गल्प के भीतर आज की सामाजिक विसंगतियों को बुन कर आधुनिक वैताल कथा की रचना करने वाने गिरीश पंकज गद्य लेखन में जितने सिद्धहस्त हैं, काव्यरचना में भी उतने ही पारंगत। एक जनवरी 1957 को भोले बाबा की नगरी बनारस में जन्मे पंकज ने हिंदी साहित्य से परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। पत्रकारिता स्नातक परीक्षा में वे प्रावीण्य सूची मे प्रथम रहे। लोक संगीत-कला में डिप्लोमा किया। उनके नाम आठ व्यंग्य संग्रह, तीन व्यंग्य उपन्यास समेत कुल बत्तीस पुस्तकें हैं। पिछले पैंतीस सालों से पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियहैं। बिलासपुर टाईम्स, युगधर्म, नवभारत, भास्कर, स्वदेश, राष्ट्रीय हिन्दी मेल एवं खबरगढ़ में सिटी चीफ, साहित्य संपादक और संपादक पद संभालने के बाद फिलहाल स्वतंत्र लेखन। साहित्यिक पत्रिका ''सद्भावना दर्पण'' का संपादन। उनकी व्यंग्य रचनाओ पर लगभग दस छात्र लघु शोध कर चुके हैं। इन दिनों कर्णाटक और मध्यप्रदेश के दो छात्र इनके साहित्य पर पीएच. डी कर रहे हैं। गिरीश पंकज की रचनाएँ मलयालम, तेलुगु, कन्नड़, तमिल, ओड़िया, पंजाबी एवं छत्तीसगढ़ी आदि में भी अनूदित हो चुकी हैं। उन्हें लखनऊ का अट्टहास सम्मान, दिल्ली का रमणिका फाउंडेशन सम्मान, भोपाल का रामेश्वर गुरू सम्मान, पंजाब का लीलारानी स्मृति सम्मान प्राप्त हो चुका है। ब्लॉग लेखन के लिये ''ई टिप्स'' और ''परिकल्पना'' द्वारा हाल ही में सम्मानित। रचना धर्म के ऐसे अनमोल रत्न पंकज की कुछ गज़लें पेश हैं......
1.
कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है
हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है
वे अपनी खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आते
मगर ये बावरा दुनिया, जगत, व्यवहार लिखता है
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
ये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई
ये ऐसी बात है जिसको सही फनकार लिखता है
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
तुम्हारे पास आ जाऊं पढ़ूं कुछ गीत सपनों के
तुम्हारे नैन का काजल सदा श्रृंगार लिखता है
यहाँ छोटा-बड़ा कोई नहीं सब जन बराबर हैं
मेरा मन ज़िंदगी को इस तरह तैयार लिखता है
अरे उससे हमारी दोस्ती होगी भला कैसे
मैं हूँ पानी मगर वो हर घड़ी अंगार लिखता है
उधर हिंसा हुई, कुछ रेप, घपले, हादसे ढेरों
ये कैसी सूरतेदुनिया यहाँ अखबार लिखता है
वो खा-पीकर अघाया सेठ कल बोला के सुन पंकज
ज़रा दौलत कमा ले तू तो बस बेकार लिखता है
2.
किसी को धन नहीं मिलता
किसी को तन नहीं मिलता
लुटाओ धन मिलेगा तन
मगर फिर मन नहीं मिलता
हमारी चाहतें अनगिन
मगर जीवन नहीं मिलता
किसी के पास धन-काया
मगर यौवन नहीं मिलता
ये सांपों की है बस्ती पर
यहाँ चन्दन नहीं मिलता
जहां पत्थर उछलते हों
वहां मधुबन नहीं मिलता
मोहब्बत में मिले पीड़ा
यहाँ रंजन नहीं मिलता
लगाओ मन फकीरी में
सभी को धन नहीं मिलता
वो है साजों का मालिक पर
सभी को फन नहीं मिलता
अगर हो कांच से यारी
तो फिर कंचन नहीं मिलता
मिलेंगे लोग पंकज पर
वो अपनापन नहीं मिलता.
-------------------------------------------
3.
शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है
प्रेम से तो पेश आना सीख ले
चार दिन का तू अरे मेहमान है
एक खामोशी यहाँ पसरी हुई
ये हवेली है कि इक शमशान है
मुफलिसी अभिशाप है तेरे लिए
मुझको तो लगता कोई वरदान है
वो महकता है सुबह से शाम तक
जिसके भीतर नेकदिल इनसान है
बाँट दे दिल खोल कर दौलत अरे
पास तेरे गर कोई जो ज्ञान है
हो रहमदिल आदमी इतना बहुत
फ़िर तो क्या अल्लाह, क्या भगवान है
4.
कुछ हाथों में पत्थर आया
मैंने फूल बढ़ाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
उनको मिली विफलताएं तो
दोष हमारे ही सर आया
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझता घर रोशन कर आया
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
सदस्य, " साहित्य अकादमी", नई दिल्ली.
सम्पर्क----
जी-३१, नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०
गिरीश पंकज जी का परिचय और उनकी बढ़िया रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंगिरीश भाई !
जवाब देंहटाएंआपकी पहली ग़ज़ल लगता है जैसे मैंने ही लिखी हो ( हालाँकि ग़ज़ल के बारे में जानकारी शून्य है )ग़ज़ल लेखक आप हैं मगर विचारों में साम्यता.... जैसे मैं कह रहा हूँ ! यह सरलता पसंद आई ! शुभकामनायें आपको
कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है
जवाब देंहटाएंहमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है
सुभाष जी किस शे'र की तारीफ करूँ किसकी न करूँ ...यहाँ तो हर शे'र वक़्त की मांग पर लिखा गया है ......
ये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई
ये ऐसी बात है जिसको सही फनकार लिखता है
वाह .......!!
अरे उससे हमारी दोस्ती होगी भला कैसे
मैं हूँ पानी मगर वो हर घड़ी अंगार लिखता है
बहुत खूब ....!!
शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है
बिलकुल ....ईमान से बड़ा धन कोई नहीं ....!!
बाँट दे दिल खोल कर दौलत अरे
पास तेरे गर कोई जो ज्ञान है
अद्भुत ....!!
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझता घर रोशन कर आया
नमन है पंकज जी को .....!!
आपका बहुत बहुत शुक्रिया ...ये बेशकीमती गजलें पढवाने के लिए ....!!
दूसरों के लिए जीवन लुटा देने का
जवाब देंहटाएंनहीं हुआ तो सच मानो
तुमने प्रेम नहीं किया कभी
तुम प्रेम की परिभाषाएँ चाहे
जितनी कर लो, जितनी अच्छी कर लो
पर प्रेम का अर्थ नहीं कर सकते
प्रेम खुद को मारकर सबमें जी उठना है
प्रेम अपनी आँखों में सबका सपना है।
और सुभास जी प्रेम की इससे सुंदर परिभाषा हो ही नहीं सकती ......
1
जवाब देंहटाएंकोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
2
ये सांपों की है बस्ती पर
यहाँ चन्दन नहीं मिलता
3
एक खामोशी यहाँ पसरी हुई
ये हवेली है कि इक शमशान है
4
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
आदरणीय गिरीश जी
आदरणीय सुभाष जी
नमस्कार !
गिरीश जी कि गज़ले कुछ नए बिम्ब लिए है , चरों अलग अलग मीटर कि है , मेरी पसंद के शेर आप कि नज़र किये है , मगर चारों अच्छी है , सुभाष जी का आभार ,
साधुवाद
सादर !
बहुत दिनों बाद गिरीश की गज़लें पढ़ी हैं अच्छी और संवेदनशील हैं
जवाब देंहटाएंगिरीश जी की गज़लें मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करती हैं ...
जवाब देंहटाएंसारी बात एक शेर में ही समां गयी है ..
उधर हिंसा हुई, कुछ रेप, घपले, हादसे ढेरों
ये कैसी सूरतेदुनिया यहाँ अखबार लिखता है ...
ये सांपों की है बस्ती पर
यहाँ चन्दन नहीं मिलता
जहां पत्थर उछलते हों
वहां मधुबन नहीं मिलता
आज की मतलबी दुनिया पर किया गया कटाक्ष ....
और सही धनवान की पहचान कितनी सटीक है ...
शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है ..
और इस शेर में सत्य बोलने का नतीजा कितना सार्थक है ...यह भी बता दिया है ...
मेरी जुबां पर सच भर आया
कुछ हाथों में पत्थर आया..
सारी गज़लें एक से बढ़ कर एक हैं ..
गिरीश जी, दमदार भावाभिव्यक्ति के लिए बधाई. सुन्दर ग़ज़लें कही हैं आपने और उस से भी सुन्दर बातें. अभी इतना ही, हाँ अगर एक बार और आना पड़ा तो जरुर फिर से हाज़िर होने की कोशिश करूँगा. आपने परिश्रम से रचना लिखी हैं, मुझे तो इतनी प्यारी लगीं कि हर ग़ज़ल को दो-दो तीन-तीन बार पढ़ा है.
