बुधवार, 4 अगस्त 2010

कविता की चीख भी समझें

'अरुणा के अल्हड़ मन की सहज अभिव्यक्तियाँ सामने आयीं। जैसे कविता के विशाल उपवन में कोई ताज़ा कली अचानक-अनायास खिलकर सुगंध को शब्दों की बयार में घोलकर पूरे उपवन को अपनी ताज़गी का अहसास करा रही हो। कविता में जब सारे मुद्दे चुक जाते हैं तब प्रेम शाश्वत मुद्दे के रूप में हमारे सामने आता है और हर बार नया रूप लेकर। ऐसा ही नया रूप दिखाई दिया है इस नवोदित  कवयित्री की इन कविताओं में', यह विचार जाने-माने रचनाकार डा. त्रिमोहन तरल के हैं।  अरुणा की कविताओं पर बात करते हुए वे आगे कहते हैं, मानवीय व्यवहार की संवेदनशून्यता को अभिव्यक्ति तो उनकी तीनों कवितायें दे रहीं हैं लेकिन दूसरी कविता के अंतिम छोर ने तो ह्रदय को झकझोर कर रख दिया। एक कवि की दो पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं -
इक वो दुनियां है जो चीखों को गीत समझती है
इक वो दुनियां है जो गीतों को चीख समझती है
चीखों को गीत समझने वाले लोग तो दुनियां में भरे पड़े हैं, हम कवियों का दर्द तो यह है कि गीतों को चीख समझने वाले लोग कहाँ से आयें।

पर गज़लकार संजीव गौतम को अरुणा की कविताओं की अपनी अर्थवत्ता के बावजूद  सब कुछ संयत नहीं लगा। वे कहते हैं , अरूणा जी  की कविताओं का स्वर वैयक्तिक ज्यादा है लेकिन  यह हमारे समय का एक सच है। कुछ भाषिक प्रयोग के अंश सुखद रूप से चौंकाते हैं। अचानक हड़बड़ाहट या घबराहट में आ जाने वाले पसीने के लिए किया गया प्रयोग ‘शिराओं का रक्त उलीचने लगता है नमक और जल‘ और इस प्रयोग की चित्रात्मकता तथा ध्वन्यात्मकता देखिए ‘कानों के लिए तो सस्वर पाठ करना होगा आंसुओं का..‘ और ये, ‘तभी दूर आकाश में यूकेलिप्टस हिले....‘ वाह बहुत खूब। चित्रात्मक भाषा कवि की सबसे बड़ी पूंजी है। बहुत कुछ अच्छा दिखा इन कविताओं में लेकिन ये गद्य और पद्य के बीच की एक बारीक विभाजन रेखा का अतिक्रमण करतीं भी दिखीं। छन्दमुक्त कविताओं के सृजन में  यदि आप भाषिक रूप से सतर्क नहीं हैं तो कविता के गद्य हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। छन्द मुक्त कविता और गद्य के बीच बहुत स्पष्ट अन्तर नहीं है। पहली कविता के पहले खंड में यह विभाजक रेखा का अतिक्रमण बार-बार दीखता है।

ब्रिटेन के मशहूर कवि और गज़लगो प्राण शर्मा ने कहा कि अरुणा राय की कविताओं में साफ-सुथरी भाषा है और साफ-सुथरे भाव भी। उनमें एक अच्छा कवि छुपा हुआ है, वे बहुत आगे जायेंगी। प्रसिद्ध कवयित्री हरकीरत हीर के मुताबिक अरुणा जी की रचनायें ह्रदय से लिखी गयी हैं, इसलिए पाठक को बरबस खींच लेतीं हैं। कवि, राजनीतिक एक्टिविस्ट और आगरा विश्व विद्यालय में शिक्षक डा सी पी राय ने कहा कि अरुणा जी कि कविताये बहुत गंभीर है, वे  जो कहना चाहती हैं, कहने में सफल रही है। इनकी कवितायें दिल को छूने वाली है। कवि और गज़लकार मदन मोहन 'अरविन्द'  अरुणा की कविताओं में मानवीय संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति देखते हैं। कवयित्री कविता रावत का मानना है कि अरुणा जी ने मानवीय मन की भावनाओं को बखूबी बांधा है।

रचनात्मक प्रतिभा की धनी संगीता स्वरूप कहती हैं, मन के भावों को बहुत सहजता से कहा है, आधुनिक प्रेम का चित्र खींचा है  और मन की संवेदनाओं को शब्दों में खूबसूरती से ढाला है। प्रसिद्ध चर्चाकार अनामिका जी कहती हैं,  मन के उदगारों को कोमलता से कुछ शब्द दे दिए हैं। कवि और आलोचक राजेश उत्साही  का मानना है कि अरूणा की कविता में एक तरह की अराजकता है। शब्‍दों की अराजकता, विचारों की अराजकता। अराजकता ऐसी है जो आपको अचंभित करती है,परेशान भी और मुग्‍ध भी। आज का युवा मन प्रेम को किस तरह महसूस करता है, वह अरूणा की पहली कविता में सहज रूप से उभर आया है। मोबाइल नामक यंत्र हमारी संवेदनाओं को किस हद तक भौंथरा बना सकता है, यह उनकी दूसरी कविता में है। तीसरी कविता में अनजाने ही यूकिलिप्‍टस का जिक्र आ गया है। संयोग ही है कि यूकिलिप्‍टस संस्‍कृति ने जमीन का पानी तो सुखाया ही है,हमारी आंखों का पानी भी अब सूखता चला है। यह भी क्‍या संयोग ही है कि पिछले हफ्ते इसी जगह प्रस्‍तुत मेरी एक कविता में भी इसी विडम्‍बना का जिक्र था। सचमुच अरूणा से अपेक्षाएं और बढ़ गई हैं। वन्दना जी को लगता है कि राजेश की समीक्षा के बाद उनके लिये कहने को कुछ नहीं बचा है। प्रतुल वशिष्ठ कहते हैं कि प्यार के इर्द-गिर्द पवित्र, मासूम, निर्दोष विशेषणों को सजाना प्यार के प्रति दृष्टिकोण  निर्मित करना है। हम या तो अपने प्रेम की कलुषता को छिपाने के लिए इन शब्दों को ओढ़ते हैं, या फिर इन शब्दों को बिछाकर प्यार की साधना करते दर्शाते हैं। आकांक्षा जी और मिथिलेश दुबे को भी कवितायें दिल छूने वाली लगीं।




