शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

राजेन्द्र स्वर्णकार की रचनाएँ|



राजेन्द्र स्वर्णकार का जन्म २१ सितम्बर १९५९ को बीकानेर में पिता श्री शंकर लाल और मां श्रीमती  भंवरी देवी के घर हुआ| लगभग सभी विधाओं में छंदबद्ध काव्य-सृजन और काव्य मंचों पर निरंतर सक्रियता| आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन| अनेक महत्वपूर्ण संकलनों में भी शामिल| विश्व साहित्य के स्थल कविता-कोश में रचनाएँ शामिल| विभिन्न ब्लाग्स, साइट्स और ई-मैगज़ीन्स में रचनाएँ| राजस्थानी और हिन्दी में दो गजल संग्रह, रूई मांई सूई और आईनों में देखिये प्रकाशित| साहित्य और रचना कर्म के लिए अनेक संस्थाओं की ओर से सम्मान| राजेन्द्र की कुछ रचनाएँ यहाँ पेश हैं......
                                                     १.
न इक पत्ता हवा के संचरण से तब हिला होता
दिशा-निर्देश प्रभु का काम यदि ना कर रहा होता 
चराचर सृष्टि जल ज्वाला पवन आकाश धरती में
हृदय चाहे तो पग-पग ईश का दर्शन हुआ होता 
वनस्पति जीव रवि शशि काल ऋतु दिन रैन का स्रष्टा 
न क्षण भर; वह सनातन सर्वव्यापक सर्वदा होता 
समाया सूक्ष्मतम् बन कर अखिल ब्रह्मांड में जो, वह
अनश्वर, वह अजन्मा शुद्ध हृदयों में बसा होता  
स्वयं भगवान यदि जग से न करता स्नेह सच्चा, तब
न राधा के हृदय में प्रीत-लौ बनकर जला होता 
शिला बनती अहिल्या, प्राण प्रस्तर ना पुनः पाता
न यदि निज चरण-रज से धन्य राघव ने किया होता 
न अपनों को भुलाता है न अंतर-भेद कुछ करता
वो गज का, द्रोपदी प्रह्लाद ध्रुव का एक-सा होता 
लगा लौ, ईश से यह मोक्ष पाने का सुअवसर है
पुण्यवश योनि यह मिलती, न मानव अन्यथा होता 
सच्चिदानंद की राजेन्द्र यदि मिलती न अनुकंपा
निरंतर जन्म लेता और मरता, मिट गया होता 

2

द्वारिका में राग-रस-मद रत हर इक बस्ती रही
बस सुदामाओं की ही हालत यहां ख़स्ती रही
वृत्ति असुरों की है फलती स्वर्ण-लंका-सदन में
जो हरिश्चंदर बने उनके ही घर पस्ती रही
हर इक युग धृतराष्ट्र  अंधे ही रहे सुत-मोह में
अस्मिता पांचालियों की हर इक युग सस्ती रही
थे जटायु कट गए, गज फंस गए, हय हत हुए
मात्र कुछ रंगा-सियारों की बहुत मस्ती रही
हां, हुए मंसूर ईसा भी कई सुकरात भी
क्या हुआ राजेन्द्र उनका, उनकी क्या हस्ती रही










३.
 मन है बहुत उदास रे जोगी !
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी !
पूछ ! प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी !
जी घुटता है ; बाहर चलती
लाख पवन उनचास रे जोगी !
अब सम्हाले' संभल पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी !
पी' मन में रम - रच गया ; जैसे
पुष्प में रंग - सुवास रे जोगी !
प्रेम - अगन में जलने का तो
हमको था अभ्यास रे जोगी !
किंतु विरह - धूनी तपने का
है पहला आभास रे जोगी !
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से सन्यास रे जोगी !
कौन पराया - अपना है रे !
क्या घर और प्रवास रे जोगी !
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी !
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है !
और सिद्धि संत्रास रे जोगी !
छोड़ हमें राजेन्द्र अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !

४.
हमसे कौन लड़ाई बाबा ?
हो अब तो सुनवाई बाबा !
सबकी सुनता ; हमरी अब तक
बारी क्यों ना आई बाबा ?
हमसे नाइंसाफ़ी करते '
तनिक रहम ना खाई बाबा ?
इक बारी मं कान ढेरे
कितनी बार बताई बाबा ?
बार-बार का बोलें ? सुसरी
हमसे हो ढिठाई बाबा !
नहीं अनाड़ी तुम कोई ; हम
तुमको का समझाई बाबा ?
दु: से हमरा कौन मेल था,
काहे करी सगाई बाबा ?
बिन बेंतन ही सुसरी हमरी
पग-पग होय ठुकाई बाबा !
तीन छोकरा, इक घरवाली,
है इक हमरी माई ; बाबा !
परइनकी खातिर भी हमरी
कौड़ी नहीं कमाई बाबा !
बिना मजूरी गाड़ी घर की
कैसन बता चलाई बाबा ?
हमरा कौनो और जग मं
हम सबका अजमाई बाबा !
ना हमरा अपना भैया है,
ना जोरू का भाई ; बाबा !
और मुई दुनिया आगे हम
हाथ नहीं फैलाई बाबा !
जानके भी अनजान बने ;  है
इसमें तो' बड़ाई बाबा ?
नींद में हो का बहरे हो ? हम
कितना ढोल बजाई बाबा ?
हम भी ज़िद का पूरा पक्का
गरदन इहां कटाई बाबा !
तुम्हरी चौखट छोड़' दूजी
चौखट हम भी जाई बाबा !
कहदे, हमरी कब तक होगी
यूं ही हाड-पिंजाई बाबा ?
बोल ! बता, राजेन्द्र मं का है
ऐसन बुरी बुराई बाबा ?!


स्थायी पता : गिराणी सोनारों का मौहल्ला ,
बीकानेर 334001 ( राजस्थान )
मोबाइल नं : 9314682626
फोन नं : 0151 2203369
ईमेल swarnkarrajendra@gmail.com
ब्लॉग : शस्वरं



64 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय सुभाष जी
    नमस्कार !
    रचनाएं साखी पर लगाने के लिए आभार !
    लगता है, लगाते समय कॉपी पेस्ट करने में कुछ गड़बड़ हुई है ।
    ग़ज़ल संख्या 2 में निम्नांकित पंक्ति में हमेशा नहीं , हर इक युग था ।

    अस्मिता पांचालियों की हमेशा सस्ती रही ( ग़लत )

    अस्मिता पांचालियों की हर इक युग सस्ती रही ( सही )

    कृपया , सुधार करलें ।

    राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. चराचर सृष्टि जल ज्वाला पवन आकाश धरती में
    हृदय चाहे तो पग-पग ईश का दर्शन हुआ होता
    Bhasha shaili aur shbdon ki bunawat apne aap mein aapka parichay de rahi hai...
    bahut bahut badhayi aur shubhkamanyein
    Devi Nangrani

    जवाब देंहटाएं
  3. राजेन्द्र स्वर्णकार जी काव्य विधा में पारंगत हैं...
    यहां प्रस्तुत रचनाएं इसका प्रमाण और उदाहरण हैं.

    जवाब देंहटाएं
  4. सभी में आलोचना की सहज स्‍वीकार्यता नहीं होती इसलिये मैं सामान्‍यतय: आलोचनात्‍क टिप्‍पणियॉं देने से बचने की कोशिश करता हूँ, लेकिन चर्चा की सार्थकता और राजेन्‍द्र भाई पर विशेषाधिकार इसकी अनुमति दे रहा है इसलिये केवल एक गजल के कुछ अशआर पर अपना मत खुलकर दे रहा हूँ। शब्‍द प्रयोग की दृष्टि से यह गजल है तो बहुत अच्‍छी लेकिन बारीकी से देखें तो जो खटक रहा है वह इस प्रकार है:
    न इक पत्ता हवा के संचरण से तब हिला होता
    दिशा-निर्देश प्रभु का काम यदि ना कर रहा होता
    में पहली पंक्ति अधिक पुष्‍ट रहती यदि ऐसा कहते कि:
    हवा के संचरण भर से न इक पत्‍ता हिला होता

    चराचर सृष्टि जल ज्वाला पवन आकाश धरती में
    हृदय चाहे तो पग-पग ईश का दर्शन हुआ होता
    में दूसरी पंक्ति अधिक पुष्‍ट रहती यदि ऐसा कहते कि:
    हृदय गर चाहता तो ईश का दर्शन हुआ होता।

    वनस्पति जीव रवि शशि काल ऋतु दिन रैन का सृष्टा
    न क्षण भर; वह सनातन सर्वव्यापक सर्वदा होता
    में दूसरी पंक्ति भाव-विपरीत है, शाइर का भाव तो यहॉं यही अपेक्षित है कि वह सनातन सर्वदा सर्वव्यापक है जबकि ध्‍वनित उल्‍टा हो रहा है। यही इससे अगले शेर में हो रहा है। अगले शेर में वह की पुनरावृत्ति भी दोषपूर्ण है।
    समाया सूक्ष्मतम् बन कर अखिल ब्रह्मांड में जो, वह
    अनश्वर, वह अजन्मा शुद्ध हृदयों में बसा होता
    समाया सूक्ष्मतम् बन कर अखिल ब्रह्मांड में है जो
    कहकर दूसरी पंक्ति का निराकरण तो हो जाता है।

    शिला बनती अहिल्या, प्राण प्रस्तर ना पुनः पाता
    न यदि निज चरण-रज से धन्य राघव ने किया होता
    अधिक पुष्‍ट रहता यदि ऐसा कहते कि:
    शिला र‍हती अहिल्‍या, प्राण प्रस्‍तर में नहीं आते
    न गर उद्धार राघव ने चरण-रज से किया होता।

    न अपनों को भुलाता है न अंतर-भेद कुछ करता
    वो गज का, द्रोपदी प्रह्लाद ध्रुव का एक-सा होता
    की पहली पंक्ति को देखें, विरोधाभास है, जो अंतर या भेद नहीं करता है उसके लिये अपना पराया कैसा (यहॉं अंतर ओर भेद भी समानार्थक हैं)

    लगा लौ, ईश से यह मोक्ष पाने का सुअवसर है
    पुण्यवश योनि यह मिलती, न मानव अन्यथा होता
    में कहने को कुछ नहीं है। उत्‍तम है।

    सच्चिदानंद की राजेन्द्र यदि मिलती न अनुकंपा
    निरंतर जन्म लेता और मरता, मिट गया होता। में भी विरोधाभास है या तो ‘निरंतर जन्म लेता और मरता’ और ‘मिट गया होता’ परस्‍पर विरोधी हैं।

    ये बारीक बाते हैं जो अक्‍सर ध्‍यान में नहीं आतीं। राजेन्‍द्र भाई अनूठे शब्‍द प्रयोग करते हैं और शुद्ध हिन्‍दी का अच्‍छा प्रयोग करते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  5. सभी में आलोचना की सहज स्‍वीकार्यता नहीं होती इसलिये मैं सामान्‍यतय: आलोचनात्‍क टिप्‍पणियॉं देने से बचने की कोशिश करता हूँ, लेकिन चर्चा की सार्थकता और राजेन्‍द्र भाई पर विशेषाधिकार इसकी अनुमति दे रहा है इसलिये केवल एक गजल के कुछ अशआर पर अपना मत खुलकर दे रहा हूँ। शब्‍द प्रयोग की दृष्टि से यह गजल है तो बहुत अच्‍छी लेकिन बारीकी से देखें तो जो खटक रहा है वह इस प्रकार है:
    न इक पत्ता हवा के संचरण से तब हिला होता
    दिशा-निर्देश प्रभु का काम यदि ना कर रहा होता
    में पहली पंक्ति अधिक पुष्‍ट रहती यदि ऐसा कहते कि:
    हवा के संचरण भर से न इक पत्‍ता हिला होता

