रचनाकार का वक्तव्य
-------------------
तिलकराज कपूर |
ग़ज़ल कहने की मेरी प्रक्रिया और
किसी अन्य की प्रक्रिया में शायद ही कुछ अंतर हो। बस यकायक कोई शेर बन
जाता है, कोशिश रहती है कि पहला ही शेर मत्ले के रूप में हो जाये। यदि ऐसा
नहीं हुआ तो शेर के बाद मत्ले का शेर ही होता है। बस उसके बाद फ़ुर्सत का
ही प्रश्न रह जाता है। एकाध हफ़्ते में ग़ज़ल का ढॉंचा तैयार हो जाता है।
यदा-कदा उस ढॉंचे को देखता रहता हूँ और मंजाई चलती रहती है। कई ग़ज़ल ऐसी
रहीं कि एक-दो महीने के अंतराल पर उन्हें देखने पर मज़ा नहीं आया और पूरी
की पूरी खारिज हो गयीं। जब कोई 'तरही' का अवसर मिलता है तो समय बंधन ग़ज़ल
लिखवा ही लेता है। मेरी रचना प्रक्रिया में एक भारी दोष है, जब तक नया
शब्द काफि़या के लिये मिलता जाये, नया शेर बनता जाता है। उद्देश्य रहता
है अधिक से अधिक शेर कहने का, जिससे बाद में कमज़ोर शेर हटाकर एक पुख्ता
ग़ज़ल को अंतिम रूप दिया जा सके; लेकिन फिर कभी सम्पादन का अवसर ही नहीं
मिल पाता और ग़ज़ल में कई शेर ऐसे छूट जाते हैं, जिन्हें भरती का माना जा
सकता है। आदत की बात है, लगता है धीरे-धीरे जायेगी।
शेर
कहने में सबसे अधिक मज़ा आता है चुनौती के रूप में। अक्सर घर में कहता
हूँ कि कुछ शब्द दो। फिर कोशिश रहती है सभी शब्दों को एक ही शेर में लेने
की। मुझे लगता है इससे शब्दों को बॉंधने का अभ्यास अच्छी तरह होता है।
तिलकराज कपूर की ग़ज़लें
1.
ज़माने को हुआ क्या है, कोई निश्छल नहीं मिलता
किसी मासूम बच्चे सा कोई निर्मल नहीं मिलता।
युगों की प्यास का मतलब उसी से पूछिये साहब
जिसे मरुथल में मीलों तक कहीं बादल नहीं मिलता।
जुनूँ की हद से आगे जो निकल जाये शराफ़त में
हमें इस दौर में ऐसा कोई पागल नहीं मिलता।
यक़ीं कोशिश पे रखता हूँ, मगर मालूम है मुझको
अगर मर्जी़ न हो तेरी, किसी को फल नहीं मिलता।
जहॉं भी देखिये नक़्शे भरे होते हैं जंगल से
ज़मीं पर देखिये तो दूर तक जंगल नहीं मिलता।
समस्या में छुपा होगा, अगर कुछ हल निकलना है
नियति ही मान लें उसको, अगर कुछ हल नहीं मिलता।
हर इक पल जिंदगी का खुल के हमने जी लिया 'राही'
गुज़र जाता है जो इक बार फिर वो पल नहीं मिलता।
2.
हुस्नो-अदा के तीर के बीमार हम नहीं
ऐसी किसी भी शै के तलबगार हम नहीं।
हमको न इस की फि़क्र हमें किसने क्या कहा
जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं।
जैसा रहा है वक्त निबाहा वही सदा
हम जानते हैं वक्त की रफ़्तार हम नहीं
चेहरा पढ़ें हुजूर नहीं झूठ कुछ यहॉं
कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं।
हमको सुने निज़ाम ये मुमकिन नहीं हुआ
तारीफ़ में लिखे हुए अश'आर हम नहीं।
उम्मीद फ़ैसलों की न हमसे किया करें,
खुद ही खुदा बने हुए दरबार हम नहीं।
फि़क़्रे-सुखन हमारा ज़माने के ग़म लिये
हुस्नो अदा को बेचते बाज़ार हम नहीं।
3.
