बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीरथ बरत न मेला। झोली पत्र बिभूति न बटवा, अनहद बैन बजावे। मांगि न खाइ न भूखा सोवे, घर अंगना फिरि आवे। पांच जना की जमाति चलावे, तास गुरू मैं चेला। कहे कबीर उनि देसि सिधाये बहुरि न इहि जग मेला।
शुक्रवार, 24 अगस्त 2012
शनिवार, 18 अगस्त 2012
ओम प्रकाश यती की ग़ज़लें
ओम प्रकाश यती |
1.
घर जलेंगे उनसे इक दिन तीलियों को क्या पता
है नज़र उन पर किसी की बस्तियों को क्या पता
ढूँढ़ती हैं आज भी पहली सी रंगत फूल में
ज़हर कितना है हवा में तितलियों को क्या पता
हाल क्या है ? ठीक है, जब भी मिले इतना हुआ
किसके अन्दर दर्द क्या है, साथियों को क्या पता
धूप ने, जल ने, हवा ने किस तरह पाला इन्हें
इन दरख्तों की कहानी आँधियों को क्या पता
जाएगा उनके सहारे ही शिखर तक आदमी
फिर गिरा देगा उन्हें ही सीढ़ियों को क्या पता
वो गुज़र जाती हैं यूँ ही रास्तों को काटकर
अपशकुन है ये किसी का, बिल्लियों को क्या पता
हौसले के साथ लहरों की सवारी कर रहीं
कब कहाँ तूफ़ान आए कश्तियों को क्या पता
वो तो अपना घर समझकर कर रहीं अठखेलियाँ
जाल फैला है नदी में मछलियों को क्या पता
2.
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझ सा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला
कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला
जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
3.
आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूप के तन पर गिरे अक्सर फिसल के देवता
बाढ़ की लाते तबाही तो कभी सूखा विकट
किसलिए नाराज़ रहते हैं ये जल के देवता
भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता
की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता
लोग उनके पाँव छूते हैं सुना है आज भी
वो बने थे ‘सीरियल’ में चार पल के देवता
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता
शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता
4.
बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है
कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है
छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है
भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है
भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम होती है तो तन्हा छूट जाता है
5.
दुख तो गाँव - मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में ख़ुद जरते आए बाबूजी
कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी
बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी
रोज़ वसूली कोई न कोई, खाद कभी तो बीज कभी
इज़्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी
हाथ न आया एक नतीजा, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट - कचहरी करते आए बाबूजी
नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी
जन्म 3 दिसम्बर सन् उन्नीस सौ उन्सठ को बलिया, उत्तर प्रदेश के “ छिब्बी " गाँव में.
प्रारंभिक शिक्षा गाँव में. सिविल इंजीनियरिंग तथा विधि में स्नातक और हिंदी साहित्य में एम.ए. ग़ज़ल संग्रह " बाहर छाया भीतर धूप" राधाकृष्ण प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित.
कमलेश्वर द्वारा सम्पादित हिन्दुस्तानी ग़ज़लें, ग़ज़ल दुष्यंत के बाद....(1), ग़ज़ल एकादशी तथा कई अन्य महत्वपूर्ण संकलनों में ग़ज़लें सम्मिलित.
नागपुर में आयोजित प्रसार भारती के सर्व भाषा कवि-सम्मलेन में कन्नड़ कविता के अनुवादक कवि के रूप में भागीदारी.
सम्प्रति : उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता पद पर कार्यरत . ई-मेल:yatiom@gmail.com
सोमवार, 13 अगस्त 2012
कहन की बारीकियाँ जरूरी
तिलक राज कपूर की गजलों पर चर्चा हुई. कुछ गंभीर बातें हुईं। अशोक रावत ने कहा, ग़ज़ल
कोई रचनाकार कैसे लिखता है, इस विषय को पाठक शायद ही कोई महत्व देते हों
पाठक का सरोकार तो सिर्फ रचनाओं की गुणवत्ता से होता है. कुछ लोगो
को यह बात बुरी लग सकती है लेकिन देवनागरी लिपि में बिना उर्दू जानने वाले
उर्दूमिज़ाज के रचनाकारों की गज़लें हों या हिंदी के रचनाकारों की
गज़लें,भाषा के मुहावरे के प्रति उदासीनता(शायद अज्ञानता) और अपनी ग़ज़लों
को परखने के लिये अलग नज़र, कुछ ऐसे कारण हैं जिससे ख़याल अच्छा होते हुए भी
बात बनते बनते रह जाती है.ग़ज़ल सदैव कहन के लिये याद की जाती रही है और
रहेगी. कहन का सीधा रिश्ता भाषा के मुहावरे से है. कोई बच्चन जी के गीत पढ़
कर देखे और फिर ग़ज़ल की कहन से तुलना करे. इस कहन और हिंदी भाषा के सौंदर्य
का सबसे सटीक उदाहरण मधुशाला है. हिंदी भाषा के वैभव को
ग़ज़ल अभी छू भी नहीं पाई है. जिन्होंने कोशिश की वे सिर्फ़ भाषा की
फ़िक्र में रहे, गज़ल को भूल गये. ग़ज़ल की बारीकियाँ कहन की बारीकियाँ ही
हैं.
मैं कोई उस्ताद नहीं इसलिये किसी की रचनाओं पर सार्वजनिक रूप से
टिप्पणी करना उचित नहीं समझता, जब तक कि कोई ख़ुद ही न कहे. कोई किसी को
नहीं समझा सकता.