    चराचर सृष्टि जल ज्वाला पवन आकाश धरती में
    हृदय चाहे तो पग-पग ईश का दर्शन हुआ होता
    में दूसरी पंक्ति अधिक पुष्‍ट रहती यदि ऐसा कहते कि:
    हृदय गर चाहता तो ईश का दर्शन हुआ होता।

    वनस्पति जीव रवि शशि काल ऋतु दिन रैन का सृष्टा
    न क्षण भर; वह सनातन सर्वव्यापक सर्वदा होता
    में दूसरी पंक्ति भाव-विपरीत है, शाइर का भाव तो यहॉं यही अपेक्षित है कि वह सनातन सर्वदा सर्वव्यापक है जबकि ध्‍वनित उल्‍टा हो रहा है। यही इससे अगले शेर में हो रहा है। अगले शेर में वह की पुनरावृत्ति भी दोषपूर्ण है।
    समाया सूक्ष्मतम् बन कर अखिल ब्रह्मांड में जो, वह
    अनश्वर, वह अजन्मा शुद्ध हृदयों में बसा होता
    समाया सूक्ष्मतम् बन कर अखिल ब्रह्मांड में है जो
    कहकर दूसरी पंक्ति का निराकरण तो हो जाता है।

    शिला बनती अहिल्या, प्राण प्रस्तर ना पुनः पाता
    न यदि निज चरण-रज से धन्य राघव ने किया होता
    अधिक पुष्‍ट रहता यदि ऐसा कहते कि:
    शिला र‍हती अहिल्‍या, प्राण प्रस्‍तर में नहीं आते
    न गर उद्धार राघव ने चरण-रज से किया होता।

    न अपनों को भुलाता है न अंतर-भेद कुछ करता
    वो गज का, द्रोपदी प्रह्लाद ध्रुव का एक-सा होता
    की पहली पंक्ति को देखें, विरोधाभास है, जो अंतर या भेद नहीं करता है उसके लिये अपना पराया कैसा (यहॉं अंतर ओर भेद भी समानार्थक हैं)

    लगा लौ, ईश से यह मोक्ष पाने का सुअवसर है
    पुण्यवश योनि यह मिलती, न मानव अन्यथा होता
    में कहने को कुछ नहीं है। उत्‍तम है।

    सच्चिदानंद की राजेन्द्र यदि मिलती न अनुकंपा
    निरंतर जन्म लेता और मरता, मिट गया होता। में भी विरोधाभास है या तो ‘निरंतर जन्म लेता और मरता’ और ‘मिट गया होता’ परस्‍पर विरोधी हैं।

    ये बारीक बाते हैं जो अक्‍सर ध्‍यान में नहीं आतीं। राजेन्‍द्र भाई अनूठे शब्‍द प्रयोग करते हैं और शुद्ध हिन्‍दी का अच्‍छा प्रयोग करते हैं।

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  6. राजेन्द्र जी की रचनाएं इस लिहाज से विशिष्ट हैं कि वे अपने में मानवीय भावों का एक सनातन बोध लिए होती हैं और उसी की पृष्ठभूमि में ही समकालीन विपर्ययों पर चोट करती हैं -एक संवेदना युक्त मनुष्य के समग्र आग्रहों को भी बखूबी अभिव्यक्ति देती हैं उन की रचनाएं -प्रेम ,संयोग वियोग ,आध्यात्म ,सांसारिकता का अद्भुत मोजैक देखना हो तो इस कवि का आह्वान किया जाना जाना चाहिए ...
    इंगित सभी रचनाएँ ,बाद की तीन तो बेहद ही उम्दा हैं -पहली में जरूर कुछ प्रवाह खटकता है ..
    ऐसे संभावनाशील उदीयमान भास्वर भविष्य के रचनाकार को बहुत बहुत शुभकामनाएं !
    इनका सस्वर पाडकास्ट भी देना था ....

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  7. समाज और मानवीय संस्कारों पर लिखी ..... हिन्दी के शब्दों को लिए .... बहुत ही कमाल का लिखा है राजेंद्र जी ने .... साथ साथ तिलक राज जी ने भी बहुत बारीकी से ग़ज़ल विधा का ज्ञान दिया .... दोनो का शुक्रिया और बधाई ...

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  8. आदरणीय स्‍वर्णकार जी की रचनाएं काव्‍य शिल्‍प और गेयता की कसौटी पर खरी उतरती हैं, इनमें मानवीय संवेदनाओं के साथ ही आकुल व्‍याकुल मन की व्‍यथा साफ झलकती है.
    हर इक युग धृतराष्ट्र अंधे ही रहे सुत-मोह में
    अस्मिता पांचालियों की हर इक युग सस्ती रही
    राजेन्‍द्र जी की उपरोक्‍त पंक्तियां मन को झकझोर देती हैं. वर्तमान परिवेश को जिस तरीके से उन्‍होंने उकेरा है. यह पंक्तियां अपने आप में रचनाधर्मिता का निर्वाह भर ही नहीं अपितु उस पर प्रहार करने का पैनापन भी विद्यमान है. जब कविता आत्‍मचेतना से आगे बढ्कर समब्र चेतना बन जाती है; वही कविता की पूर्णता होती है. इस संदर्भ में स्‍वर्णकार जी खरे उतरे हैं. इतनी अच्‍छी रचनाओं के लिए डा. सुभाष राय को भी आभार

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  9. राजेन्द्र स्वर्णकार जी को पढ़ना और सुनना हमेशा ही सुखद होता है, वो ही आज भी हुआ. बेहतरीन लेखन!

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  10. अद्भुत ज्ञान भंडार है राजेन्द्र जी के पास .......
    ग़ज़ल की बारीकियों का तो ज्ञान हमें नहीं ......
    पर राजेंद्र जी की लेखनी सर्वथा अलग और विशिष्ट स्थान रखती है .....
    ग़ज़ल के क्षेत्र में हिंदी केइतनी क्लिष्ट भाषा संरचना का प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता है ....
    हमारे लिए ये गर्व की बात है कि इतने सुमधुर कंठ के स्वामी जो न केवल लिखते हैं वरन अपनी रचनाओं को अपनी ही बनाई धुनों पर गाते भी हैं ...
    आदरणीय तिलकराज जी ने शायद कुछ कमियों की ओर ध्यान दिलाकर इन्हें और प्रोत्साहित किया होगा .....
    आपने इनकी रचनाओं को अपनी ब्लॉग पत्रिका में स्थान देकर अपना मान बढाया है ........!!
    शुक्रिया .....!!

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  11. राजेंद्र जी की कवितायेँ इधर जो कवितायेँ पढ़ी है उनसे अलग है ,शिल्प तों शिल्प वाले जाने पर मुझ साधारण पाठक को कवितायेँ बहुत अच्छी लगी |बधाई हो राजेंद्र जी विशेषकर दूजे घर ना जाई बाबा ने मुझे कुछ विशेष आकर्षित किया ,बाकी रचनाये भी बहुत अच्छी है |

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  12. प्रियवर राजेन्द्र स्वर्णकार जी की चारों रचनाएँ उच्चकोटि की हैं!
    --
    ये अनमोल रचनाएँ पढ़वाने के लिए डॉ. सुभाष राय जी का धन्यवाद!

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  13. राजेन्द्र जी ,
    आप के शब्द ज्ञान का तो मुक़ाबला करना बहुत मुश्किल है
    हिंदी ग़ज़ल में आप की कोशिशें क़ाबिल ए तारीफ़ हैं ,
    अंतिम दोनों रचनाएं सुंदर हैं ,पहली रचना में हिंदी शब्दों का प्रयोग बहुत बढ़िया है
    बधाई

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  14. र आज समाज से मानवीय मूल्य विलुप्त हो रहे है। लगता है आने वाली पीढी को मानवीय मूल्यों का शायद अर्थ भी भूल जाये ऐसे समय मे राजेन्द्र जी जैसे कवियों की बहुत जरूरत है\ तिलक जी जैसे विषेश्गों का मार्ग दर्शन हो तो सोने पर सुहागा होगा। स्राजेन्द्र जी को पहले भी पढा है और हमेशक़ उन्होंने प्रभावित किया है
    राजेन्द्र जी को बधाई और आपका धन्यवाद।

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  15. अपनी अनंत यात्रा पर चलते हुए,
    काव्य ने विभिन्न पड़ाव पार किये हैं ...
    विविध जटिलताओं से दो-चार होते हुए भी
    कविता ने मानव मन में स्थान बना पाने में सफलता अर्जित
    की है....
    और ऐसा... काव्य का मर्म समझ सकने वाले
    विद्वान् रचनाकारों की उज्जवल सोच से ही संभव हो पाया है

    अगर कह दिया जाए कि श्री राजेंद्र जी की rachna-sheeltaa
    इस श्रेणी में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है
    तो कोई अतिशियोक्ति न होगी ...
    अपने समय(काल खंड) और समाज के सच को महसूस कर पाने,
    समझ पाने और व्यक्त कर पाने की कुशलता के आधार पर टिकी
    राजेंद्र जी की रचनाएं हमेशा ही अपने पाठक वर्ग को प्रभावित
    कर पाने में सफल रहती हैं ,,,
    यही विशेषता उनकी काव्य-लेखन निपुणता
    की परिचायिक है .
    रचना-प्रक्रिया में वेह अपनी चेतना को विस्तार देकर
    न केवल मानव मात्र को
    बल्कि पूरी सृष्टि को अपने कृतत्व में समेटने का प्रयास करते हैं ...
    हालांकि.. मात्र दुर्बोध शब्द-संयोजन किसी भी काव्य की
    उत्कृष्ट एवं सफल होने की कोई कसौटी नहीं है ,
    फिर भी उनकी शैली की विशिष्टता उन्हें
    निर्बाध रूप से प्रतिष्ठित हस्ताक्षर मान लिए जाने वाले रचनाकारों की श्रेणी में स्थापित करती है ....
    यह सच है कि शिल्प की अपरिपक्वता हमेशा जागरूक और सचेत पाठक को अखरती है लेकिन यह भी सच है
    कि किसी रचना-विशेष की सरंचना के आधार
    पर किसी लेखक की योग्यता की समग्रता का मूल्यांकन/प्रेक्षण कर पाना न तो संभव है और न ही प्रासंगिक ही .....
    और एक बहुत बड़ा सच यह भी कि
    सिर्फ और सिर्फ विद्वान् पाठक ही
    अपनी तीक्षण और पैनी दृष्टि का सदोपयोग करते हुए
    किसी रचनाकार की योग्यता को
    प्रमाणित करने की क्षमता रखता है और अधिकार भी .....
    राजेंद्र जी भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं
    इस में कोई संदेह नहीं है...

    उन्हें उनकी रचना-धर्मिता के लिए ढेरों शुभकामनाएं
    और आदरणीय सुभाष राए जी को धन्यावाद .

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  16. राजेंद्र स्वर्णकार की रचनाओं से मेरा परिचय ब्लाँग के माध्यम से हुआ. मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ, कि इस कवि में अद्भुत प्रतिभा है. ग़ज़ल और छंदशास्त्र पर अच्छी पकड़ है. राजेंद्र भाई की ग़ज़ले हिंदी-प्रकृति की है. और हर शेर कुछ सार्थक कहने की कोशिश करता है. धीरे-धीरे यह काव्य-प्रतिभा साहित्य की दुनिया में अपनी जगह बना लेगी, ऐसा विश्वास है.सुभाष जी की परखी नज़र और ''साखी'' में आना ही इसी बात का प्रमाण है कि यह कवि 'स्वर्ण' की तरह चमकेगा.