जवाब देंहटाएंसभी गज़लें अजब सी सादगी को समेटे हुए हैं|
जवाब देंहटाएंउधर हिंसा हुई, कुछ रेप, घपले, हादसे ढेरों
ये कैसी सूरतेदुनिया यहाँ अखबार लिखता है
या कुछ यूँ कहें
वो है साजों का मालिक पर
सभी को फन नहीं मिलता
और बेबाकी की हद तो तब हो गई जब शायर यह कहने लगे
मुफलिसी अभिशाप है तेरे लिए
मुझको तो लगता कोई वरदान है
अब इसके आगे और क्या बचता है
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझता घर रोशन कर आया
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
अब वाह और दाद के सिवा क्या दूं?
kathy v shilp dono uttm hai bhartiy yani prhit kari hindoo snskriti drshn ho rhe hain
जवाब देंहटाएंati sundr
dr.ved vyathit
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम
जवाब देंहटाएंवो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझता घर रोशन कर आया
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
बहुत ही अच्छी रचनाएँ गिरीश जी.बधाई.
उत्तमा की पेंटिंग भी बहुत पसंद आई. उन्हें भी बढ़ाई प्रेषित.
जवाब देंहटाएंगिरीश जी की ग़ज़लों का नयापन देखते ही बनता है ...... क्या कहने हैं ..... बहुत ही बेहतरीन गज़ाल कहते हैं ..... ज़माने के हालात बहुत ही प्रखर रूप पेश करते हैं ....
जवाब देंहटाएंsundar rachna badhai dr rai sahab aur bhai pankajji
जवाब देंहटाएंराहों में मिलने वाले मिलते है जोश से,
जवाब देंहटाएंपर हर किसी से अपना मन नहीं मिलता
अच्छी कविता है ....
एक बार इसे भी पढ़े , शायद पसंद आये --
(क्या इंसान सिर्फ भविष्य के लिए जी रहा है ?????)
http://oshotheone.blogspot.com
दूसरी गजल तो सबकी है।
जवाब देंहटाएंपहली गजल मन की है।
तीसरी पोल खोलती है।
चौथी मिटा देती है थकान
अब तो घर आया है।
सचमुच घर आ गया हूं।
GIREESH JEE KEE CHARON GAZALEN KATHYA , BHAAV AUR BHASHA KEE DRISHTI SE ACHCHHEE LAGEE HAIN.
जवाब देंहटाएंPAHLEE GAZAL ZORDAR HAI.DIL MEIN SAMAA GAYEE
HAI. BADHAEE AUR SHUBH KAMNA
saare shubhchintakon ne jo pyar diyaa hai, use pa kar lag raha hai, jeevan safal hua. likhanaa sarthak ho gaya, subhash ji ka blog itana parhaa jataa hai, dekh kar khushi hui. main sabko 'man' se 'naman' karta hoo.
जवाब देंहटाएंगिरीश पंकज जी का परिचय पढ़ने के बाद लगा कि उनकी रचना के विषय में लिखना मेरी क्षमता से परे की बात है और टिप्पणी करना, तो टीका टिप्पणी जैसा धृष्टता की श्रेणी में आ जाएगी. किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार इसे मैं अपनी अभिव्यक्ति ही मान रहा हूँ, उस भाव की जो इन ग़ज़लों को पढने के बाद पैदा हुए मेरे मन में.
जवाब देंहटाएंपहली गज़ल को पढते ही मतला खटकने लगा. कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है . अगर इसे तरन्नुम में गाने की कोशिश करें या बहर में पढने की भी कोशिश करें, तो लिक्खे है को लिखता है के साथ पढने पर एक रुकावट आती है. शेर बहुत सुंदर है और बाँध लेता है, किंतु यह बात स्वयम् गिरीश जी ही बता सकते हैं कि यदि कोई तकरार लिखता है, कोई इनकार लिखता है लिखा जाता तो क्या फ़र्क पड़ता या शेर की सुंदरता कहाँ कम होती.
ग़ज़ल के सारे शेर एक से बढकर एक हैं. हर शेर एक सच्चा बयान लगता है, चाहे बावरे की दुनिया हो, प्यार बिना राख सा जीवन हो, कारोबारी दुनिया, बराबरी की बात, गोया इंसानी ज़िंदगी के हर रंग दिखते हैं... हाँ एक शेर ज़हन में बैठ गया गहराई तलकः
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
दूसरी गज़ल छोटे बहर की ग़ज़ल है. पंकज जी ने इसे रूहानी और फलसफाई अंदाज़ में लिखा है. चुँकि इस गज़ल में क़ाफिया नहीं मिलता इस्तेमाल हुआ है, लिहाज़ा यह आसानी से सोचा जा सकता है कि इसमें हमारे ख़त्म होते वैल्यूज़ की बातें कही गई हैं. ग़ज़ल काफी लम्बी है और हर शेर में मिसरा ए सानी बिलकुल प्रेडिक्टेबल दिखता है, जो किसी भी ग़ज़ल की कमज़ोरी कही जा सकती है, मेरे हिसाब से. मतलब यह कि मिसरा ए ऊला से जो समाँ बँधे, वो मिसरा ए सानी की गिरह पर आपको आपके ख़यालों और सोच से दूर ले जाकर एक नया मानी पैदा करे. यहाँ वैसा नहीं होता, शायर क्या कहना चाहता है, आप असानी से सोच लेते हैं और वही बात कही भी जाती है. वैसे मेसेज देती हुई गज़ल है.
तीसरी गज़ल, मेरी ऊपर कही तमाम बातों को नकारती है. जबकि जज़्बात कमोबेश दोनों ग़ज़लों के एक से हैं. यह शायर की ख़ूबी है, जो अपना लोहा मनवाती है. यहाँ भी उन्हीं वैल्यूज़ की बातें कही गई हैं, लेकिन अंदाज़े बयाँ मुख़्तलिफ है. इंसान की असली दौलत सचाई और ईमान है, मोहब्बत ही ज़िंदगी है, इल्म से बड़ी दौलत नहीं वगैरह वगैरह बातें कही गई हैं. लेकिन एक शेर असर छोड़ने में क़ामयाब हुआ है, जो सारे अशार के बीच तन्हाँ पूरे गज़ल की नुमाइंदगी करता हैः
जवाब देंहटाएंएक खामोशी यहाँ पसरी हुई
ये हवेली है कि इक शमशान है
चौथी ग़ज़ल का मतला आपको रोककर पूरी ग़ज़ल पढने पर मजबूर करता है और मक़्ते तक बाँधकर रखता है. मुझे मुक़ाबला पसंद नहीं, लेकिन यहाँ ज़रूरी हो गया लिहाज़ा बतौर मिसाल कहना चाहता हूँ कि मतले पर दुष्यंत कुमार याद आ गएः
हर तरफ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रोशनीमें आता हूँ.
और गिरीश पंकज जी का शेरः
मेरी जुबां पर सच भर आया
कुछ हाथों में पत्थर आया
और दूसरा शेर भी प्यारा है
मैंने फूल बढ़ाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
आख़िर के दो शेर भी बेहद ख़ूबसूरत कहे हैं पंकज जी ने. चाहे बुझते घर को रोशन कर इबादत करने की बात हो या अपने घर का सुकून.
गिरीश पंकज जी की ग़ज़लें बड़े सादे अंदाज़ में गहरी बातें कहती हैं. और शायद इनकी सादा बयानी इनके ग़ज़लों की ख़ूबसूरती हैं.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसाखी पर मेरा पहली बार आना हुआ ...एक जगह इतने सारे रचनाकारों की रचनाओं का संग्रह अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंयूँ तो पंकज जी की सभी रचनाएँ अपनी अलग छाप छोड़ रही हैं ...परन्तु कुछ शेर मुझे बेहद पसंद आए ....
