रचनाकार का वक्तव्य
----------------------- अशोक रावत |
बिना कलात्मकता के कोई कविता कविता नहीं हो सकती. जैसे बिना चीनी के कोई मिठाई, मिठाई नहीं हो सकती. लिखना मेरे लिये एक ज़िम्मेदारी का काम है, जिसे मैं ने लापरवाही से कभी नहीं निभाया. जो मैं ने जिया है वही लिखा है. मेरा लेखन किसी प्रतिबद्ध विचारधारा का वफ़ादार नहीं रहा. मेरी वफ़ादारी सिर्फ़ मानवीय सरोकारों से रही. मेरा सफ़र किसी मंच पर जाकर ख़त्म नहीं होता. मेरी मंज़िल आदमी के मन तक पहुँचने की है. मैं जानता हूँ यह बहुत कठिन काम है लेकिन आसानियों में मुझे भी कोई आनंद नहीं आता. मैं अपने लिये सिर्फ़ चुनौतियाँ चुनता हूँ और उनका सामना करने में अपने आप को खपा देता हूँ. सारे खतरे उठाकर सिर्फ़ सामना करता हूँ. जानता हूँ आदमी की ज़िंदगी में न कोई विजय अंतिम है न कोई पराजय. उसे तो हर रोज़ एक युद्ध करना है बिना हार जीत की परवाह करते हुए. कल की कभी ज़्यादा परवाह नहीं की. आज को जिया और पूरी निष्ठा से जिया. मेरी ग़ज़लें मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हैं. हाँ, इतना ज़रूर है कि मैं उन पर मेहनत करता हूँ. मैंने कितना लिखा , इस बात का मेरे लिये कोई अर्थ नहीं है, मेरे लिये इस बात का अर्थ है कि मैंने क्या लिखा है. कभी कभी ऐसा लगता है ये समाज और सारी संस्थाएं आदमी के शोषण का साधन बनके रह गई हैं.मेरी कविता मुझे हमेशा इनसे लड़ने का साहस देती है. मैं ने अपनी ग़ज़लों से इससे ज़्यादा कभी कुछ चाहा भी नहीं.
अशोक रावत की ग़ज़लें
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1.
बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता,
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता.
भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता.
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता.
तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते,
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता.
ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या,
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता.
परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की,
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता.
2
हमें भी ख़ूबसूरत ख़्वाब आँखों में सजाने दो,
हमें भी गुनगुनाने दो, हमें भी मुस्कराने दो.
हमें भी टाँगने दो चित्र बैठक में उजालों के,
हमें भी एक पौधा धूप का घर में लगाने दो.
हवाओं को पहुँचने दो हमारी खिड़कियों तक भी,
हमारी खिड़कियों के काँच टूटें टूट जाने दो.
हवा इतना करेगी बस कि कुछ दीपक बुझा देगी,
मुँडेरों पर सजा दो और दियों को झिलमिलाने दो.
समझने दो उसे माचिस का रिश्ता मोमबत्ती से,
जलाता है जलाने दो बुझाता है बुझाने दो.
हमें कोशिश तो करने दो समंदर पार करने की
हमारी नाव जल में डूबती है डूब जाने दो.
3.
फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता,
ख़ुशबू का अपना कोई घर द्वार नहीं होता.
हम गुज़रे कल की आँखों का सपना ही तो हैं,
क्यों मानें सपना कोई साकार नहीं होता.
इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है,
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता.
कितने ही अच्छे हों काग़ज़ पानी के रिश्ते,
काग़ज़ की नावों से दरिया पार नहीं होता.
हिम्मत हारे तो सब कुछ नामुमकिन लगता है,
हिम्मत कर लें तो कुछ भी दुश्वार नहीं होता.
वो दीवारें घर जैसा सम्मान नहीं पातीं,
जिनमें कोई खिड़की कोई द्वार नहीं होता.
4.
जिन्हें अच्छा नहीं लगता हमारा मुस्कराना भी,
उन्हीं के साथ लगता है हमें तो ये ज़माना भी.
इसी कोशिश में दोनों हाथ मेरे हो गये ज़ख़्मी,
चराग़ों को जलाना भी, हवाओं से बचाना भी.
अगर ऐसे ही आँखों में जमा होते रहे आँसू,
किसी दिन भूल जायेंगे खुशी में मुसकराना भी.
उधर ईमान की ज़िद है कि समझौता नहीं कोई,
मुसीबत है इधर दो वक़्त की रोटी जुटाना भी.
