साखी पर प्राण शर्मा जी की गजलें प्रस्तुत कर मैं भी तितलियों की इन्द्रधनुषी उड़ान में अलमस्त डोलने लगा था, अशोक रावत जी ने भीतर चलती आँधियों का जिक्र भी किया पर जैसे मैंने सुना ही नहीं| अली कली ही सो विध्यो, वाला हाल था, आगे कौन हवाल की चिंता ही नहीं थी पर जब तितलियाँ उड़ चलीं आकाश तो मेरी नींद टूटी| अब लगता है कि सामना तो आँधियों से ही है, चाहे वो तितलियों के मासूम पंखों ने ही क्यों न पैदा की हो| राजेश उत्साही कहते हैं कि कापियां किसी तरह जँच ही जायेंगीं और कुछ लाल, पीला करके कक्षाध्यापक पेश कर ही देगा पर भाई चार सवालों के इतने जवाब हैं कि मैं क्या करूं, समझ में नहीं आता| हाँ, पहली बार ये जरूर लगा कि सोचने के अपने-अपने तरीके रखने वाले शायरों, रचनाकर्मियों और चिंतनशील पाठकों को एक मंच पर खुलकर बतियाते देखना तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन उनकी बतकही को एक धागे में पिरोकर रखना बहुत मुश्किल काम है| प्राण जी ने याद दिलाया, इस पार प्रिये तुम हो मधु है, उस पार न जाने क्या होगा, पर वे लोगों से यह भी कह गये कि इस पार आना, यानी मैं समझता हूँ उस पार न जाना, पता नहीं क्या हो, कहीं भटक गये तो| इस पार रहे तो इतने लोग हैं कि कम से कम भटकने तो नहीं देंगे| रावत जी हैं, तिलकराज जी हैं, राजेश उत्साही हैं, संजीव गौतम हैं, सलिल जी हैं, नीरज जी है, सर्वत जी हैं और बहुत से चाहने वाले हैं| उस पार का क्या भरोसा| प्राण जी की फूलों के आर-पार जाने वाली तितलियों ने भी लोगों को बहुत छकाया| किसी को सहज लगीं, किसी को असहज| फ़िल्मी गाने में तो वे आकाश चलीं थीं पर प्राण जी ने उन्हें फूलों के आर-पार जाते हुए देखा| यह प्राण जी की तितलियाँ हैं, वे उन्हें अपनी नजर से देख सकते हैं, इसमें असहज कुछ नहीं लगता, बशर्ते वे इस शेर की रचना का सन्दर्भ न देते| फिर भी कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कविता में आये किसी सन्दर्भ को उसके यथातथ्य भौतिक रूप में देखने और समझने की कोशिश नहीं होनी चाहिए| किसी ने बहुत सही बात कही, इश्क दिल को चीर जाता है, आँखें मन के भीतर तक झाँक लेती हैं तो तितलियाँ फूल को घायल किये बगैर उसके आर-पार क्यों नहीं जा सकतीं|
प्राण जी के बहाने इस बार गजलों पर बहुत सार्थक चर्चा हुई| जमकर बातें हुई| लगा साखी ने अपनी सार्थकता की दिशा में कुछ कदम बढ़ाए| तिलकराज जी खुश थे कि उन्हें तरही का मसाला मिल गया| पर अपनी खुशी जाहिर करके ही वे चुप नहीं बैठे| उन्होंने कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं दिया| बोले, मैंने ग़ज़ल की चार आधार आवश्यकतायें पहचानी हैं, तखय्युल, तग़ज़्जुल, तवज़्ज़ुन, तगय्युल| प्राण साहब की ग़ज़लों में कोई उर्दू शब्द आता भी है तो वह ऐसा होता है जो बोलचाल की हिन्दी में रच बस गया हो। सीधी सच्ची सी बातें, शब्दाडम्बर रहित। उन्होंने एक शेर पर चर्चा की--नफरत का भूत नित मेरे सर पर सवार है, क्या हर कोई ए दोस्तो इसका शिकार है| कहा, पहली पंक्ति पढ़कर शायर जब ठहरता है तो मजबूर करता है दूसरी पंक्ति की प्रतीक्षा के लिये और दूसरी पंक्ति में जब वह कहता है कि 'क्या हर कोई ए दोस्तो इसका ' तो सुनने वाला बेसाख्ता बोल उठता है 'शिकार है'। यही एक पुष्ट शेर की पहचान है। शायर के पास एक सवालाना खयाल है, वह आपसे ही सवाल पूछकर आपको सोचने के लिये मजबूर कर रहा है। बाकी ग़ज़लों के अशआर भी देखें, कहीं सवाल तो कहीं दृश्यानुभूति की अभिव्यक्ति|
