेरे वचन की हर इक कहन में आए।
खिले हुए हैं, हज़ार रंगों के फ़ूल नज़रों की राह में पर,
जिसे न चाहत हो तोड़ने की, वही मेरे इस चमन में आए।
सभी पे छाया हुआ है जादू, बहुत कमाने की आरज़ू है
खुदा ही जाने, उधर गया जो, न जाने फिर कब वतन में आए।
तुझे पता है, मेरे किये में, सियाह कितना, सफ़ेद कितना
जो इनमें अंतर, करे उजागर, वो धूप मेरे सहन में आए।
कहा किसी ने बुरा कभी तो, चुभन हमेशा, रही दिलों में
कभी किसी को, लगे बुरा जो, न बोल ऐसा जहन में आए।
अगर जहां हो तेरे मुखालिफ़, कभी न डरना, कभी न झुकना
खुदा निगहबॉं बना हो जिसका तपिश न उस तक अगन में आये।
तुझे ऐ 'राही' कसम खुदा की, सभी को अपना, बना के रखना
मिलो किसी से, सुकूँ वो देना, जो दिल से दिल की छुअन में आये।
4.
सज़्दे में जो झुके हैं तेरे कर्ज़दार है
दीदार को तेरे ये बहुत बेकरार हैं।
मेरे खि़लाफ़ जंग में अपने शुमार हैं
हमशीर भी हैं, उनमे कई दिल के यार हैं।
ऑंधी चली, दरख़्त कई साथ ले गई
बाकी वही बचे जो अभी पाएदार हैं।
ऐसा न हो कि आखिरी लम्हों में हम कहें
अपने किये पे हम तो बहुत शर्मसार हैं।
बेचैनियों का राज़ बतायें हमें जरा
फ़ूलों भरी बहार में क्यूँ बेकरार हैं
किससे मिलायें हाथ यहॉं आप ही कहें
जब दिल ये जानता है सभी दाग़दार हैं।
सपने नये न और दिखाया करें हमें
दो वक्त रोटियों के सपन तार-तार हैं।
सौ चोट दीजिये, न मगर भूलिये कि हम
हारे न जो किसी से कभी वो लुहार हैं।
कपड़ों के, रोटियों के, मकानों के वासते
जाता हूँ जिस तरफ़ भी उधर ही कतार हैं।
तुम ही कहो कि छोड़ इसे जायें हम कहॉं
इस गॉंव में ही मॉं है सभी दोस्त यार हैं।
कहता नहीं कि हैं सभी 'राही' यहॉं बुरे
पर जानता हूँ इनमें बहुत से सियार हैं।
5.
इधर इक शम्अ तो उस ओर परवाना भी होता था
नसीबे-इश्क में मिलना-ओ-मिट जाना भी होता था।
अरे साकी हिकारत से हमें तू देखता क्या है
हमारी ऑंख की ज़ुम्बिश पे मयखाना भी होता था।
समय के साथ ये सिक्का पुराना हो गया तो क्या
कभी दरबार में लोगों ये नज़राना भी होता था।
हमारे बीच का रिश्ता हुआ क्यूँ तल्ख अब इतना
कभी मेरी मुहब्ब्त में तू दीवाना भी होता था।
मैं अरसे बाद लौटा हूँ तो दिन वो याद आये जब
यहॉं महफिल भी जमती थी तेरा आना भी होता था।
भला क्यूँ भीड़ में इस शह्र की हम आ गये लोगों
मुहब्बत कम नहीं थी गॉंव में दाना भी होता था।
सुनाये क्या नया 'राही', ठहर कर कौन सुनता है
हमें जब लोग सुनते थे तो अफ़साना भी होता था।
6.
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।
चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।
मोतियों की क्या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
क्यूँ मैं दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।
देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।
जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।
हैं सभी तो व्यस्त 'राही' गॉंव में
मत शिकायत कर अगर श्रोता नहीं।
7.
थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।
जो परिंदे थे नये, टपके वही बस
इस तरह बाज़ार को उसने उछाला।
देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर
आपने भी ये विषय हरचन्द टाला।
जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्यूँ बैर पाला।
भूख क्या होती है जबसे देख ली है
क्यूँ हलक में जा अटकता है निवाला।
एकलव्यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।
तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।
जिंदगी तेरा मज़ा देखा अलग है
इक नशा दे जब खुशी औ दर्द हाला।
त्याग कर बीता हुआ इतिहास इसने
हरितिमा का आज ओढ़ा है दुशाला।
बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।
रचनाकार का परिचय
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- जन्म-26 जुलाई 1956 श्योपुर कलॉं जिला मुरैना में। (अब श्योपुर भी एक जिला है)
- उच्चतर माध्यमिक तक अधिकॉंश शिक्षा मुरैना जिले में। 1976 में ग्वालियर के माधव
- इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी एण्ड साईंस से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक
- 1980 से मध्यप्रदेश जल संसाधन विभाग में कार्यरत।
- वर्तमान में मध्यप्रदेश जल संसाधन विभाग में संचालक, जल मौसम विज्ञान के पद पर
- सूचना प्रबंधन, मानव संसाधन विकास, आर्गेनाईज़ेशनल डेव्हलपमेंट, चेंज मैनेजमेंट,
- इन्टीग्रेटेड रिवर बेसिन प्लॉनिंग आदि विषयों पर विशेष नियंत्रण।
बुधवार, 18 जुलाई 2012
सबसे बतियाती हुई गज़लें
अशोक रावत की ग़ज़लों ने काव्यप्रेमियों को आलोड़ित किया. रावत जी की रचनात्मक उर्जा उनके गहरे सामाजिक अनुभवों और सरोकारों की उपज है. वे ऐसे रचनाकार हैं, जो बहुत आसानी से अपने निजी अनुभवों को ऐसी जमीन दे देता है, जो निजीपन से बाहर निकलकर सबके अनुभव का हिस्सा बन जाते हैं. वे अपनी गंभीर और थका देने वाली कार्यालयीय जिम्मेदारियों के बीच शब्दों से भी जूझते रहते हैं. कई बार ऐसे ही क्षणों में भीतर कुछ चमकता है और उनकी सारी थकन मिट जाती है. वे मानते हैं कि एक अच्छा कवि होने के लिए एक अच्छा आदमी होना बहुत जरूरी है. उनके व्यवहार में भी यह नजर आता है. इसीलिये उनकी गजलें सीधे अपने पाठक से बतियाती हुई प्रस्तुत होती हैं.
साखी पर उनकी गज़लें पढ़कर शायर नीरज गोस्वामी ने कहा, रावत जी की बेजोड़ ग़ज़लों के साथ, इससे बेहतर साखी का आगाज़ नहीं हो सकता था. सकारात्मक सोच और ज़माने की दुश्वारियों को निहायत ख़ूबसूरती से रावत जी ने अपनी ग़ज़लों में प्रस्तुत किया है. ग़ज़ल के कहन में ताजगी और रवानी है. मेरी ढेरों दाद उन तक पहुंचाए. साखी को इस लाजवाब प्रस्तुति पर मेरी ढेरों शुभकामनाएं . नीरज ने रावत जी को कोट किया, "सारी कलाएं जीवन में आनंद की सृष्टि के लिये हैं लेकिन न जाने क्यों और किन लोगों ने काव्य कला को घटनाओं और दुर्घटनाओं का गोदाम बनाकर रख दिया है जिसमें घुसते ही साँस घुटने लगती है. " "मेरा सफ़र किसी मंच पर जाकर ख़त्म नहीं होता. मेरी मंज़िल आदमी के मन तक पहुँचने की है. मैं जानता हूँ यह बहुत कठिन काम है लेकिन आसानियों में मुझे भी कोई आनंद नहीं आता." और कहा कि अशोक जी के विचार उनकी ग़ज़लों की तरह ही प्रेरक हैं...कितनी सहजता से उन्होंने कितनी सच्ची बात कह दी है....नमन है उनकी कलम को.