किसी ग़फ़लत में मत रहना, नज़र में आँधियों के है,
तुम्हारा आशियाना भी हमारा शामियाना भी.
परिंदों की ज़रूरत है खुला आकाश भी लेकिन,
कहीं पर शाम ढलते ही ज़रूरी है ठिकाना भी.
ज़ियादा सोचना बेकार है, इतना समझ लो बस,
इसी दुनिया से लड़ना है, इसी से है निभाना भी.
गूगल से साभार |
5.
आख़िर मौसम की मनमानी क्यों स्वीकार करूँ.
क्यों मैं फूलों से नफ़रत काँटों से प्यार करूँ.
क्या जैसी दुनिया है वैसा ही हो जाऊँ मैं,
और इन आँधी तूफ़ानों की जै-जैकार करूँ.
काग़ज़ की नावों को लेकर माँझी बैठे हैं,
इनके बूते मैं दरिया को कैसे पार करूँ.
इस मुद्दे पर मैं अपनी ग़ज़लों के साथ नहीं,
ग़ज़लें ये कहती हैं मैं उनका व्यापार करूँ.
मेरे अधिकारों को लेकर सब के सब चुप हैं,
अपनों से ही झगड़ा आखिर कितनी बार करूँ.
अपने हाथों के पत्त्थर तो मैंने फ़ेंक दिये,
लोगों को चुप रहने पर कैसे तैयार करूँ.
गाँधी के हत्यारे भी हैं गाँधी टोपी में,
इनके प्रस्तावों को मैं कैसे स्वीकर करूँ.
6.
ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलती कहीं अच्छी ख़बर,
हादसे ही हादसे अख़बार के हर पृष्ट पर.
दिल में बेचैनी बढ़ाने वाली घर की चिठ्ठियाँ,
खोलता हूँ जब लिफ़ाफ़ा तो मुझे लगता है डर.
अब न लपटें ही निकलती हैं न उठता है धुआँ,
जल रहा है एक ऐसी आग में मेरा शहर.
राहज़न ही लूट लेते इससे बेहतर था हमें,
जिस तरह से रास्ते में पेश आये राहबर.
उम्र भर के फ़ासले पर हैं हमारी मंज़िलें,
साथ में वीरानियाँ लेकर चले हैं हमसफ़र.
ऐसा लगता है अँधेरे की तरफ़दारी में हो,
जिस तरह सूरज निकलता है यहाँ आकाश पर.
रचनाकार के बारे में
शिक्षा: बी. ई. (सिविल इंजी), अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
जन्म: 15.नवम्बर 1953, गाँव मलिकपुर, ज़िला मथुरा में
भारतीय खाद्य निगम ज़ोनल आफ़िस नोएडा में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत
थोड़ा सा ईमान ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
हिंदी की प्रमुख राष्ट्रीय पत्र - पत्रिकाओं, ग़ज़ल संकलनों, इंटरनेट पत्रिकाओं, में रचनाओं का प्रकाशन. काव्य समारोहों में काव्य पाठ, रेडिओ और दूर-दर्शन से रचनाओं का प्रसारण.
स्थाई पता: 222, मानस नगर, शाहगंज, आगरा, 282010
E-mail:
ashokdgmce@gmail.com 2. ashokrawat2222@gmail.com
फोन: नोएडा: 09013567499 , आगरा: 09458400433
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
जवाब देंहटाएंकोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता.
परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की,
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता.
***
हमें भी टाँगने दो चित्र बैठक में उजालों के,
हमें भी एक पौधा धूप का घर में लगाने दो.
हवाओं को पहुँचने दो हमारी खिड़कियों तक भी,
हमारी खिड़कियों के काँच टूटें टूट जाने दो.
***
इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है,
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता.
वो दीवारें घर जैसा सम्मान नहीं पातीं,
जिनमें कोई खिड़की कोई द्वार नहीं होता.
***
इसी कोशिश में दोनों हाथ मेरे हो गये ज़ख़्मी,
चराग़ों को जलाना भी, हवाओं से बचाना भी.
किसी ग़फ़लत में मत रहना, नज़र में आँधियों के है,
तुम्हारा आशियाना भी हमारा शामियाना भी.
***
क्या जैसी दुनिया है वैसा ही हो जाऊँ मैं,
और इन आँधी तूफ़ानों की जै-जैकार करूँ.