१-उधर हिंसा हुई, कुछ रेप, घपले, हादसे ढेरों
ये कैसी सूरतेदुनिया यहाँ अखबार लिखता है
२-वो है साजों का मालिक पर
सभी को फन नहीं मिलता
मेरी जुबां पर सच भर आया
कुछ हाथों में पत्थर आया
३-बाँट दे दिल खोल कर दौलत अरे
पास तेरे गर कोई जो ज्ञान है
गिरीश जी की प्रस्तुत ग़ज़लों के कई अशआर ने प्रभावित किया-
जवाब देंहटाएंअगर हारे नहीं, टूटे नहीं, तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
लेकिन बीच-बीच में कुछ अशआर खटके भी बहुत जैसे- पहली ग़ज़ल का पहला दशेर कि, कोई इन्कार लिक्खे है यहां अगर कोई इन्कार लिखता है‘ होता तो ज्यादा ठीक होता। इसी तरह दूसरे दशेर में खोल के साथ अपनी ठीक नहीं लग रहा है अपने खोल में ज्यादा ठीक होता। दूसरी ग़ज़ल का पहला दशेर बेमानी है कम से कम ग़ज़ल की दृष्टि से मुझे तो कोई अर्थ समझ में नहीं आया। दूसरा शेर 'लुटाओ धन मिलेगा तन मगर फिर मन नहीं मिलता' यहां पहले मिस्रे में भविष्य काल में बात की गई है लेकिन दूसरे मिस्रे मे वर्तमान काल मेंं। व्याकरण की दृष्टि से होना चाहिए कि लुटाओ धन मिलेगा तन लेकिन फिर मन नहीं मिलेगा। इसी ग़ज़ल का ये शेर बहुत खटका-‘लगाओ मन फकीरी में सभी को धन नहीं मिलता।‘ इसका आशय तो ये लग रहा है कि फकीरी में मन इसलिए लगाना चाहिए क्योंकि सबको धन नहीं मिलता है। ये क्या बात हुई। अगर धन मिल जाये तो क्या प्रभु की भक्ति नहीं करनी चाहिए। एक शायर ऐसा कैसे सोच सकता है। ग़ज़ल सिर्फ तुकबन्दी नहीं है।
मुझे लगता है कि इन ग़ज़लों को एक बार लिखकर दुबारा ठीक से खराद पर नहीं चढ़ाया गया। ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा नहीं लगना चाहिए कि सिर्फ क़ाफ़ियाबन्दी की गई है।
वो महकता है सुबह से शाम तक
जिसके भीतर नेकदिल इनसान है
मैंने फूल बढ़ाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
गिरीश जी की प्रस्तुत ग़ज़लों के कई अशआर ने प्रभावित किया-
जवाब देंहटाएंअगर हारे नहीं, टूटे नहीं, तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
वो महकता है सुबह से शाम तक
जिसके भीतर नेकदिल इनसान है
मैंने फूल बढ़ाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
लेकिन बीच-बीच में कुछ अशआर खटके भी बहुत जैसे- पहली ग़ज़ल का पहला दशेर कि, कोई इन्कार लिक्खे है यहां अगर कोई इन्कार लिखता है‘ होता तो ज्यादा ठीक होता। इसी तरह दूसरे दशेर में खोल के साथ अपनी ठीक नहीं लग रहा है अपने खोल में ज्यादा ठीक होता। दूसरी ग़ज़ल का पहला दशेर बेमानी है कम से कम ग़ज़ल की दृष्टि से मुझे तो कोई अर्थ समझ में नहीं आया। दूसरा शेर 'लुटाओ धन मिलेगा तन मगर फिर मन नहीं मिलता' यहां पहले मिस्रे में भविष्य काल में बात की गई है लेकिन दूसरे मिस्रे मे वर्तमान काल मेंं। व्याकरण की दृष्टि से होना चाहिए कि लुटाओ धन मिलेगा तन लेकिन फिर मन नहीं मिलेगा। इसी ग़ज़ल का ये शेर बहुत खटका-‘लगाओ मन फकीरी में सभी को धन नहीं मिलता।‘ इसका आशय तो ये लग रहा है कि फकीरी में मन इसलिए लगाना चाहिए क्योंकि सबको धन नहीं मिलता है। ये क्या बात हुई। अगर धन मिल जाये तो क्या प्रभु की भक्ति नहीं करनी चाहिए। एक शायर ऐसा कैसे सोच सकता है। ग़ज़ल सिर्फ तुकबन्दी नहीं है।
मुझे लगता है कि इन ग़ज़लों को एक बार लिखकर दुबारा ठीक से खराद पर नहीं चढ़ाया गया। ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा नहीं लगना चाहिए कि सिर्फ क़ाफ़ियाबन्दी की गई है।
मुझे बड़ी खुशी होती है जब कोई पोस्टमार्टम करता है. ऐसे लोग अब बचे ही कहाँ. एकाध दिखते है, तो इनका अभिनन्दन ही होना चाहिए. कबीर कह भी गए है ''निंदक नियरे रखिये आँगन कुटी छवाय''. हमारे एक पाठक को ''लगाओ मन फकीरी में/ सभी को धन नहीं मिलता'' पर आपत्ती है. उन्होंने शायद कबीर का वो भजन सुना-पढ़ा होगा-''मन लगो मेरो यार फकीरी में.जो सुख पायो रामभजन में, सो सुख नहीं अमीरी में'' . फकीरी मतलब ''भिखमंगी नहीं है बन्धु... एक सादगी है. धन के पीछे मत भागो. जो है, उसी में संतुष्ट रहो. यानी जो है, जितना है, उसी में सुखी रहो. ज्यादा हाय-हाय करोगे तो माफिया भी बन जाओगे. ईमानदारी से जितनामिला वही काफी है. भाव यही है,लेकिन आप तो लगे बाल की खाल निकलने. जो 'सपाट' अर्थ दिखा, उसी को पकड़ कर बैठ गए. कविता की भीतर कुछ 'अन्यार्थ' भी निहित होते है. और यह कहना कि 'इस वाक्य को ऐसे नहीं, वैसे लिखना चाहिए था'', अजीब लगता है. हर लेखक की अपनी शैली होती है.खैर, बहुत कुछ लिखाजा सकता है. बहरहाल खुशी इस बात की है कि कुछ लोग इसी तरह के कामों में लगे रहते है. अच्छा है. बहरहाल, मैंने अपने ब्लॉग में कल एक ग़ज़ल पोस्ट की है. उसके कुछ शेर दे रहा हूँ...
जवाब देंहटाएंऐसी एक जवानी लिखना
हर आँखों में पानी लिखना
दुहराती हैं जिसको सदियाँ
ऐसी कोई कहानी लिखना
इंसां बन कर ही रहना है
खुद को तू मत ज्ञानी लिखना
दूजे की गलती देखी है
अपनी भी नादानी लिखना
वो घमंड में क्यों डूबा है
ये जीवन है फानी लिखना
कलम हमारी है गर पूजा
बातें ना बचकानी लिखना
जब तक ज़िंदा है तू पंकज
बस चलना है...यानी लिखना
वाह-वाह,बहुत बढिया-गिरीश भैया को यहाँ पाकर बहुत अच्छा लगा।
परसों ही हमारी भैया के साथ दो घंटे चर्चा हूई-आभार
खोली नम्बर 36......!
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसाखी पर पहली बार ऐसा लग रहा है कि आलोचना पच नहीं रही है।
जवाब देंहटाएंMitron, ham sabhee tark aur buddhi sampann log hain. Mera SAKHI shuru karane kaa uddeshy bhee yahee raha hai, ki ham rachanakar se purn maitribhav rakhen par rachanaon ke prati sajag aur nirmam hon. rachanakaar bhee aalochanaaon ko swasth man se len aur apne paksh men kathor se kathor bat tarksammat dhang se kahen. achchha keval tabhee saamane aa sakata hai aur jo achchhaa nahee hai, use achchha banaane kee prerana bhee tabhee mil sakatee hai. vaise hee pahale se gambheer kism ke saahity chintakon kee raay internet par aa rahe saahity aur teekaa-tippadiyoon ke baare men bahut achchhee naheen hai, aap sach maane jyaadaatar print patrikaaon ke sampaadak internetee saahity ko ghaasletee sahity se jyaadaa kuchh naheen maanate. agar ham use baar-baar saabit karenge aur usse aage badhane kee koshish naheen karenge, to yah hamaara durbhaagy hogaa. meraa vaise bhee bahut samay SAKHI ke liye chalaa jaata hai. meraa apana rachanatmak kaam bhee badhit hota hai lekin aap sabake utsaah ko dekhakar main isamen lagaa rahata hoon. agar ham kisee swasth dishaa men badhanaa nahee chaahate to Sakhi kee aavashyakata hee kyaa hai. sabhee log apne-apne blogon par likhkar mahan kavi, lekhak aur chintak banane ke liye aazad hain hee. mera sabase nivedan hai ki ham katai vyaktigat n hon, rachanaaon par baat karen, tark rakhen, ulaahanaa aur laanchhan se bachen aur Sakhi ko bhee bachaaye rakhen.
जवाब देंहटाएंआज पंकज जी की ग़ज़लों पर आदरणीय गौतम जी की टिप्पणियां पढ़ीं. उन्होंने क्या कहा ये तो वही जानें, पर कैसे कहा, इस पर थोडा ध्यान दे पाते तो अच्छा होता. आलोचना बुरी बात नहीं. स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए, लेकिन हम किसी पर अपने विचार थोप नहीं सकते. भाषा भी उपदेशात्मक होने की जगह अगर सामान्य रहे तो संभवतः अच्छी बात हो. मैं तो खैर गौतम जी के चरणों की धूल के बराबर भी नहीं, फिर भी इतना निवेदन करने का साहस कर रहा हूँ कि हर रचनाकार का अपना एक अलग संसार होता है, उसकी अपनी सोच होती है, अपने संस्कार और अपनी ही शैली. कुछ लोग जिसे छूट लेना मान सकते हैं, हो सकता है वह लेखक की शैली हो. तर्क सारी बातों का समाधान नहीं निकाल सकते, खास तौर पर भावनाएं तो होती ही तर्क से परे हैं. एक छोटा सा उदहारण लीजिये, घूँघट वाला मामला. कुछ परिवार हैं जहाँ आज भी इन परम्पराओं का पालन सख्ती से हो रहा है, सास ससुर के आगे बोलना तो दूर, बहू चेहरा भी नहीं दिखा सकती. उनका तर्क केवल यही है कि हम अपनी परम्पराओं पर ही चलेंगे, आज के सन्दर्भ में चाहे वे प्रासंगिक हों या अप्रासंगिक, उन से सुख मिले या दुःख, बस परंपरा है इस लिए मानेंगे, यह क्यों सोचें कि कभी की उस परंपरा का उद्देश्य क्या था. परिवार की महिलाएं घर की दहलीज़ से बाहर कदम नहीं रखेंगी, चाहे इन्सान चाँद पर घूम आया. अब ऐसे भी परिवार हैं, जहाँ परदे केवल मर्यादा के हैं, लेकिन वातावरण खुला-खुला है, परंपरावादी परिवार ऐसों को अच्छा नहीं मानते.अपनी-अपनी जगह दोनों ठीक हो सकते हैं, दोनों एक दूसरे को अस्वीकार कर भी सकते हैं, पर अस्तित्व तो दोनों का है.