तिलक राज कपूर ने कहा कि इन लाजवाब ग़ज़लों को पढ़कर; समझकर नतमस्तक । खूबसूरत भाव, कथ्य व शिल्प। नि:शब्द हूँ। कहीं-कहीं जो अटकाव दिखा वह शायद आप स्पष्ट कर सकें।
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता.
इस शेर में कुछ गंभीर समस्या है, पहली बात तो यह है कि बावज़्न होते हुए भी पहला मिस्रा प्रवाह में नहीं है जिसका मुख्य कारण इस बह्र के रुक्न 'मफ़ाईलुन्' की प्रकृति है। दूसरी समस्या यह है कि दूसरी पंक्ति कहती है कि पत्थर चेतनाविहीन होते हुए भी मनुष्यों की तरह निर्मम होता है। अचेतन से निर्मम का यह संबंध असंगत है। अगर यह भी मान लिया जाये कि पत्थर को अचेतन नहीं मनुष्यों जैसी चेतना से विहीन माना गया है तो काव्य-प्रवाह की दृष्टि से सरलता की समस्या है। इस शेर की मूल भावना यह ध्वनित होती है कि मनुष्य निर्मम होता है और पत्थर नहीं लेकिन गठन में यह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पा रहा है। इस शेर से ध्वनित बात जो मुझे समझ आई वो कुछ ऐसे है कि:
अगर पत्थर में होती चेतना इन्सान के जैसी
कोई पत्थर किसी इन्सान सा निर्मम नहीं होता।
या
मनुष्यों सी नहीं है चेतना, फिर भी कोई पत्थर
किसी इंसान के जैसा कभी निर्मम नहीं होता।
एक और बात ---
परिंदों की ज़रूरत है खुला आकाश भी लेकिन,
कहीं पर शाम ढलते ही ज़रूरी है ठिकाना भी.
खुला आकाश परिंदों की मुख्य ज़रूरत है लेकिन पहली पहली पंक्ति में ये ज़रूरत सामान्य हो गयी है. शेर में जो कहना चाहा गया है वह कुछ ऐसा लगता है कि:
खुले आकाश की चाहत परिंदों को रही लेकिन
ढले जब शाम तो उनकी ज़रूरत है ठिकाना भी.
देवी नागरानी का कहना है कि सब की सब ग़ज़लें अपने शायरी के फन से लबालब. पढ़ते हुए गुनगुनाहट का तत्व लिए हुए. रावत जी को मेरी शुभकमनयें इस सुंदर प्रस्तुति के लिए.
प्रतुल वशिष्ठ के मुताबिक 'गज़लकार' अपनी ही गजलों का श्रोता या पाठक होना नहीं चाहता. कभी-कभी 'कविता' या 'ग़ज़ल' को श्रोताभाव से पढ़कर दोहरे सुख को लेना भी नहीं छोड़ना चाहिये.
बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता,
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता. ......
को प्रतुल ने बहुत उम्दा शेर कहा.
भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता
को लाजवाब बताया.
डा त्रिमोहन तरल ने कहा, हिन्दी भाषा के संस्कारों और मानवीय सरोकारों से सराबोर ग़ज़लें आदरणीय रावतजी की ही हो सकतीं थीं . पढ़ने वालों को आनंद आना ही था. रावतजी को बधाई और राय साहब को धन्यवाद.
संजीव गौतम और सुमन ने भी साखी के पुनरारंभ की सराहना की.