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  17. सम्मानिय सुभाष जी
    सम्म्नीय राजेंद्र जी
    सादर प्रणाम !
    राजेंद्र जी को जितने निजी तौर पे जानता हूँ उतनी ही भली भांति उनकी रचनाओं को भी ,माहिर है वे चाहे लेखन हो या गायन ,पढ़ने के बाद लग रहा है कि वे रूबरू ही है , राजेन्द्र जी बधाई !
    सादर !

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  18. आत्मीय भाई श्री राजेन्द्र स्वर्णकार जी,
    सर्वप्रथम तो यही कि आप अपनी ग़ज़ल-1 व 4 हमारी पत्रिका ’अभिनव प्रयास’ के लिए (अलीगढ़ वाले पते पर) मेरे संदर्भ के साथ भेज दें, प्रकाशनार्थ। यह इन दोनों ग़ज़लों के लिए प्रकारान्तर में एक पुरस्कार ही है! मैं अकिंचन, इससे इतर कुछ दे भी क्या सकता हूँ!? बधाई...मेरे भाई! आपकी उक्त दोनों ही ग़ज़लें अतिसुन्दर बन पड़ी हैं। इन रचनाओं से आपके चिंतन-लोक की झलक मिलती है। ’हिन्दी ग़ज़ल’ परिक्षेत्र में परिनिष्ठित व परिमार्जित भाषा में अवगुम्फित / अनुस्यूत भावों-विचारों की इस सद्‌यस्कता का स्वागत है... प्रत्यु्त्‌ मुझे कहना चाहिए कि "हार्दिक स्वागत है"।

    जहाँ तक ग़ज़ल-1 के संदर्भ मे भाई तिलक राज कपूर की टिप्पणियों का प्रश्न है, वहाँ उठाए गए कुछेक सार्थक बिन्दुओं के पार्श्व से कपूर जी की ’आत्म-प्रक्षेपण’ की प्रबल चाह का विकल नर्तन भी दिखायी दे रहा है। श्री कपूर जी को मैंने कुछेक अन्य साइट्‌स एवं ब्लॉग्ज़ पर ठीक यही ’पुनरोक्ति-प्रकाशन’ करते देखा और पढ़ा है कि-- "सभी में आलोचना की सहज स्‍वीकार्यता नहीं होती इसलिये मैं सामान्‍यत: आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियाँ देने से बचने की कोशिश करता हूँ, लेकिन चर्चा की सार्थकता...।"

    कपूर जी...! मैं पूरी विनम्रता के साथ आपसे यह पूछने का साहस कर रहा हूँ कि जब आप हर जगह यही लिख रहे हैं कि- "... बचने की कोशिश करता हूँ ...।" तब आख़िर आप "बचते" कहाँ होंगे? और ’बच’ ही कहाँ पा रहे हैं? मेरा आशय यही कि हुज़ूर, या तो एक बार स्थाई रूप से ’बच’ ही जाइए या फिर कोलम्बस की तरह गोल-गोल घूमने के बजाय एकदम सीधी (स्ट्रेट-फ़ॉर्वर्ड) यात्रा पर निकल पड़िए । आख़िर आपसे कोई यह तो पूछ नहीं रहा है कि- भैय्या, निजी तौर पर आप क्या "कोशिश करते हैं" और क्या नहीं ??? ख़ैर ... !

    कपूर जी, अंत में, आपसे इतना अवश्य कहूँगा कि यदि आपने राजेन्द्र भाई को उक्त सभी समझाइशें सीधे तौर पर पत्र या ईमेल से स्वयं उन्हें ही दी होतीं, तो आपका व्यक्तित्व कुछ और ही झलकता। इतना ही नहीं, उस स्थिति में स्वयं राजेन्द्र भाई के लिए भी आपकी टिप्पणियों का महत्त्व कुछ और ही होता। है कि नही...? आपने सार्वजनिक तौर पर उस एक ग़ज़ल को धर-दबोचकर उसका ’अन्त्य-परीक्षण’ (पोस्ट-मॉर्टम) ही नहीं, प्रत्युत्‌ ’तेहरवीं-संस्कार’ भी कर डाला। नितान्त सद्‌यस्कता से भरी-पूरी ग़ज़ल के रचयिता को प्रोत्साहन देने के बजाय, उसकी ’ब्रेन-स्टॉर्मिंग’ कर डाली। भाई, ध्यान रहे कि दृढ़ इच्छाशक्ति वाले लोग तो ऐसी सार्वजनिक धुलाई से चमक उठते हैं, लेकिन कमज़ोर लोग डरकर लेखनी सदा के लिए फेंक भी सकते हैं। ऐसे में स्थापितों का यह धर्म है कि वे नवोदितों को निखारें...किन्तु प्यार के साथ!! कृपया इस बिन्दु पर विचार करिएगा, एकांत में। हाँ... आप उनके काव्य-दोषों की ओर कुछ संकेत करके बात आगे बढ़ा सकते थे।

    भाई राजेन्द्र जी...मैं अपनी विस्तृत राय डायरेक्ट आपको ईमेल से दूँगा। यहाँ मात्र इतना ही कहूँगा कि आपने संदर्भित ग़ज़लों में जहाँ कहीं भी ’ना’ शब्द का प्रयोग किया है, उसकी जगह पर ’न’ का विकल्प चुन लीजिएगा।

    ’साखी’ के संपादक एवं समस्त पाठकों को नमस्कार !

    धन्यवाद!
    आपका सद्‍भावी,
    जितेन्द्र ’जौहर’
    अंग्रेजी विभाग (ए.बी. आई. कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
    मोबा. नं. +91 9450320472
    ईमेल: jjauharpoet@gmail.com

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  19. जितेन्द्र ’जौहर’20 सितंबर 2010 को 5:05 pm बजे

    आत्मीय भाई श्री राजेन्द्र जी,
    सर्वप्रथम तो यही कि आप अपनी ग़ज़ल-1 व 4 हमारी पत्रिका ’अभिनव प्रयास’ के लिए (अलीगढ़ वाले पते पर) मेरे संदर्भ के साथ भेज दें, प्रकाशनार्थ। यह इन दोनों ग़ज़लों के लिए प्रकारान्तर में एक पुरस्कार ही है! मैं अकिंचन, इससे इतर कुछ दे भी क्या सकता हूँ!? बधाई...मेरे भाई! आपकी उक्त दोनों ही ग़ज़लें अतिसुन्दर बन पड़ी हैं। इन रचनाओं से आपके चिंतन-लोक की झलक मिलती है। ’हिन्दी ग़ज़ल’ परिक्षेत्र में परिनिष्ठित व परिमार्जित भाषा में अवगुम्फित / अनुस्यूत भावों-विचारों की इस सद्‌यस्कता का स्वागत है... प्रत्यु्त्‌ मुझे कहना चाहिए कि "हार्दिक स्वागत है"।

    जहाँ तक ग़ज़ल-1 के संदर्भ मे भाई तिलक राज कपूर की टिप्पणियों का प्रश्न है, वहाँ उठाए गए कुछेक सार्थक बिन्दुओं के पार्श्व से कपूर जी की ’आत्म-प्रक्षेपण’ की प्रबल चाह का विकल नर्तन भी दिखायी दे रहा है। श्री कपूर जी को मैंने कुछेक अन्य साइट्‌स एवं ब्लॉग्ज़ पर ठीक यही ’पुनरोक्ति-प्रकाशन’ करते देखा और पढ़ा है कि-- "सभी में आलोचना की सहज स्‍वीकार्यता नहीं होती इसलिये मैं सामान्‍यत: आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियाँ देने से बचने की कोशिश करता हूँ, लेकिन चर्चा की सार्थकता...।"

    कपूर जी...! मैं पूरी विनम्रता के साथ आपसे यह पूछने का साहस कर रहा हूँ कि जब आप हर जगह यही लिख रहे हैं कि- "... बचने की कोशिश करता हूँ ...।" तब आख़िर आप "बचते" कहाँ होंगे? और ’बच’ ही कहाँ पा रहे हैं? मेरा आशय यही कि हुज़ूर, या तो एक बार स्थाई रूप से ’बच’ ही जाइए या फिर कोलम्बस की तरह गोल-गोल घूमने के बजाय एकदम सीधी (स्ट्रेट-फ़ॉर्वर्ड) यात्रा पर निकल पड़िए । आख़िर आपसे कोई यह तो पूछ नहीं रहा है कि- भैय्या, निजी तौर पर आप क्या "कोशिश करते हैं" और क्या नहीं ??? ख़ैर ... !

    कपूर जी, अंत में, आपसे इतना अवश्य कहूँगा कि यदि आपने राजेन्द्र भाई को उक्त सभी समझाइशें सीधे तौर पर पत्र या ईमेल से स्वयं उन्हें ही दी होतीं, तो आपका व्यक्तित्व कुछ और ही झलकता। इतना ही नहीं, उस स्थिति में स्वयं राजेन्द्र भाई के लिए भी आपकी टिप्पणियों का महत्त्व कुछ और ही होता। है कि नही...? आपने सार्वजनिक तौर पर उस एक ग़ज़ल को धर-दबोचकर उसका ’अन्त्य-परीक्षण’ (पोस्ट-मॉर्टम) ही नहीं, प्रत्युत्‌ ’तेहरवीं-संस्कार’ भी कर डाला। नितान्त सद्‌यस्कता से भरी-पूरी ग़ज़ल के रचयिता को प्रोत्साहन देने के बजाय, उसकी ’ब्रेन-स्टॉर्मिंग’ कर डाली। भाई, ध्यान रहे कि दृढ़ इच्छाशक्ति वाले लोग तो ऐसी सार्वजनिक धुलाई से चमक उठते हैं, लेकिन कमज़ोर लोग डरकर लेखनी सदा के लिए फेंक भी सकते हैं। ऐसे में स्थापितों का यह धर्म है कि वे नवोदितों को निखारें...किन्तु प्यार के साथ!! कृपया इस बिन्दु पर विचार करिएगा, एकांत में। हाँ... आप उनके काव्य-दोषों की ओर कुछ संकेत करके बात आगे बढ़ा सकते थे।

    भाई राजेन्द्र जी...मैं अपनी विस्तृत राय डायरेक्ट आपको ईमेल से दूँगा। यहाँ मात्र इतना ही कहूँगा कि आपने संदर्भित ग़ज़लों में जहाँ कहीं भी ’ना’ शब्द का प्रयोग किया है, उसकी जगह पर ’न’ का विकल्प चुन लीजिएगा।

    ’साखी’ के संपादक एवं समस्त पाठकों को नमस्कार !

    धन्यवाद!
    आपका सद्‍भावी,
    जितेन्द्र ’जौहर’
    अंग्रेजी विभाग (ए.बी. आई. कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
    मोबा. नं. +91 9450320472
    ईमेल: jjauharpoet@gmail.com

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  20. जितेन्द्र ’जौहर’20 सितंबर 2010 को 5:13 pm बजे

    आद. डॉ. सुभाष रय जी,
    नमस्कारम्‌‍!
    टिप्पणी प्रकाशित होने में अड़चन आ रही है। मैं दो बार भेज चुका हूँ, फिर भी...!?
    कृपया देखें कि क्या गड़बड़ है?
    धन्यवाद,

    आपका अपना,
    जितेन्द्र ’जौहर’

    जवाब देंहटाएं
  21. थे जटायु कट गए, गज फंस गए, हय हत हुए
    मात्र कुछ रंगा-सियारों की बहुत मस्ती रही

    अद्भुत भावाभिव्यक्ती...

    राजेंद्र जी की रचनाएँ उन्हीं की तरह विलक्षण हैं...उनका शब्द ज्ञान विस्मयकारी है...भाव को अनूठे शब्दों में बाँधने वाले ऐसे रचनाकार कम ही हैं...माँ सरस्वती की अपने इस लाडले पुत्र पर कृपा हमेशा ऐसी ही बनी रहे ये ही कामना करता हूँ...

