शनिवार, 17 जुलाई 2010

डा त्रिमोहन तरल की गज़लें


डा त्रिमोहन तरल के गीत किसी को भी बांध लेते हैं, उनकी गजलें एक नया संसार रचतीं सी दिखाई पड़तीं हैं| वे वक्त की आँख में आँख डालकर उससे सवाल करने में संकोच नहीं करते| आदमी से अपनी प्रतिबद्धता के कारण उसके दुःख-दर्द को बांटने का कोई मौक़ा नहीं चूकते| उनकी गजलों में समय के कवच को भेदकर जमीनी सचाई से रूबरू होने की हिम्मत देखी जा सकती  है| वे यद्यपि आगरा कालेज में अंग्रेजी के  एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं, लेकिन हिंदी के लिए जीने-मरने की जैसे कसम खाई हो| उन्हीं से सुने तो.., मैं हिन्दी में गीत, दोहे, मुक्तक लिखता हूँ और हिन्दुस्तानी में गज़लें कहता हूँ । कभी-कभार छंद मुक्त रचनाएं भी फूट पड़ती हैं। दुनियाँ और दुनियांदारी की विसंगतियां देखकर जब रहा नहीं जाता तो कलम अपने आप हाथ में आ जाती है और कागज़ पर जो भी उतरता चला जाता है वह कविता की विभिन्न विधाओं का रूप ले लेता है। देश,समाज और मानव-जीवन के सरोकारों को अभिव्यक्ति देने वाली रचनाओं को ही मैं कविता मानता हूँ|

(1)
कभी हँसाती, कभी रुलाती, कभी-कभी फुसलाती दिल्ली
देती गहरे घाव बाद में घावों को सहलाती दिल्ली

लाखों-लाख जमूड़े रहते हर सूबे हर कसबे में
एक मदारी बनी हुई है सबको नाच नचाती दिल्ली

हमसे कहती जीवन देते पेड़ लगाओ धरती पर
पर चुपके-चुपके पीछे से खुद आरी चलवाती दिल्ली

जिसने नज़रें नीची कर ली उसको ऊँची गद्दी दी
जिसने नज़र उठाई उसके ऊपर ग़ाज़ गिराती दिल्ली

सांपनाथ या नागनाथ हों ज़हर नहीं तो दूध नहीं
जिसमें जितना ज़हर भरा है उतना दूध पिलाती दिल्ली

इधर-उधर का सभी तरह का खाकर इतना फ़ैल गई
सारे भारत से आता जो सब लोहू पी जाती दिल्ली

जो आता बस जाता इसमें इसका होकर रह जाता
जाने कैसा नशा कराती जाने क्या सुंघवाती दिल्ली

दिल्ली बहुत जवाँ होती है रात क्लबों, कैसीनों में
दौलत की उँगली के बल पर उलझी लट सुलझाती दिल्ली

कुर्सी पर रहती है तब तक भूले देशवासियों को
कुर्सी से उतरी तो देश बचाने को अकुलाती दिल्ली

सुनते हैं पहले तो दिल वालों की भी हो जाती थी
अब तो केवल दौलत वालों के ही दिल बहलाती दिल्ली

दिल्ली दिल्ली है आख़िर तू क्या समझेगा इसे 'तरल'
कभी-कभी तो दिल्ली वालों को भी आँख दिखाती दिल्ली

(2)
आँखों से निकल कर के गालों पे रुकी होगी
अश्क़ों की सवारी पर इक पीर चली होगी

तुम सामने थे फिर भी उसने न तुम्हें देखा
वो राधा कन्हाई की यादों में रमी होगी

जो दिल में बसाए था अब बात नहीं करता
किरदार में मेरे ही कुछ ख़ास कमी होगी

वो घर में नहीं रुकता बाज़ार में रहता है
दूकान कोई घर से ज़्यादा ही सजी होगी

कल जिसपे खड़े होकर चूमा था फ़लक उसने
वो उसके इरादों की पुरसख्त ज़मीं होगी

मुर्दे की मुट्ठियाँ भी भिंचने लगीं थी उस दम
क़ातिल के गले में जब जयमाल पड़ी होगी

(3)
शब्द चुभते हैं किसी के कई भालों की तरह
फूट जाता हूँ मैं तब अधपके छालों की तरह

