शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

मदन मोहन शर्मा की गज़लें.

मदन मोहन शर्मा अरविंद एक प्रखर कवि, शायर और लेखक हैं. उनका जन्म २४ अगस्त १९५८ को उत्तर प्रदेश के अंतर्गत मथुरा जनपद के ग्राम गोकुल में श्री मोती लाल मुखिया जी के यहाँ हुआ. १४ मार्च १९७४ को गृहस्थ जीवन में प्रवेश. तनावों और अभावों के बीच आगरा विश्व विद्यालय से १९७७  में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण. प्रारंभ में ब्रज भाषा में काव्य रचना की. १९८० से १९९८ तक जीविकोपार्जन के लिए पंजाब में रहना पड़ा, तब खड़ी बोली की ओर रुझान हुआ.  लेखन का क्रम १९७३-७४ से निरंतर चल रहा है. मन में जब विद्रोह का सागर उमड़ता है या करुणा की कोई लहर उठती है तो कविता अपने आप जन्म लेती है. पिछले लगभग ३५ वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ आकाशवाणी के प्रसारणों में स्थान मिलता रहा है.  विगत कुछ वर्षों में अनेक अंतर्जाल पत्रिकाओं में भी उपस्थिति दर्ज हुई है. यहां पेश हैं अरविंद की कुछ गज़लें.....


1.
खुश्क मौसम को सिखा दे प्यार कुछ ऐसे बरस
आग पानी से करे सिंगार कुछ ऐसे बरस

फूंक दे मौका परस्तों की ठगों की बस्तियां
बूंद जालिम को बने अंगार कुछ ऐसे बरस

मुल्क के सौदागरों के तन बदन पर जब गिरे
धार हो तलवार की सी धार कुछ ऐसे बरस

हर झड़ी में ताजगी  का जोश का अहसास हो
दाग धरती के धुलें इस बार कुछ ऐसे बरस

थी फलों की आस जिनसे वो तने सड़ गल गए
हो नयी फिर से फसल तैयार कुछ ऐसे बरस


2.
जाने फिर से कब आएगी रात सितारों वाली.
कितने वादे झुठलाएगी रात सितारों वाली

खिलता गुलशन छोड़ गयी थी इतना भर कह जाती
किसकी बगिया महकाएगी रात सितारों वाली.

ऐसी धरती ऐसा आंगन आगे और नहीं है
दूर गयी तो पछताएगी रात सितारों वाली.

अगवानी की जिद में कब से धूप नहीं देखी है
और कहाँ तक ले जाएगी रात सितारों वाली.

ग़म से बढ़ते रिश्तों का अहसास उसे जब होगा 
मेरी खुशियाँ लौटाएगी रात सितारों वाली.







3.
चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 
कितने मौसम बीत चुके हैं कितने सूरज डूब गए
कब की बातें कब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

हंसते हिलते आहें भरते कब देखा था याद नहीं
पत्थर हैं पर लब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 
समझ लिया क्यों दर्द मिले हैं आज दुआ के बदले में
शैतानों को रब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 
कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.


4.
जिस्म बौछार जलाती क्यों है
ये घटा आग लगाती क्यों है

साथ अपनों के रह नहीं पाती
हाथ गैरों से मिलाती क्यों है

राज महलों पै आजमाए दम
कच्ची दीवार गिराती क्यों है

बिन बुलाये ग़रीब की छत पर
रोज तूफान मचाती क्यों है

अब ये बरसात क्यों नहीं जाती
नींद मुफलिस की उड़ाती क्यों है 



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संपर्क: 09897562333
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पेंटिंग उत्तमा दीक्षित के सौजन्य से 
उत्तमा का ब्लाग-- 
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36 टिप्‍पणियां:

  1. मदन मोहन जी के भाव और शब्द चयन दोनों का कोई जोड़ नही...उम्दा ग़ज़ल की प्रस्तुति...बधाई हो!!