    सुभाष जी, आपका आभार जो हमें उनकी रचनाएँ फिर से पढ़ने का अवसर दिया...

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  22. आद.श्री राय जी,
    नमस्कारम्‌!
    श्री राजेन्द्र जी की उस ग़ज़ल के साथ यह मुद्दा साहित्य-विमर्श हेतु अपने ब्लॉग http://jauharnama.blogspot.com/ पर ’साक्षी’ से साभार post करना चाहता हूँ। आपकी अनुमति की प्रतीक्षा रहेगी!

    धन्यवाद!
    जितेन्द्र ‘जौहर’

    जवाब देंहटाएं
  23. प्रिय राजेन्‍द्र भाई की रचनाओं में सचमुच स्‍वर्ण का राज है। उनकी आवाज तो सोना है ही। अब यह मालूम नहीं कि सचमुच में सोने के प्रति उनके मन में कैसे भाव हैं, वैसे वे भी नेक ही होंगे। नेक व्‍यक्ति में सब कुछ नेक ही रहता है अपनी अनेकता में मोहित करता हुआ। उनको पढ़ना अपने ज्ञान को विस्‍तृत करना होता है और सुनना, मुग्‍ध होने की प्रक्रिया है। इनकी अनूठी काव्‍य शैली और भाव सदैव मोहित करते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  24. आदरणीय सुभाष जी ,

    आपके ब्लॉग पे ही राजेन्द्र जी के जीवन परिचय में देखा था २१ सितम्बर उनका जन्मदिन है ...तो सोचा आपके ब्लॉग पे ही उन्हें बधाई दे दूँ .....
    पर यहाँ आकर बड़ी निराशा हुई .....हमने उन्हें जन्मदिन का क्या तोहफा दिया ये .....?
    क्या कहूँ ....?.

    जवाब देंहटाएं
  25. सबसे पहले तो राजेन्‍्द्र जी को जन्‍मदिन की बहुत बहुत बधाई।
    राजेन्‍द्र जी की रचनाओं पर तो विद्वानों ने बहुत कुछ कह दिया है। मुझे लगता है कुछ साथियों को साखी को लेकर कुछ भ्रम हुआ है। जौहर जी क्षमा करें। आपने जो सलाह तिलक जी को दी है अव्‍वल तो वह अनुचित है। क्‍योंकि मेरे विचार में साखी मंच ही समीक्षा का है। दूसरी बात जो बातें आपने तिलक जी से कहीं आप भी वही बातें उन्‍हें ईमेल या पत्र के जरिए भेज सकते थे।
    संभव है जौहर जी राजेन्‍्द्र जी के मित्र हों,पर वे मित्र मोह में यह क्‍यों भूल गए कि सबसे ज्‍यादा नुकसान वे अपने मित्र का ही कर रहे हैं। जारी....

    जवाब देंहटाएं
  26. जितेन्‍द्र जी आपके ही शब्‍दों में कहूं तो,'जितेन्‍द्र जी, अंत में, आपसे इतना अवश्य कहूँगा कि यदि आपने कपूर जी को उक्त सभी समझाइशें सीधे तौर पर पत्र या ईमेल से स्वयं उन्हें ही दी होतीं, तो आपका व्यक्तित्व कुछ और ही झलकता। इतना ही नहीं, उस स्थिति में स्वयं कपूर जी के लिए भी आपकी टिप्पणियों का महत्त्व कुछ और ही होता। है कि नही...? आपने सार्वजनिक तौर पर उनके कथन को धर-दबोचकर उसका ’अन्त्य-परीक्षण’ (पोस्ट-मॉर्टम) ही नहीं, प्रत्युत्‌ ’तेहरवीं-संस्कार’ भी कर डाला। नितान्त सद्‌यस्कता से भरी-पूरी टिप्‍पणी के रचयिता को प्रोत्साहन देने के बजाय, उसकी ’ब्रेन-स्टॉर्मिंग’ कर डाली। भाई, ध्यान रहे कि दृढ़ इच्छाशक्ति वाले लोग तो ऐसी सार्वजनिक धुलाई करने से नहीं डरते हैं, लेकिन कमज़ोर लोग डरकर लेखनी सदा के लिए फेंक भी सकते हैं। ऐसे में स्थापितों यानी आप जैसों का यह धर्म है कि वे औरों को निखारें...किन्तु प्यार के साथ!! कृपया इस बिन्दु पर विचार करिएगा, एकांत में।'

    जवाब देंहटाएं
  27. जितेन्‍द्र जी आपने लिखा है,' जहां तक ग़ज़ल-1 के संदर्भ मे भाई तिलक राज कपूर की टिप्पणियों का प्रश्न है, वहाँ उठाए गए कुछेक सार्थक बिन्दुओं के पार्श्व से कपूर जी की ’आत्म-प्रक्षेपण’ की प्रबल चाह का विकल नर्तन भी दिखायी दे रहा है।'

    क्षमा करें अगर मैं यह कहूं कि ’आत्म-प्रक्षेपण’ की प्रबल चाह का विकल नर्तन तो आपमें भी दिखाई दे रहा है तो अन्‍यथा न लीजिएगा। क्‍योंकि आपने पहले तो अपना पूरा पोस्‍टल पता,ईमेल,फोन नम्‍बर दे भी दे दिया। फिर भी आपको लगा कि कमी है तो आप आकर अपने ब्‍लाग का पता भी दे गए।
    बहुत संभव है राजेन्‍द्र जी को,साखी के पाठकों को मेरी टिप्‍पणियां अच्‍छी नहीं लगी होंगी। लेकिन क्‍या जितेन्‍द्र जी जिस तरह से कपूर जी की आलोचना कर रहे हैं,वह शोभा देता है।

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  28. अब राजेन्‍द्र जी की रचनाओं पर मेरी बात। राजेन्‍द्र जी के बारे में‍ जितना सुनता रहा हूं,उससे पता चलता है कि वे मधुर वाणी के धनी हैं। मोहित करने वाली शब्‍दावली भी उनके पास है,यह यहां स्‍पष्‍ट है। निश्चित रूप से वे जहां भी मंच पर खड़े होते होंगे,मंच को लूट जाते होंगे। मैंने उनको कभी नहीं सुना, न मंच पर, न यहां ऑडियो या वीडियो में।
    मेरी अपनी राय यह है कि यहां उनके साहित्यिक अवदान की बात उनकी रचनाओं के लिखित स्‍वरूप के आधार पर की जा रही है,या की जानी चाहिए। मैं अपनी बात इसी कसौटी पर कह रहा हूं। पहली, तीसरी,चौथी रचनाएं भजन की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। और भजन प्रभु मात्र की आराधना में गाया जाता है। वे इसमें सफल रहे हैं। दूसरी रचना कुछ अलग से तेवर की है।

    मैं रचनाओं में कुछ अलग बिम्‍ब या कहन का तरीका ढूंढता रहता हूं। इस स्‍तर पर मुझे राजेन्‍द्र जी की इन रचनाओं से निराशा ही हाथ लगी। उन्‍होंने जो बिम्‍ब लिए हैं वे चमत्‍कृत नहीं करते हैं। हां उनके लिए उन्‍होंने समृद्ध शब्‍दों का उपयोग किया है। मुझे उनमें आम आदमी और उसकी चिंताओं के दर्शन नहीं हुए।

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  29. मदन मोहन शर्मा अरविन्द22 सितंबर 2010 को 8:59 am बजे

    adarniy, apki rachnayen sakhi par padhin, anand aya, adbhut...., sundar, bahut khub.

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  30. प्रतुल वशिष्ठ22 सितंबर 2010 को 9:06 am बजे

    @ इतनी सारी बुराइयाँ. फिर भी बाबा से पूछ रहे हैं "बोल ! बता, राजेन्द्र मं का है/ ऐसन बुरी बुराई बाबा ?!"
    आपकी बुराइयाँ हैं :
    [१] ढीठ होना जैसे कि 'बाबा की चौखट छोड़ने को तैयार ही ही नहीं. आजकल के बाबा एकनिष्ठ प्रेम को नहीं पहचान पाते.
    [२] जिद्दी हो. गर्दन कटवाने की बात कहकर धमकी दे रहे हो.
    [३] बाबा को बहरा तक कहा आपने. छी. और ढोल बजा-बजा कर उनकी नींद में दखल देते हो. हे राम! इतना स्वार्थीपन.
    [४] आपकी बारी नहीं आयी तो बाबा जी नाइंसाफी करते हैं - कह दिया, बाबा जी बेरहम हैं.
    [५] झूठ और केवल झूठ 'कौड़ी नहीं कमायी' तो क्या रिश्वत से बच्चों का पालन पोषण किये थे.
    >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

    मन अभी पूरी तरह व्यस्त है. दो दिन इंटरनेट छिपन-छिपायी खेलता रहा. आपकी रचनाएँ पढ़ लीं हैं. लेकिन समीक्षा फिलहाल नहीं कर पा रहा. आखिरी कविता के साथ मनोविनोद ज़रूर किया है. आशा है क्षमा करेंगे.
    वैसे श्रीमान तिलक राज कपूर जी ने आपकी एक कविता की अच्छी टांग खिंचायी की है. पर मुझे लगता है उनकी टिप्पणी को भी समीक्षा की ज़रुरत है. बिना मनोयोग के मैं कविताओं के साथ अन्याय नहीं करना चाहता. मुझे आयु में छोटा जान माफ़ कर दीजिएगा. नाराज होकर आप अपनी रचनाएँ भेजना बंद नहीं कर दीजिएगा.

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  31. चन्द्रभान भारद्वाज22 सितंबर 2010 को 9:08 am बजे

    भाई राजेंद्र जी,
    आपकी चारों ग़ज़लें पढ़ीं हैं इन पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पड़ियां लिख रहा हूँ.
    ग़ज़लों में शब्द संयोजन भाषा सौष्ठव भावनात्मक सम्प्रेषण और कथन सभी
    ठीक हैं लेकिन मेरे विचार में कहीं कहीं तकनीकी और व्याकरण की दृष्टि से कुछ
    कमियाँ रह गईं हैं लम्बी बहर की ग़ज़लों में भरती के जिन शब्दों का प्रयोग किया है
    वे भी अखरते हैं. इनमें से कुछ मैं नीचे स्पष्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ.
    (१) पहली ग़ज़ल के मतले के पहले मिसरे में 'तब' और दूसरे मिसरे में 'ना' शब्द अखरते हैं
    अगर मतले को ऐसे लिखा जाता तो बहतर होता -
    न इक पत्ता हवा के संचरण से भी हिला होता
    दिशा निर्देश यदि उसको नहीं प्रभु का रहा होता
    चौथा शेर स्पष्ट नहीं है 'शिलाबनती अहिल्या ' वाला शेर भी स्पष्ट नहीं है इसे यदि नीचे
    की तरह लिखते तो स्पष्ट होता-
    शिला रहती अहिल्या प्राण प्रस्तर को न मिल पाते
    न यदि निज चरण रज से धन्य राघव ने किया होता
    तीसरे और चौथे शेर स्पष्ट नहीं हैं. 'न राधा के ह्रदय ' वाला मिसरा भी व्याकरण की दृष्टि से गलत
    हैं, इसमें 'प्रीत-लौ' स्त्रीलिंग है अतः क्रिया 'जली होती' आता 'जला होता' नहीं. दूसरे राधा का सम्बन्ध
    कृष्ण से है भगवान से नहीं. अतः शेर यदि नीचे के अनुसार लिखा जाता तो अधिक सटीक रहता-
    स्वयं कान्हा भी यदि उससे न करता स्नेह सच्चा तो
    न राधा के ह्रदय में प्यार लौ बनकर जला होता
    'पुन्यवश वाले' शेर के भाव स्पष्ट नहीं हैं तथा ये बहर में भी नहीं है इसी प्रकार सच्चिदानंद
    वाला मिसरा भी बहर में नहीं है
    दूसरी ग़ज़ल में 'खस्ती' पस्ती' शब्द शब्दकोष के अनुसार नहीं हैं ये केवल तुकबंदी के लिए गढ़े गए
    हैं सही शब्द 'खस्ता' और पस्त' हैं जो इस ग़ज़ल में कहीं भी फिट नहीं बैठते .
    तीसरी और चौथी ग़ज़ल के अरकान हैं २ २ २ २ २ २ २ २
    लेकिन दोनों ग़ज़लों में कई शेर अरकान में सही नहीं बैठते
    चौथी ग़ज़ल में भी 'ना' शब्द का प्रयोग कई जगह किया है जो अखरता है मकते में
    'ऐसन बुरी बुराई बाबा ' में 'बुरी' शब्द निरर्थक है इसी तरह 'बोल' 'बता' दोनों शब्दों का प्रयोग
    एक जगह उचित नहीं लगता यह शेर भी अगर नीचे लिखे अनुसार होता तो अधिक उचित लगता-
    बोलो इस राजेंद्र में देखी
    ऐसी कौन बुराई बाबा
    मैंने अपनी राय निष्पक्ष रूप से लिख दी है इसे स्वस्थ दृष्टि कोण से लें.
    इन सुंदर ग़ज़लों के लिए बहुत बहुत बधाई. शुभ कामनाओं सहित