सलिल जी साखी पर नहीं आयें तो भी आये जैसे लगते हैं| शायद प्राण जी को ऐसा ही कुछ लगा होगा| उनके याद करते ही सलिल जी प्रकट हुए अपनी विनम्रता जताने, फिर अपने अंदाज में आये, पहली गजल एक मासूम सी गज़ल, बच्चों की मुस्कुराहट की मानिन्द| “जब से जाना काम है मुझको बनाना आपका” में रोज़मर्रा की बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले मुहावरे को इस क़दर ख़ूबसूरती से पिरोया है कि इस शेर की मासूमियत पर हँसी आ जाती है| वे कहते हैं कि पूरी ग़ज़ल में मुझे चोट पहुंचाया इस शेर ने---क्यों न लाता मँहगे- मँहगे तोहफे मैं परदेस से, वरना पड़ता देखना फिर मुँह फुलाना आपका| महँगे महँगे तोहफों की बात सारे जज़्बात को हल्का कर जाती है| दूसरी ग़ज़ल किसी फुलवारी में बैठकर कही गई है, इसे मैं नर्सरी राईम कहना चाहूँगा| पर यहाँ मतले और चौथे शेर में कुछ खटक रहा है जब कि पाँचवें शेर में फूलों के आर-पार तितलियों का उड़ना अखरता है। फूलों के दर्मियान उड़ना तो सुना था पर आर पार नहीं सुना| तीसरी ग़ज़ल एक साँस में पढ़ी जाने वाली, मकते से मतले तक बाँध कर रखती है| चौथी गजल में तंज़िया मिजाज़ है, तंज़ आज के माहौल पर, जहाँ नफ़रत का भूत सबके सिर पर सवार है| मकते पर तो इंतिहाँ कर दी, यह कहकर कि बच्चा इस दौर का होशियार है| प्राण साहब की ग़ज़लें एक ऐसा सफर हैं, जिसमें वक़्त का पता नहीं चलता| वे अपने आप में एक ईदारा हैं, उनकी ग़ज़लों पर बस इतना ही कहने को रह जाता है कि क्यों न मैं नित ही करूँ तारीफ़ उसकी,इल्म में वो आदमी मुझसे बड़ा है|
सलिल जी ने तिलकराज कपूर को फिर आने को विवश कर दिया, बिहारी ब्लॉगर साहब खूब सार्थक चर्चा करते हैं, उनके लिये कह सकता हूँ कि मेरा तो सर भी वहॉं तक नहीं पहुँच पाता, जहॉं कदम के निशॉं आप छोड़ आये हैं। प्राण साहब कभी निहायत निजी पलों में ले जाते हैं तो कभी बतियाने लगते हैं| 'क्यों न लाता ......मुँह फुलाना आपका' में यही दिखाई पड़ रहा है। फूल के आर-पार तितलियों का उड़ना तो व्यावहारिक नहीं लेकिन बगीचे में बैठकर फूलों की चादर के आर-पार उड़ने की कल्पना करें तो इस शेर की कोमलता का आनंद ही कुछ और है। कपूर साहब ने बार-बार दखल दिया| राजेश उत्साही की टिप्पणी के बाद होशियार शब्द पर चर्चा करते हुए कहा, यह अनेकार्थक है-बुद्धिमान, अक्लमंद, चतुर, सचेत, दक्ष, कुशल, जागरूक और माहिर जैसे अर्थ लिये हुए और चालाक, छली, ठग का अर्थ देते हुए भी । इसका अर्थ संदर्भ से जोड़कर ही देखा जा सकता है अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जायेगा। प्राण जी की उम्र में बैठा शायर अपने ज़माने के बच्चे को सरल और भोला-भाला मानते हुए भी मानता है कि उस दौर में भी बच्चे को होशियार होना चाहिये था जैसा कि आज का बच्चा है और उसी पृष्ठभूमि में आज के बच्चे के प्रति प्रसन्नता व्यक्त कर रहा है। हमारे बच्चे इतने होशियार हो गये हैं कि हमारे बिना भी अपना रास्ता बना लेंगे।
गिरेंगे, उठेंगे, फिर आगे बढ़ेंगे,
हमारे बिना भी ये जीवन जियेंगे।
