शनिवार, 11 सितंबर 2010

अशोक रावत की गज़लें

अशोक रावत नाम है एक अलग अंदाज का, एक अलग रोशनी का| दुष्यंत के बाद हिन्दी में ग़ज़ल को ज़मीनी (हारिजन्टल) विस्तार तो खूब मिला, लेकिन आसमानी (वर्टिकल) विस्तार बहुत ज्यादा नहीं। दुष्यंत की ग़ज़लों में इतनी चमक थी कि  ज्यादातर हिन्दी ग़ज़लकार उन  जैसा बनने के मोह में फंसे रहे। जिन ग़ज़लकारों ने हिन्दी में ग़ज़ल को वर्टिकल  विस्तार देने की सफल कोशिश की है, उनमें अशोक रावत जी का नाम अग्रिम पंक्ति में रखा जा सकता है। उन्होंने हिन्दी में ग़ज़ल को नयी भाषा, नये संस्कार और नयी कहन दी है, जो उनकी अपनी है। अशोक जी की ग़ज़लों को आप भीड़ में पहचान सकते हैं। यानि की उनके पास अपना मुहावरा है। ये वो गुण है, जिसकी तलाश हर साहित्यकार को रहती है। ग़ज़लों की दुनिया में पूरी उम्र गुज़ार देने के  पश्चात  भी ये हर किसी को नहीं प्राप्त होता। अशोक जी की ग़ज़लों का दूसरा गुण है कि वे कहीं से भी आयातित नहीं लगतीं। उनमें अपनी मिट्टी, अपने भाषाई सौन्दर्य और अपनी सांस्कृतिक चेतना की महक हर किसी को अपना दीवाना बना लेती  है। 15 नवम्बर, 1953  को ग्राम-मलिकपुर, मथुरा (उत्तर प्रदेश) में जन्मे अशोक रावत का एक ग़ज़ल संग्रह ‘थोड़ा सा ईमान‘ वर्ष 2003 में प्रकाशित हो चुका है। देश की लगभग हर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रहीं हैं| संप्रति वे  भारतीय खाद्य निगम में उच्च पद पर नोएडा में पदस्थ हैं। यहां प्रस्तुत हैं उनकी कुछ ग़ज़लें........ 


1.
हाँ मिला तो मगर मुश्किलों से मिला,
आइनों का पता पत्थरों से मिला.


दोस्ती आ गयी आज किस मोड़ पर,
दोस्तों का पता  दुश्मनों से मिला.


मौलवी और पंडित घुमाते रहे,
उसका पूरा पता काफिरों से मिला.


ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गया अंत में,
मुंसिफों का पता कातिलों से मिला.


जाने क्या लिख दिया उसने तकदीर में,
मुझको जो भी मिला मुश्किलों से मिला.


अड़चनें ही मेरी रहनुमा बन गयीं,
मंजिलों का पता ठोकरों से मिला.


2.
हमारे हमसफर भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं.


छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं कानून  से सदियों पुराने डर निकलते हैं.


किसे गुस्सा नहीं आता, कहां झगड़े नहीं होते,
मगर हर बात पर क्या इस तरह खंजर निकलते हैं.


समझ लेता हूं मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बचकर निकलते हैं.


जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिजोरी में,
परखते हैं कसौटी पर तो सब पत्थर निकलते हैं.




मिलीवोज सेगन  द्वारा तैयार की गयी डिजिटल  छवि


3.
उसके दर पे सर झुकाने मैं तो रोजाना गया,
ये अलग किस्सा है काफिर क्यों मुझे माना गया.


अब किसी की फिक्र में ये बात शामिल ही नहीं,
नाम जाना भी गया तो किसलिये जाना गया.


उनकी हां में हां मिलाना मुझको नामंजूर था,
मेरे सीने पर तमंचा इसलिये ताना गया.


मैं किसी पहचान में आऊं न आऊं, गम नहीं,
मेरी गजलों को तो दुनिया भर में पहचाना गया.


जो हमारी जान थी, पहचान थी, ईमान थी,
आज उस तहजीब का हर एक पैमाना गया.


यूं सुना  तो पक्ष मेरा भी अदालत ने, मगर,
मुजरिमों के पक्ष को ही अंत में माना  गया.


4.
जब देखो तब हाथ में खंजर रहता है,
उसके मन में   कोई तो डर रहता है.