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  2. मदन जी की पहली ग़ज़ल के जो भाव हैं वे दोहरा अर्थ पैदा करते हैं। ऐसे बरस से जो ध्‍वनि पैदा होती है वह बारिश का आभास भी देती है और समय का भी। तीसरी ग़ज़ल पढ़कर लगता है जैसे वे हम जैसे सब पागलों की बात कह रहे हैं। सचमुच हममें से कितने लोग ऐसे हैं जिन्‍हें जब चुप रहना चाहिए तब ही हम बोलते हैं। लेकिन जब बोलते हैं तो केवल सच बोलते हैं। मदन जी ने यह बात इतनी सहजता से कह दी है कि मन करता है कहने का कि वे कितने पागल हैं। असल में पागलों को ही मिटने का खौफ नहीं होता है। जिसे मिटने का खौफ न हो वही सच्‍चाई से नहीं डरता है।

    चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
    सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.


    कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
    जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    और इसी ग़ज़ल का यह शेर हमारी आज की सामाजिक विसंगति को सामने रख रहा है-

    समझ लिया क्यों दर्द मिले हैं आज दुआ के बदले में
    शैतानों को रब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    चौथी गज़ल में बारिश को माध्‍यम बनाकर उन्‍होंने शोषण की बात की है। कुल मिलाकर देखें तो मदनमोहन जी दिल और दुनिया के बहुत नजदीक हैं। वे केवल दिल की बात नहीं करते, वे दुनिया की बात दिल से करते हैं। यही उनकी रचनात्‍मक ताकत है।

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  3. चरों गज़लें अलग अलग अंदाज़ में कही हैं ...

    बहुत अच्छा लगा पढ़ना ...

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  4. बहुत सुन्दर ..और इस असीम संभावनाओं के रचनाकार से मिलाने के लिए आभार !

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  5. मदन मोहन शर्मा अरविंद की सभी गजलें
    बहुत ही उच्चकोटि की हैं!
    --
    पढ़कर आनन्द आ गया!

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  6. मित्रों, मुझे ऐसी सूचना मिली है कि कतिपय स्थिति में टिप्पड़ियां प्रकाशित नहीं हो रहीं हैं. अगर आप को ऐसी कोई परेशानी दिखती है तो थोड़ा कष्ट होगा मगर ईमेल कर दें. पता है--

    raisubhash953@gmail.com

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  7. आदरणीय मदन मोहन जी का परिचय पढ़कर बहुत प्रभावित हुवा. तीनो ही ग़ज़लें बेहद ही उम्दा और मुकम्मल हैं. साधुवाद आदरणीय श्री सुभाष जी का इतनी ख़ूबसूरत ग़ज़लों और ग़ज़ल का परिचय बेहद खूबसूरती से करवाने औरउतनी ही ख़ूबसूरत प्रस्तुति पर आभार !

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  8. " हर झड़ी में ......."
    "ऎसी धरती ऐसा आँगन....."
    "कितने मौसम बीत चुके हैं....."
    सभी एक से बढ़ कर एक.
    हार्दिक बधाई.

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  9. चारों गज़लें शानदार यथार्थ बोध कराती हैं और समीक्षा तो उत्साही जी ने कर ही दी है।

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  10. अलग अलग मूड में लिखी चारों ग़ज़ल पता रही हैं की वे एक श्श्क्त हस्ताक्षर हैं ग़ज़लों के ....
    हर शेर पका हुवा ... सामाजिक परिस्थिति को बयान करता हुवा है ....

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  11. chaunk mt jana kbhi bijli ki gahri kaundh se
    is thr hi dekhta sb ko jmana hai

    uttm rchnayen ,sadhuvad

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  12. श्री मदन मोहन शर्मा की सभी गज़लें मैं बड़े मनोयोग से पढ़ गया हूँ .
    उनके कई शेरों के बयान स्पष्ट नहीं हैं.उनका एक शेर है -
    थी फलों की आस जिनसे वो तने सड़ गल गये
    हो नयी फिर से फसल तैयार कुछ ऐसा बरस
    इस शेर से यह आभास नहीं होता है कि गज़लकार का इशारा पानी से
    है या बादल से ? उनका एक और शेर देखिए --
    बिन बुलाये गरीब की छत पर
    रोज़ तूफ़ान मचाती क्यों हैं
    इस शेर में तूफ़ान मचाने वाली कौन है ,बिलकुल स्पष्ट नहीं है.मेरी एक
    पुरानी कही ग़ज़ल का मतला है--
    ये भला कैसे मुए हालात आये हैं
    दिन में भी जिनने हमें तारे दिखाए हैं
    स्पष्ट है कि दिन में तारे दिखाने वाले हालात हैं. गज़कार को इस बात का
    ध्यान रखना चाहिए कि ग़ज़ल का हर शेर स्वंतत्र होता है और वह बयान में परिपूर्ण और
    स्पष्ट होना चाहिए.