जवाब देंहटाएंयह निवेदन करने का दुस्साहस मैं केवल इस लिए कर रहा हूँ कि मुझे लगता है कि अगर हम अपने घेरे से बाहर निकल कर सोचना नहीं चाहते, तो औरों से ऐसी उम्मीद कैसे करें कि वह हमारी सोच के घेरे में ही बंधा रहे.
जवाब देंहटाएंपरमादरणीय गौतमजी की एक टिप्पणी और मैं उधृत करना चाहूँगा जो उन्होंने कुछ दिन पूर्व साखी के ब्लॉग पर की थी, देखें-
' आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी।' आपने ठीक कहा, एक्सट्रीम परफेक्शन का यह परिणाम अक्सर होता है, इसीलिए आचार्य केशव विद्वान होते हुए भी उतने प्रसिद्द नहीं हुए जितने उनके कुछ और समकालीन. आचार्यत्व उतना ही ठीक है जितना अति आवश्यक हो. आपने एक और बात कही-
'घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं।' ऐसा कोई छंद मेरी अल्प बुद्धि में नहीं आया, 'रत्नाकर' को पूरा पढ़ डालिए और कोई मात्रा गिराने का सन्दर्भ खोजने की चेष्टा करके देखिये . यह परंपरा अगर कहीं है तो कुछ मंचीय विद्वानों की चलायी हुई है, वैसे प्राचीन कवियों ने ऐसा कहीं नहीं किया.
गिरीश जी की रचनाएँ भी अगर मेरे निवेदन को सहृदयता पूर्वक सुनने के बाद फिर से पढ़ी जाएँगी तो प्रभावपूर्ण और सार्थक लगेंगी. आशा है मेरी बाल सुलभ चेष्टा को अन्यथा नहीं लिया जायेगा.
आदरणीय गिरीष जी, आदरणीय अरविन्द जी प्रणाम। आपने जैसा चाहा वैसा लिखा। मुझे जैसा लगा मैंने वैसा लिख दिया इसमें नाराज होने वाली बात कौन सी है। साखी पर मेरी भी ग़ज़लें हैं आप उन पर अपना गुस्सा उतार दीजिए। किसी का अपमान करना मेरा उद्देश्य नहीं है मैंने राय सर को भी कह दिया था कि मेरा टिप्पणी करने का मन नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं कि हर किसी में आलोचना को सहज लेने की हिम्मत नहीं होती। मुझमें भी नहीं है। कश्ट मुझे भी होगा। थोड़ा या ज्यादा लेकिन माफ करिए मैं अपने मन के विपरीत नहीं बोल सकता। ‘मुझे अब तक ये आया ही नहीं, नदी के साथ पानी सा बहूं।‘ राय सर ने जब कहा कि जो लगे कहो, निर्भय हो कहो, साखी है ही इसीलिए। अब अगर मेरी कोई बात गलत लगी हो तो उसे निकाल दीजिए अगर कुछ ठीक-ठाक लगे तो रख लीजिए बाकी हवा में उड़ा दीजिए। बुद्धिमान भी वही है कि, ‘सार-सार को गह रहे थोथा देय उड़ाय।‘ एक टिप्पणी पर इतना परेषान होने की आवष्यकता मुझे तो नहीं लगता कि है। अरविन्द जी आप भी ऐसा न कहें कि, मैं तो किसी के चरणों की धूल नहीं ये अच्छा नहीं है। आप लोग मुझसे उम्र और अनुभव में बहुत बड़े हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से आपका सम्मान करता हूं।
जवाब देंहटाएंमैंने किसी की व्यक्तिगत आलोचना के तहत कुछ नहीं लिखा है और न आलोचना को अस्वस्थ बनाने की नीयत है। आलोचना के प्रतिउत्तर में कैसी भाशा का प्रयोग किया जा रहा है क्या ये व्यक्तिगत आलोचना नही है। सीधे-सीधे बात का जवाब देें। अपने तर्क दें। हो सकता है मूल्यांकन में कोई कमी रह गई हो अपने आप ठीक हो जायेगी। इसमें परेषान होने वाली क्या बात है। अगर परेषानी है तो पहले बता दें। मैं राय सर से निवेदन करूंगा कि साखी पर रचनाओं के साथ यह भी छापे कि रचनाओं पर टिप्पणियां कैसी देनी हैं। अगर सिर्फ प्रषंसा ही करनी है तो मुझे नहीं लगता कि मुझे यहां होना चाहिए। मैं किसी ज्ञानपीठ की होड़ मैं नही, किसी की प्रषंसात्मक टिप्पणी के लिए कविता/षाइरी/आलोचना/ब्लागिंग में नहीं। साहित्य को लिखने से ज्यादा जीने में यकीन रखता हूं। अपने को न “ााइर मानता हूं न “ााइर की दुम। किसी मुगालते में नहीं हूं कि मैं कोई तीसमारखां हूं। अपनी हैसियत का ज्ञान है मुझे। लेकिन अगर चुप रहूं तो खुद को कैसे समझाऊ-
जवाब देंहटाएंमैं सब जैसा हो जाऊं, मन को कैसे समझाऊ।
मैं जानता हूं कि, सबको कमियां हैं पता, फिर भी सब हैं मौन।
केवल इतनी बात है, पहले बोले कौन।।
इसलिए पहले बोलने का खतरा भी मुझ जैसे को ही उठाना पड़ेगा। आप सबके व्यंग्य बाण सर माथे।
खैर छोडिये आप सबको एक किस्सा सुनाता हूं, किस्सा क्या हकीकत है। परमादरणीय राजेन्द्र जी को तो आप जानते ही होंगे अरे वही जलपुरूश। उनका एक इंटरव्यू छपा था कुछ वर्श पहले किसी पत्रिका में। उसमें उन्होंने लिखा था कि गोपालपुरा में उन्होंने वहां के निवासी मंगू काका की प्रेरणा से जल संचयन का काम “ाुरू किया। चार साल की मेहनत के बाद गोपालपुरा पहला गांव बना जहां का जलस्तर उंचा हो गया। इस बात पर औरों को प्रेरणा देने के लिए वहां के लोगों ने गोठ(दावत) का आयोजन किया। आस-पास के चालीस-पचास गांवों के लोग वहां बुलाये गये। मंच से भाशणबाजी “ाुरू हुई नेता टाइप के लोगों ने “ाुरू से ही विरोध कर दिया। कहने लगे कि, ये तो सांसद का काम है, सरकार का काम है। हम क्या कुदाल फांवड़े लेकर ये सब करेंगे आदि आदि। राजेन्द्र जी ने इस बात पर लिखा कि, समाज में पांच तरह के लोग होते हैं पहले वो जो सबसे पहले अपने को आगे कर देंगे, ऐसे लोग हर काम में टांग अड़ायेंगे। ऐसे लोगों की संख्या एक दो प्रतिषत होती है। दूसरी श्रेणी के वे लोग हैं जो तुरंत पहली श्रेणी के लोगों की हां में हां मिलाने लगते हैं यानि कि अवसरवादी लोग। जहां का बहुमत हुआ उधर के हो गए। ऐसे लोग पन्द्रह से बीस प्रतिषत होते हैं। तीसरी श्रेणी के लोग सोचते अच्छा हैं लेकिन जब तक उन्हें अच्छा नेतृत्व नहीं मिल जाये वे सुसुप्त रहते हैं। ऐसे लोग पचास-साठ प्रतिषत तक मिलते हैं। किसी भी क्रान्ति के लिए ऐसे लोगों को जागरूक करना बहुत जरूरी होता है। चैथी श्रेणी के लोग दस-बीस प्रतिषत की संख्या में पाये जाते हैं। ये लोग बिल्कुल निश्क्रय होते है। पांचवी श्रेणी के लोग पहली श्रेणी की तरह एक-दो प्रतिषत पाये जाते हैं। ये लोग हमेषा सही का साथ देते हैं। अपनी बात कहने से पीछे नहीं हटते हैं। तो जैसे ही पहली श्रेणी के नेताजी ने मंच पर जमकर माहौल बिगाड़ना “ाुरू किया तुरंत दूसरी श्रेणी के लोग हां में हां मिलाने लगे। मुझे बड़ी चिन्ता हुई मैंने मंगू काका जो चैथी श्रेणी में थे, से कहा कि काका ये तो सब गड़बड़ हो रहा है। मंगू काका ने कहा, अभी देखते हैं। नेताजी के चुप होते ही मंगू काका ने माइक पकड़ा और बोले, हमने यहां आप सबको इसलिए नहीं बुलाया है कि आप लोग ये काम करो। हमने तो इसलिए बुलाया है कि हमने तो कर लिया आपको अच्छा लगे तो करो नहीं तो दावत खाओ और अपने-अपने घर जाओ।
राजेन्द्र जी लिखते हैं कि उसके बाद अगले चार वर्श में सैकड़ों गांवों में वाटर रिचार्ज को काम सफलतापूर्वक हुआ।
ये किस्सा सुनाने का मेरा आशय ये था कि मैं तो मंगू काका के साथ हूं। उनका महत्व अच्छी तरह जानता हूं। आप भी तय करें कि आप किसके साथ हैं।