किसी को मस्ती, मज़े का आलम, प्रभु तुम्हारे भजन में आए
हमें मज़ा ये ग़ज़ल में तेरे वचन की हर इक कहन में आए।
खिले हुए हैं, हज़ार रंगों के फ़ूल नज़रों की राह में पर,
जिसे न चाहत हो तोड़ने की, वही मेरे इस चमन में आए।
सभी पे छाया हुआ है जादू, बहुत कमाने की आरज़ू है
खुदा ही जाने, उधर गया जो, न जाने फिर कब वतन में आए।
तुझे पता है, मेरे किये में, सियाह कितना, सफ़ेद कितना
जो इनमें अंतर, करे उजागर, वो धूप मेरे सहन में आए।
कहा किसी ने बुरा कभी तो, चुभन हमेशा, रही दिलों में
कभी किसी को, लगे बुरा जो, न बोल ऐसा जहन में आए।
अगर जहां हो तेरे मुखालिफ़, कभी न डरना, कभी न झुकना
खुदा निगहबॉं बना हो जिसका तपिश न उस तक अगन में आये।
तुझे ऐ 'राही' कसम खुदा की, सभी को अपना, बना के रखना
मिलो किसी से, सुकूँ वो देना, जो दिल से दिल की छुअन में आये।
4.
सज़्दे में जो झुके हैं तेरे कर्ज़दार है
दीदार को तेरे ये बहुत बेकरार हैं।
मेरे खि़लाफ़ जंग में अपने शुमार हैं
हमशीर भी हैं, उनमे कई दिल के यार हैं।
ऑंधी चली, दरख़्त कई साथ ले गई
बाकी वही बचे जो अभी पाएदार हैं।
ऐसा न हो कि आखिरी लम्हों में हम कहें
अपने किये पे हम तो बहुत शर्मसार हैं।
बेचैनियों का राज़ बतायें हमें जरा
फ़ूलों भरी बहार में क्यूँ बेकरार हैं
किससे मिलायें हाथ यहॉं आप ही कहें
जब दिल ये जानता है सभी दाग़दार हैं।
सपने नये न और दिखाया करें हमें
दो वक्त रोटियों के सपन तार-तार हैं।
सौ चोट दीजिये, न मगर भूलिये कि हम
हारे न जो किसी से कभी वो लुहार हैं।
कपड़ों के, रोटियों के, मकानों के वासते
जाता हूँ जिस तरफ़ भी उधर ही कतार हैं।
तुम ही कहो कि छोड़ इसे जायें हम कहॉं
इस गॉंव में ही मॉं है सभी दोस्त यार हैं।
कहता नहीं कि हैं सभी 'राही' यहॉं बुरे
पर जानता हूँ इनमें बहुत से सियार हैं।
5.
इधर इक शम्अ तो उस ओर परवाना भी होता था
नसीबे-इश्क में मिलना-ओ-मिट जाना भी होता था।
अरे साकी हिकारत से हमें तू देखता क्या है
हमारी ऑंख की ज़ुम्बिश पे मयखाना भी होता था।
समय के साथ ये सिक्का पुराना हो गया तो क्या
कभी दरबार में लोगों ये नज़राना भी होता था।
हमारे बीच का रिश्ता हुआ क्यूँ तल्ख अब इतना
कभी मेरी मुहब्ब्त में तू दीवाना भी होता था।
मैं अरसे बाद लौटा हूँ तो दिन वो याद आये जब
यहॉं महफिल भी जमती थी तेरा आना भी होता था।
भला क्यूँ भीड़ में इस शह्र की हम आ गये लोगों
मुहब्बत कम नहीं थी गॉंव में दाना भी होता था।
सुनाये क्या नया 'राही', ठहर कर कौन सुनता है
हमें जब लोग सुनते थे तो अफ़साना भी होता था।
6.