इस मुद्दे पर मैं अपनी ग़ज़लों के साथ नहीं,
ग़ज़लें ये कहती हैं मैं उनका व्यापार करूँ.
***
दिल में बेचैनी बढ़ाने वाली घर की चिठ्ठियाँ,
खोलता हूँ जब लिफ़ाफ़ा तो मुझे लगता है डर.
ऐसा लगता है अँधेरे की तरफ़दारी में हो,
जिस तरह सूरज निकलता है यहाँ आकाश पर.
वाह...वाह...वाह...रावत जी बेजोड़ ग़ज़लों के साथ से बेहतर साखी का आगाज़ नहीं हो सकता था. सकारात्मक सोच और ज़माने की दुश्वारियों को निहायत ख़ूबसूरती से रावत जी ने अपनी ग़ज़लों में प्रस्तुत किया है. ग़ज़ल के कहन में ताजगी और रवानी है. मेरी ढेरों दाद उन तक पहुंचाए. साखी को इस लाजवाब प्रस्तुति पर मेरी ढेरों शुभकामनाएं .
नीरज
"सारी कलाएं जीवन में आनंद की सृष्टि के लिये हैं लेकिन न जाने क्यों और किन लोगों ने काव्य कला को घटनाओं और दुर्घटनाओं का गोदाम बनाकर रख दिया है जिसमें घुसते ही साँस घुटने लगती है. "
जवाब देंहटाएं"मेरा सफ़र किसी मंच पर जाकर ख़त्म नहीं होता. मेरी मंज़िल आदमी के मन तक पहुँचने की है. मैं जानता हूँ यह बहुत कठिन काम है लेकिन आसानियों में मुझे भी कोई आनंद नहीं आता."
अशोक जी विचार उनकी ग़ज़लों की तरह ही प्रेरक हैं...कितनी सहजता से उन्होंने कितनी सच्ची बात कह दी है....नमन है उनके कलम को.
नीरज
अशोक जी,
जवाब देंहटाएंनतमस्तक हूँ इन लाजवाब ग़ज़लों को पढ़कर; समझकर। खूबसूरत भाव, कथ्य व शिल्प। नि:शब्द हूँ।
कहीं-कहीं जो अटकाव दिखा वह शायद आप स्पष्ट कर सकें।
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता.
इस शेर में कुछ गंभीर समस्या है, पहली बात तो यह है कि बावज़्न होते हुए भी पहला मिस्रा प्रवाह में नहीं है जिसका मुख्य कारण इस बह्र के रुक्न 'मफ़ाईलुन्' की प्रकृति है। दूसरी समस्या यह है कि दूसरी पंक्ति कहती है कि पत्थर चेतनाविहीन होते हुए भी मनुष्यों की तरह निर्मम होता है। अचेतन से निर्मम का यह संबंध असंगत है। अगर यह भी मान लिया जाये कि पत्थर को अचेतन नहीं मनुष्यों जैसी चेतना से विहीन माना गया है तो काव्य-प्रवाह की दृष्टि से सरलता की समस्या है। इस शेर की मूल भावना यह ध्वनित होती है कि मुनष्य निर्मम होता है और पत्थर नहीं लेकिन गठन में यह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पा रहा है। इस शेर से ध्वनित बात जो मुझे समझ आई वो कुछ ऐसे है कि:
अगर पत्थर में होती चेतना इन्सान के जैसी
कोई पत्थर किसी इन्सान सा निर्मम नहीं होता।
या
मनुष्यों सी नहीं है चेतना, फिर भी कोई पत्थर
किसी इंसान के जैसा कभी निर्मम नहीं होता।
4.
परिंदों की ज़रूरत है खुला आकाश भी लेकिन,
कहीं पर शाम ढलते ही ज़रूरी है ठिकाना भी.
खुला आकाश परिंदों की मुख्य ज़रूरत है लेकिन पहली पहली पंक्ति में ये ज़रूरत सामान्य हो गयी है शेर में जो कहना चाहा गया है वह कुछ ऐसा लगता है कि:
खुले आकाश की चाहत परिंदों को रही लेकिन
ढले जब शाम तो उनकी ज़रूरत है ठिकाना भी.
Rawat ji ki ghazalon se SAKHI ka fir se aagman bahut khoobsoorat hai.
जवाब देंहटाएंअब न लपटें ही निकलती हैं न उठता है धुआँ,
जवाब देंहटाएंजल रहा है एक ऐसी आग में मेरा शहर.