मैंने किसी की व्यक्तिगत आलोचना के तहत कुछ नहीं लिखा है और न आलोचना को अस्वस्थ बनाने की नीयत है। आलोचना के प्रतिउत्तर में कैसी भाशा का प्रयोग किया जा रहा है क्या ये व्यक्तिगत आलोचना नही है। सीधे-सीधे बात का जवाब देें। अपने तर्क दें। हो सकता है मूल्यांकन में कोई कमी रह गई हो अपने आप ठीक हो जायेगी। इसमें परेषान होने वाली क्या बात है। अगर परेषानी है तो पहले बता दें। मैं राय सर से निवेदन करूंगा कि साखी पर रचनाओं के साथ यह भी छापे कि रचनाओं पर टिप्पणियां कैसी देनी हैं। अगर सिर्फ प्रषंसा ही करनी है तो मुझे नहीं लगता कि मुझे यहां होना चाहिए। मैं किसी ज्ञानपीठ की होड़ मैं नही, किसी की प्रषंसात्मक टिप्पणी के लिए कविता/षाइरी/आलोचना/ब्लागिंग में नहीं। साहित्य को लिखने से ज्यादा जीने में यकीन रखता हूं। अपने को न “ााइर मानता हूं न “ााइर की दुम। किसी मुगालते में नहीं हूं कि मैं कोई तीसमारखां हूं। अपनी हैसियत का ज्ञान है मुझे। लेकिन अगर चुप रहूं तो खुद को कैसे समझाऊ-
जवाब देंहटाएंमैं सब जैसा हो जाऊं, मन को कैसे समझाऊ।
मैं जानता हूं कि, सबको कमियां हैं पता, फिर भी सब हैं मौन।
केवल इतनी बात है, पहले बोले कौन।।
इसलिए पहले बोलने का खतरा भी मुझ जैसे को ही उठाना पड़ेगा। आप सबके व्यंग्य बाण सर माथे।
खैर छोडिये आप सबको एक किस्सा सुनाता हूं, किस्सा क्या हकीकत है। परमादरणीय राजेन्द्र जी को तो आप जानते ही होंगे अरे वही जलपुरूश। उनका एक इंटरव्यू छपा था कुछ वर्श पहले किसी पत्रिका में। उसमें उन्होंने लिखा था कि गोपालपुरा में उन्होंने वहां के निवासी मंगू काका की प्रेरणा से जल संचयन का काम “ाुरू किया। चार साल की मेहनत के बाद गोपालपुरा पहला गांव बना जहां का जलस्तर उंचा हो गया। इस बात पर औरों को प्रेरणा देने के लिए वहां के लोगों ने गोठ(दावत) का आयोजन किया। आस-पास के चालीस-पचास गांवों के लोग वहां बुलाये गये।
मंच से भाशणबाजी “ाुरू हुई नेता टाइप के लोगों ने “ाुरू से ही विरोध कर दिया। कहने लगे कि, ये तो सांसद का काम है, सरकार का काम है। हम क्या कुदाल फांवड़े लेकर ये सब करेंगे आदि आदि। राजेन्द्र जी ने इस बात पर लिखा कि, समाज में पांच तरह के लोग होते हैं पहले वो जो सबसे पहले अपने को आगे कर देंगे, ऐसे लोग हर काम में टांग अड़ायेंगे। ऐसे लोगों की संख्या एक दो प्रतिषत होती है। दूसरी श्रेणी के वे लोग हैं जो तुरंत पहली श्रेणी के लोगों की हां में हां मिलाने लगते हैं यानि कि अवसरवादी लोग। जहां का बहुमत हुआ उधर के हो गए। ऐसे लोग पन्द्रह से बीस प्रतिषत होते हैं। तीसरी श्रेणी के लोग सोचते अच्छा हैं लेकिन जब तक उन्हें अच्छा नेतृत्व नहीं मिल जाये वे सुसुप्त रहते हैं। ऐसे लोग पचास-साठ प्रतिषत तक मिलते हैं। किसी भी क्रान्ति के लिए ऐसे लोगों को जागरूक करना बहुत जरूरी होता है। चैथी श्रेणी के लोग दस-बीस प्रतिषत की संख्या में पाये जाते हैं। ये लोग बिल्कुल निश्क्रय होते है। पांचवी श्रेणी के लोग पहली श्रेणी की तरह एक-दो प्रतिषत पाये जाते हैं। ये लोग हमेषा सही का साथ देते हैं। अपनी बात कहने से पीछे नहीं हटते हैं। तो जैसे ही पहली श्रेणी के नेताजी ने मंच पर जमकर माहौल बिगाड़ना “ाुरू किया तुरंत दूसरी श्रेणी के लोग हां में हां मिलाने लगे। मुझे बड़ी चिन्ता हुई मैंने मंगू काका जो चैथी श्रेणी में थे, से कहा कि काका ये तो सब गड़बड़ हो रहा है। मंगू काका ने कहा, अभी देखते हैं। नेताजी के चुप होते ही मंगू काका ने माइक पकड़ा और बोले, हमने यहां आप सबको इसलिए नहीं बुलाया है कि आप लोग ये काम करो। हमने तो इसलिए बुलाया है कि हमने तो कर लिया आपको अच्छा लगे तो करो नहीं तो दावत खाओ और अपने-अपने घर जाओ।
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र जी लिखते हैं कि उसके बाद अगले चार वर्श में सैकड़ों गांवों में वाटर रिचार्ज को काम सफलतापूर्वक हुआ।
ये किस्सा सुनाने का मेरा आशय ये था कि मैं तो मंगू काका के साथ हूं। उनका महत्व अच्छी तरह जानता हूं। आप भी तय करें कि आप किसके साथ हैं।
गौतम जी, दुःख तब होता है, जब ऐसे लोग आलोचना करते है, जो खुद ही अभी ढंग से उग पाए है. जिनकी चलनी में पहले से ही न जाने कितने छेद है. खुद अभी लडखडा रहे है और दूसरे से कह रहे है, कि ए भाई ज़रा देख के चलो. पहले उस अवस्था को प्राप्त करले शायर, खुद उस्ताद बन जाए, तब कुछ कहने का नैतिक अधिकार पाता है. जैसे प्राण जी है या कोई और. अनावश्यक और कमजोर टांग अडाने पर वही होता है, जो हो रहा है.
जवाब देंहटाएंदुःख तब होता है, जब ऐसे लोग आलोचना करते है, जो खुद ही अभी ढंग से उग नहीं पाए है.......
जवाब देंहटाएंआदरणीय गिरीश पंकज जी को मैंने जितना पढ़ा , परखा , समझा है ,
जवाब देंहटाएं…छंद के प्रबल समर्थक और समर्थ छंद सृजक हैं ।
उनके पैने व्यंग्यकार तथा प्रभावशाली गद्य लेखक स्वरूप को मैं यहां ज़रा भी रेखांकित नहीं करना चाहता ,
विषयांतर हो जाएगा ।
कोई विषय हो , उनकी लेखनी छंद में कुछ भी लिख सकती है , और वह भी चुटकियों में ।
गाय माता सहित अनेक घटना - दुर्घटनाओं पर लिखे उनके गीत और ग़ज़ल कमाल के हैं ।
यहां प्रस्तुत ग़ज़लें उनकी विलक्षण प्रतिभा की स्वयं परिचायक हैं ।
कुछ शे'र कोट करना चाहूंगा …
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
क्या बात है !
जीवन में संघर्ष के लिए जिस आत्मविश्वास की आवश्यकता हुआ करती है ,
कितनी ख़ूबसूरती से कह दिया है ।
ये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई
ये ऐसी बात है जिसको सही फ़नकार लिखता है
प्रेम की आवश्यकता का पाक साफ़ चित्रण !
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहां तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
प्यास , ख़ोज , तड़प , निराशा , वर्तमान का यथार्थ …
सभी कुछ एक शे'र में ! साधुवाद है !
… और ,
मिलेंगे लोग पंकज ; पर
वो अपनापन नहीं मिलता
भविष्य और वर्तमान क्रियाओं की अनिश्चितता के सहारे शोधित निष्कर्ष ,
अनुभव का अर्क सामने रख दिया है जैसे ।
शख़्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है
दो दिन पहले किसी मित्र ने मेल में मुझे गिरीश जी का यह शे'र भी कोट करके भेजा था ,
तब इनके अश्'आर की पहुंच के निरंतर बढ़ते जाते दायरे का आभास हुआ ।
अब कुछ बात दूसरे पक्ष पर …
कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है
कइयों ने पहले ही कह दिया है -
कोई तकरार लिखता है ही अधिक सही होता ।
वे अपनी खोल में ख़ुश हैं कभी बाहर नहीं आते
खोल को अब तक पुल्लिंग के रूप में ही देखते - सुनते आए हैं ।
अरे उससे हमारी दोस्ती होगी भला कैसे
मैं हूं पानी मगर वो हर घड़ी अंगार लिखता है
पानी अंगार को बुझाता है ,
यानी प्रथम मैं स्वयं ही किसी अन्य का अस्तित्व लील रहा हूं ,
फिर मलाल या शिकायत क्यों ?
किसी को धन नहीं मिलता
किसी को तन नहीं मिलता
तो …??
शे'र पूरा भी हो गया , बात क्या कहनी है स्पष्ट भी नहीं हो पाया ।
ये सांपों की है बस्ती पर
यहां चन्दन नहीं मिलता
यानी जहां चंदन होगा वहां सांप नहीं होंगे ?