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  13. मनमोहन जी की ग़ज़ल, है अनूप-जीवंत.
    शब्द-शब्द में भाव हैं, सँग अनुभाव अनंत..

    'सलिल' मुग्ध है देखकर, भाषिक सरल प्रवाह.
    बिम्ब-प्रतीकों ने दिया, शैल्पिक रूप अथाह..

    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com

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  14. पहली ग़ज़ल, ग़ज़ल में लिखे गए जज़्बात के साथ साथ हिंदी व्याकरण के अलंकार से सुसज्जित है. यमक अलंकार बरस अर्थात् एक साल और बरस अर्थात् बारिश का होना तथा तीसरे शेर में धार का अर्थ तलवार की धार के साथ साथ पानी की धार का भी बोध कराती है. और यह प्रयोग ग़ज़ल की सुंदरता को बढा देता है. यह गज़ल वर्त्तमान परिस्थिति पर एक अफसोस ज़ाहिर करती हुई, एक उम्मीद की आस लगाए बरसात से विनती करती प्रतीत होति है जहाँ प्यार से सूने ख़ुश्क मौसम में प्यार की कोंपलों की चाह है, मौक़ापरस्तों और ठगों की बस्तियाँ जलाने का अनुरोध, मुल्क़ के सौदागरों को ख़त्म करने के भाव, धरती के घिनौने दाग़ जो इसकी संतानॉं ने दिए हैं उनको धो डालने की उम्मीद है वहीं एक नई धुली, सद्यःस्नाता धरा की कामना भी है.

    दूसरी ग़ज़ल... साहिर साहब ने कहा था वो सुबह कभी तो आएगी और आप कह रहें हैं कब आएगी रात सितारों वाली. शायर के मन के भाव का पता नहीं किंतु एक पाठक के रूप में मुझे यह अनुभूति हुई कि यहाँ भी रात के अंधियारे में सितारों की चमक एक आशावाद का प्रतीक है. वो चमक जो किसी कारण से हमसे खो गई है और उसके आने की प्रतीक्षा में हम कब से पलकें बिछाए खड़े हैं. शायर की हताशा उससे यह भी कहलवाती है कि
    ऐसी धरती ऐसा आंगन आगे और नहीं है
    दूर गयी तो पछताएगी रात सितारों वाली.

    जवाब देंहटाएं
  15. तीसरी ग़ज़ल, तो एक एलानिया बयान है शायर का कि हाँ मैं ऐसा ही हूँ, भले ही तुम्हारी दुनिया मुझे पागल समझे. वे सामाजिक मूल्य जो आज खो चुके हैं, उनकी याद दिलाती ग़ज़ल. जहाँ लोग कहने के बजाए मुँह सी लेते हैं, पत्थर के होंठ लिए महफिल में शिरकत करते हैं, दिल में ज़हर और ज़माने के ख़ुदा बने फिरते हैं और दिल की बातें दिल में रखकर अपनी फितरत छिपाए फिरते हैं, ऐसे जहाँ में शायर हवाओं के रुख़ के ख़िलाफ़ चलता है और सिर्फ चलता ही नहीं कहता है कि मैं पागल हूँ. हर शेर अपने आप में एकबालिया बयान है इस शायर को पागलख़ाने में डालने के लिए, जुर्म सिर्फ इतना कि इसने ज़माने के आदाब नहीं अपनाए.