२८ जुलाई शनिवार को पढ़िए शायर तिलकराज कपूर की रचनाएँ
शनिवार, 7 जुलाई 2012
अशोक रावत की ग़ज़लें
रचनाकार का वक्तव्य
----------------------- अशोक रावत |
बिना कलात्मकता के कोई कविता कविता नहीं हो सकती. जैसे बिना चीनी के कोई मिठाई, मिठाई नहीं हो सकती. लिखना मेरे लिये एक ज़िम्मेदारी का काम है, जिसे मैं ने लापरवाही से कभी नहीं निभाया. जो मैं ने जिया है वही लिखा है. मेरा लेखन किसी प्रतिबद्ध विचारधारा का वफ़ादार नहीं रहा. मेरी वफ़ादारी सिर्फ़ मानवीय सरोकारों से रही. मेरा सफ़र किसी मंच पर जाकर ख़त्म नहीं होता. मेरी मंज़िल आदमी के मन तक पहुँचने की है. मैं जानता हूँ यह बहुत कठिन काम है लेकिन आसानियों में मुझे भी कोई आनंद नहीं आता. मैं अपने लिये सिर्फ़ चुनौतियाँ चुनता हूँ और उनका सामना करने में अपने आप को खपा देता हूँ. सारे खतरे उठाकर सिर्फ़ सामना करता हूँ. जानता हूँ आदमी की ज़िंदगी में न कोई विजय अंतिम है न कोई पराजय. उसे तो हर रोज़ एक युद्ध करना है बिना हार जीत की परवाह करते हुए. कल की कभी ज़्यादा परवाह नहीं की. आज को जिया और पूरी निष्ठा से जिया. मेरी ग़ज़लें मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हैं. हाँ, इतना ज़रूर है कि मैं उन पर मेहनत करता हूँ. मैंने कितना लिखा , इस बात का मेरे लिये कोई अर्थ नहीं है, मेरे लिये इस बात का अर्थ है कि मैंने क्या लिखा है. कभी कभी ऐसा लगता है ये समाज और सारी संस्थाएं आदमी के शोषण का साधन बनके रह गई हैं.मेरी कविता मुझे हमेशा इनसे लड़ने का साहस देती है. मैं ने अपनी ग़ज़लों से इससे ज़्यादा कभी कुछ चाहा भी नहीं.
अशोक रावत की ग़ज़लें
-----------------------------
1.
बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता,
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता.
भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता.
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता.
तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते,
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता.
ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या,
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता.
परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की,
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता.
2
हमें भी ख़ूबसूरत ख़्वाब आँखों में सजाने दो,
हमें भी गुनगुनाने दो, हमें भी मुस्कराने दो.
हमें भी टाँगने दो चित्र बैठक में उजालों के,
हमें भी एक पौधा धूप का घर में लगाने दो.
हवाओं को पहुँचने दो हमारी खिड़कियों तक भी,
हमारी खिड़कियों के काँच टूटें टूट जाने दो.
हवा इतना करेगी बस कि कुछ दीपक बुझा देगी,
मुँडेरों पर सजा दो और दियों को झिलमिलाने दो.
समझने दो उसे माचिस का रिश्ता मोमबत्ती से,
जलाता है जलाने दो बुझाता है बुझाने दो.
हमें कोशिश तो करने दो समंदर पार करने की
हमारी नाव जल में डूबती है डूब जाने दो.
3.
फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता,
ख़ुशबू का अपना कोई घर द्वार नहीं होता.
हम गुज़रे कल की आँखों का सपना ही तो हैं,
क्यों मानें सपना कोई साकार नहीं होता.
इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है,
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता.
कितने ही अच्छे हों काग़ज़ पानी के रिश्ते,
काग़ज़ की नावों से दरिया पार नहीं होता.
हिम्मत हारे तो सब कुछ नामुमकिन लगता है,
हिम्मत कर लें तो कुछ भी दुश्वार नहीं होता.
वो दीवारें घर जैसा सम्मान नहीं पातीं,
जिनमें कोई खिड़की कोई द्वार नहीं होता.
4.
जिन्हें अच्छा नहीं लगता हमारा मुस्कराना भी,
उन्हीं के साथ लगता है हमें तो ये ज़माना भी.
इसी कोशिश में दोनों हाथ मेरे हो गये ज़ख़्मी,
चराग़ों को जलाना भी, हवाओं से बचाना भी.
अगर ऐसे ही आँखों में जमा होते रहे आँसू,
किसी दिन भूल जायेंगे खुशी में मुसकराना भी.
उधर ईमान की ज़िद है कि समझौता नहीं कोई,
मुसीबत है इधर दो वक़्त की रोटी जुटाना भी.
किसी ग़फ़लत में मत रहना, नज़र में आँधियों के है,
तुम्हारा आशियाना भी हमारा शामियाना भी.