मुफ़लिसी भूख मिटाती   है अश्क़ पी-पीकर
मुल्क़ को खा रहे कुछ लोग निवालों की तरह

दोस्त पीते हैं मेरी दोस्ती को मय की तरह
छोड़ देते है मुझे खाली पियालों की तरह

सुकूँ का मुश्क मेरी रूह में मौजूद रहा
मैं भटकता रहा जंगल में गज़ालों की तरह

महफ़िलें अश्क़ की लगतीं हैं रोज़ आँखों में
आ भी जाओ कभी हाथों में रुमालों की तरह

हल तो ढूंढे हैं बहुत आदमी ने इसके 'तरल'
ज़िन्दगी आज भी है उलझे सवालों की तरह

(4)
रफ़्ता-रफ़्ता है मगर है असर मुहब्बत का
यों ही आता है सभी को हुनर मुहब्बत का

ये हमें ज़िन्दगी की धूप से बचाएगा
पनपने दो तो दिलों में शजर मुहब्बत का

तेरे सँग चलने में तपती हुई सड़क पर भी
ख़ुशनुमा रहता है सारा सफ़र मुहब्बत का

क्या ज़रुरत है चाँद को ज़मीं पे लाने की
इस ज़मीं को ही आसमान कर मुहब्बत का

चाहिए जिनको उन्हें दे दो कई ताजमहल
मेरी चाहत है फ़क़त एक घर मुहब्बत का

ज़िन्दगी और हसीं इस ज़मीन पर होगी
नफ़रतों पर हो जो बरपा क़हर मुहब्बत का

यहाँ तो रह के दिखा नफ़रतों से दूर 'तरल'
ये नगर ताज का है ये शहर मुहब्बत का

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 आकृति, २७०, सेक्टर-५, आवास-विकास, सिकंदरा, आगरा 
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डा त्रिमोहन तरल का ब्लाग
फोन ..०९७६०४४३८२२
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11 टिप्‍पणियां:

  1. तरल जी बहुत सुंदर चुटीली और कटीली हैं आपकी कविताएँ ।

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  2. वाह!! गजब धार है..हर शेर में.

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  3. तरल जी की तरलता और सरलता में बहता ही चला गया। कुछ पं‍क्तियां सचमुच बात को नए अंदाज में कहती हैं। जैसे-


    तुम सामने थे फिर भी उसने न तुम्हें देखा
    वो राधा कन्हाई की यादों में रमी होगी


    वो घर में नहीं रुकता बाज़ार में रहता है
    दूकान कोई घर से ज़्यादा ही सजी होगी

    या कि
    क्या ज़रुरत है चाँद को ज़मीं पे लाने की
    इस ज़मीं को ही आसमान कर मुहब्बत का

    चाहिए जिनको उन्हें दे दो कई ताजमहल
    मेरी चाहत है फ़क़त एक घर मुहब्बत का
    एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि दिल्‍ली वाली गज़ल में कथ्‍य के लिहाज से पाठक को कुछ नया नहीं मिल रहा। न ही कहने के अंदाज से । जो बातें उसमें हैं वे एक तरह का मुहावरा बन गई हैं। और हम उठते बैठते उन्‍हें कहीं न कहीं सुनते ही रहते हैं। तरल जी दिल्‍ली की कठिनता को सरलता में ढालें,ऐसी मांग मैं करना चाहूंगा। शुभकामनाएं।

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  4. तरल जी की चारों ग़ज़लें पारम्परिक और नई सोच का प्रतिबिम्ब हैं, जहां पहली और तीसरी ग़ज़ल में अपने समय का बोध है तो दूसरी और चैथी ग़ज़ल में पारम्परिकता ज्यादा. तरल जी का मूल स्वर रोमानी है ये इन ग़ज़लों से स्पष्ट है.
    तेरे सँग चलने में तपती हुई सड़क पर भी
    ख़ुशनुमा रहता है सारा सफ़र मुहब्बत का

    क्या ज़रुरत है चाँद को ज़मीं पे लाने की
    इस ज़मीं को ही आसमान कर मुहब्बत का
    लेकिन तरलजी अपने समय के भी शाइर हैं ये उनकी पहली और तीसरी ग़ज़ल से बखू़बी नुमाया हो रहा है.
    मुफ़लिसी भूख मिटाती है अश्क़ पी-पीकर
    मुल्क़ को खा रहे कुछ लोग निवालों की तरह