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।
चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।
मोतियों की क्या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
क्यूँ मैं दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।
देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।
जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।
हैं सभी तो व्यस्त 'राही' गॉंव में
मत शिकायत कर अगर श्रोता नहीं।
7.
थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।
जो परिंदे थे नये, टपके वही बस
इस तरह बाज़ार को उसने उछाला।
देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर
आपने भी ये विषय हरचन्द टाला।
जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्यूँ बैर पाला।
भूख क्या होती है जबसे देख ली है
क्यूँ हलक में जा अटकता है निवाला।
एकलव्यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।
तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।
जिंदगी तेरा मज़ा देखा अलग है
इक नशा दे जब खुशी औ दर्द हाला।
त्याग कर बीता हुआ इतिहास इसने
हरितिमा का आज ओढ़ा है दुशाला।
बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।
रचनाकार का परिचय
--------------------
- जन्म-26 जुलाई 1956 श्योपुर कलॉं जिला मुरैना में। (अब श्योपुर भी एक जिला है)
- उच्चतर माध्यमिक तक अधिकॉंश शिक्षा मुरैना जिले में। 1976 में ग्वालियर के माधव
- इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी एण्ड साईंस से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक
- 1980 से मध्यप्रदेश जल संसाधन विभाग में कार्यरत।
- वर्तमान में मध्यप्रदेश जल संसाधन विभाग में संचालक, जल मौसम विज्ञान के पद पर
- सूचना प्रबंधन, मानव संसाधन विकास, आर्गेनाईज़ेशनल डेव्हलपमेंट, चेंज मैनेजमेंट,
- इन्टीग्रेटेड रिवर बेसिन प्लॉनिंग आदि विषयों पर विशेष नियंत्रण।
बहुत ही सफल सार्थक और सुन्दर रचनाएँ, बहुत खूब.........
जवाब देंहटाएंहृदय से आभारी हूँ मदन मोहन जी।
हटाएंतिलकराज कपूर जी की गज़लों का स्वाद बेहद मीठा और कहने का अंदाज तीखा लगता है । विंब और कथ्य बिलकुल अलग किन्तु शिल्प से कोई समझौता न होना इनकी गज़लों की सबसे बड़ी विशेषता है । अपनी गज़लों की मजाई के बारे मे इन्होने साफ-साफ कह दिया है, इसलिए उसपर किसी भी प्रकार की टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है । इनकी गज़लों को पढ़ने के बाद जुबान से आह भी निकलती है और बाह भी । बेहद सुंदर और सारगर्भित गजल के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंहृदय से आभारी हूँ रवीन्द्र प्रभात जी।
हटाएंतिलक भाई साहिब की गज़लों के क्या कहने मै तो उन्हे3ं पढने को हमेशा लालायित रहती हूँ। अभी कम्प्यूटर बन्द करने वाली थी कि टिलक पढ कर बन्द नही कर पाई बस अक़ज एक ब्लाग पढना ही सफल रहा। उनकी उस्तादाना गज़लों पर मै क्या कहूँगी। एक से बढ कर एक। उनसे बहुत कुछ सीखा है। आशा है आगे भी उनका योगदान बना रहेगा।लाजवाब गज़लों के लिये उनको बधाई\
जवाब देंहटाएंहृदय से आभारी हूँ निर्मला दीदी। स्नेह बनायें रखें।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा तो इंसान को अतिरिक्त उर्जा देती ही है लेकिन कहीं कोई दोष छूट गया हो तो वह इंगित होने से भविष्य के लिये सुधार होता है। उर्जा के साथ-साथ सौष्ठव की भी आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंतिलक जी बहुत निराले शायर हैं...लाखों में एक...सबसे बढ़िया बात ये है के वो जितने अच्छे शायर हैं उस से भी अच्छे और प्यारे इंसान हैं और जैसी प्रतिभा उनमें है वैसी इश्वर हर किसी को नहीं देता...आसपास की चीजों पर उनकी पकड़ ग़ज़ब की है...मैंने कई बार देखा है जिस शेर पर माथापच्ची करने के बाद मैं उनकी शरण में मदद के लिए जाता हूँ वो उसे चुटकी में कह देते हैं....ये ग़ज़लें मेरी उनके बारे में व्यक्त की गयी धारणा की पुष्टि करती हैं...