चंदन विष व्यापै नहीं लिपटे रहत भुजंग …
और , यदि सांप हो वहां अनिवार्यतः चंदन भी हो ,
ऐसा सोच कर भाई गिरीश जी ने शे'र बनाया है तो यहां भी कहूंगा कि
जहां मेरा मौहल्ला है , घनी बस्ती है ।
आस - पास क्या दूर दूर तक चंदन - वृक्ष तो जाने ही दें , कोई भी पेड़ क्या , छोटी - सी झाड़ी भी नहीं ।
और विश्वास करें , पिछले कुछ वर्षों में पचासों सांप अलग अलग रंग - आकार के ,
हम कभी किसी गली से कभी किसी गली से जानकारों के हाथों पकड़वा चुके हैं ।
अनेक बार सांप देवता हाथ आए भी नहीं ।
… सवाल था , सांप और चंदन के साथ होने , या न होने के तथ्य का ।
जहां पत्थर उछलते हों
वहां मधुबन नहीं मिलता
सोच सोच कर थक गया , शे'र में क्या , किस संदर्भ में कहा गया है ?
अगर हो कांच से यारी
तो फिर कंचन नहीं मिलता
लक्षणा , व्यंजना में तो आशय स्पष्ट नहीं हो रहा शे'र का ।
अभिधा में ही मानें तो एक स्वर्णकार के नाते जानकारी बांटना चाहूंगा -
सोने पर रंगीन कांच के साथ ही मीनाकारी की जाती है ।
कांच - कंचन के संयोग बिना मीनाकारी हो ही नहीं सकती ।
औरतें सोने की चूड़ियां चाव से पहनने के साथ ही
कांच की भी चूड़ियां उन्हीं हाथों में , साथ ही साथ पहने हुए होती हैं ।
अर्थात … कांच से मैत्री की स्थिति में भी कंचन मिलता तो है !
बाद में आई विस्तृत टिप्पणियों को मैंने अभी नहीं पढ़ा है ।
लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूंगा ,
विमर्श वैमनस्य नहीं बनना चाहिए , यदि विमर्श वस्तुतः विमर्श ही है ।
मैंने जो नाममात्र आलोचना की है , उसमें मेरे उद्देश्य में सन्निहित ईमानदारी पर अंगुली न उठाई जाए तो इतना लिखने की सार्थकता समझूंगा ।
शुभकामनाओं सहित …
राजेन्द्र स्वर्णकार
आदरणीय, अगर उन छेदों को दूर करते तो मेरा ज्यादा भला होता।
जवाब देंहटाएंये कोई जरूरी नहीं जो अच्छा लिख नहीं पाये वह अच्छा आलोचक भी न हो पाये। सारे अच्छे आलोचक अच्छे रचनाकार रहे भी नहीं। हो सकता है मेरी भी नियति वही हो। अब क्या किया जाय कि,‘‘ हर आंखों में पानी लिखना‘‘ में हर के साथ आंखों नहीं आयेगा और आंखों के साथ हर नहीं आ सकता। अब इसमें मेरा क्या दोश।
डी0एल0ए0 में मेरी एक ग़ज़ल पर एक बुजुर्ग कवि ने मुझे फोन किया मेरी कमियां बताई। मुझे तो आज भी वे याद हैं। उनके घर का पता आज भी ढूढता हूं क्योंकि उन्होंने बार-बार निवेदन के बाद अपना नाम पता नहीं बताया। इस घटना का जिक्र मैंने सबसे किया कि “ाायद कोई जानता हो। इसमें मैं कोई “ार्म महसूस नहीं करता हूं। मैं पिटूंगा नहीं तो सीखूंगा कैसे। अभी तो युवा हूं बुढ़ापे में मुझे भी आलोचना गले से नीचे उतारने में मुश्किल होगी। ये ठीक है मैं आपसे छोटा हूं मुझे अपनों से बड़ों की आलोचना का नैतिक अधिकार नहीं है और मैं इससे बचने का प्रयास भी करता हूं लेकिन क्या करूं जब बड़ों के मित्र लोग मित्रभाव निभाने लग जायें तो कोई तो बोलेगा।
मुझे ऐसे लोग ज्यादा नहीं भाते जो जानते हुए भी अपने मित्र की कमियां बताते नहीं हैं-
मेरी कमियां मुझे बताते नहीं,
दोस्त यूं दुष्मनी निभाते हैं।
खैर छोड़िये आपने उगने की बात कही है तो बड़े भाई यष मालवीय का एक बहुत प्यारा गीत याद आ रहा है आप भी पढ़िये और अपने को कूल-कूल रखिए-
हम उगेंगे जंगलों से
तुम हमे चाहो न चाहो।
बीज हैं हम कसी मुट्ठी से, खुलेंगे
ओस से चेहरे हमारे ही धुलेंगे
भरेंगे फूलों फलों से
तुम हमे चाहो न चाहो।
धूप पानी हवा है भीतर हमारे
और होंगे जो हथेली हैं पसारे
हम बहेंगे मरूथलों से
तुम हमे चाहो न चाहो।
खाद हम खुद के लिए बनते रहे हैं
औ स्वयं के रक्त में सनते रहे हैं
बांध लेंगे गति पलों से
तुम हमे चाहो न चाहो।
गिरीशजी की गजलें पसंद आई...बधाई
जवाब देंहटाएं४ गजलें, ३३ शेर, किसी भी रचनाकार को समझ लेने के लिए काफी होते हैं. गिरीश पंकज को पढ़ा, समझा और देर तक यह सोचता रहा कि इस गजलकार के साथ क्या किया जाए. चूंकि कई दिनों बाद आज ही वापसी हुई है और पिछले ७-८ दिनों से बुखार पीड़ित भी हूँ, इस लिए कई बार यह भी ख्याल आया कि जाने दिया जाए. मन ने कहा, सर्वत! एक तुम्हारे कमेन्ट न देने से कुछ बनना-बिगड़ना नहीं. फिर डॉ. सुभाष राय का स्नेह और गिरीश पंकज की वो आशा-----लोग मेरी शल्यक्रिया करेंगे---याद आई तो अब देर शाम बैठा हूँ.
जवाब देंहटाएंगिरीश की गजलों ने मुझे प्रभावित किया, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं. गिरीश ने अपनी गजलों की जमीन वही चुनी है जो दुष्यंत ने ढूंढी थी और बाद के दिनों में उसकी आबयारी सूर्य भानु गुप्त, महेश अश्क, अदम गोंडवी, ज्ञान प्रकाश विवेक, सुल्तान अहमद जैसे गजलकारों ने की. "किसी को धन नहीं मिलता-किसी को तन नहीं मिलता", बहुत मामूली सा मतला दिखाई देता है लेकिन इसे लिखने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए. इसी गजल में- लगाओ मन फकीरी में...बहुत गहरा व्यंग्य है. "उनको मिलीं विफलताएं तो-दोष हमारे ही सर आया", सच की मिसाल है.
बड़ी बहर वाली गजल से मैं थोड़ा उलझन में हूँ. मुझे लगता है गिरीश भी लिखते समय उलझन में रहे होंगे. दरअसल, ये 'लिखता है' की रदीफ़ ही वाहियात है जो गिरीश को फंसा लेने में कामयाब हो गयी. रचनाकार की दिक्कत यह होती है कि हर रदीफ़, काफिया, बहर उसके लिए जितने आसान होते हैं उतने ही मुश्किल भी होते हैं. लेकिन कवि-हृदय जब तक उस मुश्किल को समझे, देर हो चुकी होती है.
प्रभावित कर लेने के बावजूद, गिरीश के रचनाकार से एक शिकायत मुझे है--अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल न करना. इन गजलों को थोड़ी मेहनत से और तराशा गया होता तो कहानी दूसरी होती. मीर का लहजा अपनाने का प्रयास भी बेकार गया. खैर यह पहला अवसर था और ये अंतिम गजलें नहीं हैं. लिहाज़ा मैं निराश नहीं हूँ और गिरीश को भी किसी के कमेन्ट से निराश होने की जरूरत नहीं. हाँ, यह उम्मीद जो मैं ने लगा रखी है, गिरीश को चाहिए कि उसकी हिफाजत करें. क्यों बन्धु, करेंगे?
