ओम प्रकाश यती |
1.
घर जलेंगे उनसे इक दिन तीलियों को क्या पता
है नज़र उन पर किसी की बस्तियों को क्या पता
ढूँढ़ती हैं आज भी पहली सी रंगत फूल में
ज़हर कितना है हवा में तितलियों को क्या पता
हाल क्या है ? ठीक है, जब भी मिले इतना हुआ
किसके अन्दर दर्द क्या है, साथियों को क्या पता
धूप ने, जल ने, हवा ने किस तरह पाला इन्हें
इन दरख्तों की कहानी आँधियों को क्या पता
जाएगा उनके सहारे ही शिखर तक आदमी
फिर गिरा देगा उन्हें ही सीढ़ियों को क्या पता
वो गुज़र जाती हैं यूँ ही रास्तों को काटकर
अपशकुन है ये किसी का, बिल्लियों को क्या पता
हौसले के साथ लहरों की सवारी कर रहीं
कब कहाँ तूफ़ान आए कश्तियों को क्या पता
वो तो अपना घर समझकर कर रहीं अठखेलियाँ
जाल फैला है नदी में मछलियों को क्या पता
2.
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझ सा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला
कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला
जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
3.
आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूप के तन पर गिरे अक्सर फिसल के देवता
बाढ़ की लाते तबाही तो कभी सूखा विकट
किसलिए नाराज़ रहते हैं ये जल के देवता
भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता
की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता
लोग उनके पाँव छूते हैं सुना है आज भी
वो बने थे ‘सीरियल’ में चार पल के देवता
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता
शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता
4.
बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है
कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है
छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है
भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है
भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम होती है तो तन्हा छूट जाता है
5.
दुख तो गाँव - मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में ख़ुद जरते आए बाबूजी
कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी
बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी
रोज़ वसूली कोई न कोई, खाद कभी तो बीज कभी
इज़्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी
हाथ न आया एक नतीजा, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट - कचहरी करते आए बाबूजी
नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी
जन्म 3 दिसम्बर सन् उन्नीस सौ उन्सठ को बलिया, उत्तर प्रदेश के “ छिब्बी " गाँव में.
प्रारंभिक शिक्षा गाँव में. सिविल इंजीनियरिंग तथा विधि में स्नातक और हिंदी साहित्य में एम.ए. ग़ज़ल संग्रह " बाहर छाया भीतर धूप" राधाकृष्ण प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित.
कमलेश्वर द्वारा सम्पादित हिन्दुस्तानी ग़ज़लें, ग़ज़ल दुष्यंत के बाद....(1), ग़ज़ल एकादशी तथा कई अन्य महत्वपूर्ण संकलनों में ग़ज़लें सम्मिलित.
नागपुर में आयोजित प्रसार भारती के सर्व भाषा कवि-सम्मलेन में कन्नड़ कविता के अनुवादक कवि के रूप में भागीदारी.
सम्प्रति : उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता पद पर कार्यरत . ई-मेल:yatiom@gmail.com
क्या यह एक संयोग भर है कि लगातार तीसरा सिविल इंजीनियर ग़ज़लों के साथ प्रस्तुत है और वह दुष्यंत कुमार के रंग में डूबा हुआ। भाई बड़ी दमदार ग़ज़ल हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंYUN TO OM PRAKASH ` YATI ` JI KEE SABHEE GAZALEN ACHCHHEE HAIN LEKIN PAHLEE GAZAL KAA KOEE JAWAAB NAHIN . USKAA EK - EK
जवाब देंहटाएंSHER DIL MEIN UTARTAA HAI . UNKEE ANYA GAZAL KA EK MISRAA HAI ` DEKHIYE AATE HAIN AB KAB TAK NIKAL KE DEVTA ` . IS MISRE
MEIN ` KAB TAK ` KE SAATH ` AB ` KAA ISTEMAL MUJHE ACHCHHAA NAHIN LAGAA . OM PRAKASH ` YATI ` JI KEE GAZALEN PADHWAANE KE
LIYE SUBHASH RAI JI KAA HAARDIK DHANYAWAAD .
MUJHE KHED HAI KI KUCHH ASWASTHTA KE KAARAN MERE PRIY TILAK RAJ KAPOOR KEE PYAAREE - PYAAREE GAZALON PAR DO SHABD BHEE MAIN
LIKH NAHIN PAAYA .
आदरणीय प्राण जी,
हटाएंमुझे आपका स्नेह निरंतर मिल रहा है...आभारी हूँ॰
आद. सुभाष जी, यती जी को पढ़ने का सौभाग्य पहले भी मिला है...आज आपके ब्लॉग के माध्यम से और उम्दा कलाम पढ़ने को मिला.
जवाब देंहटाएंबधाई.
भाई शाहिद जी,
हटाएंआपकी प्रतिक्रियाएँ मेरा संबल हैं....
जवाब देंहटाएंजाएगा उनके सहारे ही शिखर तक आदमी
फिर गिरा देगा उन्हें ही सीढ़ियों को क्या पता
अब इससे आगे गज़ल और
क्या होगी
जाएगा उनके सहारे ही शिखर तक आदमी
फिर गिरा देगा उन्हें ही सीढ़ियों को क्या पता
-, 20 अगस्त 2012
सर्दी -जुकाम ,फ्ल्यू से बचाव के लिए भी काइरोप्रेक्टिक
भाई वीर्न्द्र शर्मा जी,
हटाएंग़ज़ल पढ़ने और टिप्पणी देने के लिए आभार..