जवाब देंहटाएंउनकी ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व और सोच का आइना हैं...
जुनूँ की हद से आगे जो निकल जाये शराफ़त में,
हमें इस दौर में ऐसा कोई पागल नहीं मिलता।
जैसा शेर जैसे उन्होंने ने अपने लिए ही कहा है. तिलक जी की रचना प्रक्रिया जटिल नहीं है वो आसान और ठोस शब्दों में अपनी बात कहते हैं और ये ही उनकी बहुत बड़ी खूबी है.
चेहरा पढ़ें हुजूर नहीं झूठ कुछ यहॉं
कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं।
हमेशा हँसते हंसाने वाले तिलक जी ही ऐसा शेर कह सकते हैं
कहा किसी ने बुरा कभी तो, चुभन हमेशा, रही दिलों में
कभी किसी को, लगे बुरा जो, न बोल ऐसा जहन में आए।
उनकी हर ग़ज़ल से हम ज़िन्दगी जीने का खुशनुमा अंदाज़ सीख सकते हैं, उनकी ग़ज़लें सिर्फ मनोरंजन के लिए ही नहीं है हमें सीख भी देती हैं
ऐसा न हो कि आखिरी लम्हों में हम कहें
अपने किये पे हम तो बहुत शर्मसार हैं।
ये ही नहीं उनकी बाकी सभी ग़ज़लें एक से बढ़ कर एक हैं. उनमें ऊर्जा का अथाह भण्डार है और ये असीम ऊर्जा ही उनसे ऐसी लाजवाब ग़ज़लें कहलवाती है.
साखी पर उनकी रचनाये एक साथ पढना एक सुखद अनुभव है.
नीरज
आपकी स्नेहासिक्त टिप्पणी से अभिभूत हूँ।
जवाब देंहटाएंसादर
तिलक
शिल्प के माहिर ... विशिष्ट अंदाज़ में अपनी बात रखने वाले तिलक जी नेट पे गज़ल कहने वालों में एक जाना पहचाना नाम हैं ... उनकी गज़लों का खजाना एक साथ देख के मज़ा आ गया ... हर गज़ल लाजवाब शेरों से सज्जित है ...
जवाब देंहटाएंयुगों की प्यास का मतलब उसी से पूछिये साहब
जिसे मरुथल में मीलों तक कहीं बादल नहीं मिलता ...
कितनी आसानी से अपनी बात को रक्खा है ... ये हुनर तिलक जी के पास ही है ..
हमको न इस की फि़क्र हमें किसने क्या कहा
जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं।
वाह ... बेबाकी से कही गई बात ...
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।
थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला। ...
मतले ही इतने लाजवाब हैं की दांतों तले ऊँगली अपने आप ही आ जाती है ...
ग़ज़ल कोई रचनाकार कैसे लिखता है, इस विषय को पाठक शायद ही कोई महत्व देते हों. पाठक का सरोकार तो सिर्फ रचनाओं की गुणवत्ता से होता है. कुछ लोगो को यह बात बुरी लग सकती है लेकिन देवनागरी लिपि में बिना उर्दू जाननेवाले उर्दूमिज़ाज के रचनाकारों की गज़लें हों या हिंदी के रचनाकारों की गज़लें,भाषा के मुहाबरे के प्रति उदासीनता(शायद अज्ञानता) और अपनी ग़ज़लों को परखने के लिये अलग नज़र, कुछ ऐसे कारण हैं जिससे ख़याल अछा होते हुए भी बात बनते बनते रह जाती है.ग़ज़ल सदैव कहन के लिये याद की जाती रही है और रहेगी.कहन का सीधा रिश्ता भाषा के मुहाबरे से है.कोई बच्चन जी के गीत पढ़ कर देखे और फिर ग़ज़ल की कहन से तुलना करे.इस कहन और हिंदी भाषा के सौंदर्य का सबसे सटीक उदाहरण 'मधुशाला' है. हिंदी भाषा के वैभव को ग़ज़ल अभी छू भी नहीं पाई है. जिन्होंने कोशिश की वे सिर्फ़ भाषा की फ़िक्र में रहे,गज़ल को भूल गये. ग़ज़ल की बारीकियाँ कहन की बारीकियाँ ही हैं.