शायर संजीव गौतम ने सलाह दी अब तक जितनी बातें आदरणीय प्राण जी, अशोक रावत जी, सर्वत जमाल जी, चन्द्रभान भारद्वाज जी, तिलकराज कपूर जी, सलिल जी और जिस-जिसने भी ग़ज़ल के ढांचे, उसकी आत्मा आदि के बारे में कहीं, उन सबके साथ अगर उदाहरण अगर किसी को समझने हों तो साखी पर आदरणीय ओमप्रकाश नदीम जी, अशोक रावत जी और प्राण सर की ग़ज़लें गौर से पढ़ें। सारे भ्रम और अनसुलझे सवालों के उत्तर मिल जायेंगे। कपूर जी ने एक शेर ‘नफरत का भूत‘ में शिकार शब्द को लेकर जो कहा है, उसे मैं एक और शब्द देता हूं- जहां शायर पाठक की सोच से आगे जाकर अपनी बात कहता है, वहां उत्पन्न होता है, ‘अर्थ का विस्फोट‘ यही ग़ज़लपन है। यही ग़ज़ल की कहन है। यह अर्थ का विस्फोट रचना में जहां-जहां होगा, वहीं-वहीं कविता होगी। यही वो बात है जो साधना से आती है। कपूर जी फिर आये और कहा कि संजीव गौतम ने बहुत अच्छी बात कही ग़ज़लियत के प्रस्फुटन की। काफि़या स्तर पर सामान्यतय: दो स्थितियां हो सकती हैं, एक तो यह कि वहॉं एक अनपेक्षित काफि़या निकले और शेर का अर्थ एकाएक प्रकट हो और श्रोता वाह-वाह कह उठे, दूसरी यह कि काफि़या श्रोता के मुख से निकले। पहली स्थिति बहुत कठिन होती है, हॉं ग़ज़लियत के लिये इतना जरूरी है कि पहली पंक्ति से श्रोता काफि़या का अनुमान न लगा पाये और दूसरी पंक्ति में भी काफि़या से जितनी दूरी हो उतनी ही दूरी काफि़या का अनुमान लगाने से हो, इतना भी कर लिया तो काफ़ी होगा। संजीव खुश है कि अच्छी बातें हो रही हैं| उन्होंने कहा, इस बार रचनाएं अच्छी आयीं तो बातें भी अच्छी-अच्छी हो रहीं हैं। रिश्तों की डोर मजबूत से मजबूत होती जा रही है। आज तक आलोचनात्मक कविता पाठ की चौपाल ज्यादा दिनों तक कभी चली नहीं है। ये चुनौती है हर कवि और कविता के पाठक के लिए। जो भी दिल से मनुष्य है, संवेदना से युक्त है और मन-प्राण से इस कायनात की खूबसूरती को बचे हुए देखना चाहता है, उसे अपनी पूरी ताकत से इसे बचाने के लिए अपना योगदान देना होगा। ये क्रम कभी टूटे नहीं, चेहरे बेशक बदल जायें उत्तरदायित्व में परिवर्तन नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये सिलसिला अगर टूटा तो बहुत कुछ टूटेगा। हम सब समय के संक्रमण काल में जी रहे हैं। सच बोलने की तो बात दूर मुंह खोलने तक पर पाबन्दी लगाने के लिए सत्ता अपनी समूची ताकत के साथ तत्पर है। बुराई किसी विचार में नहीं बल्कि उसे क्रियान्वित करने वाले दिमागों में है। कुछ लोग अभी तक जंगल के कानून की मानसिकता से उबर नहीं पाये हैं। अकेले में अपने-अपने नाखूनों को परखते रहते हैं और मौका मिलने पर उसके प्रयोग से चूकते नहीं हैं। ढेर सारे अंधेरे को भगाने के लिए एक छोटा सा दीपक जलाना ही काफी होता है, मैं तो यहां बातचीत को एक और दिशा में ले जाना चाहता हूं। छन्द, व्याकरण आदि तो प्रारम्भिक उपकरण हैं, उनको तो खैर होना ही चाहिए लेकिन आगे की वस्तु तो यही है न कि हमारे द्वारा रचित पंक्तियां हमें कितना संस्कारित कर रहीं हैं। हमारे पूर्वजों द्वारा हमें विरासत में जो चेतना का परिष्कृत रूप मिला है, उसमें कितनी श्रीवृद्धि कर रहीं हैं।
कवि राजेश उत्साही ने कविताओं पर बात करने के अपने मानकों के बारे में स्पष्ट किया और प्राण जी से अपनी पहली मुठभेड़ के बारे में जानकारी दी| मैं किसी भी रचना पर अपनी बात- सामयिकता, वैचारिक प्रतिबद्धता, समकालीन सामाजिक सरोकार और शिल्प के आधार पर करता हूँ। मेरे लिए पहली तीन बातें कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। लेकिन मुश्किल यह भी है कि जब मैं पहली तीन बातें किसी रचना में पाता हूं तो चौथी कसौटी अनायास ही ज्यादा मुखर होने लगती है। जब पहली तीन बातों पर मैं रचना को कसता हूं, रचना के साथ-साथ वह मेरे लिए उस रचनाकार की समीक्षा भी होती है। साखी जैसे सार्वजनिक मंच पर कुछ कहने की सार्थकता तभी है जब आप औरों ने क्या् कहा, उसको भी ध्यान में रखें। इतना कहकर वे गजलों पर आये| पहली बात यह कि प्राण जी की ग़ज़लों में वैश्विक मानवीय संवदेनाएं और चिंताएं मुखरता के साथ मौजूद हैं। यह मुखरता सहज और सरल है। शहरीकरण के ऐब उनकी ग़ज़ल में दिख रहे हैं। दूसरी बात, उनकी ग़ज़लों में प्रकृति अपने सौदंर्य के साथ मौजूद है। तितलियों का फूलों के आरपार जाना मुझे तो सहज लगा। तीसरी बात, कोई भी रचना वय की सीमाओं में बंधी नहीं होती है। इसलिए उनकी ग़ज़ल में जो रोमानियत नजर आती है, वह इस बात की परिचायक है कि वे मन से अब भी युवा हैं। पर हां मुझे भी लगता है कि मंहगे तोहफों की बात कुछ हल्कापन लाती है। चौथी बात, चूंकि वे लगभग पचास साल से भारत से बाहर रह रहे हैं, इसलिए मैं उनकी ग़ज़लों में समकालीन भारत की चिंताओं और सरोकारों को खोजने का प्रयास नहीं कर रहा हूं। अगर वे अपने रचनाकर्म में इस बात का ध्यान रखते भी हैं, तो वह इनमें परिलक्षित नहीं हो रहा है। हां, होशियार होते जिन बच्चों को देखकर वे हर्षित हैं| संभवत: वह उनके अपने परिवेश की बात है। कम से कम हम तो अपने परिवेश के बच्चों को देखकर एक पल के लिए हर्षित होते हैं और अगले ही पल उसके अंजाम से कांप उठते हैं। राजेश की अपनी पसंद के तीन शेर ये हैं---
खुशबुओं को मेरे घर में छोड़ जाना आपका
कितना अच्छा लगता है हर रोज़ आना आपका
दिल भी हो उसका वैसा ज़रूरी तो ये नहीं
चेहरे पे जिसके माना कि दिलकश निखार है
हर किसी में होती हैं कुछ प्यारी-प्यारी चाहतें
क्यों न डूबे आदमी इन खुशबुओं के शहर में
सर्वत जमाल साहब ने प्राण जी की गजलों पर कुछ कहने के पहले सोचा-- यह इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है| फिर भी कहने की हिम्मत की, प्राण जी की ये ४ रचनाएँ उनके शायर का पूरा व्यक्तित्व नहीं हैं| मुझे नहीं लगता कि रैंकिंग की दृष्टि से ये ४ गजलें अव्वल नम्बर की हकदार हैं लेकिन इनकी सरलता, भाव सम्प्रेषण और शायरी के सभी 'लवाजमात' से लैस होने की सच्चाई से इंकार करना तो सूरज को चराग दिखाने वाला मामला है| पर प्राण जी के डिक्शन में एक जगह मैं सहमत नहीं हो पाया- उन्होंने तितलियाँ का जो उच्चारण इस्तेमाल किया है, मुझे ठीक नहीं लगा| पढ़ते समय मुझे, मुआफ करें, बहुत कोफ़्त हुई| प्राण साहब खुद को रोक नहीं पाए, भाई सर्वत जी " तितलियाँ " शब्द को पढ़ कर आपको कोफ़्त हुई, मुझे अच्छा नहीं लगा है| बदली , झलकी , हस्ती , सिसकी आदि शब्दों का बहुवचन में उच्चारण बद + लियाँ , झल + कियाँ , हस + तियाँ , सिस + कियाँ होता है| इसी तरह तितली शब्द का बहुवचन में उच्चारण तित + लियाँ है और मैंने इसका प्रयोग इसी रूप में किया है| कृपया ध्यान से पढ़िए, यह कोफ़्त-वोफ्त को जाने दीजिये|
शायर अशोक रावत ने कहा, किसी भी कविता पर बात करते समय शिल्प और कथ्य की अलग- अलग बात नहीं की जा सकती| दोनों के समन्वय से ही कविता का स्वरूप तय होता है लेकिन कभी जब ऐसा होता है कि शिल्प में कोई कमी नहीं होती और कथ्य में कोई मन की बात नहीं होती तो बात करने में मुश्किल तो होती है| प्राण शर्मा जी की ग़ज़लें एक नज़र में ठीक लगती हें लेकिन कथ्य अच्छा होते हुए भी बांधता नहीं है| उनकी सादगी की तारीफ करनी होगी| यह मेरी पसंद का मामला है तथा मैं यहाँ उनकी रचनाओं की साहित्यिक विवेचना नहीं कर रहा हूँ| जिन्दगी मेरे लिए कभी इतनी आसान नहीं रही कि नज़र तितलियों पर ठहर पाती.
