खेला होबे, खेला होबे
खूबे मेला-ठेला होबे
बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीरथ बरत न मेला। झोली पत्र बिभूति न बटवा, अनहद बैन बजावे। मांगि न खाइ न भूखा सोवे, घर अंगना फिरि आवे। पांच जना की जमाति चलावे, तास गुरू मैं चेला। कहे कबीर उनि देसि सिधाये बहुरि न इहि जग मेला।
खेला होबे, खेला होबे
खूबे मेला-ठेला होबे
मंगल की मंगल शुरुआत हुई। कल प्रिय भाई सदानन्द शाही का फोन आया कि वे लखनऊ की सीमा में हैं। रुकेंगे। मैंने कहा फिर कल मुलाकात होती है। और आज सुबह मैं जा पहुंचा सीआईएस टावर, जहां वे रुके हैं। हम पहली बार मिले लेकिन लगा कि हम पहले से मिलते रहे हैं, कई बार मिले हैं। दो लोग मिलते हैं तो केवल वे ही नहीं बतियाते, रूप-रंग भी बतियाते हैं, मुद्राएँ भी बतियाती हैं। हमारे बीच कहीं अजनबीपन नहीं था। इतनी आत्मीयता से मिले हम कि कोरोना भी उदास हो गया होगा, डर गया होगा। अब कितने दिन ये हमें डराता रहेगा। बहुत सारी बातें हुईं। मैं ही ज्यादा बोलता रहा। वे सुनते रहे।
आज के समय में जब हमारे पास किसी को भी सुनने का वक्त नहीं है, सदानन्द जी का पूरी सदाशयता और उत्सुकता से मुझे सुनना कोई साधारण बात नहीं थी। मैं उनकी विद्वत्ता से परिचित हूँ, उनके कवि से भी और आज उनकी उदारता से भी मिला। बहुत समय दिया उन्होंने। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव है। कई कारणों से। उसमें उनका कवि होना तो है ही, 'साखी' का निरंतर स्तरीय प्रकाशन भी है। वैसे तो 'साखी' के लगभग सारे ही अंक विशेषांक की तरह होते हैं लेकिन हमारे समय के बड़े कवि केदारनाथ सिंह पर केन्द्रित 'साखी' के अंक ने तो एक कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया था। वह जितने अपनत्व, जितनी आत्मीयता और जितने वैराट्य के साथ निकला था, वह अविस्मरणीय है। केदारनाथ सिंह के काव्य वैभव को समझने की एक बड़ी कोशिश की थी सदानन्द भाई ने 'साखी' के माध्यम से।
'साखी' का नया अंक भी आ गया है। जल्द ही आप के पास पहुंचेगा। सच कहूं तो सदानन्द जी के साथ बैठकर मैंने महसूस किया कि मैं एक ऐसे साथी के साथ बैठा हूँ, जिससे मैं बार- बार मिलता रहा हूँ। आज की मुलाकात का समय बहुत छोटा लगा मुझे। उन्हें कुछ कहने ही नहीं दिया लेकिन जब भी हम फिर मिलेंगे, खूब समय लेकर मिलेंगे और तब मैं कम बोलूंगा, उन्हें ज्यादा बोलने दूंगा। कविताएँ भी सुनूंगा। सुनाऊंगा भी।
कभी समकालीन सरोकार का लोगों को इंतज़ार रहता था। हर महीने कुछ नया लेकर आती थी। कुछ बड़े नाम। कुछ बड़ी बातें। नए रास्ते। नयी मंजिलें। बहुत उत्साह से, बड़ी मेहनत से मैं यह मासिक पत्रिका निकालता था। बहुत लगाव था उससे पर आर्थिक कारणों से एक वर्ष के आगे जारी रखना सम्भव नहीं हो पाया। कई बार आप चलते हैं कहीं के लिए और पहुँच जाते हैं कहीं। कभी लगता है जहाँ जा रहे थे, उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत जगह पर आ गए, कभी लगता है, अरे कहाँ आ फँसे। यहाँ कुछ भी निश्चित नहीं है। यह अच्छी बात है। अनिश्चितता का अपना आनंद है लेकिन अनिश्चितता ही जीवन बन जाए तो ठीक नहीं। किसी तलाश में अनिश्चय की अपनी भूमिका होती है। वह ठहरने और सोचने का मौक़ा देता है लेकिन कोई भी अनिश्चय किसी निश्चय के लिए हो तो उसकी सार्थकता है। मैं महसूस कर रहा हूँ कि मैं किसी निश्चितता से अनिश्चितता की ओर बढ़ रहा हूँ। यह अच्छे संकेत हैं। अच्छा क्या होगा, मुझे पता नहीं पर इस परिस्थिति में समकालीन सरोकार की याद आना कोई अर्थ ज़रूर रखता है। आइए इस अर्थ के खुलने की प्रतीक्षा करते हैं और तब तक यह कविता पढ़ते हैं ....
खेला होबे, खेला होबे खूबे मेला-ठेला होबे मानुष मगर अकेला होबे खेला होबे, खेला होबे धूप में नाहीं पाके रे केस हार के भइया जीते रे रेस हम ही र...