परिंदों की ज़रूरत है खुला आकाश भी लेकिन,
कहीं पर शाम ढलते ही ज़रूरी है ठिकाना भी.
ज़ियादा सोचना बेकार है, इतना समझ लो बस,
इसी दुनिया से लड़ना है, इसी से है निभाना भी.
गूगल से साभार |
5.
आख़िर मौसम की मनमानी क्यों स्वीकार करूँ.
क्यों मैं फूलों से नफ़रत काँटों से प्यार करूँ.
क्या जैसी दुनिया है वैसा ही हो जाऊँ मैं,
और इन आँधी तूफ़ानों की जै-जैकार करूँ.
काग़ज़ की नावों को लेकर माँझी बैठे हैं,
इनके बूते मैं दरिया को कैसे पार करूँ.
इस मुद्दे पर मैं अपनी ग़ज़लों के साथ नहीं,
ग़ज़लें ये कहती हैं मैं उनका व्यापार करूँ.
मेरे अधिकारों को लेकर सब के सब चुप हैं,
अपनों से ही झगड़ा आखिर कितनी बार करूँ.
अपने हाथों के पत्त्थर तो मैंने फ़ेंक दिये,
लोगों को चुप रहने पर कैसे तैयार करूँ.
गाँधी के हत्यारे भी हैं गाँधी टोपी में,
इनके प्रस्तावों को मैं कैसे स्वीकर करूँ.
6.
ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलती कहीं अच्छी ख़बर,
हादसे ही हादसे अख़बार के हर पृष्ट पर.
दिल में बेचैनी बढ़ाने वाली घर की चिठ्ठियाँ,
खोलता हूँ जब लिफ़ाफ़ा तो मुझे लगता है डर.
अब न लपटें ही निकलती हैं न उठता है धुआँ,
जल रहा है एक ऐसी आग में मेरा शहर.
राहज़न ही लूट लेते इससे बेहतर था हमें,
जिस तरह से रास्ते में पेश आये राहबर.
उम्र भर के फ़ासले पर हैं हमारी मंज़िलें,
साथ में वीरानियाँ लेकर चले हैं हमसफ़र.
ऐसा लगता है अँधेरे की तरफ़दारी में हो,
जिस तरह सूरज निकलता है यहाँ आकाश पर.
रचनाकार के बारे में
शिक्षा: बी. ई. (सिविल इंजी), अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
जन्म: 15.नवम्बर 1953, गाँव मलिकपुर, ज़िला मथुरा में
भारतीय खाद्य निगम ज़ोनल आफ़िस नोएडा में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत
थोड़ा सा ईमान ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
हिंदी की प्रमुख राष्ट्रीय पत्र - पत्रिकाओं, ग़ज़ल संकलनों, इंटरनेट पत्रिकाओं, में रचनाओं का प्रकाशन. काव्य समारोहों में काव्य पाठ, रेडिओ और दूर-दर्शन से रचनाओं का प्रसारण.
स्थाई पता: 222, मानस नगर, शाहगंज, आगरा, 282010
E-mail:
ashokdgmce@gmail.com 2. ashokrawat2222@gmail.com
फोन: नोएडा: 09013567499 , आगरा: 09458400433
गुरुवार, 28 जून 2012
अशोक रावत की गज़लें 8 जुलाई को
अशोक रावत की गज़लें
साखी के अगले अंक में
रविवार 8 जुलाई को।
कविता, उसके स्वरुप, जीवन में उसकी जरूरत पर कवि की टिप्पणी के साथ।
साखी के अगले अंक में
रविवार 8 जुलाई को।
कविता, उसके स्वरुप, जीवन में उसकी जरूरत पर कवि की टिप्पणी के साथ।
शुक्रवार, 22 जून 2012
जाइबे को जगह नहीं, रहिबै को नहिं ठौर
मित्रों, लम्बे अन्तराल के बाद साखी को फिर से आरम्भ दे रहा हूँ। लीजिये कबीर के कुछ दोहों का भावान्तर प्रस्तुत है। यह प्रयास मैंने खुद किया है। देखिये कैसा बना है।
१.