व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति की प्रतिक्रियाओं में मैंने प्रतिकविता के तत्व पाये, इसलिये उनका उल्लेख करना जरूरी होगा।  उन्होंने एक खास बात भी कही, रचना वही है, जो रचने केलिये बाध्य कर दे। उनकी प्रतिकविताओं को उसी तरह रख रहा हूं।
1. मोबाइल से प्‍यार/ उससे खींचे चित्रों से प्‍यार/ संदेशों से प्‍यार/ चाहे वे भेजे गए हों/ चाहे वे पाए गए हों/ चाहे खो गए हों/ पर प्‍यार सबसे है। हवा, पानी, धूप/ जैसा हो गया है मोबाइल/ ऐसा लगता है/ प्रकृति में ही ढला था/  अब सामने आया है/ इसने सबको लुभाया है। इसका प्‍यार अलग भी है/ इसे रिचार्जिंग चाहिए/ ऊष्‍मा बैटरी की चाहिए/ बिना इसके / न प्‍यार चलता है/ न प्‍यार पलता है/ इसके झांसे में आ जाए/ वो कभी न संभलता है / पर यह जीवन है/ क्‍यों जीवन ऐसे ही चलता है। 2. आंसुओं का सस्‍वर पाठ/ बरसात है/ उसका साथ है/ आप उसे किस रूप में/ स्‍वीकारते हैं/ बादल बनते हैं खुद / या बन जाते हैं टब/ जिसमें भर जाए पानी/ आंखों का सारा पानी/
जो आंसू बन बहने लगता है। 3. आकाश में यूकेलिप्‍टस/ यू के से लिपटना नहीं होगा/ जरूर कोई पौधा ही होगा/ नहीं जानता अर्थ/ इसलिए अनर्थ गढ़ा है/ शब्‍दकोश में तलाशूं/ इस पचड़े में नहीं पड़ता/ मन से पढ़ता हूं/ जिन शब्‍दों को/ मैं समझ नहीं पाता/ याद फिर भी/ मुझे रह नहीं पाता/ बरसात हो और/ ले गया होऊं छाता।


शनिवार को ओम प्रकाश नदीम की गज़लें
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7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ...बहुत अच्छी चर्चा ....चर्चा का एक नया रूप मिला ..

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  2. यहाँ तो बहुत अच्छी चर्चा है......'पाखी की दुनिया' में भी घूमने आइयेगा.

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  3. बहुत ही बढिया समीक्षा की है ………………आपके ब्लोग की यही खासियत है रचनाकार और पाठक दोनो का तारतम्य बहुत ही सहजता से बना देते हैं।

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  4. भवतां भावा: बहु पुष्‍टा: सन्ति,

    प्रत्‍येकस्मिन् वाक्‍ये प्रवाह: अस्ति ।

    यावदपि प्रशंसां कुर्म: तावदपि अपर्याप्‍तमेव ।


    मम जालपृष्‍ठ संस्‍कृतं-भारतस्‍य जीवनम् कृते लेखनामन्‍त्रणं स्‍वीकृत्‍य कृतार्थं कुर्वन्‍तु कृपया ।

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  5. मुझे लगता तरल जी अनायास ही एक महत्‍वपूर्ण बात कह गए हैं। मेरे विचार से असली विडम्‍बना यही है कि हमारा समाज चीख को गीत समझ कर सुनता है और भूल जाता है। इसलिए शायद एक रचनाकार के नाते हमारा यही कर्त्‍तव्‍य बनता है हमारी रचनाएं वो चीख बनें जिन्‍हें गीत समझकर भुलाना आसान न हो।

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  6. bahut achchi sameeksha karte hain aap
    ek saath sabki raay sabke khyaal padh lete hain

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  7. # गीतों को चीख समझने वाले लोग कहाँ से आयें। .
    @ एक छोटी-सी त्रुटि से अर्थ का अनर्थ निकल रहा है.
    'गीतों को चीख' नहीं 'गीतों की चीख' जैसा कि आपने शीर्षक में भी उल्लेख किया है.
    # बरसात हो और/ ले गया होऊं छाता। — व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति की प्रतिकविता में अंत कुछ इस तरह होना चाहिये था ...
    @ बरसात हो और / ले जाऊँ कोई छाता. — शायद यह भी त्रुटि का ही परिणाम हो.
    बहरहाल एक अच्छी समीक्षा और सभी टिप्पणीकारों को महत्व देती आलोचना. आलोचना वही अच्छी मानी जाती है जो छोटे-बड़े का भेद भुलाकर सभी के दृष्टिकोणों को तवज्जो दे. एक बेहतरीन पहल. शायद मुझे ही लग रहा हो ये पहल है.

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हां, आज ही, जरूर आयें

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