मंगलवार, 29 सितंबर 2020

एक यादगार मुलाक़ात




 मंगल की मंगल शुरुआत हुई। कल प्रिय भाई सदानन्द शाही का फोन आया कि वे लखनऊ की सीमा में हैं। रुकेंगे। मैंने कहा फिर कल मुलाकात होती है। और आज सुबह मैं जा पहुंचा सीआईएस टावर, जहां वे रुके हैं। हम पहली बार मिले लेकिन लगा कि हम पहले से मिलते रहे हैं, कई बार मिले हैं। दो लोग मिलते हैं तो केवल वे ही नहीं बतियाते, रूप-रंग भी बतियाते हैं, मुद्राएँ भी बतियाती हैं। हमारे बीच कहीं अजनबीपन नहीं था। इतनी आत्मीयता से मिले हम कि कोरोना भी उदास हो गया होगा, डर गया होगा। अब कितने दिन ये हमें डराता रहेगा। बहुत सारी बातें हुईं। मैं ही ज्यादा बोलता रहा। वे सुनते रहे। 



आज के समय में जब हमारे पास किसी को भी सुनने का वक्त नहीं है, सदानन्द जी का पूरी सदाशयता और उत्सुकता से मुझे सुनना कोई साधारण बात नहीं थी। मैं उनकी विद्वत्ता से परिचित हूँ, उनके कवि से भी और आज उनकी उदारता से भी मिला। बहुत समय दिया उन्होंने। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव है। कई कारणों से। उसमें उनका कवि होना तो है ही, 'साखी' का निरंतर स्तरीय प्रकाशन भी है। वैसे तो 'साखी' के लगभग सारे ही अंक विशेषांक की तरह होते हैं लेकिन हमारे समय के बड़े कवि केदारनाथ सिंह पर केन्द्रित 'साखी' के अंक ने तो एक कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया था। वह जितने अपनत्व, जितनी आत्मीयता और जितने वैराट्य के साथ निकला था, वह अविस्मरणीय है। केदारनाथ सिंह के काव्य वैभव को समझने की एक बड़ी कोशिश की थी सदानन्द भाई ने 'साखी' के माध्यम से।



 'साखी' का नया अंक भी आ गया है। जल्द ही आप के पास पहुंचेगा। सच कहूं तो सदानन्द जी के साथ बैठकर मैंने महसूस किया कि मैं एक ऐसे साथी के साथ बैठा हूँ, जिससे मैं बार- बार मिलता रहा हूँ। आज की मुलाकात का समय बहुत छोटा लगा मुझे। उन्हें कुछ कहने ही नहीं दिया लेकिन जब भी हम‌ फिर मिलेंगे, खूब समय लेकर मिलेंगे और तब मैं कम बोलूंगा, उन्हें ज्यादा बोलने दूंगा। कविताएँ भी सुनूंगा। सुनाऊंगा भी।



सोमवार, 28 सितंबर 2020

मुल्क का चेहरा


 



मैं एक चेहरा बनाना चाहता हूं
पर अधूरा रह जाता है बार-बार 
न जाने क्यों बनता ही नहीं
मेरे पास हर तरह के रंग हैं
लाल, पीले, नीले, सफेद और काले भी
मेरी तूलिका में भी कोई खराबी नहीं है
इसी से मैंने अपनी तस्वीर बनायी है
बिल्कुल साफ-सुथरी, मैं पूरा दिखता हूं उसमें
जो भी मुझे पहचानता है, तस्वीर भी पहचान सकता है
उसकी आँखों में झांककर पढ़ सकता है मेरा मन
इसी तूलिका से मैंने कई और भी तस्वीरें बनायी हैं
सब सही उतरी हैं कैनवस पर

मैंने एक मजदूर की तस्वीर बनायी
उसके चेहरे पर अभाव और भूख साफ-साफ झलकती है
उसे कोई भी देखे तो लगता है वह तस्वीर से बाहर निकल कर 
कुछ बोल पड़ेगा, बता देगा कि उसकी बीवी 
किस तरह बीमार हुई और चल बसी
उसका बच्चा क्यों पढ़ नहीं सका
वह स्वयं तस्वीर की तरह जड़ होकर क्यों रह गया है

मैंने एक सैनिक की तस्वीर बनायी
वह अपनी पूरी लाचारी के साथ
मेरे रंगों से निकल कर कैनवस पर आ गया
वह घने जंगल में सीमा के पास खड़ा था
वहां आपस में गुत्थमगुत्था होते लोग हैं
एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा
सैनिक के पास बंदूक है, उसे लड़ने का हुक्म भी है
पर वह तब तक गोलियां नहीं चला सकता
जब तक उसकी जान खतरे में न हो
तस्वीर देखने पर लगता है
वह कभी भी पागल हो सकता है

मैंने एक बच्चे की तस्वीर बनायी
वह मेरी तूलिका और रंग से खेलना चाहता था
वह कैनवस पर आ ही नहीं रहा था
वह मुझे चकमा देकर निकल जाना चाहता था
कभी रंगीन गुब्बारा उठाता और
उसे फोड़कर खिलखिला पड़ता
कभी बैट उठा लेता और भागना मैदान की ओर
कभी रोनी-सी सूरत बनाकर मां को आवाज देता
भविष्य को ठेंगे पर रखे कभी चिल्लाता 
कभी सरपट दौड़ लगा देता
कभी मेरा चश्मा उतार लेता
तो कभी मेरी पीठ सवार हो जाता
वह तस्वीर में है पर नहीं है