तिलक राज कपूर
ने विनम्रतापूर्वक कुछ कमियां, आज के जीवन की कुछ सीमाएं स्वीकार कीं।
मुझे लगता है कि अच्छी ग़ज़ल या काव्य कहने के लिये विशद् शब्द-ज्ञान के
साथ-साथ काव्य के तत्वों का भी गहन अध्ययन होना चाहिये और मुझे यह
स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि इनके लिये मैं समय नहीं देता। बहुत हुआ
तो किसी ने कोई कमी बताई तो उसका भविष्य में ध्यान रखने का प्रयास किया।
शायद यही आज के अधिकॉंश ग़ज़ल या अन्य काव्य कहने वालों की स्थिति है
अन्यथा सशक्त हस्ताक्षरों की कमी न होती। एक अंतर और है जो स्पष्ट है,
वह यह कि इतिहास के सशक्त हस्ताक्षर साहित्य के अतिरिक्त किसी अन्य
माध्यम से परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था करते भी थे तो वह भी लेखन के
आस-पास का ही व्यवसाय होता था। मॉं सरस्वती की विशेष कृपा एक विशिष्ट
स्थिति हो सकती है अन्यथा स्तरीय साहित्य सृजन समय मॉंगता है जबकि आज का
युग मात्रा में अधिक विश्वास रखता है।
रचना को कुछ समय छोड़कर फिर से पढ़ने से मुझे लगता है कि आत्ममुग्धता की
स्थिति से बचा जा सकता है।दिगंबर नासवा ने कहा कि शिल्प के माहिर और विशिष्ट अंदाज़ में अपनी बात रखने वाले तिलक जी नेट पे गज़ल कहने वालों में एक जाना पहचाना नाम हैं. उनकी गज़लों का खजाना एक साथ देख के मज़ा आ गया. हर गज़ल लाजवाब शेरों से सज्जित है. युगों की प्यास का मतलब उसी से पूछिये साहब जिसे मरुथल में मीलों तक कहीं बादल नहीं मिलता. कितनी आसानी से अपनी बात को रक्खा है. ये हुनर तिलक जी के पास ही है. हमको न इस की फि़क्र हमें किसने क्या कहा, जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं। बेबाकी से कही गई है यह बात. रात हो या दिन, कभी सोता नहीं, सूर्य का विश्राम पल होता नहीं। थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला। मतले ही इतने लाजवाब हैं की दांतों तले ऊँगली अपने आप ही आ जाती है.
गजलकार नीरज गोस्वामी का कहना है कि तिलक जी बहुत निराले शायर हैं...लाखों में एक...सबसे बढ़िया बात ये है के वो जितने अच्छे शायर हैं उस से भी अच्छे और प्यारे इंसान हैं और जैसी प्रतिभा उनमें है वैसी इश्वर हर किसी को नहीं देता...आसपास की चीजों पर उनकी पकड़ ग़ज़ब की है...मैंने कई बार देखा है जिस शेर पर माथापच्ची करने के बाद मैं उनकी शरण में मदद के लिए जाता हूँ वो उसे चुटकी में कह देते हैं....ये ग़ज़लें मेरी उनके बारे में व्यक्त की गयी धारणा की पुष्टि करती हैं... उनकी ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व और सोच का आइना हैं... जुनूँ की हद से आगे जो निकल जाये शराफ़त में, हमें इस दौर में ऐसा कोई पागल नहीं मिलता। जैसा शेर जैसे उन्होंने ने अपने लिए ही कहा है. तिलक जी की रचना प्रक्रिया जटिल नहीं है वो आसान और ठोस शब्दों में अपनी बात कहते हैं और ये ही उनकी बहुत बड़ी खूबी है. चेहरा पढ़ें हुजूर नहीं झूठ कुछ यहॉं कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं। हमेशा हँसते हंसाने वाले तिलक जी ही ऐसा शेर कह सकते हैं कहा किसी ने बुरा कभी तो, चुभन हमेशा, रही दिलों में कभी किसी को, लगे बुरा जो, न बोल ऐसा जहन में आए। उनकी हर ग़ज़ल से हम ज़िन्दगी जीने का सलीका सीखते हैं।
तिलक जी की विनम्रता का कोई जोड़ नहीं है, कहते हैं, प्रशंसा तो इंसान को अतिरिक्त उर्जा देती ही है लेकिन कहीं कोई दोष छूट गया हो तो वह इंगित होने से भविष्य के लिये सुधार होता है।
मशहूर ब्लॉगर रविन्द्र प्रभात का मानना है की तिलक जी की गजलों का स्वाद बेहद मीठा और कहने का अंदाज तीखा लगता है । विंब और कथ्य बिलकुल अलग किन्तु शिल्प से कोई समझौता न होना इनकी गज़लों की सबसे बड़ी विशेषता है । अपनी गज़लों की मजाई के बारे में इन्होंने साफ-साफ कह दिया है, इसलिए उसपर किसी भी प्रकार की टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है । इनकी गज़लों को पढ़ने के बाद जुबान से आह भी निकलती है और बाह भी । बेहद सुंदर और सारगर्भित गजल के लिए आभार. मदन मोहन शर्मा ने कहा, सार्थक और सुन्दर रचनाएँ. निर्मला कपिला का मानना है, तिलक भाई की गज़लों के क्या कहने. मै तो उन्हे पढने को हमेशा लालायित रहती हूँ। अभी कम्प्यूटर बन्द करने वाली थी कि तिलक पढ कर बन्द नही कर पाई बस एक ब्लाग पढना ही सफल रहा। उनकी उस्तादाना गज़लों पर मै क्या कहूँगी। एक से बढ कर एक। उनसे बहुत कुछ सीखा है। आशा है आगे भी उनका योगदान बना रहेगा।
18 अगस्त शनिवार को ओम प्रकाश यती की ग़ज़लें
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