गुरुवार, 22 जुलाई 2010

फकत एक घर मुहब्बत का


तन की सफाई ख़ूब है माना कि आज कल
लेकिन कमी है दोस्तो मन की सफाई में

 
यह शेर ब्रिटेन के कवि और शायर प्राण शर्मा का है। एक मनुष्य के लिये मन का साफ रहना बहुत जरूरी है। एक रचनाकार के लिये तो निहायत जरूरी क्योंकि भीतर से साफ-सुथरा  होने पर ही व्यक्ति में सच कहने और सच सुनने की हिम्मत पैदा होती है। ये दोनों  ही चीजें एक रचनाकार के व्यक्तित्व को रचने और निखारने में सहायक होतीं हैं। शिखर की ओर जाते समय पर्वतारोही को कई बार रुकना पड़ता है, पीछे भी लौटना पड़ता है। एक गलत कदम भी उसे गहरी खाई में दफ्न कर सकता है। पहली कोशिश तो यह होती है कि कोई गलती न हो और अगर हो ही गयी और उसमें  तुरंत सुधार नहीं किया गया तो शिखर के पहले ही यात्रा खत्म होने का खतरा  बना रहता है। रचनाकार को भी इसी तरह की सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अपनी गलती स्वीकार करने का साहस रचनात्मकता को जीवन और गति प्रदान करता है। डा. त्रिमोहन तरल ने पूरी ईमानदारी से यह साहस किया। यही इस बात का द्योतक है कि उनमें शिखर की ओर बढने का जज्बा है, निरंतर खुद के परिष्कार से ऊर्जस्वित होते जाने का जुनून है। शायद यही उनकी ताकत है।

 
साखी के पिछले अंक में आगरा के शिक्षक, कवि और शायर डा. त्रिमोहन तरल की गज़लें प्रकाशित हुई थीं। आम तौर पर गज़ल के पाठक या श्रोता गज़ल की रिदम और उसके अर्थ-स्फोट पर ध्यान देते हैं। उसकी तकनीक पर नहीं। जब गज़ल काव्य मंचों पर प्रस्तुत की जाती है तब तो इसके लिये बिल्कुल ही अवकाश नहीं होता। पर प्रकाशित रचनाओं को बारीकी से देखने का समय होता है। गज़ल में तो रिदम और कथ्य के साथ काफिया, रदीफ, बह्र  आदि का  खास ध्यान रखना होता है। तरल की गज़लों की अनेक पाठकों ने खुलकर सराहना की। आशा जोगलेकर ने उन्हें सुंदर, चुटीली और कटीली कहा। मशहूर लेखक  समीरलाल ने उनमें गज़ब की धार देखी तो कवि राजेश उत्साही ने प्रशंसा करते हुए सजग भी किया, दिल्‍ली वाली गज़ल में कथ्‍य के लिहाज से कुछ नया नहीं मिला,  न ही कहने के अंदाज से । जो बातें उसमें हैं, हम कहीं न कहीं सुनते ही रहते हैं। शायर  संजीव गौतम ने इन्हें परम्परा और नई सोच का मिक्स कहा। जहां पहली और तीसरी ग़ज़ल में अपने समय का बोध है वहीं दूसरी और चौथी ग़ज़ल में पारम्परिकता ज्यादा है। उन्होंने जोड़ा, तरल जी का मूल स्वर रोमानी है। गज़लों से स्पष्ट है... तेरे सँग चलने में तपती हुई सड़क पर भी। ख़ुशनुमा रहता है सारा सफ़र मुहब्बत का। संजीव को दिल्ली वाली रदीफ से किसी नामालूम शायर का एक शेर याद आया- दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है, जो भी आया है उसने लूटा है। कवयित्री रश्मिप्रभा ने कहा, किसी कवि की यह ख़ास विशेषता होती है कि वह अपनी कलम ज़िन्दगी के हर मोड़ से गुज़ारे, ज़िन्दगी के हर मायनों की स्याही से अपनी कलम को भरे और डॉ त्रिमोहन जी ने अपनी कलम को यह अर्थ दिया है। हर रचना की अपनी अहमियत है, लेकिन 'प्यार'  का ज़िक्र आते ही खुदा से रूबरू होने का मौका मिलता है और अपना आप भी खुदा हो जाता है।....तेरे सँग चलने में तपती हुई सड़क पर भी, ख़ुशनुमा रहता है सारा सफ़र मुहब्बत का, इन पंक्तियों में जलती सड़क को शीतल किया है प्यार के एहसास ने ! गज़लकार और कवि मदन मोहन अरविंद ज्यादा खुश नजर आये, उन्हें हर गज़ल गुलदस्ते के फूल जैसी दिखी। नवगीतिकाकार वेद व्यथित, लेखक जाकिर अली  रजनीश और आखर कलश के सुनील गज्जाणी ने भी गज़लों पर अपने मत रखे। 