देखने में आ रहा है कि 'साखी' पर कवियों/लेखकों की सहिष्णुता घटती जा रही है। मुझे लगता है कि साखी की शुरुआत यह सहिष्णुता बढ़ाने के लिए की गयी थी ताकि रचनाधर्मिता के क्षेत्र में विमर्श की महसूसी जा रही कमी को पूरा किया जा सके। यह विमर्श किसी भी क्षेत्र को पुष्ट और स्वस्थ बनाने के लिए अत्यावश्यक है। रचनाकारों के मिज़ाज में सहिष्णुता की आवश्यकता पर सुभाष जी ने काफी कुछ कह दिया है। उसे दोहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। हाँ, इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि साखी पर आने वाले हर रचनाकार को अपनी रचना पर विमर्श होने देने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। तभी और सिर्फ तभी हमारे भीतर की वे कमियां जिनके प्रति हम सामान्यतः अनजान बने रहते हैं दूर हो सकतीं हैं। टिप्पणीकार की उँगली अगर सही जगह उठी है तो उसका सधन्यवाद स्वागत होना चाहिए। यहाँ सभी टिप्पणीकार स्वयं रचनाकार भी हैं और मुझे नहीं लगता कि कोई रचनाकार साथी रचनाकार को नीचा दिखाने की मंशा से टिपण्णी करेगा। यदि ऐसा कोई करता भी है तो अधिक समय तक स्वीकार्य नहीं रहेगा। यदि आलोच्य रचनाकार को ऐसा लगता है कि ग़लती न होते हुए भी उसकी रचना पर उँगली उठाई जा रही है तो उसे अपने ज्ञान के आधार पर प्रत्युत्तर में टिप्पणीकार को सही करने का पूरा अधिकार है। बाकी लोग निश्चित रूप से उसे सपोर्ट करेंगे। लेकिन ग़लती होते हुए भी उसे ग़लती न मानना और टिप्पणीकार के प्रति अनावश्यक आक्रोश व्यक्त करना तो यही ज़ाहिर करता है कि आप अपनी गलतियों के साथ ही खुश हैं तथा स्वयं को सुधारना आपकी प्राथमिकताओं में शामिल ही नहीं है।
जवाब देंहटाएंवर्तमान सन्दर्भ में मैं समझता हूँ कि व्याकरण सम्बन्धी कई चूकों पर सही उँगली उठाई है भाई संजीव ने और कुछ पर आदरणीय सलिल जी ने। पंकज जी ने अपने प्रत्युत्तर में यह कहीं नहीं बताया है कि ऊँगली कहाँ गलत उठी है। उन्होंने आलोचना का अधिकार सिर्फ श्रद्धेय प्राण शर्मा सरीखे उम्रदराज़ लोगों को ही दिया है। आलोचना की क्षमता विकसित करने में उम्र की कुछ भूमिका है ज़रूर लेकिन सिर्फ उम्र ही इसका सही आधार है यह बात सही नहीं लगती। वैसे मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हो रहा है कि आदरणीय शर्मा जी ने इन ग़ज़लों को पूरी तरह क्लीन चिट कैसे दे दी!उनसे इतनी अपेक्षा तो थी ही कि कुछ साफ़ दिख रहीं गलतियों पर तो कुछ कहना ही चाहिए था। हो सकता है कि उन्होंने पंकज जी को अपने इस स्नेह का उचित पात्र ही न समझा हो। खैर यह उनकी अपनी मर्ज़ी है कि वे कब क्या कहना चाहेंगे, और कब किसे सुधारना चाहंगे। अरविन्द जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि हर लेखक/कवि की अपनी अलग शैली होतीहै क्यों कि वही तो उसकी पहचान होती है। लेकिन क्या व्याकरण सम्बन्धी गलतियाँ भी शैली में शामिल हो गयीं हैं? कम से कम मैं इस मामले में अनभिज्ञ हूँ। भाई संजीव ने अगर घनाक्षरी पर ऐसी कोई टिपण्णी की है जैसा अरविन्द जी का इशारा है तो वह दुर्भाग्यपूर्ण है । घनाक्षरी आज भी श्रेष्ठ कविता देने में सक्षम है और इस छंद विशेष में प्रचुर एवं स्तरीय हिंदी कविता उपलब्ध है।
देखने में आ रहा है कि 'साखी' पर कवियों/लेखकों की सहिष्णुता घटती जा रही है। मुझे लगता है कि साखी की शुरुआत यह सहिष्णुता बढ़ाने के लिए की गयी थी ताकि रचनाधर्मिता के क्षेत्र में विमर्श की महसूसी जा रही कमी को पूरा किया जा सके। यह विमर्श किसी भी क्षेत्र को पुष्ट और स्वस्थ बनाने के लिए अत्यावश्यक है। रचनाकारों के मिज़ाज में सहिष्णुता की आवश्यकता पर सुभाष जी ने काफी कुछ कह दिया है। उसे दोहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। हाँ, इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि साखी पर आने वाले हर रचनाकार को अपनी रचना पर विमर्श होने देने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। तभी और सिर्फ तभी हमारे भीतर की वे कमियां जिनके प्रति हम सामान्यतः अनजान बने रहते हैं दूर हो सकतीं हैं। टिप्पणीकार की उँगली अगर सही जगह उठी है तो उसका सधन्यवाद स्वागत होना चाहिए। यहाँ सभी टिप्पणीकार स्वयं रचनाकार भी हैं और मुझे नहीं लगता कि कोई रचनाकार साथी रचनाकार को नीचा दिखाने की मंशा से टिपण्णी करेगा। यदि ऐसा कोई करता भी है तो अधिक समय तक स्वीकार्य नहीं रहेगा। यदि आलोच्य रचनाकार को ऐसा लगता है कि ग़लती न होते हुए भी उसकी रचना पर उँगली उठाई जा रही है तो उसे अपने ज्ञान के आधार पर प्रत्युत्तर में टिप्पणीकार को सही करने का पूरा अधिकार है। बाकी लोग निश्चित रूप से उसे सपोर्ट करेंगे। लेकिन ग़लती होते हुए भी उसे ग़लती न मानना और टिप्पणीकार के प्रति अनावश्यक आक्रोश व्यक्त करना तो यही ज़ाहिर करता है कि आप अपनी गलतियों के साथ ही खुश हैं तथा स्वयं को सुधारना आपकी प्राथमिकताओं में शामिल ही नहीं है।
जवाब देंहटाएंवर्तमान सन्दर्भ में मैं समझता हूँ कि व्याकरण सम्बन्धी कई चूकों पर सही उँगली उठाई है भाई संजीव ने और कुछ पर आदरणीय सलिल जी ने। पंकज जी ने अपने प्रत्युत्तर में यह कहीं नहीं बताया है कि ऊँगली कहाँ गलत उठी है। उन्होंने आलोचना का अधिकार सिर्फ श्रद्धेय प्राण शर्मा सरीखे उम्रदराज़ लोगों को ही दिया है। आलोचना की क्षमता विकसित करने में उम्र की कुछ भूमिका है ज़रूर लेकिन सिर्फ उम्र ही इसका सही आधार है यह बात सही नहीं लगती। वैसे मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हो रहा है कि आदरणीय शर्मा जी ने इन ग़ज़लों को पूरी तरह क्लीन चिट कैसे दे दी!उनसे इतनी अपेक्षा तो थी ही कि कुछ साफ़ दिख रहीं गलतियों पर तो कुछ कहना ही चाहिए था। हो सकता है कि उन्होंने पंकज जी को अपने इस स्नेह का उचित पात्र ही न समझा हो। खैर यह उनकी अपनी मर्ज़ी है कि वे कब क्या कहना चाहेंगे, और कब किसे सुधारना चाहंगे। अरविन्द जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि हर लेखक/कवि की अपनी अलग शैली होतीहै क्यों कि वही तो उसकी पहचान होती है। लेकिन क्या व्याकरण सम्बन्धी गलतियाँ भी शैली में शामिल हो गयीं हैं? कम से कम मैं इस मामले में अनभिज्ञ हूँ। भाई संजीव ने अगर घनाक्षरी पर ऐसी कोई टिपण्णी की है जैसा अरविन्द जी का इशारा है तो वह दुर्भाग्यपूर्ण है । घनाक्षरी आज भी श्रेष्ठ कविता देने में सक्षम है और इस छंद विशेष में प्रचुर एवं स्तरीय हिंदी कविता उपलब्ध है।
आदरणीय गिरीश पंकज जी को मैंने जितना पढ़ा , परखा , समझा है ,
जवाब देंहटाएं…छंद के प्रबल समर्थक और समर्थ छंद सृजक हैं ।
उनके पैने व्यंग्यकार तथा प्रभावशाली गद्य लेखक स्वरूप को मैं यहां ज़रा भी रेखांकित नहीं करना चाहता ,
विषयांतर हो जाएगा ।
कोई विषय हो , उनकी लेखनी छंद में कुछ भी लिख सकती है , और वह भी चुटकियों में ।
गाय माता सहित अनेक घटना - दुर्घटनाओं पर लिखे उनके गीत और ग़ज़ल कमाल के हैं ।
यहां प्रस्तुत ग़ज़लें उनकी विलक्षण प्रतिभा की स्वयं परिचायक हैं ।
कुछ शे'र कोट करना चाहूंगा …
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
क्या बात है !
जीवन में संघर्ष के लिए जिस आत्मविश्वास की आवश्यकता हुआ करती है ,
कितनी ख़ूबसूरती से कह दिया है ।
ये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई
ये ऐसी बात है जिसको सही फ़नकार लिखता है
प्रेम की आवश्यकता का पाक साफ़ चित्रण !
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहां तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
प्यास , ख़ोज , तड़प , निराशा , वर्तमान का यथार्थ …
सभी कुछ एक शे'र में ! साधुवाद है !
… और ,
मिलेंगे लोग पंकज ; पर
वो अपनापन नहीं मिलता
भविष्य और वर्तमान क्रियाओं की अनिश्चितता के सहारे शोधित निष्कर्ष ,
अनुभव का अर्क सामने रख दिया है जैसे ।
शख़्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है
दो दिन पहले किसी मित्र ने मेल में मुझे गिरीश जी का यह शे'र भी कोट करके भेजा था ,
तब इनके अश्'आर की पहुंच के निरंतर बढ़ते जाते दायरे का आभास हुआ ।
अब कुछ बात दूसरे पक्ष पर …
कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है
कइयों ने पहले ही कह दिया है -
कोई तकरार लिखता है ही अधिक सही होता ।
वे अपनी खोल में ख़ुश हैं कभी बाहर नहीं आते
खोल को अब तक पुल्लिंग के रूप में ही देखते - सुनते आए हैं ।
अरे उससे हमारी दोस्ती होगी भला कैसे
मैं हूं पानी मगर वो हर घड़ी अंगार लिखता है
पानी अंगार को बुझाता है ,
यानी प्रथम मैं स्वयं ही किसी अन्य का अस्तित्व लील रहा हूं ,
फिर मलाल या शिकायत क्यों ?