कबीर यहु घर प्रेम का,
खाला का घर नाहिं.
शीश उतारे हाथि करि,
तब पैसे घर मांहि
--------------
नहीं तुम प्रवेश नहीं
कर सकते यहाँ
दरवाजे बंद हैं तुम्हारे लिए
यह खाला का घर नहीं
कि जब चाहा चले आये
पहले साबित करो खुद को
जाओ चढ़ जाओ
सामने खड़ी छोटी पर
कहीं रुकना नहीं
किसी से रास्ता मत पूछना
पानी पीने के लिए
जलाशय पर ठहरना नहीं
सावधान रहना
आगे बढ़ते हुए
फलों से लदे पेड़ देख
चखने की आतुरता में
उलझना नहीं
भूख से आकुल न हो जाना
जब शिखर बिल्कुल पास हो
तब भी फिसल सकते हो
पांव जमाकर रखना
चोटी पर पहुँच जाओ तो
नीचे हजार फुट गहरी
खाई में छलांग लगा देना
और आ जाना
दरवाजा खुला मिलेगा
या फिर अपनी आँखें
चढ़ा दो मेरे चरणों में
तुम्हारे अंतरचक्षु
खोल दूंगा मैं
अपनी जिह्वा कतर दो
अजस्र स्वाद के
स्रोत से जोड़ दूंगा तुझे
कर्णद्वय अलग कर दो
अपने शरीर से
तुम्हारे भीतर बांसुरी
बज उठेगी तत्क्षण
खींच लो अपनी खाल
भर दूंगा तुम्हें
आनंद के स्पंदनस्पर्श से
परन्तु अंदर नहीं
आ सकोगे इतने भर से
जाओ, वेदी पर रखी
तलवार उठा लो
अपना सर काटकर
ले आओ अपनी हथेली
पर सम्हाले
दरवाजा खुला मिलेगा
यह प्रेम का घर है
यहाँ शीश उतारे बिना
कोई नहीं पाता प्रवेश
यहाँ इतनी जगह नहीं
कि दो समा जाएँ
आना ही है तो मिटकर आओ
दरवाजा खुला मिलेगा.
२.
कबीर पूछै राम सूं ,
सकल भुवनपति राइ।
सबहीं करि अलगा रहौ,
सो विधि हमहिं बताइ।
----------------------
क्या करूं करघे का
कैसे छोड़ दूं इसे
सबका पेट पलता है
इसी के ताने-बाने से
बीवी बना ली हमने
झोपड़ी भी डाल ली
अब रोटी का क्या करूं
कौन जुटायेगा
नून, तेल, लकड़ी
कमाल तो अपना पुत्तर है
बात नहीं सुनता पर
कैसे घर से निकाल दूं
देखा नहीं जाता
पंडित, मुल्ला का पाखंड
वेद-कुरान का द्वंद्व
ढोंगियों का छल, फरेब
मन करता है
नोच लूं चुटिया
खुरच दूं त्रिपुंड
बाँग देने वालों के मुंह
पर ताले जड़ दूँ
तुम्हीं बताओ
आखिर चुप कैसे रहूं
तुमने तो रची दुनिया
त्रिभुवनपति कहलाये
पर जगत के झगड़े
निपटाने तो कभी न आये
परिवार बनाकर भी
सबसे अलग धूनी रमाये
बता दो न, आखिर कैसे
मैं भी रहूँगा बिल्कुल वैसे
3.
जाइबे को जगह नहीं
रहिबै को नहिं ठौर
कहै कबीरा संत हौं
अविगति की गति और
----------------
सूर्य जलकर
रौशनी देता है विश्व को
चंद्रमा, ग्रह, तारे
निरालंब गतिमान हैं
निरंतर, बिना टकराये
पृथ्वी अपनी धुरी पर
नाचती रहती है
अविरल, अनथक
अन्तरिक्ष में है धरा
परंतु कौन जानता है
कहां टिकी है धुरी
सृजन और विनाश का
क्रम टूटता ही नहीं कभी
जड़-चेतन पैदा होते हैं
क्षरित होते हैं और
नष्ट हो जाते हैं
सृष्टि, स्थिति, लय
का सिलसिला रुकता नहीं
कौन है इसके पीछे
सक्रिय अव्यक्त
निराधार, निर्विकार
किधर से पहुंचें
कहां है रास्ता
कहां रखें पांव
नहीं सूझता कोई ठांव
4.