    चौथी ग़ज़ल के मतले पर चचा ग़ालिब के एक शेर के साथ हुए अत्याचार की याद आती है.
    नुक्तचीं है, ग़मे दिल उसको सुनाए न बने.
    इस ग़ज़ल की धुन फिल्म मिर्ज़ा ग़ालिब में कुछ यूँ बनी कि शेर का रूप ऐसा हो गया
    नुक्तचीं है ग़मे दिल, उसको सुनाए न बने.
    ग़ालिब का कहना था कि वो मीनमेख निकालने वाला है, उसको दिल के ग़म सुनाने का कोई फ़ायदा नहीं. लेकिन सिर्फ एक कौमा (अल्पविराम,ध्यान से देखें दोनों शेर में) की ग़लती से उसका अर्थ हुआ कि ग़मे दिल मीन मेख निकालने वाला है इसलिए उसको सुनाकर कोई फायदा नहीं. गाना सुरैया ने गाया है, सुन लें तो समझ जाएंगे.
    आपके मतले पर भी कौमा न होनेके कारण मैं शुरू में भ्रमित हो गया, फिर सम्भल गया.
    यह एक आम आदमी की वेदना व्यक्त करती ग़ज़ल है, जो बरसात के कारण उत्पन्न परिस्थितियों से पैदा हुई है या इस प्रतीक के सहारे दिखाने की कोशिश की गई है. घटा से जिस्म का जलना, ग़ैरों के साथ चले जाना, महलों को छोड़कर कच्चे घरों को गिराना, ग़रीब की छत पर तूफान मचाना और मुफलिस के सारे दिन पर पानी फेर देना. यह एक आम आदमी की वेदना है जो सभी शेरों में दिखाइ देती है.

    एक कमी जो इन सभी ग़ज़लों में खटकती है, वो यह है कि मिसरा ए सानी को पढने के बाद आपके मुँह से बेसाख़्ता वाह नहीं निकलती है और न टीस पर आह निकलती है. ग़ज़ल की सफलता पूरी तरह इम्पैक्ट पर मुनस्सिर है जो मिसरा ए ऊला के साथ डेवेलप होता है और मिसराए सनी के साथ क्या बात है की बुलंदी पर ख़त्म होता है. मेरी तरफ से मदन मोहन शर्मा जी को धन्यवाद, कुछ अच्छी ग़ज़लोंसे रू ब रू करवाने के लिए और आभार डॉ. सुभाष राय जी का भी.

    जवाब देंहटाएं
  16. मदन मोहन शर्मा अरविंद जी की ग़ज़लियात से रूबरू होने का मौका कुछ अर्सा पहले ही मिला था ।
    यहां भी आपकी उम्दा ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं ।
    चार ग़ज़लों में चार ख़ूबसूरत शे'र छांटने को कहा जाए तो बेहद मुश्किल काम साबित हो सकता है ।

    मदन मोहन जी की लेखनी से भी अश'आर निकलते ही हैं तो एक से एक बेहतरीन !

    खुश्क मौसम को सिखा दे प्यार कुछ ऐसे बरस
    आग पानी से करे सिंगार कुछ ऐसे बरस

    नई बात कही है… आग का पानी से शृंगार !
    बढ़िया ग़ज़ल है …

    हंसते हिलते आहें भरते कब देखा था , याद नहीं
    पत्थर हैं पर लब कहता हूँ , मैं भी कितना पागल हूँ

    क्या एहसास का शे'र कहा है हुज़ूर !
    बहुत पसंद आया । बधाई !

    वैसे , माज़्रत के साथ कहूंगा कि तग़ज़्ज़ुल और तख़य्युल के पैमाने पर ग़ज़लें कुछ कमजोर हैं ।
    लगभग सपाटबयानी - सी होने के कारण शिल्प - सौष्ठव की परिपक्वता दबती प्रतीत हो रही है ।
    कई बार प्रकाशनार्थ दी जाने वाली रचनाओं का चयन करने में भी रचनाकार मात खाता है , मेरे साथ तो ऐसा हो जाता है ।
    हां , एक दो जगह अलंकारों की उत्पत्ति हुई है , जो सराहने योग्य है ।
    कुल मिला कर अरविंद जी निराश नहीं करते ।

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  17. जिस्म बौछार जलाती क्यों है
    ये घटा आग लगाती क्यों है

    वाह कमाल का मतला

    साथ अपनों के रह नहीं पाती
    हाथ गैरों से मिलाती क्यों है

    कमाल

    राज महलों पै आजमाए दम
    कच्ची दीवार गिराती क्यों है

    क्या बात कही है .. मेरे ख्याल से राजमहल एक साथ लिखा जाना चाहिए

    बिन बुलाये ग़रीब की छत पर
    रोज तूफान मचाती क्यों है

    क्या खूब अंदाज़

    अब ये बरसात क्यों नहीं जाती
    नींद मुफलिस की उड़ाती क्यों है

    बहुत ही जानदार शेर .. ये ग़ज़ल खास तौर पर पसंद आई, और सकून समेटते हुए ग़ज़ल के मतले से मक्ते तक का सफ़र तय हुआ