वाह सब की सब ग़ज़लें अपने शायरी के फन से लबालब॥पढ़ते हुए गुनगुनाहट का तत्व लिए हुए॥रावत जी को मेरी शुभकमनयें इस सुंदर प्रस्तुति के लिए
@ मेरे लिए बहुत सहज है इन गजलों की सराहना करना..लेकिन ले रहा हूँ चुनौती कुछ विरोध में कहूँ.
जवाब देंहटाएं"अपनी ही ग़ज़लों पर कोई टिप्पणी करना मुझे मुनासिब नहीं लगता."
जवाब देंहटाएं@ क्योंकि 'गज़लकार' अपनी ही गजलों का श्रोता या पाठक होना नहीं चाहता.
मेरा मत :
कभी-कभी 'कविता' या 'ग़ज़ल' को श्रोताभाव से पढ़कर दोहरे सुख को लेना भी नहीं छोड़ना चाहिये.
"कभी कोई मुकाम ज़िंदगी में हासिल हो तो कुछ कहने की हिमाक़त भी करूँ ....* "
जवाब देंहटाएं"मैंने कितना लिखा, इस बात का मेरे लिये कोई अर्थ नहीं है, मेरे लिये इस बात का अर्थ है कि मैंने क्या लिखा है.. **."
@ आखिर गज़लकार किस तरह का 'मुकाम' पाना चाहता है... जिसे पाकर 'कुछ कहने का' हौसला आ सके? लेखक के मन में कहीं-न-कहीं एक टीस है 'किसी (साथी लेखक) से कमतर लिखने की'... जिस कारण वे अपनी विनम्रता* (प्रदर्शन) को नहीं छोड़ पा रहे हैं और अपने 'क्रीम लेखन' पर इतराये** भी हुए हैं.
बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता,
जवाब देंहटाएंनिगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता. ...... बहुत उम्दा शेर.
@ बेदम समझकर रौंद देना भी ना जायज़ है.
निगाहों के उजाले कुचल देते तम जो बेबस है.
भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता. ........ लाजवाब.
@ बिना हथियार के तो 'शक्ति'-पूजा भी नहीं होती.
इन्हें ही देख होता है भरोसा अम्नो कायम का.
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
जवाब देंहटाएंकोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता. ..........
@ तेल आखिरकार बिनौलों से ही निकलेगा.
पत्थर चेतना पाकर भी 'पत्थरदिल' न बदलेगा.
तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते,
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता. ... सहजता से कुछ प्राप्त नहीं होता, इसलिए 'तपस्या' का महत्व बना हुआ है... और बिना पुराना त्यागे नया नहीं मिलता, इसलिए 'त्याग' का भी महत्व है.
@ यदि पत्नी-बच्चे तज के गौतम 'त्याग' हैं करते
व विलायती वस्त्र तज के 'तप' मोहनदास हैं करते
तो भारत के सभी नंगे और गुरुकुली ब्रह्मचारी {नंगे = फटेहाल गरीब]
गांधी और गौतम बनने से पहले न मरते.
हमें भी ख़ूबसूरत ख़्वाब आँखों में सजाने दो,
जवाब देंहटाएंहमें भी गुनगुनाने दो, हमें भी मुस्कराने दो.
हमें भी टाँगने दो चित्र बैठक में उजालों के,
हमें भी एक पौधा धूप का घर में लगाने दो.
हवाओं को पहुँचने दो हमारी खिड़कियों तक भी,
हमारी खिड़कियों के काँच टूटें टूट जाने दो.
हवा इतना करेगी बस कि कुछ दीपक बुझा देगी,
मुँडेरों पर सजा दो और दियों को झिलमिलाने दो.
समझने दो उसे माचिस का रिश्ता मोमबत्ती से,
जलाता है जलाने दो बुझाता है बुझाने दो.
हमें कोशिश तो करने दो समंदर पार करने की
हमारी नाव जल में डूबती है डूब जाने दो
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बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता,
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता.
Subhash Ji
Itni achchhi gazalen prastut karne ke liye aapko badhai Aur
Ashok Rawat Ji ko bahut subhkamnayen ki ve aur jyada likhe.
हिंदी भाषा के संस्कारों और मानवीय सरोकारों से सराबोर ग़ज़लें आदरणीय रावतजी की ही हो सकतीं थीं . पड़ने वालों को आनंद आना ही था. रावतजी को बधाई और राय साहब को धन्यवाद
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