किसी को धन नहीं मिलता
किसी को तन नहीं मिलता
तो …??
शे'र पूरा भी हो गया , बात क्या कहनी है स्पष्ट भी नहीं हो पाया ।
ये सांपों की है बस्ती पर
यहां चन्दन नहीं मिलता
यानी जहां चंदन होगा वहां सांप नहीं होंगे ?
चंदन विष व्यापै नहीं लिपटे रहत भुजंग …
और , यदि सांप हो वहां अनिवार्यतः चंदन भी हो ,
ऐसा सोच कर भाई गिरीश जी ने शे'र बनाया है तो यहां भी कहूंगा कि
जहां मेरा मौहल्ला है , घनी बस्ती है ।
आस - पास क्या दूर दूर तक चंदन - वृक्ष तो जाने ही दें , कोई भी पेड़ क्या , छोटी - सी झाड़ी भी नहीं ।
और विश्वास करें , पिछले कुछ वर्षों में पचासों सांप अलग अलग रंग - आकार के ,
हम कभी किसी गली से कभी किसी गली से जानकारों के हाथों पकड़वा चुके हैं ।
अनेक बार सांप देवता हाथ आए भी नहीं ।
… सवाल था , सांप और चंदन के साथ होने , या न होने के तथ्य का ।
जहां पत्थर उछलते हों
वहां मधुबन नहीं मिलता
सोच सोच कर थक गया , शे'र में क्या , किस संदर्भ में कहा गया है ?
अगर हो कांच से यारी
तो फिर कंचन नहीं मिलता
लक्षणा , व्यंजना में तो आशय स्पष्ट नहीं हो रहा शे'र का ।
अभिधा में ही मानें तो एक स्वर्णकार के नाते जानकारी बांटना चाहूंगा -
सोने पर रंगीन कांच के साथ ही मीनाकारी की जाती है ।
कांच - कंचन के संयोग बिना मीनाकारी हो ही नहीं सकती ।
औरतें सोने की चूड़ियां चाव से पहनने के साथ ही
कांच की भी चूड़ियां उन्हीं हाथों में , साथ ही साथ पहने हुए होती हैं ।
अर्थात … कांच से मैत्री की स्थिति में भी कंचन मिलता तो है !
बाद में आई विस्तृत टिप्पणियों को मैंने अभी नहीं पढ़ा है ।
लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूंगा ,
विमर्श वैमनस्य नहीं बनना चाहिए , यदि विमर्श वस्तुतः विमर्श ही है ।
मैंने जो नाममात्र आलोचना की है , उसमें मेरे उद्देश्य में सन्निहित ईमानदारी पर अंगुली न उठाई जाए तो इतना लिखने की सार्थकता समझूंगा ।
शुभकामनाओं सहित …
देखने में आ रहा है कि 'साखी' पर कवियों/लेखकों की सहिष्णुता घटती जा रही है। मुझे लगता है कि साखी की शुरुआत यह सहिष्णुता बढ़ाने के लिए की गयी थी ताकि रचनाधर्मिता के क्षेत्र में विमर्श की महसूसी जा रही कमी को पूरा किया जा सके। यह विमर्श किसी भी क्षेत्र को पुष्ट और स्वस्थ बनाने के लिए अत्यावश्यक है। रचनाकारों के मिज़ाज में सहिष्णुता की आवश्यकता पर सुभाष जी ने काफी कुछ कह दिया है। उसे दोहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। हाँ, इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि साखी पर आने वाले हर रचनाकार को अपनी रचना पर विमर्श होने देने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। तभी और सिर्फ तभी हमारे भीतर की वे कमियां जिनके प्रति हम सामान्यतः अनजान बने रहते हैं दूर हो सकतीं हैं। टिप्पणीकार की उँगली अगर सही जगह उठी है तो उसका सधन्यवाद स्वागत होना चाहिए। यहाँ सभी टिप्पणीकार स्वयं रचनाकार भी हैं और मुझे नहीं लगता कि कोई रचनाकार साथी रचनाकार को नीचा दिखाने की मंशा से टिपण्णी करेगा। यदि ऐसा कोई करता भी है तो अधिक समय तक स्वीकार्य नहीं रहेगा। यदि आलोच्य रचनाकार को ऐसा लगता है कि ग़लती न होते हुए भी उसकी रचना पर उँगली उठाई जा रही है तो उसे अपने ज्ञान के आधार पर प्रत्युत्तर में टिप्पणीकार को सही करने का पूरा अधिकार है। बाकी लोग निश्चित रूप से उसे सपोर्ट करेंगे। लेकिन ग़लती होते हुए भी उसे ग़लती न मानना और टिप्पणीकार के प्रति अनावश्यक आक्रोश व्यक्त करना तो यही ज़ाहिर करता है कि आप अपनी गलतियों के साथ ही खुश हैं तथा स्वयं को सुधारना आपकी प्राथमिकताओं में शामिल ही नहीं है।
जवाब देंहटाएंवर्तमान सन्दर्भ में मैं समझता हूँ कि व्याकरण सम्बन्धी कई चूकों पर सही उँगली उठाई है भाई संजीव ने और कुछ पर आदरणीय सलिल जी ने। पंकज जी ने अपने प्रत्युत्तर में यह कहीं नहीं बताया है कि ऊँगली कहाँ गलत उठी है। उन्होंने आलोचना का अधिकार सिर्फ श्रद्धेय प्राण शर्मा सरीखे उम्रदराज़ लोगों को ही दिया है। आलोचना की क्षमता विकसित करने में उम्र की कुछ भूमिका है ज़रूर लेकिन सिर्फ उम्र ही इसका सही आधार है यह बात सही नहीं लगती। वैसे मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हो रहा है कि आदरणीय शर्मा जी ने इन ग़ज़लों को पूरी तरह क्लीन चिट कैसे दे दी!उनसे इतनी अपेक्षा तो थी ही कि कुछ साफ़ दिख रहीं गलतियों पर तो कुछ कहना ही चाहिए था। हो सकता है कि उन्होंने पंकज जी को अपने इस स्नेह का उचित पात्र ही न समझा हो। खैर यह उनकी अपनी मर्ज़ी है कि वे कब क्या कहना चाहेंगे, और कब किसे सुधारना चाहंगे। अरविन्द जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि हर लेखक/कवि की अपनी अलग शैली होतीहै क्यों कि वही तो उसकी पहचान होती है। लेकिन क्या व्याकरण सम्बन्धी गलतियाँ भी शैली में शामिल हो गयीं हैं? कम से कम मैं इस मामले में अनभिज्ञ हूँ। भाई संजीव ने अगर घनाक्षरी पर ऐसी कोई टिपण्णी की है जैसा अरविन्द जी का इशारा है तो वह दुर्भाग्यपूर्ण है । घनाक्षरी आज भी श्रेष्ठ कविता देने में सक्षम है और इस छंद विशेष में प्रचुर एवं स्तरीय हिंदी कविता उपलब्ध है।
साखी पर पहली बार हूँ ... अच्छी लगीं गजलें ... सारे कमेन्ट भी पढ़े ... कुछ बातें जो विचारणीय लगीं
जवाब देंहटाएं१-ये कोई जरूरी नहीं जो अच्छा लिख नहीं पाये वह अच्छा आलोचक भी न हो पाये। सारे अच्छे आलोचक अच्छे रचनाकार रहे भी नहीं।
२-लिक्खे है को लिखता है के साथ पढने पर एक रुकावट आती है. शेर बहुत सुंदर है और बाँध लेता है, किंतु यह बात स्वयम् गिरीश जी ही बता सकते हैं कि यदि कोई तकरार लिखता है, कोई इनकार लिखता है लिखा जाता तो क्या फ़र्क पड़ता या शेर की सुंदरता कहाँ कम होती.
३-वर्तमान सन्दर्भ में मैं समझता हूँ कि व्याकरण सम्बन्धी कई चूकों पर सही उँगली उठाई है भाई संजीव ने और कुछ पर आदरणीय सलिल जी ने। पंकज जी ने अपने प्रत्युत्तर में यह कहीं नहीं बताया है कि ऊँगली कहाँ गलत उठी है। उन्होंने आलोचना का अधिकार सिर्फ श्रद्धेय प्राण शर्मा सरीखे उम्रदराज़ लोगों को ही दिया है। आलोचना की क्षमता विकसित करने में उम्र की कुछ भूमिका है ज़रूर लेकिन सिर्फ उम्र ही इसका सही आधार है यह बात सही नहीं लगती।
पहली बार है इस लिए अपनी तरफ से कुछ नहीं कहूँगा ... मैंने ग़ज़लें कहने की शुरुआत की है अभी अभी... चाहूँगा कि आप लोग मेरा मार्गदर्शन करें ... एक गज़ल यहाँ लिख रहा हूँ ...
रात कब बीते कब सहर निकले
इसी सवाल में उमर निकले
तमाम उम्र धडकनों का हिसाब
जो हल निकाला तो सिफर निकले
बद्दुआ दुश्मनों को दूँ जब भी
रब करे सारी बेअसर निकले
हर किसी को रही अपनी ही तलाश
जहाँ गए जिधर जिधर निकले
हमीं गवाह थे काज़ी भी हम
फिर भी इल्ज़ाम मेरे सर निकले
किसी कमज़र्फ की दौलत शोहरत
यूँ लगे चींटियों को पर निकले
उजले कपड़ों की जिल्द में अक्सर
अदब-ओ-तहजीब मुख्तसर निकले