चलती रहती है हरदम इक आँधी सी
एक ही मौसम मेरे भीतर रहता है.
लेखिका और शायर देवी नागरानी ने एक शेर से अपनी बात शुरू की, मेरा तो सर भी वहॉं तक नहीं पहुँच पाता, जहॉं कदम के निशॉं आप छोड़ आये हैं।गजल का सफ़र तो बहुत तवील है, जितना आगे बढ़िए, मंजिल उतनी ही दूर लगती है| हाँ इस सफ़र में अनेक गजलकारों से, समीक्षात्मक टिप्पणियों से शब्दों के इस्तेमाल और उनके रख-रखाव के बारे में मदद मिलती है| बावजूद इन सब बातों के प्राण जी की गजलों में एक ताजगी है, उनकी सोच की उड़ान परिंदों के पर काटती है| उनकी कलम आज, कल और आने वाले कल के नवीनतम बिम्ब खींचने में कामयाब होती है...सो रहा था चैन से मैं फुरसतों के शहर में ,जब जगा तो खुद को पाया हादसों के शहर में| मुझे भी यही कहना है--
चैन लूटा इस ग़ज़ल ने, लिखते लिखते सो गई
जागी तब जब शेर गरजे काग़ज़ों के शहर में
प्राण जी ने इस विमर्श में शामिल लोगों को धन्यवाद देने के लिए कलम उठायी तो तितलियों के परों से कई रंग बिखरने लगे| प्राण जी ने कहा, मैं अपनी ग़ज़लों पर सभी टिप्पणियों का आदर करता हूँ| सभी गुणीजन मेरे लिए माननीय हैं| मैं तो एक बच्चे की सीख का भी मान करता हूँ| मेरी ग़ज़लों में दो - तीन ऐसे शब्द आयें हैं जो मेरे अनुभव पर आधारित हैं| कभी रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी ने कहा था कि ग़ज़लों में प्रकृति गायब है| मेरे मन - मस्तिष्क में यह बात बैठ गयी| मैंने कुछेक ग़ज़लें बदलियाँ, पंछी, मातृभूमि, तितलियाँ आदि पर कह दीं| " तितलियाँ " ग़ज़ल के जन्म की बात करता हूँ| शेक्सपीयर के जन्मस्थान स्ट्रेट अपोन
ऐवोन में एक तितली घर है| तितलियों का फूलों के आसपास, बीच में और आर - पार उड़ना देखकर मुझे एक फ़िल्मी गीत याद आ गया - तितली उड़ी / उड़ जो चली/ फूल ने कहा/ आजा मेरे पास/ तितली कहे/ मैं चली उस पार| घर आया तो मेरा एक शेर " फूलों के आर - पार " तैयार हो गया| तिलक राज कपूर ने सही कहा है कि " होशियार " शब्द के अनेक अर्थ हैं| मैंने इस शब्द को " कुशल और बुद्धिमान के अर्थ में लिया है अपने शेर में | शेर यूँ बना - एक बार मेरे घर में मेरी पत्नी की दो सहेलियाँ आयीं| बातचीत में एक ने दूसरी को कहा - आपके दोनों बच्चे कितने ज़्यादा होशियार और पढ़े - लिखे निकले है ! दूसरी ने जवाब में कहा - आपके बच्चे भी तो होशियार और पढ़े - लिखे हैं| बीस साल पहले मैं जयपुर गया था| पत्नी के लिए चार सौ रुपयों की जयपुरी साड़ी खरीद ली| पत्नी को दी तो उसका मुँह फूल गया| दस साल पहले दिल्ली गया तो उसके लिए मँहगी से मँहगी साड़ी खरीदी| पाकर वह खुश तो हुईं लेकिन कह उठीं - इतनी मँहगी साड़ी लाने की क्या जरूरत
थी ? मेरा यह शेर बन गया - क्यों न लाता मँहगे - मँहगे तोहफे मैं परदेस से, वर्ना पड़ता देखना फिर मुँह फुलाना आपका| इस शेर में ज़रा " फिर " शब्द " पर गौर फरमाएँ| सब का धन्यवाद|