जाका गुरु भी अंधला,
चेला खरा निरंध
अंधा- अंधा ठेलिया
दून्यू कूप पड़ंत
---------------
किससे पूछते हो
पता मंजिल का
जो कभी चला
ही नहीं उधर
जो कभी शिखर पर
चढ़ा ही नहीं
जो अपना रास्ता भी
नहीं पहचानता ठीक से
जिसकी आंखों में
काली चमक है
धोखे की, पाखंड की
जो जानता ही नहीं
रौशनी का मतलब
अंधे हो तुम भी शायद
तुम्हें नहीं चाहिए सच
नहीं चाहिए सूरज
नहीं चाहिए भोर
तुम हिस्सा बंटाना
चाहते हो सिर्फ
छद्म की कमाई में
अंधे की लकड़ी
आखिर कैसे बन
सकेगा दूसरा अंधा
दुर्गम पथ है यह
कांटों से भरा हुआ
सांप सी टेढ़ी-मेढ़ी
पसरी हैं जगह-जगह
गहरी घाटियां
सूखी घास में दबे हैं
मौत से मुंह बाये
निष्चेष्ट कुएं
न मंजिल का पता
न रास्ते की खबर
न द्रष्टा पथद्रष्टा
न विवेक की नजर
फिर जाओगे कैसे पार
दोनों एक दूसरे पर भार
5.
जीवन मृतक ह्वै रहे
तजै जगत की आस
तब हरि सेवा आपै करे
मति दुख पावै दास
---------------
मृत्यु का स्वागत
कर सकते हो जीतेजी
मार सकते हो
खुद को अपने ही
हाथ के खंजर से?
हां तो आओ तुम्हें
आवाज दे रहा है
परम योद्धा परम गुरु
कोई इच्छा तो शेष नहीं
है तो मत आना आगे
मर नहीं पाओगे तुम
ईर्ष्या, राग, द्वेष तो नहीं
मन के किसी कोने में
जांच लो ठीक से
अन्यथा श्वांस चलता
ही रहेगा निरंतर
बचे रहने की आस में
अनन्य भाव से आओ
कंचन, कीर्ति, कामिनी के
मोहांधकार को चीरकर
बिना चाह, बिना चिंता
आ जाओ संपूर्ण
समर्पण के साथ
तन, मन, प्राण
सौंप दो मुझे
तुम्हारे सारे कर्तव्य
ओढ़ लूंगा मैं
योग-क्षेम वहाम्यहम्
संपर्क --9455081894
विनीत खंड-6, गोमतीनगर, लखनऊ
कैसे छोड़ दूं इसे
सबका पेट पलता है
इसी के ताने-बाने से
बीवी बना ली हमने
झोपड़ी भी डाल ली
अब रोटी का क्या करूं
कौन जुटायेगा
नून, तेल, लकड़ी
कमाल तो अपना पुत्तर है
बात नहीं सुनता पर
कैसे घर से निकाल दूं
देखा नहीं जाता
पंडित, मुल्ला का पाखंड
वेद-कुरान का द्वंद्व
ढोंगियों का छल, फरेब
मन करता है
नोच लूं चुटिया
खुरच दूं त्रिपुंड
बाँग देने वालों के मुंह
पर ताले जड़ दूँ
तुम्हीं बताओ
आखिर चुप कैसे रहूं
तुमने तो रची दुनिया
त्रिभुवनपति कहलाये
पर जगत के झगड़े
निपटाने तो कभी न आये
परिवार बनाकर भी
सबसे अलग धूनी रमाये
बता दो न, आखिर कैसे
मैं भी रहूँगा बिल्कुल वैसे
3.