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  32. आदरणीय सुभाष जी
    आभारी हूं , जो आपने साखी पर मुझे स्थान दिया ।
    यद्यपि , प्रतिक्रियाएं और अधिक आ सकती थीं , जो नहीं आईं …

    1
    संभव है , इसका कारण पूर्व निर्धारित योजना हो , जैसा कि साखी के कमेंट बॉक्स में ही छपा है …
    राजेश उत्‍साही ने कहा…
    घोषणा हो चुकी है कि राजेन्‍द्र जी की रचनाएं आ रही हैं अगले शनिवार। मेरा अनुरोध यह है कि साखी पर नियमित रूप से आने वाले हम लोग थोड़ा पीछे रहें। मेरा मतलब है जरा देर से आएं, कहने के लिए।
    १८ सितम्बर २०१० १२:१७ पूर्वाह्न


    2
    संभव है , इसका कारण किसी भी ब्लॉगर के ब्लॉगरोल तक ' साखी पर राजेन्द्र स्वर्णकार की रचनाएं ' पोस्ट का अपडेट न पहुंचना रहा हो ।

    3
    संभव है , इसका कारण आपकी व्यस्तता के चलते ' हमेशा की तरह पोस्ट संबंधी सूचना-मेल आम ब्लॉगर तक न पहुंचा पाना रहा हो ।

    4
    संभव है , इसका कारण साखी पर कमेंट पब्लिश न हो पाने की उबाऊ समस्या होना हो ।

    आदरणीय देवमणी पाण्डेय जी , आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी , आदरणीय मुफ़लिस जी , आदरणीय मदन मोहन अरविंद जी सहित कइयों ने इस समस्या के बारे में मुझे भी बताया था ।
    दो-तीन गुणी समीक्षकों की प्रतिक्रियाएं जो मुझे मेल से मिली ; मैं आपको प्रकाशनाथ भेज भी चुका हूं ।

    बहरहाल , मैं अंतःस्थल की गहराई से
    परम आदरणीया देवी नांगरानी जी , आदरणीय शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' जी , आदरणीय बड़े भाईसाहब तिलक राज जी कपूर , आदरणीय अरविंद मिश्र जी , आदरणीय दिगम्बर नासवा जी , आदरणीय डा. महाराज सिंह परिहार जी , आदरणीय समीर लाल समीर जी , आदरणीया हरकीरत हीर जी , आदरणीय चंद्र प्रकाश राय जी , आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी , परम आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी , आदरणीय मुफ़लिस जी , आदरणीय गिरीश पंकज जी , प्रिय भाई सुनील गज्जाणी जी , आदरणीय जितेन्द्र ’जौहर’ जी , बड़े भाईसाहब आदरणीय नीरज गोस्वामी जी , आदरणीय अविनाश वाचस्पति जी , आदरणीय राजेश उत्‍साही जी सहित उन सबके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने मेरी रचनाओं पर अपनी कृपादृष्टि करके मुझे धन्य किया , और श्रेष्ठ लिखने को प्रेरित किया ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं
    … लगातार

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  33. आदरणीय सुभाष जी
    आभारी हूं , जो आपने साखी पर मुझे स्थान दिया ।
    यद्यपि , प्रतिक्रियाएं और अधिक आ सकती थीं , जो नहीं आईं …

    1
    संभव है , इसका कारण पूर्व निर्धारित योजना हो , जैसा कि साखी के कमेंट बॉक्स में ही छपा है …
    राजेश उत्‍साही ने कहा…
    घोषणा हो चुकी है कि राजेन्‍द्र जी की रचनाएं आ रही हैं अगले शनिवार। मेरा अनुरोध यह है कि साखी पर नियमित रूप से आने वाले हम लोग थोड़ा पीछे रहें। मेरा मतलब है जरा देर से आएं, कहने के लिए।
    १८ सितम्बर २०१० १२:१७ पूर्वाह्न


    2
    संभव है , इसका कारण किसी भी ब्लॉगर के ब्लॉगरोल तक ' साखी पर राजेन्द्र स्वर्णकार की रचनाएं ' पोस्ट का अपडेट न पहुंचना रहा हो ।

    3
    संभव है , इसका कारण आपकी व्यस्तता के चलते ' हमेशा की तरह पोस्ट संबंधी सूचना-मेल आम ब्लॉगर तक न पहुंचा पाना रहा हो ।

    4
    संभव है , इसका कारण साखी पर कमेंट पब्लिश न हो पाने की उबाऊ समस्या होना हो ।

    आदरणीय देवमणी पाण्डेय जी , आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी , आदरणीय मुफ़लिस जी , आदरणीय मदन मोहन अरविंद जी सहित कइयों ने इस समस्या के बारे में मुझे भी बताया था ।
    दो-तीन गुणी समीक्षकों की प्रतिक्रियाएं जो मुझे मेल से मिली ; मैं आपको प्रकाशनाथ भेज भी चुका हूं ।

    बहरहाल , मैं अंतःस्थल की गहराई से
    परम आदरणीया देवी नांगरानी जी , आदरणीय शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' जी , आदरणीय बड़े भाईसाहब तिलक राज जी कपूर , आदरणीय अरविंद मिश्र जी , आदरणीय दिगम्बर नासवा जी , आदरणीय डा. महाराज सिंह परिहार जी , आदरणीय समीर लाल समीर जी , आदरणीया हरकीरत हीर जी , आदरणीय चंद्र प्रकाश राय जी , आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी , परम आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी , आदरणीय मुफ़लिस जी , आदरणीय गिरीश पंकज जी , प्रिय भाई सुनील गज्जाणी जी , आदरणीय जितेन्द्र ’जौहर’ जी , बड़े भाईसाहब आदरणीय नीरज गोस्वामी जी , आदरणीय अविनाश वाचस्पति जी , आदरणीय राजेश उत्‍साही जी सहित उन सबके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने मेरी रचनाओं पर अपनी कृपादृष्टि करके मुझे धन्य किया , और श्रेष्ठ लिखने को प्रेरित किया ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं
    … लगातार

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  34. देव मणि पांडेय22 सितंबर 2010 को 9:25 am बजे

    राजेंद्र जी, आप समर्थ रचनाकार हैं।
    आपने हिंदी भाषा के शब्द-सामर्थ्य का अदभुत नमूना पेश किया है्।
    भारतीय परम्परा,संस्कृति, जीवन मूल्य और मनुष्य की आस्था को जिस तरह
    आपने ग़ज़ल में पिरोया है वह प्रशंसनीय है।

    मुझे इन ग़ज़लों में कोई ख़ामी नहीं नज़र आई।
    उत्कृष्ट रचनाकर्म के लिए बधाई।

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  35. आदरणीय सुभाष जी
    आभारी हूं , जो आपने साखी पर मुझे स्थान दिया ।
    यद्यपि , प्रतिक्रियाएं और अधिक आ सकती थीं , जो नहीं आईं …

    1
    संभव है , इसका कारण पूर्व निर्धारित योजना हो , जैसा कि साखी के कमेंट बॉक्स में ही छपा है …
    राजेश उत्‍साही ने कहा…
    घोषणा हो चुकी है कि राजेन्‍द्र जी की रचनाएं आ रही हैं अगले शनिवार। मेरा अनुरोध यह है कि साखी पर नियमित रूप से आने वाले हम लोग थोड़ा पीछे रहें। मेरा मतलब है जरा देर से आएं, कहने के लिए।
    १८ सितम्बर २०१० १२:१७ पूर्वाह्न


    2
    संभव है , इसका कारण किसी भी ब्लॉगर के ब्लॉगरोल तक ' साखी पर राजेन्द्र स्वर्णकार की रचनाएं ' पोस्ट का अपडेट न पहुंचना रहा हो ।
    … लगातार

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  36. 3
    संभव है , इसका कारण आपकी व्यस्तता के चलते ' हमेशा की तरह पोस्ट संबंधी सूचना-मेल आम ब्लॉगर तक न पहुंचा पाना रहा हो ।

    4
    संभव है , इसका कारण साखी पर कमेंट पब्लिश न हो पाने की उबाऊ समस्या होना हो ।

    आदरणीय देवमणी पाण्डेय जी , आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी , आदरणीय मुफ़लिस जी , आदरणीय मदन मोहन अरविंद जी सहित कइयों ने इस समस्या के बारे में मुझे भी बताया था ।
    दो-तीन गुणी समीक्षकों की प्रतिक्रियाएं जो मुझे मेल से मिली ; मैं आपको प्रकाशनाथ भेज भी चुका हूं ।

    बहरहाल , मैं अंतःस्थल की गहराई से
    परम आदरणीया देवी नांगरानी जी , आदरणीय शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' जी , आदरणीय बड़े भाईसाहब तिलक राज जी कपूर , आदरणीय अरविंद मिश्र जी , आदरणीय दिगम्बर नासवा जी , आदरणीय डा. महाराज सिंह परिहार जी , आदरणीय समीर लाल समीर जी , आदरणीया हरकीरत हीर जी , आदरणीय चंद्र प्रकाश राय जी , आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी , परम आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी , आदरणीय मुफ़लिस जी , आदरणीय गिरीश पंकज जी , प्रिय भाई सुनील गज्जाणी जी , आदरणीय जितेन्द्र ’जौहर’ जी , बड़े भाईसाहब आदरणीय नीरज गोस्वामी जी , आदरणीय अविनाश वाचस्पति जी , आदरणीय राजेश उत्‍साही जी सहित उन सबके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने मेरी रचनाओं पर अपनी कृपादृष्टि करके मुझे धन्य किया , और श्रेष्ठ लिखने को प्रेरित किया ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं
    … लगातार

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  37. प्रिय मित्रों, साखी के कवियों, रचनाकारों, साहित्यकारों और सुधी पाठकों साखी पर टिप्पड़ी की समस्या आ रही है. मैं विशेषज्ञ सलाह लेने की कोशिश कर रहा हूं. तब तक आप ऐसा करें कि अगर बात लम्बी हो तो कई टुकड़ों में डालें या प्रोफाइल चुनते समय गुगल की जगह नाम/URL चुनें. इससे काम बन जायेगा. परेशानियों के लिये क्षमा चाहूंगा, पर मेरा वश नहीं चलता, यह ब्लागस्पाट की गड़्बॅड़ी लगती है.