जवाब देंहटाएंमैं कोई उस्ताद नहीं इसलिये किसी की रचनाओं पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी करना उचित नहीं समझता, जब तक कि कोई ख़ुद ही न कहे. कोई किसी को नहीं समझा सकता जब तक कि कोई ख़ुद ही न समझना चाहे. यह खुशी की बात हो सकती है कि हिंदी में ग़ज़लें ख़ूब लिखी जा रही है लेकिन इस ख़ूब में ख़ूबियों पर भी तो नज़र जमे. हिंदी में काफ़ी रचनाकार हैं जिन पर कोई उँगली नहीं उठा सकता लेकिन आत्ममुग्धता की स्थितियाँ भी कम नहीं हैं. जहाँ तक मैं समझता हूँ रचनाकार को अपना सब से बड़ा आलोचक होना चाहिये.जब तक ऐसा नहीं होता इतिहास नहीं रचा जा सकता. डा. सुभाष राय की कविताएं भी भाषा के मुहाबरे की तस्दीक करती हैं. मैं उनसे निवेदन करना चाहता हूँ आगामी किसी अंक में वे अपनी रचानाओं का आनंद उठाने का मौका दें. एक दूसरे की तारीफ़ के साथ साथ यदि बाच्चन जी, आनंद शर्मा और राम अवतार त्यागी जैसे गीत्कारों को भी बीच बीच में यदि साखी पर प्रस्तुत किया जासके तो साखी की सर्थकता में वृद्धि होगी.
आदरणीय अशोक जी,
हटाएंजैसा धीर-गंभीर चरित्र आपके चित्र व ग़ज़लों से झलकता है वैसा टिप्पणी में भी है।
मुझे लगता है कि अच्छी ग़ज़ल या काव्य कहने के लिये विशद् शब्द-ज्ञान के साथ-साथ काव्य के तत्वों का भी गहन अध्ययन होना चाहिये और मुझे यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि इनके लिये मैं समय नहीं देता। बहुत हुआ तो किसी ने कोई कमी बताई तो उसका भविष्य मे ध्यान रखने का प्रयास किया। शायद यही आज के अधिकॉंश ग़ज़ल या अन्य काव्य कहने वालों की स्थिति है अन्यथा सशक्त हस्ताक्षरों की कमी न होती। एक अंतर और है जो स्पष्ट है, वह यह कि इतिहास के सशक्त हस्ताक्षर साहित्य के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम से परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था करते भी थे तो वह भी लेखन के आस-पास का ही व्यवसाय होता था। मॉं सरस्वती की विशेष कृपा एक विशिष्ट स्थिति हो सकती है अन्यथा स्तरीय साहित्य सृजन समय मॉंगता है जबकि आज का युग मात्रा में अधिक विश्वास रखता है।
रचना को कुछ समय छोड़कर फिर से पढ़ने से मुझे लगता है कि आत्ममुग्धता की स्थिति से बचा जा सकता है। और कुछ समय बाद भी अपनी रचना अच्छी लगे तो या तो वह वास्तव में अच्छी होगी या लेखक का स्वयं-आलोचक पक्ष कमज़ोर है।
साखी का मेरा पूर्व अनुभव ये रहा कि रचना की छिलाई में कोई कमी नहीं रखी जाती थी, इस बार सहज-स्वीकार्यता की स्थिति है।