जाइबे को जगह नहीं
रहिबै को नहिं ठौर
कहै कबीरा संत हौं
अविगति की गति और
----------------
सूर्य जलकर
रौशनी देता है विश्व को
चंद्रमा, ग्रह, तारे
निरालंब गतिमान हैं
निरंतर, बिना टकराये
पृथ्वी अपनी धुरी पर
नाचती रहती है
अविरल, अनथक
अन्तरिक्ष में है धरा
परंतु कौन जानता है
कहां टिकी है धुरी
सृजन और विनाश का
क्रम टूटता ही नहीं कभी
जड़-चेतन पैदा होते हैं
क्षरित होते हैं और
नष्ट हो जाते हैं
सृष्टि, स्थिति, लय
का सिलसिला रुकता नहीं
कौन है इसके पीछे
सक्रिय अव्यक्त
निराधार, निर्विकार
किधर से पहुंचें
कहां है रास्ता
कहां रखें पांव
नहीं सूझता कोई ठांव
4.
जाका गुरु भी अंधला,
चेला खरा निरंध
अंधा- अंधा ठेलिया
दून्यू कूप पड़ंत
---------------
किससे पूछते हो
पता मंजिल का
जो कभी चला
ही नहीं उधर
जो कभी शिखर पर
चढ़ा ही नहीं
जो अपना रास्ता भी
नहीं पहचानता ठीक से
जिसकी आंखों में
काली चमक है
धोखे की, पाखंड की
जो जानता ही नहीं
रौशनी का मतलब
अंधे हो तुम भी शायद
तुम्हें नहीं चाहिए सच
नहीं चाहिए सूरज
नहीं चाहिए भोर
तुम हिस्सा बंटाना
चाहते हो सिर्फ
छद्म की कमाई में
अंधे की लकड़ी
आखिर कैसे बन
सकेगा दूसरा अंधा
दुर्गम पथ है यह
कांटों से भरा हुआ
सांप सी टेढ़ी-मेढ़ी
पसरी हैं जगह-जगह
गहरी घाटियां
सूखी घास में दबे हैं
मौत से मुंह बाये
निष्चेष्ट कुएं
न मंजिल का पता
न रास्ते की खबर
न द्रष्टा पथद्रष्टा
न विवेक की नजर
फिर जाओगे कैसे पार
दोनों एक दूसरे पर भार
5.
जीवन मृतक ह्वै रहे
तजै जगत की आस
तब हरि सेवा आपै करे
मति दुख पावै दास
---------------
मृत्यु का स्वागत
कर सकते हो जीतेजी
मार सकते हो
खुद को अपने ही
हाथ के खंजर से?
हां तो आओ तुम्हें
आवाज दे रहा है
परम योद्धा परम गुरु
कोई इच्छा तो शेष नहीं
है तो मत आना आगे
मर नहीं पाओगे तुम
ईर्ष्या, राग, द्वेष तो नहीं
मन के किसी कोने में
जांच लो ठीक से
अन्यथा श्वांस चलता
ही रहेगा निरंतर
बचे रहने की आस में
अनन्य भाव से आओ
कंचन, कीर्ति, कामिनी के
मोहांधकार को चीरकर
बिना चाह, बिना चिंता
आ जाओ संपूर्ण
समर्पण के साथ
तन, मन, प्राण
सौंप दो मुझे
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विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार विजय नरेश की स्मृति में ...
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मनोज भावुक को साखी पर प्रस्तुत करते हुए मुझे इसलिये प्रसन्नता हो रही है कि वे उम्र में छोटे होते हुए भी अपनी रचनाधर्मिता में अनुभवसम्पन्न...
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ओम प्रकाश यती ओम प्रकाश यती न केवल शब्दों के जादूगर हैं बल्कि शब्दों के भीतर अपने समय को जिस तरलता से पकड़ते हैं वह निश्चय ही उनके जैस...
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कबीर ने कहा, आओ तुम्हें सच की भट्ठी में पिघला दूं, खरा बना दूं मैंने उनके शबद की आंच पर रख दिया अपने आप को मेरी स्मृति खदबदान...