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  38. राजेंद्र जी,
    साखी पर आपकी रचनाएं पढ़ीं। मैं इतना जानता हूँ कि ग़ज़ल कहने के लिए ज़रूरी बहरो-वज्न का पर्याप्त ज्ञान आपके पास है। वो तो विशुद्ध हिंदी की शब्द-सम्पदा का प्रयोग कर ग़ज़लें कहने की आपकी प्राथमिकता (जो निश्चित ही एक आदर्श है) ने कुछ सीमा रेखा खींच दी है। अन्यथा आप निश्चित रूप से बेहतर तगज्जुल वाली ग़ज़लें कहने की क्षमता रखते हैं। हर आदर्श के साथ कुछ सीमाओं का खिंच जाना नितांत स्वाभाविक है। आगे बढ़ते रहिये। संभावनाओं के सभी द्वार खुले हैं। और अंत में जन्म-दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं।

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  42. SHRI CHANDRABAHAL SUKUMAR, JO KI 31ST AUGUST 2010 KO DISTRICT JUDGE (ALLAHABAD) UP KE PAD SE RETIRE HUE HAIN NE TATSAM SHABDABLI MEN SAMKALIN PARIVESH KE SATH SATH PAURANIK SANSKRITAK VAIBHAV KO GHAZAL MKI FORM MEN PERFECTION KE SATH PIRONE KA KAM KIYA HAI. CHANDRASEN VIRAT AUR EHATRAM ISLAM KE NAM BHI SAMMAN KE SAH LIYE JA SAKTE HAIN JINOHON NE GHAZLON KI FORM MEN SHUDH HINDI KA PRAYOG KIYA HAI. YAHAN TILAKRAJ JI AUR CHANDRABHAN BHARADWAJ JI KI TIPPNIYON PAR RAJENDRA JI KO SIRF DHYAN HI NHIN DENA CHAHIYE BALKI UNKA DHANYABAD BHI DENA CHAHIYE. DONON NE HI SHALINTA SE SAHI TIPPANI KI HAI. MUJHE NAHIN LAGTA KI YAH BLOG LOGON KI SIRF JHUTHI TARIF KARANE KE LIYE HI HAI. YAH BHI SACH HAI KI KABHI LOG APNA SIKKA JAMNE KE LIYE SHALINTA KI FIKRA NAHI KARTE LEKIN AISE LOG BHITAR SE KAMZOR HOTE HAIN AUR UNME ATMAVISHWAS KI KAMI HOTI HAI. YAHAN DR SUBHASH RAI JI KO BHI YAH KHAYAL RAKHNA CHAHIYE KI IS BLOG PER KAMZOR RACHNAYEN NA AYEN. SHRESHTH GITON AUR GHAZALON KA BADA KHAZANA HAI USE LOGON TAK PAHUCHAYEN.

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  43. Aaj hee shri Rajendra Swarnkar kee gazalon
    ke saath - saath kaee kee gyaanvardhk aur mulyawaan tippaniyan padhne kaa saubhagya mujhe
    praapt huaa hai.Shri Rajendra kee gazalon mein
    gun bhee hain aur dosh bhee hain.Koee mukammal
    shayar nahin hai.Sabhee koee n koee galtee karte hain . Kahte hain n - insaan galtiyon kaa
    putla hai. Shri Tilak Raj , Shri Chandra Bhan
    Bhardwaj , Rajesh Utsahi , Ashok Rawat aadi kee
    tippaniyan anukarniy hee nahin hain , sahejne ke yogya bhee hain. Shri Rajendra ke ujjwal
    bhavishya se mujhe poorn ashaa hai.
    Ek baat aur , kuchh tippanikaaron ko aesee tippaniyan karne se gurez karnee chahiye
    jo aag mein ghee kaa kaam kartee hain.

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  44. # राजेश उत्‍साही जी ,
    आपकी कुछ बातों पर बात करलें …
    आप कहते हैं -
    # " संभव है जौहर जी राजेन्‍्द्र जी के मित्र हों, पर वे मित्र मोह में यह क्‍यों भूल गए कि सबसे ज्‍यादा नुकसान वे अपने मित्र का ही कर रहे हैं। "
    राजेश जी , अव्वल तो अंतर्जाल पर अब तक मेरा शत्रु कोई है नहीं ।
    …और भगवान के भजन लिखने - गाने वाले का नुकसान कोई कर भी नहीं सकता , है ना ?!
    आपने अपनी संपूर्ण विद्वता के आधार पर यहां प्रस्तुत मेरी पहली, तीसरी, चौथी रचना को भजन की श्रेणी में रखा ही है ।

    रही बात , कि श्री जितेन्द्र जौहर से मेरा क्या और कितना पुराना परिचय है यह आपरचनाकार के इस लिंक पर जा'कर देखें तो स्वतः जान जाएंगे कि हिंदी दिवस से पहले न मैं उन्हें , न वे मुझे जानते थे ।

    हां , जितेन्द्र जौहर जी ने जो लिखा , उनके निजी विचार हैं , बिल्कुल वैसे ही जैसे जो आपने लिखा , आपके निजी विचार हैं ।
    हां - हां , मैं लिख रहा हूं वे मेरे निजी विचार हैं ! और , …अपनी बात कहने के लिए मेरे पास मेरी अपनी वाणी , और लेखनी , और सलाहीयत है ।
    चार रचनाओं के आधार पर तीन हज़ार से अधिक गीत - ग़ज़ल लिखने वाले छंद के रचनाकार का आकलन आप जैसे उद्भट्ट गुणी चुटकियों में कर सकते हैं , मैं तो ऐसी स्थिति में स्वयं को असमर्थ ही पाता हूं ।

    # राजेश जी आप कहते हैं -
    # " मैं रचनाओं में कुछ अलग बिम्‍ब या कहन का तरीका ढूंढता रहता हूं। इस स्‍तर पर मुझे राजेन्‍द्र जी की इन रचनाओं से निराशा ही हाथ लगी। "
    … लेकिन राजेश जी , ऊपर श्री चंद्र प्रकाश राय जी ने तो यह लिखा है - " राजेंद्र जी की कविताएं इधर जो कविताएं पढ़ी है उनसे अलग है ।"
    किसे सही , किसे ग़लत माना जाए ?
    … लेकिन राजेश जी , आप मेरी सौ - पचास रचनाएं देख पाएं , तो आपकी अवधारणा बदल भी सकती है , वैसे यह मेरा लक्ष्य नहीं ।
    # राजेश जी आप यह भी फ़रमाते हैं -
    # " मुझे उनमें आम आदमी और उसकी चिंताओं के दर्शन नहीं हुए। "
    अवश्य ही आप यहां प्रस्तुत ग़ज़ल संख्या ४ के आम आदमी को बहुत ख़ास आदमी मान कर ही इस नतीज़े पर पहुंचे होंगे ।

    यहां भेजी गई सातों - आठों रचनाएं ऐसी ग़ज़लें थीं , जो उर्दू शब्दों के बिना भी ग़ज़ल की बुनावट में रची गई थीं । आपने विलंब से ही सही , मेरी रचनाओं पर बात करने की कृपा की , अच्छा लगा ।

    यदि आप ग़ज़ल कह लेते हैं या , इस विधा की विभिन्न बह्रों को समझ पाते हैं तो , इस बारे में भी अपनी प्रतिक्रिया यहां रखते , तो और अच्छा लगता । चर्चा में आपकी उत्साहपूर्ण भागीदारी अधिक सार्थक होती ।
    शब्द ज्ञान की सीमा नहीं होती ।
    भाव और शिल्प के दृष्टिकोण से आपने रचनाओं को कितना स्पर्श किया ? … लगातार

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  45. # राजेश उत्‍साही जी ,
    आपकी कुछ बातों पर बात करलें …
    आप कहते हैं -
    # " संभव है जौहर जी राजेन्‍्द्र जी के मित्र हों, पर वे मित्र मोह में यह क्‍यों भूल गए कि सबसे ज्‍यादा नुकसान वे अपने मित्र का ही कर रहे हैं। "
    राजेश जी , अव्वल तो अंतर्जाल पर अब तक मेरा शत्रु कोई है नहीं ।
    …और भगवान के भजन लिखने - गाने वाले का नुकसान कोई कर भी नहीं सकता , है ना ?!
    आपने अपनी संपूर्ण विद्वता के आधार पर यहां प्रस्तुत मेरी पहली, तीसरी, चौथी रचना को भजन की श्रेणी में रखा ही है ।

    रही बात , कि श्री जितेन्द्र जौहर से मेरा क्या और कितना पुराना परिचय है यह आप
    रचनाकार
    के इस लिंक पर जा'कर देखें तो स्वतः जान जाएंगे कि हिंदी दिवस से पहले न मैं उन्हें , न वे मुझे जानते थे ।

    हां , जितेन्द्र जौहर जी ने जो लिखा , उनके निजी विचार हैं , बिल्कुल वैसे ही जैसे जो आपने लिखा , आपके निजी विचार हैं ।
    हां - हां , मैं लिख रहा हूं वे मेरे निजी विचार हैं ! और , …अपनी बात कहने के लिए मेरे पास मेरी अपनी वाणी , और लेखनी , और सलाहीयत है ।
    चार रचनाओं के आधार पर तीन हज़ार से अधिक गीत - ग़ज़ल लिखने वाले छंद के रचनाकार का आकलन आप जैसे उद्भट्ट गुणी चुटकियों में कर सकते हैं , मैं तो ऐसी स्थिति में स्वयं को असमर्थ ही पाता हूं । … लगातार

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  46. # राजेश जी आप कहते हैं -
    # " मैं रचनाओं में कुछ अलग बिम्‍ब या कहन का तरीका ढूंढता रहता हूं। इस स्‍तर पर मुझे राजेन्‍द्र जी की इन रचनाओं से निराशा ही हाथ लगी। "
    … लेकिन राजेश जी , ऊपर श्री चंद्र प्रकाश राय जी ने तो यह लिखा है - " राजेंद्र जी की कविताएं इधर जो कविताएं पढ़ी है उनसे अलग है ।"
    किसे सही , किसे ग़लत माना जाए ?
    … लेकिन राजेश जी , आप मेरी सौ - पचास रचनाएं देख पाएं , तो आपकी अवधारणा बदल भी सकती है , वैसे यह मेरा लक्ष्य नहीं ।
    # राजेश जी आप यह भी फ़रमाते हैं -
    # " मुझे उनमें आम आदमी और उसकी चिंताओं के दर्शन नहीं हुए। "
    अवश्य ही आप यहां प्रस्तुत ग़ज़ल संख्या ४ के आम आदमी को बहुत ख़ास आदमी मान कर ही इस नतीज़े पर पहुंचे होंगे ।

    यहां भेजी गई सातों - आठों रचनाएं ऐसी ग़ज़लें थीं , जो उर्दू शब्दों के बिना भी ग़ज़ल की बुनावट में रची गई थीं । आपने विलंब से ही सही , मेरी रचनाओं पर बात करने की कृपा की , अच्छा लगा ।

    यदि आप ग़ज़ल कह लेते हैं या , इस विधा की विभिन्न बह्रों को समझ पाते हैं तो , इस बारे में भी अपनी प्रतिक्रिया यहां रखते , तो और अच्छा लगता । चर्चा में आपकी उत्साहपूर्ण भागीदारी अधिक सार्थक होती ।
    शब्द ज्ञान की सीमा नहीं होती ।
    भाव और शिल्प के दृष्टिकोण से आपने रचनाओं को कितना स्पर्श किया ? … लगातार

