मंगल की मंगल शुरुआत हुई। कल प्रिय भाई सदानन्द शाही का फोन आया कि वे लखनऊ की सीमा में हैं। रुकेंगे। मैंने कहा फिर कल मुलाकात होती है। और आज सुबह मैं जा पहुंचा सीआईएस टावर, जहां वे रुके हैं। हम पहली बार मिले लेकिन लगा कि हम पहले से मिलते रहे हैं, कई बार मिले हैं। दो लोग मिलते हैं तो केवल वे ही नहीं बतियाते, रूप-रंग भी बतियाते हैं, मुद्राएँ भी बतियाती हैं। हमारे बीच कहीं अजनबीपन नहीं था। इतनी आत्मीयता से मिले हम कि कोरोना भी उदास हो गया होगा, डर गया होगा। अब कितने दिन ये हमें डराता रहेगा। बहुत सारी बातें हुईं। मैं ही ज्यादा बोलता रहा। वे सुनते रहे।
आज के समय में जब हमारे पास किसी को भी सुनने का वक्त नहीं है, सदानन्द जी का पूरी सदाशयता और उत्सुकता से मुझे सुनना कोई साधारण बात नहीं थी। मैं उनकी विद्वत्ता से परिचित हूँ, उनके कवि से भी और आज उनकी उदारता से भी मिला। बहुत समय दिया उन्होंने। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव है। कई कारणों से। उसमें उनका कवि होना तो है ही, 'साखी' का निरंतर स्तरीय प्रकाशन भी है। वैसे तो 'साखी' के लगभग सारे ही अंक विशेषांक की तरह होते हैं लेकिन हमारे समय के बड़े कवि केदारनाथ सिंह पर केन्द्रित 'साखी' के अंक ने तो एक कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया था। वह जितने अपनत्व, जितनी आत्मीयता और जितने वैराट्य के साथ निकला था, वह अविस्मरणीय है। केदारनाथ सिंह के काव्य वैभव को समझने की एक बड़ी कोशिश की थी सदानन्द भाई ने 'साखी' के माध्यम से।
'साखी' का नया अंक भी आ गया है। जल्द ही आप के पास पहुंचेगा। सच कहूं तो सदानन्द जी के साथ बैठकर मैंने महसूस किया कि मैं एक ऐसे साथी के साथ बैठा हूँ, जिससे मैं बार- बार मिलता रहा हूँ। आज की मुलाकात का समय बहुत छोटा लगा मुझे। उन्हें कुछ कहने ही नहीं दिया लेकिन जब भी हम फिर मिलेंगे, खूब समय लेकर मिलेंगे और तब मैं कम बोलूंगा, उन्हें ज्यादा बोलने दूंगा। कविताएँ भी सुनूंगा। सुनाऊंगा भी।
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