    जवाब देंहटाएं
  18. चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
    सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    कितने मौसम बीत चुके हैं कितने सूरज डूब गए
    कब की बातें कब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    waah waah kya sher kaha hai .. kitna anutha andaaz



    हंसते हिलते आहें भरते कब देखा था याद नहीं
    पत्थर हैं पर लब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    ohhh maan gaye sahab aapki ustaadi .......

    समझ लिया क्यों दर्द मिले हैं आज दुआ के बदले में
    शैतानों को रब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
    जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

    bahut shaandaar gazal
    is gazal par meri dili daad kabool karen

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  19. मदन मोहन शर्मा की चार गजलें, निस्संदेह अर्थ, भावाभिव्यक्ति के आधार पर पाठक/श्रोता को मंत्रमुग्ध कर देने की हैसियत रखती हैं. ये गजलें परम्परा से हट कर, समकालीन मानवीय मूल्यों से जुड़ी हुई हैं. शर्मा जी बधाई के पात्र हैं.
    चार गजलें पढने के बाद, रचनाकार का व्यक्तित्व (व्यक्ति का नहीं) काफी कुछ सामने आ जाता है. मैं ने भी थोडा बहुत शर्मा जी को समझा और मेरी मोटी बुद्धि ने मुझे जो कुछ बताया, वो यहाँ रखने का प्रयास कर रहा हूँ.
    गजलों में सभी अशआर अच्छे हों, यह दावा तो शायद कोई नहीं कर सकता. इस बिंदु पर शर्मा जी को भी छूट है. लेकिन कुछ शेरों पर थोड़ी मेहनत और की गयी होती तो शायद नतीजा और बेहतर हो सकता था.
    मैं पहली गजल की बात करना चाहूँगा, इसकी रदीफ़ है---कुछ ऐसे बरस. मेरा मानना है रचनाकार ने रदीफ़ ही गलत चुनी है. यह ठीक है कि पढ़ते समय हम इस रदीफ़ को कामना समझ लेते हैं लेकिन हर कोई इतना दिमाग लगाएगा, विश्वासपूर्वक कहा नहीं जा सकता. अगर यह गजल मेरी होती तो मैं रदीफ़ ------- ' हाँ अबके बरस' रखता. शर्मा जी द्वारा प्रयुक्त रदीफ़ के कारण कुछ शेर अर्थ को सीधी राह नहीं दे सके.
    दूसरी गजल, अच्छी है. रात सितारों वाली- हमारे सपनों, सियासत, समाज सभी के पर्याय के रूप में काम कर गयी. अर्थ की दृष्टि से भी शर्मा जी को मुबारकबाद दिए बगैर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. 'मैं भी कितना पागल हूँ', इस गजल में शायद रचनाकार कुछ जल्दबाजी से काम ले गया. मतले में ही, "जब कहता हूँ सच कहता हूँ......"किया होता तो क्या गलत होता. उल्टा वाक्य रख कर यदि अनूठापन बनाने का प्रयास है तो यह प्रयास सफल नहीं हुआ. कुछ शेर अर्थ खोलने में लाचार हैं. इन पर अन्य लोग कह चुके हैं, दुहराना अच्छी बात नहीं.
    चौथी गजल- मेरे लिए हैरान करने वाली है. एक सिद्धहस्त रचनाकार से गलती की उम्मीद तो नहीं की जा सकती लेकिन हम आदमी हैं, फरिश्ता नहीं. फिर भी, गलती नजर की चूक हो तो नजरअंदाज़ हो सकती है. गलती बार बार हो तो सोचना पड़ता है. चौथी गजल-- " जिस्म बौछार जलाती क्यों है-ये घटा आग लगाती क्यों है", इसका वजन है-२१२२११२२२. मतले के बाद गजल के हर पहले मिसरे का वजन है- २१२२१२१२२२. लम्बे अरसे से गजल साधना में रत, किसी गजलकार के लिए यह दोष निराशा पैदा करने वाला है. "ऐसा होता है" या "बहुतों ने ऐसे ही कहा है " कहने से दोष समाप्त नहीं होगा. गजल बेहद सम्मोहक लेकिन कठिन विद्या है. बहुत से लोग इसे अपने व्याकरण से हांकने की कोशिश में लगे और मुंह के बल गिरे. लिहाज़ा शर्मा जी को मेरा मशवरा है कि गजल का व्याकरण ढंग से सीख लें, इस में शर्म न महसूस करें. सीखना तो जीवन पर्यन्त चलता रहता है. प्रार्थी भी विद्यार्थी ही है.
    मैं बाह्ल्फ़ कहता हूँ, जो कुछ कहा, सच कहा, सच के सिवा कुछ नहीं कहा. मदन मोहन शर्मा उम्र में मुझसे छोटे हैं, उन्हें गलतियों-जल्दबाज़ियों की तरफ ध्यान दिलाना मेरा धर्म है. मैं ने टिप्पणी, विद्वता साबित करने के उद्देश्य से नहीं पोस्ट की है.
    मदन मोहन शर्मा जी, मेरी बातों को सहज लीजिएगा, मेरे प्रति कुछ गलत मत सोचिएगा.