प्राण जी की इस सफाई से मामला और रोचक हो गया| सलिल जी और राजेश उत्साही आ धमके और फिर वे आपस में भी मीठी-मीठी कहासुनी करते दिखाई पड़े| सलिल जी ने कहा, आपने वे वाक़यात बयान किए हैं, लिहाजा मैं सफाई रखना चाहता हूँ| तितली उड़ी वाला गीत यूँ है,“तितली उड़ी, उड़ जो चली/फूल ने कहा, आजा मेरे पास,/तितली कहे मैं चली आकास!” होशियारी वाली बात तो मैं समझ गया, दरअसल जहाँ आपका शेर ख़त्म होता है, मैंने वहाँ से एक नया मानी गढ़ने की कोशिश की और तितली उड़ी की तर्ज़ पर न सीखी होशियारी की बात कही| महँगे तोहफे की बात पर.....हमारी बेग़म होतीं तो कहतीं--ख़ामख़ाह ले आए इतने महँगे तोहफे आप क्यूँ, बस यही अच्छा नहीं पैसे उड़ाना आपका|
राजेश ने कहा, मैंने अपनी पहली टिप्पणी में कहा था कि मुझे तो यह प्रयोग सहज लगा। पर प्राण जी द्वारा यह कैफियत देने से बात उलझ गई है। आपने जिस फिल्मी गीत से प्रेरणा ली है, उसमें पंक्ति है- तितली कहे मैं चली आकाश, न कि - तितली कहे मैं चली उस पार| हां आगे एक पंक्ति है- जाना है वहां मुझे बादलों के पार| पर बात शुरू हुई थी सलिल जी की टिप्पणी से। उन्होंने फूलों के आर-पार पर असहजता महसूस की थी। पर मेरी समझ है कि बादलों के पार पर तो उनको भी कोई समस्या नहीं होगी। राजेश जी ने उस गीत को पूरा का पूरा ही प्रस्तुत कर दिया| अब देखिए मंहगे तोहफे वाले शेर की कैफियत पर भी आप उलझ गए हैं। हमने माना कि आप प्रवासी हैं। पर सचमुच क्या भारत आपके लिए परदेस हो गया है। कम से मैं तो इस शेर को भारत से बाहर जाकर भारत में लौटकर किसी परिचित से मिलने के संदर्भ में ही समझ रहा था। सलिल जी भला क्यों मानते| सोते से उठ के आये, बोले..फ़िलहाल, “बादलों के पार पर आपको कोई आपत्ति नहीं होगी” की बात समझ नहीं आई.. दरअसल यह मेरी ज़ाती राय है, क्योंकि मैंने कहीं ऐसी बात नहीं सुनी... मुझे यह लगता है कि आर पार का मतलब पैबस्त होने से है| जैसे तीर निशाने के आर- पार होना| कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरेनीमकश को, वो ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता| एक और गाना याद दिला दूं, कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र, पिया घायल किया रे तूने मोरा जिगर| आर पार अगर हो गई तितलियाँ तो फूलों के घायल होने का ख़तरा है| राजेश बोले, गाना मैंने आपके लिए नहीं प्राण जी के लिए दिया है क्यों कि गाने में एक जगह बादलों के पार आता है। बहुत संभव है उन्हें वह पंक्ति याद रही हो। और आपको आपत्ति नहीं होगी, वह इस अर्थ में कहा कि यह बादलों के पार प्रयोग तो इतना प्रचलित है कि आप भी उसको लेकर सहज होंगे। सलिल भाई, आरपार होने के आपने बहुत से उदाहरण दे दिए। उनसे कतई असहमति नहीं है। प्राण जी का जो प्रयोग है वह काव्य की दृष्टि से ही है। इसीलिए उनसे भी कहा कि इस पर कैफियत की कोई जरूरत ही नहीं। और आपकी टिप्पणी की आखिरी पंक्ति की बात करें तो तितलियां तो फूलों को घायल करने का काम करती ही हैं न। एक और बात, प्राण जी ने अपने तीन शेरों के बारे में जो कैफियत दी, वह उनके सोच के दायरे को सीमित कर देती है। मैंने अब तक यह सीखा है कि आपका कोई भी निजी अनुभव साहित्य में तभी काम का होता है जब वह सर्वव्यापी होने की क्षमता रखता हो। इस दृष्टि से इन शेरों में कही गई बात कमजोर पड़ रही है।