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  47. # जितेन्द्र जौहर जी , आपका अपनत्व एक ढंग के रचनाकार का दूसरे ढंग के रचनाकार के प्रति सहज समर्थन ही मानता हूं ।
    कपूर साहब एक गुणी ग़ज़लगो हैं ,यहां कही गई उनकी कई बातों से मैं स्वयं सहमत नहीं , फिर भी भाईसाहब , उग्र संवेदना की अपेक्षा शांत , शिष्ट , सौम्य रवैया ही श्रेयस्कर है । फिर किसी रचना का यह अंतिम आकलन भी नहीं , अंतिम अवसर भी नहीं , कपूर साहब या कोई अन्य अंतिम आलोचक - समीक्षक भी नहीं ।
    आप जैसे गुणी सृजनधर्मी ने मेरी रचनाओं को पसंद किया , यह मेरा सौभाग्य है ।

    इधर नेट तथा बिजली की निरंतर आंख मिचौली के कारण , पुनः उपस्थित होने में विलंब हो सकता है ।
    … लगातार

    जवाब देंहटाएं
  48. # आदरणीय डॉ.त्रिमोहन तरल जी
    विशुद्ध हिंदी की शब्द-सम्पदा का प्रयोग जान बूझ कर अनेक ग़ज़लों में करता रहता हूं , और हिंदी दिवस के आस पास रचनाएं साखी पर आने की संभावना को देखते हुए ही सारी ऐसी ही ग़ज़लें भेजी थी ।
    अन्यथा , मुझ पर तो उर्दू में अनधिकृत हस्तक्षेप करने का आरोप भी उर्दूदां शाइरों व्दारा कई बार लगा है , जबकि मैं इस लहज़े में जवाब भी दिया करता हूं , मुलाहिजा फ़रमाएं -

    मियां तू ख़ुदपरस्ती में है ख़ुदमुख़्तार नुक़्ताचीं
    ज़ुबां उर्दू का बनता ख़ुश्क़ ठेकेदार नुक़्ताचीं

    बना फिरता अदब का तू अलमबरदार नुक़्ताचीं
    हुनर फ़न इल्म का कबसे है पहरेदार नुक़्ताचीं

    ग़ज़ल गर थी तेरी जोरू तो बुर्क़े में छुपा रखता
    न मिलते हर गली ख़ाविंद फिर दो चार नुक़्ताचीं

    भिगोते हैं वो बादल कम, गरजते जो ज़ियादा हैं
    लिखे होते कभी अश्आर कुछ दमदार नुक़्ताचीं

    ग़ज़ल को भी जो फ़िर्क़ाबंदियों में बांटते, उनको
    लगाता हूं सरे - बाज़ार मैं फ़टकार नुक़्ताचीं

    बहुत राजेन्द्र ने समझा दिया फ़िर भी नहीं समझा
    दिमागो - दिल से लगता है ज़रा बीमार नुक़्ताचीं

    परखते रहिएगा , आप जैसा समर्थ ग़ज़लकार कुछ उत्साह अतिरेक से भी कह देगा तो ज़्यादा नहीं अखरेगा ।
    … लगातार

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  49. # आदरणीय अशोक रावत जी
    जितने गुणीजनों का आपने नाम लिया , उन तक ये रचनाएं पहुंचा कर उनमें से किन्हीं की प्रतिक्रिया भी यहां रखते तो उनके नाम का उल्लेख करना और भी सार्थक होता । आपने तो अपनी प्रोफाइल भी अदृश्य रखी हुई है , अन्यथा मैं ख़ुद आपके माध्यम से संपर्क करके उन महानुभावों तक अपना प्रणाम पहुंचा कर बात करता ।
    ... और भाईसाहब , यहां प्रस्तुत जिन ग़ज़लों पर विमर्श चल रहा है आपकी बातों से आपकी कोई प्रतिक्रिया स्पष्ट नहीं हुई ।

    आशा है , अन्यथा न लेते हुए आप पुनः यहां पधारें तो , बड़ी मेहरबानी हिंदी में टाइप करने का प्रयास करें !
    बड़ी तक़लीफ़ होती है , रोमन में लिखी गंभीर बात पढ़ते हुए ।
    … और अगंभीर की ओर हम रुख़ जोड़ते भी नहीं ।
    ... लगातार

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  50. आदरणीय सुभाष जी,
    पहले तो अपने ब्लॉग पर साखी का अपडेट न पाकर मुझे लगा कि शायद कार्यक्रम में कुछ तब्दीली है… यह हो सकता है तकनीकी ख़राबी के कारण हो...आज अगर प्यार भरी डाँट बड़े भाई ने न लगाई होती, तो शायद मैं वंचित रह जाता, इस सुमधुर अनुभव से, जो राजेंद्र जी की रचानओं को पढकर प्राप्त हुआ. आपका आभार कि इस बार रचनाओं में विविधता देखने को मिली.
    मुझे इतनी देर हो चुकी है कि कुछ भी कहना पुनरावृत्ति के अतिरिक्त कुछ न होगा. इसलिए पूरी समीक्षा को एक साथ समेटते हुए अपनी बात रखना चाहूँगा. राजेंद्र स्वर्णकार एक ऐसा नाम है जिससे ब्लॉग जगत का कोई भी कवि या पाठक अपरिचित नहीं. और इनकी लगन देखकर यह मानना पड़ता है कि इनकी रचनाएँ हृदय से निकलती हैं और इनकी साहित्य के प्रति समर्पण की भावना का प्रतिनिधित्व करती हैं.
    यहाँ दी गई समस्त रचनाएँ छोटी मोटी त्रुटियों के बावजूद भी पठनीय हैं और श्रेष्ठता की श्रेणी में रखी जाने योग्य हैं. राजेंद्र जी, चुँकि मूल रूप से अपनी रचनाओं की कल्पना गायन के माध्यम से करते हैं, इसलिए यह सभी गेय हैं. और यही कारण है कि इनकी कविताएँ लयबद्ध होती हैं तथा ग़ज़लें बहर में.

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  51. एक बार पोस्ट मॉर्टेम शब्द का विरोध कर मैं बहस में उलझ गया था. इसलिए आज एक बात प्रार्थना के तौर पर कहना चाहता हूँ. यहाँ समीक्षा, कवि की रचनाओं की होती है. अतः टिप्पणियों पर टिप्पणियों से परहेज़ और समीक्षा की समीक्षा से बचा जाए तो उचित होगा. अपनी बात पुनः दोहरा दूँ कि यह मेरी विनती है, किसी को आहत करने की मंशा का परिचायक नहीं.
    अंत में राजेंद्र जी को शुभकामनाएँ कि उनकी लेखनी यूँ ही निर्बाध चलती रहे!!
    सलिल

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  52. सलिल भाई की एक बात से मैं सहमत नहीं हूं कि साखी पर कवि की रचनाओं की समीक्षा होती है। मेरा पहले दिन से ही यह मानना रहा है कि साखी पर कवि की रचनाओं के बहाने कवि की समीक्षा होती है। इसी लिए इतना बवाल मचता है। अब टिप्‍पणियों से परहेज तो किया जा सकता है,पर पचाया नहीं जा सकता।

    राजेन्द्र जी ने पहले तो सबका धन्यवाद अदा कर दिया। और उसके बाद सबको एक-एक करके साधुवाद दे रहे हैं। जब उन्होंने अच्छों-अच्छों को नहीं बख्शा तो अपन किस खेत की मूली हैं। मुश्किल यह है कि अपने से भी आपे में रहा नहीं जाता। शायद राजेन्द्र जी ने अपनी ग़ज़ल का यह शेर हमारे जैसे लोगों के बारे में ही कहा है-

    बहुत राजेन्द्र ने समझा दिया फ़िर भी नहीं समझा
    दिमागो - दिल से लगता है ज़रा बीमार नुक़्ताचीं

    (मेरी नुक्‍़ताचीं जारी है.....)

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  53. टेस्ट टिप्पणी-नुक्कड़ पर रिपोर्टिंग के लिए. :)

    जवाब देंहटाएं
  54. राजेन्द्र जी आपने लिखा है अंतर्जाल पर अब तक मेरा शत्रु कोई है नहीं। यह तो आपके जवाबों से पता चला रहा है। आपने लिखा है
    ‘…और भगवान के भजन लिखने-गाने वाले का नुकसान कोई कर भी नहीं सकता , है ना ?!’ बिलकुल सही कह रहे हैं आप। फिर आप लोगों के कहे सुने की इतनी परवाह क्यों कर रहे हैं।

    जी हां मैंने, ‘अपनी संपूर्ण विद्वता के आधार पर’ ही अपनी बात कही है,उसमें मुझे कोई शक नहीं है। श्री जितेन्द्र जौहर से आपका क्या और कितना पुराना परिचय है यह तो मैंने पूछा ही नहीं।
    आपने लिखा है कि ,‘चार रचनाओं के आधार पर तीन हज़ार से अधिक गीत - ग़ज़ल लिखने वाले छंद के रचनाकार का आकलन आप जैसे उद्भट्ट गुणी चुटकियों में कर सकते हैं।‘ जानकर प्रसन्नता हुई कि आप इतने अधिक अनुभवी हैं। फिर ऐसी क्या गरज आन पड़ी कि आप साखी पर हम सबके बीच आ खड़े हुए। राजेन्द्र जी ये कबीर बाबा का चौराहा है। यहां तीन हजार नहीं तीस हजार रचनाएं लिखने वालों का भी स्वागत इसी तरह होगा। क्योंकि मैंने पहले भी कहा कि मेरे‍ लिए तो यहां प्रस्तुत रचनाएं ही कसौटी हैं।

    जवाब देंहटाएं
  55. राजेन्द्र जी मैं अब भी यही कहता हूं कि
    " मैं रचनाओं में कुछ अलग बिम्ब या कहन का तरीका ढूंढता रहता हूं। इस स्तर पर मुझे इन रचनाओं से निराशा ही हाथ लगी। " मैंने तो आपसे यह कहा ही नहीं कि आप मेरी बात मानिए। फिर भी मुझे अच्छा लगा कि आपने इतना तो स्वीकार किया, ‘ लेकिन राजेश जी , आप मेरी सौ - पचास रचनाएं देख पाएं , तो आपकी अवधारणा बदल भी सकती है।‘ यानी आपको मेरी बात में थोड़ा वजन तो दिखाई देता है।
    जी हां आपने बिलकुल सही समझा ग़ज़ल संख्या ४ में आम आदमी के रूप में आप जैसा ख़ास आदमी ही मौजूद है। उसमें आम आदमी की झलक मिलती ही नहीं।

    अगर आप साखी के नियमित पाठक होते तो शायद यह सवाल नहीं पूछते कि मैं ग़ज़ल कह सकता हूं या नहीं। अगर पाठक होते तो शायद आप इतनी सारी बातें कहने में भी संकोच करते। खैर मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि मैं ग़ज़ल के व्याकरण से अनजान हूं। इसीलिए मैंने आपकी ग़ज़लों के शिल्प के बारे में कुछ नहीं कहा। आपने भाव के दृष्टिकोण की बात कही है, वह मैं कह चुका हूं।

    अंत में राजेन्द्र जी यह कहना चाहूंगा कि हिन्दी या उर्दू या किसी भी भाषा के इतने भारी भरकम शब्द रखकर आप लोगों की वाही वाही तो लूट सकते हैं, दिल में नहीं उतर सकते। ठीक इसी तरह आपने सबके नाम के आगे आदरणीय लगा तो दिया, लेकिन केवल शब्द लगाने से आदर व्यक्‍त नहीं होता उसे व्यवहार में भी लाना पड़ता है।

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  56. भैया राजेश उत्साही जी,
    नमस्कारम्‌!
    कल से मैं बिस्तर-ग्रस्त चल रहा हूँ। काफी ज़्यादा बुख़ार है। बड़ी कठिनाई से इतना लिखकर आपकी अमृतवाणी (या यूँ कहें कि आप्त-वचनावली) का नोटिस ले चुकने का शिष्टाचार-मात्र निभा रहा हूँ। विस्तार से लिखूँगा...भाई! वैसे राजेन्द्र जी आपको काफी ठीक-ठाक ढंग से ‘नमस्कार’ कह चुके हैं।

    फिलवक़्त अव्वल तो सिर्फ़ यही कि मुझे नहीं पता था कि‘साखी’ पर समीक्षा भी होती है। बंधुवर... इस मंच पर पहली बार आया था मैं।

    दूसरे यह कि, बेहतर होता कि आप तिलक राज जी को स्वयं अपनी बात कहने देते। "दवा किसी को, असर किसी पर !!!???" वाह भई, वाह...अद्भुत चिकित्सा-विज्ञान है साहित्य का।

    और... हाँ, सच्ची बोलिएगा कि कहीं तिलक राज जी ने तो अपनी जगह पर आपको नहीं खड़ा कर दिया। "तू मुझे बचा, मैं तुझे बचाऊँ" की तर्ज पर। ध्यान रहे बंधुवर कि यह आरोप नहीं, प्रत्युत्‌ एक सहज प्रश्न है!