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  20. विद्वानों के विचार अभी आ रहे हैं, फिर भी एक टिप्पणी पर प्रतिक्रिया देना मुझे अपरिहार्य लग रहा है. अपने कहा है कि
    कई शेरों के बयान स्पष्ट नहीं हैं,.एक शेर है -
    थी फलों की आस जिनसे वो तने सड़ गल गये
    हो नयी फिर से फसल तैयार कुछ ऐसा बरस
    इस शेर से यह आभास नहीं होता है कि गज़लकार का इशारा पानी से
    है या बादल से ?
    यहाँ पानी बरसे या बादल, फसल पर दोनों का प्रभाव एक ही होगा, वैसे भी बादल पानी ही बरसाते हैं और कुछ नहीं, फिर इस प्रश्न का औचित्य मेरी समझ में नहीं आया.
    एक और शेर देखिए --
    बिन बुलाये गरीब की छत पर
    रोज़ तूफ़ान मचाती क्यों हैं
    इस शेर में तूफ़ान मचाने वाली कौन है ,बिलकुल स्पष्ट नहीं है.
    जाहिर है गरीब क़ी छत पर बिल्ली तो तूफान मचाने से रही, बरसात ही होगी. मैं आप सब से इस शेर को ग़ज़ल के बाहर अकेला पढने की गुजारिश करता हूँ, मुझे बताइयेगा यह शेर आपको बरसात के अलावा कहीं और भी लेकर जा रहा है क्या? हर शेर मैं बरसात की पुनरावृत्ति तो कोई अच्छा प्रभाव उत्पन्न करती नहीं. मैं अभी नौसिखिया हूँ, अगर ग़ज़ल पर इस्लाह भी की होती तो कुछ और सीखने को मिलता.
    सादर,
    मदन मोहन 'अरविन्द'

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  21. madan jee ,
    pranam !
    main sirf aap ko sadhuwad , badhai preshit karna chahuga m shandaar rachanon ke liye ,
    madan jee , aap ko janam din { 24 august } ki hardik badhai sweekar kariyega ,
    aabhar !

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  22. ग़ज़ल के बारे में तमाम विद्वानों ने पहले ही अपनी राय दे दी है, बस मै तो इतना ही कहूँगा कि चारों गज़ले बेहतरीन है| आशार दिल को छू कर निकलते हैं|

