गल्प के भीतर आज की सामाजिक विसंगतियों को बुन कर आधुनिक वैताल कथा की रचना करने वाने गिरीश पंकज गद्य लेखन में जितने सिद्धहस्त हैं, काव्यरचना में भी उतने ही पारंगत। एक जनवरी 1957 को भोले बाबा की नगरी बनारस में जन्मे पंकज ने हिंदी साहित्य से परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। पत्रकारिता स्नातक परीक्षा में वे प्रावीण्य सूची मे प्रथम रहे। लोक संगीत-कला में डिप्लोमा किया। उनके नाम आठ व्यंग्य संग्रह, तीन व्यंग्य उपन्यास समेत कुल बत्तीस पुस्तकें हैं। पिछले पैंतीस सालों से पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियहैं। बिलासपुर टाईम्स, युगधर्म, नवभारत, भास्कर, स्वदेश, राष्ट्रीय हिन्दी मेल एवं खबरगढ़ में सिटी चीफ, साहित्य संपादक और संपादक पद संभालने के बाद फिलहाल स्वतंत्र लेखन। साहित्यिक पत्रिका ''सद्भावना दर्पण'' का संपादन। उनकी व्यंग्य रचनाओ पर लगभग दस छात्र लघु शोध कर चुके हैं। इन दिनों कर्णाटक और मध्यप्रदेश के दो छात्र इनके साहित्य पर पीएच. डी कर रहे हैं। गिरीश पंकज की रचनाएँ मलयालम, तेलुगु, कन्नड़, तमिल, ओड़िया, पंजाबी एवं छत्तीसगढ़ी आदि में भी अनूदित हो चुकी हैं। उन्हें लखनऊ का अट्टहास सम्मान, दिल्ली का रमणिका फाउंडेशन सम्मान, भोपाल का रामेश्वर गुरू सम्मान, पंजाब का लीलारानी स्मृति सम्मान प्राप्त हो चुका है। ब्लॉग लेखन के लिये ''ई टिप्स'' और ''परिकल्पना'' द्वारा हाल ही में सम्मानित। रचना धर्म के ऐसे अनमोल रत्न पंकज की कुछ गज़लें पेश हैं......
1.
कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है
हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है
वे अपनी खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आते
मगर ये बावरा दुनिया, जगत, व्यवहार लिखता है
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
ये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई
ये ऐसी बात है जिसको सही फनकार लिखता है
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
तुम्हारे पास आ जाऊं पढ़ूं कुछ गीत सपनों के
तुम्हारे नैन का काजल सदा श्रृंगार लिखता है
यहाँ छोटा-बड़ा कोई नहीं सब जन बराबर हैं
मेरा मन ज़िंदगी को इस तरह तैयार लिखता है
अरे उससे हमारी दोस्ती होगी भला कैसे
मैं हूँ पानी मगर वो हर घड़ी अंगार लिखता है
उधर हिंसा हुई, कुछ रेप, घपले, हादसे ढेरों
ये कैसी सूरतेदुनिया यहाँ अखबार लिखता है
वो खा-पीकर अघाया सेठ कल बोला के सुन पंकज
ज़रा दौलत कमा ले तू तो बस बेकार लिखता है
2.
किसी को धन नहीं मिलता
किसी को तन नहीं मिलता
लुटाओ धन मिलेगा तन
मगर फिर मन नहीं मिलता
हमारी चाहतें अनगिन
मगर जीवन नहीं मिलता
किसी के पास धन-काया
मगर यौवन नहीं मिलता
ये सांपों की है बस्ती पर
यहाँ चन्दन नहीं मिलता
जहां पत्थर उछलते हों
वहां मधुबन नहीं मिलता
मोहब्बत में मिले पीड़ा
यहाँ रंजन नहीं मिलता
लगाओ मन फकीरी में
सभी को धन नहीं मिलता
वो है साजों का मालिक पर
सभी को फन नहीं मिलता
अगर हो कांच से यारी
तो फिर कंचन नहीं मिलता
मिलेंगे लोग पंकज पर
वो अपनापन नहीं मिलता.
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3.
शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है
प्रेम से तो पेश आना सीख ले
चार दिन का तू अरे मेहमान है
एक खामोशी यहाँ पसरी हुई
ये हवेली है कि इक शमशान है
मुफलिसी अभिशाप है तेरे लिए
मुझको तो लगता कोई वरदान है
वो महकता है सुबह से शाम तक
जिसके भीतर नेकदिल इनसान है
बाँट दे दिल खोल कर दौलत अरे
पास तेरे गर कोई जो ज्ञान है
हो रहमदिल आदमी इतना बहुत
फ़िर तो क्या अल्लाह, क्या भगवान है
4.
कुछ हाथों में पत्थर आया
मैंने फूल बढ़ाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
उनको मिली विफलताएं तो
दोष हमारे ही सर आया
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझता घर रोशन कर आया
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
सदस्य, " साहित्य अकादमी", नई दिल्ली.
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