आप्रवासी कवि और शायर प्राण शर्मा ने कुछ त्रुटियों की ओर संकेत किया। उन्होंने कहा कि त्रिमोहन जी की गजलों में भाव अच्छे हैं लेकिन कहीं-कहीं बह्र, काफिया और शब्द के वज्न के दोष हैं। पहली गज़ल 32 मात्राओं के छंद में कही गयी है। इसमें 16,16 पर यति होती है। तरल जी के अधिकांश शेरों की पहली पंक्तियों में 15,14 पर यति है। दूसरी गज़ल में रुकी और चली के साथ जमीं काफिया सही नहीं है। तीसरी गज़ल के एक शेर में सुकून शब्द बह्र  में सही नहीं है। सुकून शब्द का  वज्न है-12, वज्न चाहिये 21, लिहाजा शेर खारिज है।  डा त्रिमोहन तरल ने अति विनम्र भाव से प्रशंसाये और आलोचनायें स्वीकारीं। उन्होंने क़हा, आप सभी यहाँ आये, मेरी ग़ज़लनुमा रचनाओं को पढ़ा, अपनी बहुमूल्य राय दी,  उसके लिए मैं आप सभी का ह्रदय से आभारी हूँ। मेरा विशिष्ट धन्यवाद आदरणीय प्राण शर्माजी को, जिन्होंने मेरी गलतियों/कमजोरियों की ओर सही उँगली उठाकर दूर से ही एक बड़ा भाई होने का बड़ा दायित्व निभाया है। अपनी ओर से इतना ही कहना चाहता हूँ कि  दरअस्ल मैं मूलतः गीतकार हूँ और ग़ज़ल कहने की मैंने शुरुआत ही की है। लड़खड़ाना तो था ही। लेकिन मित्रों,  एक वादा ज़रूर करना चाहता हूँ आपसे कि जब शुरुआत कर ही दी है तो ग़ज़ल कहना बंद नहीं करूंगा। कमजोरियों को दूर करना सीख कर अपनी नयी कोशिशों के साथ आप से फिर यहीं भेंट करूंगा, ताकि एक बड़े भाई का सही वक़्त पर उँगली उठाना जाया न चला जाय। 


शनिवार को बंगलूर के कवि राजेश उत्साही की रचनाएं

6 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय सुभाष भाई एक बार फिर छा गए आप अपनी इस अदा से। रचनाकारों के साथ टिप्‍पणिकारों को सचमुच एक दर्जा देने का यह अभियान जारी रहे। असल में जो इस तेवर से टिप्‍पणी कर रहे हैं वे समीक्षक की भूमिका में होते हैं। मेरा मानना है समीक्षक भी वही हो सकता है जिसमें दूसरों की रचनाओं में उसकी ताकत और कमजोरियों पर पर अगर उंगली रखने का माद्दा हो तो उसके विकल्‍प रखने की तैयारी भी हो। या कम से कम उस दिशा में मार्गदर्शन कर पाए।

    कबीर के शब्‍दों में जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ।

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  2. बहुत बहुत आदर के साथ प्राण जी से भी और आपसे भी एक आग्रह है। मेरा मानना है कि दुष्‍यंत कुमार के बाद हिन्‍दी में ग़ज़ल ने विधा के रूप में एक मुकाम पाया है। और नया लिखने वाले भी उसमें हाथ आजमाने लगते हैं। मुझे याद है कि मैने 30 साल पहले ग़ज़ले लिखीं थी। आज भी लिखता हूं। इन्‍हें आप तथाकथित कह सकते हैं क्‍योंकि ये ग़ज़ल के व्‍याकरण पर खरी नहीं उतरतीं। जब लोगों ने इस तरफ ध्‍यान खींचा। तो व्‍याकरण समझने की कोशिश की। किताबें भी खरीदीं पर कुछ पल्‍ले नहीं पढ़ा । विडम्‍बना यह है कि जो जानकार हैं वे भी और जो नहीं हैं वे भी तारीफों के पुल बांध देते हैं। निसंदेह वे तकनीक से ज्‍यादा विचार से प्रभावित होते हैं। मेरा भी मानना है कि तकनीक से ज्‍यादा विचार महत्‍वपूर्ण है। टिप्‍पणी जारी है.....