    कल जिसपे खड़े होकर चूमा था फ़लक उसने
    वो उसके इरादों की पुरसख्त ज़मीं होगी
    पहली दिल्ली वाली रदीफ से एक किसी नामालूम शाइर का एक शेर याद आ रहा है- दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है.
    जो भी आया है उसने लूटा है.
    तरल जी को चारों ग़ज़लों के लिए बधाई के साथ-

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  5. डॉ त्रिमोहन तरल की रचनाओं में अलग अलग सन्दर्भ हैं और किसी कवि की यह ख़ास विशेषता होती है कि वह अपनी कलम ज़िन्दगी के हर मोड़ से गुज़ारे , ज़िन्दगी के हर मायनों की स्याही से अपनी कलम को भरे और डॉ त्रिमोहन जी ने अपनी कलम को यह अर्थ दिया है.............हर रचना की अपनी अहमियत है, लेकिन 'प्यार' ..... ज़िक्र आते खुदा से रूबरू होने का मौका मिलता है और अपना आप भी खुदा हो जाता है....
    तेरे सँग चलने में तपती हुई सड़क पर भी
    ख़ुशनुमा रहता है सारा सफ़र मुहब्बत का

    इन पंक्तियों में जलती सड़क को शीतल किया है प्यार के एहसास ने !

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  6. Dr.Trimohan jee kee sabhee gazalen poore manoyog
    se padh gayaa hoon.Bhaav achchhe hain lekin
    kahin- kahin chhand ( bahr) , qaafia aur shabd
    ke wazan ke dosh hain.
    Paglee gazal 32 maatraaon ke chhand mein
    kahee gayee hai.Is mein 16,16 par yati hotee
    hai.Dr. sahib ke adhikaansh sheron kee pahli
    panktiyon mein 16,14 par yati hai.
    Doosre gazal mein " rukee" aur " chalee "
    ke saath " zameen " qafia sahee nahin hai.
    Teesree gazal ke ek sher mein " sukun"
    shabd bahr mein sahee nahin hai. " sukun" shabd
    kaa wazan hai - 12 . Wazan chahiye - 21 .lihazaa
    sher khaariz hai.

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  7. ग़जलों के गुलदस्तों का एक-एक फूल खुशबूदार. क्या कहने. मेरी दुआ है कि ये बगिया इसी तरह महकती रहे. ग़ज़ल के इतने सशक्त हस्ताक्षरों को एक मंच पर लाने के लिए आप को हार्दिक बधाई. आशा है आगे और लोग जुड़ते जायेंगे.
    Madan Mohan 'Arvind'

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  8. gzl me bhut achchhe kthy ko chuna hai yhi gzl ki khoobi hai ab gzl ka yhi mukam hai sundr rchna
    bdhai
    dr.ved vyathit

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  9. आप सभी यहाँ आये, मेरी ग़ज़लनुमा रचनाओं को पड़ा, अपनी बहुमूल्य राय दी उसके लिए मैं आप सभी का ह्रदय से आभारी हूँ। मेरा विशिष्ट धन्यवाद आदरणीय श्री प्राण शर्माजी को जिन्होंने मेरी गलतियों/कमजोरियों की ओर सही उँगली उठाकर दूर से ही एक बड़ा भाई होने का बड़ा दायित्व निभाया है। अपनी ओर से इतना ही कहना चाहता हूँ की दरअस्ल मैं मूलतः गीत कार हूँ और ग़ज़ल कहने की मैंने शुरुआत ही की है। लड़खड़ाना तो था ही। लेकिन मित्रो एक वादा ज़रूर करना चाहता हूँ आपसे वह यह किजब शुरुआत कार ही दी है तो ग़ज़ल कहना बंद तो नहीं करूंगा। कमजोरियों को दूर करना सीख करअपनी नयी कोशिशों के साथ आप से फिर इसी ब्लॉग पर भेंट करूंगा ताकि एक बड़े भाई का सही वक़्त पर उँगली उठाना जाया न चला जाय।

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हां, आज ही, जरूर आयें

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