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  23. सबसे पहले तो अरविन्द जी को बधाई उनकी ग़ज़लों के साखी का हिस्सा बनने पर। आजकल समय कम मिल पा रहा है लेकिन आज जब सर्वत जी की टिप्पणी देखी तो मन कुछ लिखने को हुआ। ये सही है कि अरविन्द जी की चैथी ग़ज़ल बहर से खारिज है उस पर तो बात करना ठीक नहीं है हां पहली तीन ग़ज़लों में तीसरी ग़ज़ल “ोश तीनों में ज्यादा भारी है । इसके कारण का हलका सा जिक्र सर्वत जी ने अपनी टिप्पणी में किया है वह है इस ग़ज़ल के रदीफ का दुरूस्त होना और यह भी सही है कि “ाुरू की दोनों ग़ज़लों के हल्के होने का कारण भी यही है यानि रदीफ का हल्का होना। वास्तव में अगर देखा जाय तो अच्छी रदीफ ग़ज़ल के अधिकांष मिजाज को तय कर देती है और रदीफ क्या है भाशा के मुहावरे का हिस्सा। यहीं हिन्दी के अधिकांश ग़ज़लकार गलती करते हैं और उर्दू में इसी हिस्से पर सबसे ज्यादा मेहनत की गई है। ये भले ही कड़वा लगे लेकिन सच है कि हिन्दी के ऊपर हिन्दी वालों से ज्यादा मेहनत उर्दू वालों ने की है। यहां हिन्दी से मेरा आशय खड़ी बोली हिन्दी से है। बृज, अवधी या भोजपुरी से नहीं। भाशा के इसी मुहावरे की कमी के कारण अरविन्द जी की ग़ज़लें कुछ कमजोर कही जा सकती हैं। होना यह चाहिए कि मिस्रा पढ़ते ही उसका चित्र आंखों के सामने आ जाना चाहिए अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो निष्चित रूप से कमी है और यह कमी अधिकांशतः कवि के भाषा पर मुहावरे की कम पकड़ के कारण ही आती है।
    अरविन्द जी की ग़ज़लें कथ्य के स्तर पर निष्चित रूप से प्रभावित करती हैं। उनकी साफगोई एवं अनुभव की प्रामाणिकता के कारण उनमें प्रभावोत्पादकता है लेकिन जब ग़ज़लों की बात चलती है तो कम्बख्त व्याकरण बीच में आ ही जाता है।

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  24. ARVIND JEE,GEET YAA GAZAL SAAF - SUTHRAA BYAAN
    CHAHTEE HAI. DEKHIYE ,KISEE NE KITNAA SAAF -SUTHRA GEET KAA MUKHDA LIKHA HAI - "BARAS
    JAA AE BADAL BARAS JAA ." EK BAAR MAINE YAH
    MISRAA KAHAA THAA - " VO GIREGEE ,AASHIYA JAL
    JAAYEGA " . MERE USTAAD JEE NE AANKHEN TARER KAR
    POOCHHAA THA - " KAUN GIREGEE ? " MAINE JAWAAB
    MEIN KAHAA THAA - " BIJLEE ." USTAAD JEE NE
    AADESH DIYAA THAA - " JAAO, MISRE MEIN BIJLEE
    KAA ISTEMAAL KARO . GAZAL MEIN KISEE BHEE SHABD
    KEE KANJOOSEE KARNA SAHEE NAHIN."
    BHAIYA, GAZAL GAGAR MEIN SAGAR BHARNE KEE KALAA HAI.KABHEE KAVIWAR RAM NARESH TRIPATHI NE KAHAA THA - " BHASHAA KO MAANJNE -
    SANWAARNE AUR SPASHT KAVITA LIKHNE MEIN JITNAA
    KAAM URDU SHAAYRON NE KIYA HAI UTNAA KAAM HINDI
    KAVI NAHIN KAR PAAYE HAIN."

    जवाब देंहटाएं
  25. अरविन्दजी की ग़ज़ले भी नए तेवर के साथ सामने आई है.बधाई. इनसे पहली बार परिचय हुआ पर रचनाओं के तेवर बतलाते है कि ये कम नहीं है. कथ्य और शिल्प दोनों मोर्चे पर इन्का अपना रंग है...ढंग है. ऐसे पागल ही आज के दौर को चाहिए. जो परिवर्तनकामी हों.