तिलकराज जी फिर मंच पर आ गये, प्राण साहब की तितलियॉं बेचारी उलझ गयी लगती हैं। प्राण साहब के अधिकॉंश शेर अपने आस-पास के अनुभवों से भरे होते हैं और आम बोल-चाल की सीधी-सादी भाषा से लिये गये होते हैं, जिसके कारण प्रथमदृष्ट्या ग़ज़ल बहुत सीधी-सादी सी लगती है। यहॉं फिर वही होता है कि जब इस बात पर ध्यान जाता है कि भाई एक परिपक्व उस्ताद शायर की ग़ज़ल है तो शेर में उतरकर समझने की इच्छा होती है। अशोक रावत जी की टिप्पणी भी ग़ल़त नहीं लगती। इसी ब्लॉग पर रावत जी की एक अलग एहसास पर आधारित बेहतरीन ग़ज़लें हैं, जिन्हें देखने से स्पष्ट है कि उनकी शैली अलग तेवर लिये है। यहॉं समस्या कहन की शैली को लेकर है। मेरा अनुभव है कि मुख्यत: सोच, संस्कार, संदर्भ और सरोकार खुलकर सामने आते हैं कहन में और इन्हें रूप देने में शब्द और शिल्प सामर्थ्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है| यही शैली रचनाकार की समीक्षात्मक भूमिका का प्रमुख आधार बनती है। ऐसी स्थिति में रचना के प्रति विविध विचार होना ग़लत तो नहीं लगता। संजीव ने जोड़ा, अद्भुत आनन्द आ रहा है चर्चा में। बड़े होकर भी तितलियों के पीछे भागने में कितना आनन्द है आज जाना| तिलकराज जी ने बहुत खूबसूरती से बात को सामने रखा है, नजर आते हैं जो जैसे वो सब वैसे नहीं होते, जो फल पीले नहीं होते वो सब कच्चे नहीं होते| यहाँ तक आते-आते सलिलजी और राजेश जी की नोक-झोंक भी मद्धम पड़ चुकी थी और सलिल ने मधुर समर्पण से काम निकालने की तरकीब निकाली, दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह, या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं| आप की बात मेरे लिए आदेश है| राजेश भी मोम की तरह पिघल गए और बात उड़ाने के अंदाज में बोले, दिल जो भी कहेगा मानेंगे हम, दुनिया में हमारा दिल ही तो है| संजीव भाई ने भी खूब कही बड़े होकर भी हम तितलियों के पीछे भागना नहीं भूले।
चर्चित कवि सुरेश यादव ने कहा, प्राण शर्मा जी की गज़लें बहुत उम्दा शायरी का बेहतरीन नमूना हैं, इसमें कोई संदेह नहीं | सहजता इन ग़ज़लों का सौन्दर्य है, जैसे नदी का सौन्दर्य पानी के आवेग से बनता है, भावनाओं और विचारों का ऐसा ही आवेग इन ग़ज़लों में है| गजलकार नीरज गोस्वामी ने कहा, ज़बान की सादगी और भावनाओं का प्रवाह प्राण साहब की ग़ज़लों को एक अलग मुकाम देता है| उनकी ग़ज़लों की अपनी एक पहचान है,भीड़ में वो सबसे अलग खड़े नज़र आते हैं| जिंदगी की तल्खियाँ, खुशियाँ, दुश्वारियां, मसले निहायत ख़ूबसूरती से प्राण साहब अपनी ग़ज़लों में पिरोते हैं...उनका हर अशआर हमें जीना सिखाता है| गिरीश पंकज ने कहा, प्राण जी के हर शेर का अपना रंग है, उनके कहन का अपना अलग ढंग है| विमर्श में शामिल होकर समीरलाल जी, अविनाश जी, संजीव सलिल जी, अदा जी, निर्मला कपिला जी, सुनीता शानू जी, वेद व्यथित जी, रचना दीक्षित जी, लावण्या जी, अरुण देव जी, शिखा वार्ष्णेय जी, डा टी एस दराल जी, रजी साहब जी, जितेन्द्र जौहर जी, सुनील गज्जाणी जी, रंजना जी, दिगंबर नासवा जी ने साखी की गरिमा बढ़ाने में योगदान किया|