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  3. लगभग साल भर पहले मेरी दो तथाकथित ग़ज़लें नुक्‍कड़ में प्रकाशित हुईं थी। वहां प्राण शर्मा जी ने उन पर अपनी टिप्‍पणी की थी और कहा था उनमें ग़ज़ल की विशेषताएं नहीं हैं। मैने अपनी कमजोरियों को स्‍वीकार करते हुए अपनी वे दोनों रचनाएं तथा कुछ और प्राण जी को ईमेल से भेजीं थीं। आग्रह किया था कि कृपया अगर उदाहरण के साथ वे उनमें संशोधन कर पाएं तो मुझे आगे के लिए बहुत मार्गदर्शन मिलेगा। पर खेद है मुझे उनकी तरफ से कोई उत्‍तर नहीं मिला। संभव है वे व्‍यस्‍त रहे होंगे। नतीजा यह है कि मैं जहां हूं, वहीं हूं। क्‍योंकि और कोई प्राण शर्मा जी भी मुझे नहीं मिले।
    यहां भी तरल जी की रचनाओं में अगर उदाहरण के साथ उन पंक्तियों को संशोधित रूप में दुबारा दिया जा सकता है तो हम जैसे लिखने वालों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
    मेरा जानकार लोगों से आग्रह है कि कृपया जो भी इस तरह का मार्गदर्शन कर सकते हों आगे आएं।
    अंत में यह विनम्र निवेदन भी करना चाहूंगा कि इसे शिकायती टिप्‍पणी न समझा जाए। न ही किसी का अनादर करने के लिए लिखी गई टिप्‍पणी समझी जाए। जिन्‍दगी ने सिखाया है कि जब लोहा गर्म हो तब चोट करनी चाहिए। और साखी पर हूं तो इससे चूक नहीं सकता।

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  4. उत्‍साही जी का उत्‍साह प्रशंसनीय है। अच्‍छा लग रहा है कि साखी में आने वाले शनिवार को राजेश उत्‍साही जी की गजलें प्रकाशित हो रही हैं। सार्थक संवाद की अपनी एक महत्‍ता होती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। यह संवाद न कोई वाद होता है और न विवाद, इससे बेहतर मार्ग प्रशस्‍त होते हैं। सिर्फ जिसकी रचनाओं पर विचार किया गया हो, उनके ही नहीं, अपितु चुपचाप जो पढ़-समझ रहे होते हैं, उनके भी। ऐसे आयोजन होते रहने चाहिए और सिर्फ गजल विधा में ही नहीं अपितु सभी विधाओं में। इससे बेहतरी के रास्‍ते खुलते हैं और नए-नए रचनाकार इससे जुड़ते हैं।

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  5. बहुत से रचनाकारों से परिचय अच्छा लगा

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  6. Rajesh Utsahee jee ke comments padhe hain.Gazal
    sikhaane mein main unkee madad awashya hee kartaa
    agar mujhe unkaa email milaa hota.Ek do saal
    pahle mujhe bahut saare patron ko delete karnaa
    padtaa tha ,sambhav hai ki maine unkaa patra bhee
    delete kar diyaa ho.Bahut saare patron ko delete
    karnaa meree vivashta thee.Main gazal sambandhee
    pustak likhne mein vyast thaa.
    Mujhse gazal sawaarne yaa seekhne waale
    jaante hain ki maine unhen kabhee niraash nahin
    kiyaa hai.Mujhe prasannta hotee hai kisee ko
    kuchh sikhaane mein.
    Rajesh jee , aap ko gazal kahnee main
    sikhaaongaa.Paanch - chhee maas kaa intezaar
    kijiye.Abhee thodaa vyast hoon.
    Shubh kamnaaon ke saath.

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हां, आज ही, जरूर आयें

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