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  26. एक प्रयोग करके देखने की बात मन में आयी. चौथी ग़ज़ल में मैंने गेयता, प्रवाह और लय का पूरा ध्यान रखते हुए बहर की पाबन्दी में थोड़ी ढील जानबूझ कर छोड़ दी. यह कमी केवल एक उस्ताद शायर की नज़रों के सिवा सब को धोखा दे गयी. अब तीन बातें हो सकती हैं- १. हो सकता है औरो ने हर एक शेर पर मीटर लगा कर जांचने की जरुरत ही न समझ हो. २. हो सकता है औरों की नज़र में ऐसी कमी होना कोई खास बुराई की बात न हो. ३. हो सकता है और किसी को यह कमी अखरी या खटकी ही न हो. कारण कुछ भी रहा हो पर इस कमी का कहीं कोई खास असर दिखाई नहीं दिया. मेरे प्रयोग का यही मकसद था. ऐसा नहीं कि ये बातें कह कर मैं अपनी ग़ज़ल को पूर्णता का प्रमाण पत्र दे रहा हूँ लेकिन इस प्रयोग के माध्यम से एक सवाल अपने आप से जरुर पूछ रहा हूँ कि वक्त की भारी कमी के इस दौर में हम अपने पूर्वाग्रहों को कब तक और कितना महत्त्व दे पाएंगे. एक मामूली सी छूट लेकर मैंने ग़ज़ल को कितना नुकसान या फायदा पहुँचाया यह तो हिंदी-उर्दू ग़ज़ल के विद्वान ही बता पाएंगे.
    एक और खास बात जिसका असर मैं इस प्रयोग के माध्यम से देखना चाहता था वह थी उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी.
    यह कुछ तकनीकी सवाल थे जिन पर अपना नजरिया रखना मुझे जरुरी लगा इस लिए इतनी गुस्ताखी करने की हिम्मत जुटा पाया. सही गलत का फैसला करना मेरे जैसे नौसिखिये के लिए आसान नहीं, इस पर तो विद्वान् ही कुछ कहें तो बेहतर.
    परमादरणीय प्राण शर्मा जी और सर्वत जमाल साहब की बेशकीमती राय और मार्गदर्शन के जरिये उनकी विद्वत्ता का लाभ मुझे जरुर मिलेगा. आदरणीय संजीव गौतम और राजेन्द्र स्वर्णकार साहब को ग़ज़लें कमजोर लगीं या अच्छी नहीं लगीं, इतना ही निवेदन है, आशीर्वाद दीजिये कि आगे और अच्छा लिखूं और आपको भी अच्छा लगे.
    आदरणीय राजेश उत्साही जी, श्रद्धा जी, डॉ रूप चन्द शास्त्री मयंक जी और बिहारी ब्लॉगर साहब की विस्तृत टिप्पणियों में जिस प्यार और अपनेपन की खुशबू का अहसास मुझे हुआ वह मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं, धन्यवाद कहकर इस अपनेपन में कमी लाने की हिम्मत मैं कैसे करूँ.
    आदरणीया संगीता स्वरुप गीत, वंदना जी, आदरणीय विनोद कुमार पाण्डेय जी, अरविन्द मिश्रा जी, नरेंद्र व्यास जी, डॉ. अमर ज्योति, दिगंबर नासवा जी, वेद व्यथित जी, आचार्य संजीव सलिल जी, सुनील गज्जानी जी, राणा प्रताप सिंह जी और गिरीश पंकज जी ने मेरा उत्साह वर्धन किया, आप सबके असीम स्नेह के समक्ष मैं नत मस्तक हूँ.
    श्रद्धेय डॉ. सुभाष राय ने एक ऐसा मंच हम सब को दिया है जहाँ न केवल कविता होती है, कविता पर बात भी होती है. इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए मैं उनको भी बधाई देता हूँ और उनके सामने श्रद्धावनत हूँ.

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  27. मदन मोहन जी को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ!!

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  28. मदन मोहन अरविंद जी को जन्मदिन की अनेकानेक शुभकामनाएं !
    चर्चा बहुत हो चुकी ।
    जनाब , अब पार्टी का इंतज़ाम हो जाए…
    बतलायें , कब कहां पहुंचना है ?



    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  29. मदन मोहन जी की गज़लें मानवीय भावों का तनाव लेकर उपस्थित हैं ,सार्थक अव्हिव्यक्ति के लिए बधाई .राय साहब आपको गज़लें भेजने के लिए धन्यवाद.

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  30. @अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प्रयोग के माध्यम से देखना चाहता था वह थी उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."

    अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने, उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@शायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाषा को देखिए वहां मेहनत हुई है।

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  31. इसी से ब्रज भाषा में ‘ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-
    कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
    भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।
    एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।
    आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं।
    अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये।

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  32. अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी।
    ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।

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  33. अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे

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  34. अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया

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  35. उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी।

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  36. ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।

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हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...