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं
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इस बार की चर्चा बहुत गंभीर अंदाज में शुरू होकर बहुत मजेदार माहौल में ख़त्म हुई| प्राण जी के आदि-इत्यादि और मेरे जागते रहने के प्रसंग ने सबको आनंद दिया| बात शुरू हुई राजेश उतसाही के बयान से, इस बार फिर हम सबने मिलकर सुभाष भाई का काम बढ़ा दिया। वे एक कुशल कक्षा अध्यापक की तरह हम सबकी कॉपियां जांचकर उसे लाल-हरा कर ही लेंगे। सर्वत ने बात बढ़ाई, डाक्टर सुभाष राय के लिए यह सब बाएं हाथ का खेल है. एक मुद्दत से अखबार के दफ्तर में कापियां ही तो जांचते रहे हैं| एक राज़ की बात बताऊं, वह रात को भी नहीं सोते| तिलक राज जी ने जोड़ा, सर्वत साहब ने खूब कहा सुभाष राय जी के लिये| उन्हीं की बात पकड़कर कहता हूँ,रात हो या दिन, कभी सोता नहीं, सूर्य का विश्राम पल होता नहीं। इसी बीच प्राण जी ने एक प्यारा सा अनुरोध किया, मैं सभी से अनुरोध करता हूँ कि वे साखी ब्लॉग के इस पार आया करें| हंसी-हंसी में ही संजीव जी, राजेश जी, तिलक जी, सर्वत जी, पंकज जी, इत्यादि न जाने कितने ज्ञान की बातें कर जाते हैं| सलिल जी ने चुटकी ली, प्राण साहब ने मुझे इत्यादि में सम्मिलित किया, पर उनकी बात से इत्तेफाक रखते हुए, सर्वत साहब के समर्थन में, तिलक राज जी के शेर को आगे बढाते हुए, अपनी तुकबंदी रखना चाहता हूँ--ब्लॉग-मरुथल में कहीं भी ढूँढ लो, “साखी” के अतिरिक्त, जल होता नहीं| फिर तो तिलक राज जी ने जो किया, वह आप rastekeedhool.blogspot.com/2010/09/blog-post_29.html पर जाकर देख सकते हैं| सलिल जी की आदि-इत्यादि में शामिल किये जाने की शिकायत संजीव ने दूर की, एक कहानी सुना कर---सलिल जी, प्रान सर ने आपको इत्यादि में यूं ही नहीं रखा है इसका खास कारण है। इसके पीछे एक किस्सा है। किस्सा भी असली है बस कवियों के नाम भूल गया हूँ । एक बार दो वरिष्ठ कवि रेल से किसी कवि सम्मेलन में जा रहे थे। ट्रेन किसी स्टेशन जैसे ही रुकी, दोनों उतर गये। एक बोला, पीने की तलब लग रही है। पास में ही दुकान है ले आते हैं। दोनों कविगण चल दिये। दुकान बड़ी मुश्किल से मिली। खैर समय कम था सो दोनों लोग बोतल कपड़ों में छुपाकर ले आये। ट्रेन चली। अब समस्या सामने आयी कि लोगों के सामने कैसे पियें। तरकीब भिड़ाते हुए दोनों ने कविताएं पढ़नी शुरू कीं। लोग आनन्दित होने लगे। थोड़ी देर बाद उनमें से एक कवि पास बैठे सज्जन से बोले, भाई साहब ये सामने क्या लिखा है। सज्जन ने पढ़ा,‘ डिब्बे में बीड़ी आदि पीना सख्त मना है।‘ उन सज्जन ने सोचा कि कवि महोदय बीड़ी पीना चाहते है, सो बोले हां-हां क्यों नहीं आप बीड़ी पी लीजिए, हमें कोई तकलीफ नहीं है। कवि महोदय बोले नहीं बीड़ी नहीं पीनी है हमें तो आदि आदि पीना है। तो सलिल सर ये आदि इत्यादि कोई छोटी-मोटी चीज नहीं है। आप बड़े बड़भागी हैं। बधाई हो।
शनिवार को मनोज भावुक की भोजपुरी गजलें
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