    राजेन्द्र स्वर्णकार जी, आप ऐसे यथाकथित स्वनामधन्यों की ‘धन्यता’ से परेशान न हों। इनमें जो सार दिखे, उसे ग्रहण कर लें। बाक़ी बचे कचरे के लिए डस्टबिन तो होगा ही आपके घर में। साहित्य में हर जगह ‘स्वयंभुओं’ की भरमार-सी हो चली है आजकल!

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  57. आदरणीय सुभाष राय जी
    नमस्कार !
    जैसा कि मैंने कल मोबाइल वार्ता के दौरान बताया ही था , मॉनीटर ख़राब हो जाने के कारण संपूर्ण अंतर्जाल से संबंद्ध-विच्छेद हो गया था दो दिन । अब नया LED acer आया है , तो पुनः उपस्थित हूं।
    इस बीच बिहारी ब्लॉगर आदरणीय सलिल जी ने अपनी प्रतिक्रिया दी , उनके प्रति भी आभार , साथ ही आभार आदरणीया निर्मला कपिला जी के प्रति भी । (पहले नाम छूट गया था)
    बात परसों रह गई थी , आदरणीय प्राण शर्मा जी , आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी , आदरणीय तिलकराज जी की अत्यधिक महत्वपूर्ण टिप्पणियों की ।
    बस , इतना कहूंगा कि एक ही बात कहने के लिए सबका अपना शिल्प और सोच होता है ।

    मैं जहां यह कहता हूं - " न इक पत्ता हवा के संचरण से तब हिला होता "
    वहीं तिलकराज जी कपूर - " हवा के संचरण भर से न इक पत्‍ता हिला होता " कहते हैं ,
    और चंद्रभान जी भारद्वाज - " न इक पत्ता हवा के संचरण से भी हिला होता " कहते हैं ।
    प्रश्न है कि ऐसा सोचना कितना उचित होगा कि कपूर साहब सही हैं तो भारद्वाज जी गलत हैं , और भारद्वाज जी सही हैं तो कपूर साहब ग़लत ! … क्योंकि दोनों ने एक ही बात को लिखा तो अलग अलग ढंग से !
    हम तीनों का एक ही बात के लिए एक ही बह्र में अलग अलग वाक्य विन्यास है । दस हों , दस तरह का संभव है ।
    … और विरोधाभास कपूर साहब की प्रस्तुत टिप्पणी में भी है , और भारद्वाज जी की टिप्पणी में भी ।

    चंद्रभान जी भारद्वाज कहते हैं -'प्रीत-लौ' स्त्रीलिंग है अतः क्रिया 'जली होती' आता 'जला होता' नहीं.
    ध्यान दिया जाए कि ग़ज़ल का शे'र है -
    स्वयं भगवान यदि जग से न करता स्नेह सच्चा, तब
    न राधा के हृदय में प्रीत-लौ बनकर जला होता


    * एक उदाहरण : रामायण में मंथरा के रोल के लिए महिला पात्र उपलब्ध न होने के कारण कल्लू नाम का आदमी मंथरा का किरदार अदा करता है ।
    * कल्लू /मंथरा /बन कर/ आया ( मंच पर)
    x कल्लू /मंथरा /बन कर /आई ( मंच पर)
    * भगवान /प्रीत लौ /बन कर/ जला होता
    x भगवान /प्रीत लौ/ बन कर /जली होती
    किस कथन को व्याकरण के दृष्टिकोण से सही माना जाएगा ? आप सब जानते हैं …

    "पुण्यवश योनि …" इस शे'र को कपूर साहब ने क्लीनचिट दी , जबकि मैंने स्वयं पहले ही दिन आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी से बात करते हुए स्पष्ट किया था कि "पुण्यवश योनि …" और "सच्चिदानंद की …" दोनों शे'र इन शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता के कारण बह्र में नहीं हैं । कपूर साहब नहीं पकड़ पाए , यहां भारद्वाज जी पहचान गए । यानी प्राण जी की उक्ति से , जो अवश्य ही स्वयं प्राण जी सहित सब के लिए है " Koee mukammal
    shayar nahin hai. Sabhee koee n koee galtee karte hain " मैं भी सहमत हूं ।

    ज़्यादा कहने का अवसर निकल चुका है , मैं तीनों वरिष्ट रचनाकारों से आवश्यक होने पर कभी भी बात कर सकता हूं । तिलकजी की तरह ही प्राण जी और चंद्रभान जी का भी मुझ पर विशेषाधिकार है , और रहेगा ।
    सादर …

    जवाब देंहटाएं
  58. आदरणीय सुभाष राय जी
    नमस्कार !
    जैसा कि मैंने कल मोबाइल वार्ता के दौरान बताया ही था , मॉनीटर ख़राब हो जाने के कारण संपूर्ण अंतर्जाल से संबंद्ध-विच्छेद हो गया था दो दिन । अब नया LED acer आया है , तो पुनः उपस्थित हूं।
    इस बीच बिहारी ब्लॉगर आदरणीय सलिल जी ने अपनी प्रतिक्रिया दी , उनके प्रति भी आभार , साथ ही आभार आदरणीया निर्मला कपिला जी के प्रति भी । (पहले नाम छूट गया था)
    बात परसों रह गई थी , आदरणीय प्राण शर्मा जी , आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी , आदरणीय तिलकराज जी की अत्यधिक महत्वपूर्ण टिप्पणियों की ।
    बस , इतना कहूंगा कि एक ही बात कहने के लिए सबका अपना शिल्प और सोच होता है ।

    मैं जहां यह कहता हूं - " न इक पत्ता हवा के संचरण से तब हिला होता "
    वहीं तिलकराज जी कपूर - " हवा के संचरण भर से न इक पत्‍ता हिला होता " कहते हैं ,
    और चंद्रभान जी भारद्वाज - " न इक पत्ता हवा के संचरण से भी हिला होता " कहते हैं ।
    प्रश्न है कि ऐसा सोचना कितना उचित होगा कि कपूर साहब सही हैं तो भारद्वाज जी गलत हैं , और भारद्वाज जी सही हैं तो कपूर साहब ग़लत ! … क्योंकि दोनों ने एक ही बात को लिखा तो अलग अलग ढंग से !
    हम तीनों का एक ही बात के लिए एक ही बह्र में अलग अलग वाक्य विन्यास है । दस हों , दस तरह का संभव है ।
    … और विरोधाभास कपूर साहब की प्रस्तुत टिप्पणी में भी है , और भारद्वाज जी की टिप्पणी में भी ।

    चंद्रभान जी भारद्वाज कहते हैं -'प्रीत-लौ' स्त्रीलिंग है अतः क्रिया 'जली होती' आता 'जला होता' नहीं.
    ध्यान दिया जाए कि ग़ज़ल का शे'र है -
    स्वयं भगवान यदि जग से न करता स्नेह सच्चा, तब
    न राधा के हृदय में प्रीत-लौ बनकर जला होता


    * एक उदाहरण : रामायण में मंथरा के रोल के लिए महिला पात्र उपलब्ध न होने के कारण कल्लू नाम का आदमी मंथरा का किरदार अदा करता है ।
    * कल्लू /मंथरा /बन कर/ आया ( मंच पर)
    x कल्लू /मंथरा /बन कर /आई ( मंच पर)
    * भगवान /प्रीत लौ /बन कर/ जला होता
    x भगवान /प्रीत लौ/ बन कर /जली होती
    किस कथन को व्याकरण के दृष्टिकोण से सही माना जाएगा ? आप सब जानते हैं … … लगातार

    जवाब देंहटाएं
  59. "पुण्यवश योनि …" इस शे'र को कपूर साहब ने क्लीनचिट दी , जबकि मैंने स्वयं पहले ही दिन आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी से बात करते हुए स्पष्ट किया था कि "पुण्यवश योनि …" और "सच्चिदानंद की …" दोनों शे'र इन शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता के कारण बह्र में नहीं हैं । कपूर साहब नहीं पकड़ पाए , यहां भारद्वाज जी पहचान गए । यानी प्राण जी की उक्ति से , जो अवश्य ही स्वयं प्राण जी सहित सब के लिए है " Koee mukammal
    shayar nahin hai. Sabhee koee n koee galtee karte hain " मैं भी सहमत हूं ।

    ज़्यादा कहने का अवसर निकल चुका है , मैं तीनों वरिष्ट रचनाकारों से आवश्यक होने पर कभी भी बात कर सकता हूं । तिलकजी की तरह ही प्राण जी और चंद्रभान जी का भी मुझ पर विशेषाधिकार है , और रहेगा ।
    सादर …

    जवाब देंहटाएं
  60. @प्रिय राजेन्‍द्र भाई
    फिर देखें
    न इक पत्ता हवा के संचरण से तब हिला होता; (कब)
    हवा के संचरण भर से न इक पत्‍ता हिला होता को देखें
    न इक पत्ता हवा के संचरण से भी हिला होता को देखें
    और
    एक और रूप भी देखें
    न इक पत्ता हवा के संचरण भर से हिला होता

    अब इन्‍हें मिस्रा-ए-सानी के साथ देखें
    दिशा-निर्देश प्रभु का काम यदि ना कर रहा होता

    पहली बात तो यह कि कोई भी आस्‍थावान यह नहीं मानेगा कि प्रभु का निर्देश कभी निष्क्रिय होता है और मान भी ले तो यही कहता है कि जो हो रहा है प्रभु निर्देश से ही हो रहा है।

    दूसरी बात आपकी रचनाओं पर बह्रो-वज्‍़न संबंधी कोई टिप्‍पणी मैनें की ही नहीं तो पकड़ना न पकड़ना एक व्‍यर्थ प्रश्‍न है। बह्रो-वज्‍़न को बहुत अधिक तूल देना मुझे उचित नहीं लगता और इसके कारण आपको अवश्‍य ही ज्ञात होंगे।
    जहॉं तक मुकम्‍मल शाइर होने का प्रश्‍न है ग़ज़ल विधा तब तक सरल लगती है जब तक इसे समझ नहीं लिया,समझने के बाद तो यह टेढ़ी खीर लगने लगती है और फिर शाइर का वज्‍़न देखने का तरीका बदलता जाता है और .......

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  62. श्री राजेन्‍द्र स्‍वर्णकार, काव्‍य के क्षेत्र के सचमुच कलाकार हैं। कलम में धार है। व्‍यंग्‍य की भी झलक दिखाई दी। रोचकता का अभाव नहीं है। मैं उनको बधाई देता हूं। लंबी टिप्‍पणी पोस्‍ट करने में बाधा आई है।

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हां, आज ही, जरूर आयें

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