मैंने एक संत की तस्वीर बनायी
मैं नहीं जानता कैसे वह पूरा होते होते
शैतान जैसी दिखने लगी
उसके चेहरे पर लालच है, क्रूरता  है
मैं उसे देख बुरी तरह डर गया हूं
लोगों को सावधान करना चाहता हूं
पर कोई मेरी बात सुनता ही नहीं
लोग आते है, झुककर माथा नवाते है
कीर्तन करने लगते हैं, गाते-गाते होश खो बैठते हैं
और चीखते, चिल्लाते सब हार कर इस तरह लौटते हैं
कि लौटते ही नहीं कभी 

मेरी तूलिका ने हमेशा मेरा साथ दिया
मेरे रंग कभी झूठे नहीं निकले
पर मैं हैरान हूं, इस बार
सिर्फ एक चेहरे की बात है
मैं बनाना चाहता हूं एक ऐसा चेहरा
जिसे मैं मुल्क कह सकूं
जिसमें सभी खुद को निहार सकें
पर बनता ही नहीं
कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है
कभी पूरा काला हो जाता है
मुझे शक है कि मुल्क का चेहरा है भी या नहीं


(मेरे पहले कविता संग्रह 'सलीब पर सच' से )


 

 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

मैं समय हूं

कभी समकालीन सरोकार का लोगों को इंतज़ार रहता था। हर महीने कुछ नया लेकर आती थी। कुछ बड़े नाम। कुछ बड़ी बातें। नए रास्ते। नयी मंजिलें। बहुत उत्साह से, बड़ी मेहनत से मैं यह मासिक पत्रिका निकालता था। बहुत लगाव था उससे पर आर्थिक कारणों से एक वर्ष के आगे जारी रखना सम्भव नहीं हो पाया। कई बार आप चलते हैं कहीं के लिए और पहुँच जाते हैं कहीं। कभी लगता है जहाँ जा रहे थे, उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत जगह पर आ गए, कभी लगता है, अरे कहाँ आ फँसे। यहाँ कुछ भी निश्चित नहीं है। यह अच्छी बात है। अनिश्चितता का अपना आनंद है लेकिन अनिश्चितता ही जीवन बन जाए तो ठीक नहीं। किसी तलाश में अनिश्चय की अपनी भूमिका होती है। वह ठहरने और सोचने का मौक़ा देता है लेकिन कोई भी अनिश्चय किसी निश्चय के लिए हो तो उसकी सार्थकता है। मैं महसूस कर रहा हूँ कि मैं किसी निश्चितता से अनिश्चितता की ओर बढ़ रहा हूँ। यह अच्छे संकेत हैं। अच्छा क्या होगा, मुझे पता नहीं पर इस परिस्थिति में समकालीन सरोकार की याद आना कोई अर्थ ज़रूर रखता है। आइए इस अर्थ के खुलने की प्रतीक्षा करते हैं और तब तक यह कविता पढ़ते हैं .... 


मैं समय हूँ
------------

वर्तमान में विलीन होकर भी
इतिहास बना रहता है हमेशा
वह भविष्य में भी चला जाता है बेरोक-टोक
इतिहास ने हमें बंदर से मनुष्य बनाया 
गुर्राने की जगह बोलना सिखाया
सभ्य बनाया, सहना सिखाया

जैसे इतिहास मिट्टी में दबा रहता है 
नदियों में बहता रहता है
गुफाओं में पड़ा रहता है
और किसी भी समय बाहर निकलकर
अपने समय की भाषा में बोलने लगता है
वैसे ही वर्तमान भी इतिहास की किसी
अबूझ लिपि में छिपा हुआ होता है
भविष्य हजारों साल पुराने भोजपत्र के 
किसी पृष्ठ पर फड़फड़ा रहा होता है

मैं कभी-कभी पाता हूँ अपने आप को
सिंधु घाटी के टूटे-फूटे नगरों में
अपने पांवों के निशान ढूंढते हुए
भले मुझे अपने पुरखों की 
भाषा समझ में न आती हो
लेकिन वहां सब-कुछ अपना लगता है
कभी- कभी फंस जाता हूँ 
आग के तूफानों में, तेजाबी बारिश में
उलटती- पलटती चट्टानों के बीच दब जाता हूँ
और जिंदा रहता हूँ लाखों साल तक

जब कभी किसी बड़ी दुर्घटना
किसी भूकम्प या ज्वालामुखी विस्फोट 
के कारण बाहर सतह पर आ जाता हूँ
या किसी डार्विन की निगाहें ढूंढ लेती हैं मुझे
कहानियां सुनाने लगता हूँ अपने 
इतिहास की, अपने भविष्य की

मैं इतिहास हूँ, मेरे भीतर 
वर्तमान और भविष्य के बीज सुरक्षित हैं
वर्तमान हूँ, मेरे भीतर इतिहास बिखरा पड़ा है

भविष्य की अनन्त संभावनाएं दबी पड़ी हैं
भविष्य हूँ, मेरे भीतर इतिहास है, वर्तमान है
लेकिन एक जादू भी है मेरे पास  
जो इतिहास और वर्तमान को
भविष्य में बदल देता है
जो लगातार वर्तमान में बदलते हुए भी
अछोर और अगम्य बना रहता है

मैं इतिहास और वर्तमान में 
एक साथ प्रवेश कर सकता हूँ
इतिहास के अन्याय को 
सबक में बदल सकता हूँ
वर्तमान के अन्याय के लिए सजा दे सकता हूँ
इतिहास के पीछे देख सकता हूँ
भविष्य के आगे भी देख सकता हूँ
मैं भविष्य होकर भी केवल भविष्य नहीं हूँ
समय हूँ, ज्ञात और अज्ञात में 
अविरल स्पंदित होता हुआ



17/9/2020






 

हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...