बुधवार, 14 जुलाई 2010

कि ये गूंगी सदी होने न पाये


साखी के पहले अंक में आगरा के युवा कवि और शायर संजीव गौतम की गज़लों पर खुलकर बातचीत हुई। अनेक सहित्यप्रेमियों, कवियों,शायरों और उर्दू साहित्य के पारखियों ने जहाँ संजीव के तेवर की तारीफ की, वहीं उनकी गज़लों के बहाने गज़ल के व्याकरण पर भी चर्चा हुई। शुरुआत की कनाडा के जाने-माने व्यंग्यकार और लेखक समीर लाल ने। उन्हें यह शेर बहुत पसंद आया... मुल्क अपना निजाम भी अपना,मुश्किलों में किसान है फिर भी। पहली गज़ल में उन्होंने काफिये की गड़बड़ी की ओर संकेत किया पर कहा कि इस पर जानकार लोग बेहतर प्रकाश डाल सकते हैं। बात आगे बढ़ाते हुए सिंगापुर की मशहूर गज़लकारा श्रद्धा जैन ने कहा, संजीव की गज़लें सामयिक और गहरी होती हैं। उनकी गज़ल का हर शेर उनके कलाम की ताकत का अन्दाजा देता है।

बंगलूर के कवि राजेश उत्साही ने संजीव गौतम के तेवर को समसामयिक बताते हुए कहा, यह सुकून देने वाली बात है। उन्होंने गज़लों में बेहतरीन शेर की पहचान करते हुए सलाह दी कि सबसे अच्छी बात आखिरी शेर में होती तो ज्यादा अच्छा होता। पणजी के इस्मत जैदी ने गज़लों की तारीफ करते हुए समीर लाल के एतराज का समर्थन किया। लुधियाना से डी.के. मुफलिस  ने कहा कि संजीव को समय की नब्ज़ पहचान कर उसे खूबसूरत अलफ़ाज़ में ढालने का हुनर मालूम है और ये गज़लें पढ़ते हुए यक़ीन पक्का होने लगता है। पर उन्होंने एक गुज़ारिश कर बात उलझा दी, समीर जी और इस्मत जी की बात पर भी गौर फरमाएं। काफिये को लेकर इन सारे सन्देहों को साफ करने की पुरजोर  कोशिश की ब्रितानी प्रवासी शायर प्राण शर्मा ने। उन्होंने बात स्पष्ट  की, उर्दू शायरी के व्याकरण में दे, ने और रे का ए स्वर काफिया है। आ (मुद्दा, लगा, दगा) की तरह ए भी काफिया के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे पर्चे के दूसरे काफिये बदले, सस्ते, कैसे, उजले, धन्धे, कितने, दूजे इत्यादि हो सकते हैं।
 
चर्चा को गति देते हुए  आगरा के शायर और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान डा. त्रिमोहन तरल ने कहा कि शायरी की पूरी ताक़त अपने समय को गूंगेपन से बचाने के लिए झोंक दी जानी चाहिए। शायरी व्यवस्था के महासागर में भटकते ज़िन्दगी के जहाज को रास्ता दिखाने वाली 'बीकन लाइट' है, शायर के सीने में जलती है। चूंकि बाहर बहुत अँधेरा है, शायर के मन की रौशनी अँधेरे को चीरकर व्यवस्था का असली चेहरा उजागर करने का काम करती है। जहाँ तक काफियों का मुआमला है मैं समझता हूँ की संजीव के काफिये सही हैं।

चर्चा में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया इंग्लैंड से प्रकाशित होने वाली ई-पत्रिका मंथन और महावीर के सम्पादक और शायर महावीर शर्मा ने। उन्होंने कहा, पहली ग़ज़ल में 'मुझे दे दे' और तीसरी ग़ज़ल में 'रेज़ा-रेज़ा' लफज़ी-तक़रारे- मुवक्कद ( مُؤکّد) की अच्छी मिसालें हैं. हालांकि कुछ लोग लफज़ी-तक़रार को ऐब-ए-कलाम मानते हैं लेकिन मौलाना हसरत मोहानी ने इसे बाज़ हालात में हुस्ने-बयान क़रार दिया है. संजीव की ग़ज़लों में इन तकरार से ग़ज़ल की ग़ज़लियत में इज़ाफ़ा ही हुआ है. बहर-ओ- वज़न को भी निभाया है. ख़याल और बयान का भी ध्यान रखा गया है. हिन्दी भाषा में लफ़्ज़ों के लहजे में फ़र्क़ आने से कभी कभी वज़न में फ़र्क़ महसूस होने लगता है लेकिन हिन्दी में लिखने से उर्दू वालों को एक समझौता तो करना ही चाहिए. दुष्यंत कुमार ने भी एक बार 'महल' का वज़न हिन्दी के उच्चारण से ही इस्तेमाल किया था हालांकि कुछ उर्दू के शायरों ने इसे ग़लत माना था.