यति जी की गज़लें एकदम दिल के करीब से निकलीं...और दिल तक पहुँचीं...
जवाब देंहटाएंज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
क्या बात है...
आदरणीय भाई,
हटाएंस्नेह के लिए आभार....
एक लंबे अरसे ले बाद लौटा हूँ. घर लौटने जैसा लग रहा है. काफी दिनों तक साखी खामोश रही और अपने तबादले के कारण मैं नेट से दूर रहा. शायद इतनी कैफियत बनती है सुभाष जी की खातिर.
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉग की दुनिया और आज ओम प्रकाश यती साहब की ग़ज़लों को देखकर मुझे श्रीलाल शुक्ल और मनोहर श्याम जोशी जी की याद आ गयी. आपको अटपटा लगेगा. ये दोनों साइंस के ग्रैज्युट थे, मगर अदब की दुनिया में इनका कोई सानी नहीं. ब्लॉग की दुनिया में जितने भी अदबी लोग मिले तकरीबन ८०% इंजीनियर. और आज एक और इंजीनियर साहब से मुलाक़ात हो गयी उनकी ग़ज़लों के मार्फ़त. सिविल इंजीनियर हैं, लिहाजा ग़ज़लों और अशार को इस तरतीब से तराशा है कि हर शे’र का हुस्न निखर कर सामने आ गया है.
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सुभाष जी, सबसे पहले मैं गज़ल की तरतीब के बारे में कहूँगा कि पिछली बारी में मैंने यही बात कही थी जो आज देखने में आ रही है. एक के बाद दूसरी गज़ल बेहतर से बेहतरीन होती गयी है. पहली गज़ल, लफ़्ज़ों की बुनाई के हिसाब से बहुत अच्छी है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं कि मुँह से ‘कमाल’ निकल जाए. पहले कहीं सुनी-सुनाई सी बातें लगती हैं.
लेकिन अपनी बातों को वापस लेने का जी चाहता है जब अगली गज़ल के इन दो शे’र से सामना होता है:
जवाब देंहटाएंकहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
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ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
इन दोनों शेर पर बेसाख्ता “वाह” निकल जाती है.
तीसरी गज़ल में देवता को इतने रूप में पेश किया है कि आसमान से लेकर धरती और यहाँ तक कि नकली (टीवी सीरियल वाले) देवताओं को भी इन्होंने नहीं बख्शा है. मगर मासूमियत से भरा शेर है
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता.
जिसे पढकर अपना बचपन याद आ जाता है. मेरा सबसे पसंदीदा शेर है यही. और अगले ही शेर में बयान कडवी सचाई :
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता.
अगली गज़ल में “सहसा” खटकता है मतले के अंदर और मतले छिपा फलसफा खुलकर सामने नहीं आ पाया. आसान से अशार और एक अच्छी गज़ल. मक्ते में छिपा दर्द बहुत ही खुलकर सामने आया है.
जवाब देंहटाएं/
और आखिर में बाबूजी का पोर्ट्रेट. इस गज़ल का मर्म वही समझ सकता है जिसने “वो ज़माना” देखा है. एक-एक शेर के साथ लगता है जैसे एक तस्वीर उभरती जाती है और मक्ते तक आकर एक मुकम्मल तस्वीर धोती, कुर्ता, टोपी लगाए बाबूजी की. एक स्केच है यह गज़ल और शायद याद दिलाए कितने घरों में फ्रेम में जड़े बाबूजी की.
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आखिर में बस इतना ही कि यती साहब की ग़ज़लों में सादाबयानी है और एक्सप्रेशन की क्लैरिटी है. कुल मिलाकर इंजीनियर साहब एक अच्छे शायर है और इनकी गज़लें मुतासिर करती हैं.
आदरणीय वन्धु,
हटाएंग़ज़लों की समीक्षा के रूप में मिले आपके स्नेह के लिए आभार...
यति जी की ग़ज़लें समाज की सच्चाइयों से जुडी ... उनपे गहरा कटाक्ष करती हुयी हैं ... किस एक गज़ल को यहाँ कोट करना आसान नहीं ... बस आनद ही लिया जा सकता है ...
जवाब देंहटाएंआदरणीय दिगम्बर जी,
हटाएंस्नेह के लिए आभार....
ओम प्रकाश यती जी मेरे मित्र हैं लेकिन उनसे मित्रता का पहला कारण उनकी ग़ज़लें ही हैं. भाषा के मुहाबरे पर उनकी पकड़, कहन का मासूम अंदाज़ और अपने आस पास की दुनिया मे रमे यती जी अलग खड़े नज़र आतेहैं. कोई बनावट नहीं,कोई सजावट नहीं, कोई आकृमकता नहीं, कोई शिकायत नहीं, कोई धारा नहीं,कोई नारा नहीं बस सीधी-सादी बातें और मासूम अंदाज़. उनकी गज़लें एक दिन हिंदी गज़लों की पचान बनेंगी मेरा पक्का विश्वास है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय भाई रावत जी,
हटाएंआपके साथ ग़ज़ल को लेकर होती चर्चाएं अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी रहती हैं॰
हालांकि ऐसे अवसर बहुत अधिक नहीं मिल पा रहे हैं.फिर भी.....
-आपका ओमप्रकाश यती
Bhaut khub behtrin rachna :)
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