शर्मा जी ने राजेश उत्साही की टिप्पणी का जिक्र करते हुए कहा कि ग़ज़ल के सब से अच्छे शेर (बैत-उल-ग़ज़ल) के लिए ज़रूरी नहीं कि वह आखिरी शेर या मक़ता ही हो, वह कहीं भी हो सकता है. काफ़िये के बारे में डॉ. त्रिमोहन तरल जी और प्राण शर्मा के  तर्कों का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि काफ़िये बिल्कुल सही हैं. जिस तरह अलिफ़ का काफ़िया इस्तेमाल किया जाता है, उसी तरह ए, ई, ऊ वगैरह के काफ़िये भी सही होते हैं .इस पूरे विचार विमर्श के दौरान  नुक्कड़ के अविनाश वाचस्पति, ललितवानी के ललित शर्मा तथा संगीता स्वरूप की अपनी शुभकामनाओं के साथ उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। 
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अगले अंक में शनिवार को डा. त्रिमोहन तरल की गज़लें 

10 टिप्‍पणियां:

  1. ये हुई कुछ बात। अगर इस तरह का विमर्श यहां जारी रहे तो सार्थकता आएगी ब्‍लागिंग करने में । टिप्‍पणियों को इस तरह से प्रस्‍तुत करने के लिए शुक्रिया।

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  2. डॉ सुभाष राय जी आपका आभार कि ऐसी महफिल मिली और इतने विद्वानों से सीखने का मौका मिला. मन प्रसन्न हो गया.


    यह इस नवीनतम ब्लॉग की उपलब्धि है.

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  3. इस सप्ताह राय सर ने साखी पर मेरी ग़ज़लों को प्रकाशन के लिये चुना. उन्हें भी समय का साक्षी बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ. अपने इस सौभाग्य पर वे आज तक फूले नहीं समा रही हैं. सबसे बड़ी बात पहली बार मेरी ग़ज़लों को किसी कसौटी पर खड़ा होना पड़ा. प्राप्त प्रतिक्रियाओं से मेरा हौसला बढ़ा है. आदरणीय महावीर जी, प्राण जी, तरल जी, राजेश जी, मुफलिस जी, इस्मत जैदी जी ने जिस तरह से मेरा ज्ञानवद्र्धन किया है उन्हें मैं अपनी अमूल्य निधि के रूप में अपने यादों के खजाने में जमा कर चुका हूं. समीर जी, श्रद्धा जी, अविनाश जी, ललित जी, संगीता जी से प्राप्त अपनापन अब मेरा अपना है. सच जानिये मैं पूरे समय आलोचनाओं/अपनी कमियों का इंतजार करता रहा क्योंकि मुझे लगता है कि प्रशंसा तो कोई भी कर सकता है, लेकिन कमियों की तरफ इशारा कर उन्हें दूर करने की प्रेरणा सच्चा मित्र या हितैषी ही दे सकता है.
    मेरी कमियां मुझे बताते नहीं,
    दोस्त यूं दुश्मनी निभाते हैं.
    साथ ही साखी का सबसे बड़ा योगदान भी मुझे लगता है तभी होगा जब यहां कविता के प्रत्येक पक्ष पर इसी तरह खुले दिलो-दिमाग से चर्चा होगी,
    राय सर ने जिस तरह से अपनापन दिया है कि फिर से मुर्दे में जान आ गई है मैं इसे भुला नहीं सकता. उम्मीद है कि आगे भी इसी तरह मेरी रचनाओं को लाड़ और दुलार प्राप्त होगा. आप सभी का शुक्रिया हांलाकि ये नाकाफी है लेकिन फिर भी...

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  4. @ संजीव गौतम

    लाड़ दुलार और प्‍यारी सी चपत भी, जो आलोचना होगी क्‍योंकि ऐसा न करके हमें यूं दुश्‍मनी नहीं निभानी है और न किसी के साथ ऐसी दुश्‍मनी निभानी ही चाहिए।
    साखी ब्‍लॉग पर इस तरह का विमर्श हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत की सार्थकता की ओर बढ़ता बकौल भाई राजेश उत्‍साही, यह हुई कुछ बात। कुछ नहीं बहुत कुछ कहूंगा मैं तो। इस कला का अनुसरण सभी हिन्‍दी ब्‍लॉगर साथियों को करना चाहिए। कम पोस्‍टें लगाएं पर ऐसा विमर्श कर सकें अथवा करवा सकें तो बेहतर होगा। डॉ. सुभाष राय जी इस पहल के लिए बधाई के पात्र हैं।

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  5. is tarah k blog kuch hi h....is tarah k sarthak vimarsh k liye abhaar.

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  6. डॉ. सुभाष राय जी इस पहल के लिए बधाई के पात्र हैं।

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  7. वाह यहाँ तो अच्छी महफ़िल जमी है ..

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  8. यह वाकई एक अनूठा प्रयोग है , इस तरह के प्रयोग से जहां सकारात्मक टिप्पणियों को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है वहीं साहित्य का भला होता है . इस पहल के लिए आप बधाई के पात्र हैं।

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  9. प्रमाणिक ऐतिहासिक यात्रा के विवरण के लिए बधाई.

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  10. अच्छी और सार्थक पहल के लिए साधुवाद.

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