चलती रहती है हर दम इक आँधी सी,
एक ही मौसम मेरे भीतर रहता है.


गुजर रहे हैं बेचैनी में आईने,
चैन से  लेकिन हर इक पत्थर रहता है.


तंग आ गया हूं मैं इसकी बातों से,
कौन है ये जो मेरे भीतर रहता है.


दीवारों में ढूढ़ रहे हो क्या घर को,
ईंट की दीवारों में क्या घर रहता है.


गौर से देखा हर अक्षर को तब जाना,
प्रश्नों में ही  तो हर उत्तर रहता है.


थोड़ा झुककर रहना भी तो सीख कभी,
चौबीसो घंटे  क्यों तन कर रहता है.




 
संपर्क-
222,मानस नगर, शाहगंज, आगरा-282010
मोबाइल-9458400433, 91-9013567499

39 टिप्‍पणियां:

  1. ये स्वयं जितने उच्च पद पर पदस्थ हैं इनकी गजल भी उतनी ही अच्छी है

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  2. सभी गज़लें बेहतरीन है, अंतर्मन की व्यथा और संवेदनाओं को बखूबी बयां करती है|

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  3. विवेक भाई, अशोक जी चाहे उच्‍च पद पर हों पर उनकी ग़ज़लें उतने ही नीचे हैं। मैं कहना चाहता हूं कि वे ज़मीन से जुडे आदमी की ग़ज़लें लगती हैं,खाए और अघाए आदमी की ग़जलें नहीं।

    उनकी ग़ज़लों के कथ्‍य में वे सब चिंताएं हैं जो हम रोज देखते हैं। उनमें नया कुछ नहीं है। असल में नया कुछ होता भी नहीं है। पर किसी भी रचनाकार को उसकी रचना महत्‍वपूर्ण इसीलिए बनाती है कि वह रोजमर्रा की उसी बात को इस अंदाज में कहता है कि वह अंदर तक भेद जाती है। मुझे अशोक जी में यह कौशल नज़र आया। उनकी एक ग़ज़ल के ये तीन शेर मेरी बात के गवाह हैं-

    हमारे हमसफर भी घर से कब बाहर निकलते हैं,
    हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं.

    जिस पीढ़ी के अशोक जी हैं मैं उनसे बस थोड़ा सा पीछे ही हूं। पर उन्‍होंने इस शेर में जैसे हमारी पीढ़ी के संस्‍कार और संकोच को सामने रख दिया है। अव्‍वल तो घर से बाहर निकलना ही मुहाल था,और जो निकल आए तो सफर में हमेशा फासला होता था।

    छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
    कहीं कानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं.

    यह शेर पढ़कर मुझे 1992 याद आ गया। भोपाल में मै जहां रहता था ,पड़ोस की छत पर यही हाल था। बावजूद इसके के सामने के घरों में प्रशासन के आला अफसर रहते थे।

    समझ लेता हूं मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
    मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बचकर निकलते हैं.

    और यहां तो जैसे उन्‍होंने दिल चीर कर ही रख दिया है। यह देखकर अच्‍छा लगा कि अशोक जी की रचनाओं में थोड़ा सा नहीं बहुत सारा ईमान है। बहुत बहुत शुभकामनाएं अशोक जी।

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  4. दूज का चन्दा गगन में मुस्कराया।
    साल भर में ईद का त्यौहार आया।।

    कर लिए अल्लाह ने रोजे कुबूल,
    अपने बन्दों को खुशी का दिन दिखाया।
    साल भर में ईद का त्यौहार आया।।

    अम्न की खातिर पढ़ी थीं जो नमाजे,
    उन नमाजों का सिला बदले में पाया।
    साल भर में ईद का त्यौहार आया।।

    छा गई गुलशन में जन्नत की बहारें,
    ईद ने सबको गले से है मिलाया।
    साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
    --
    बहुत-बहुत बधाई!
    --
    ईद और गणेशचतुर्थी की शुभकामनाएँ!

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  5. मेरी गजलों को तो दुनिया भर में पहचाना गया
    जी यही सही परिचय है अजीम शायर का
    अशोक रावत जी की कालजयी रचनाये स्तब्ध करती हैं !
    विवेक तो एक उपेक्षित, नैराश्यपूर्ण आक्रोश लिए फिरते हैं ...

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  6. जो बात मैं पिछले कई कमेंट्स में कहता आया हूँ कि मेरी नज़र में ग़ज़ल के शेर वो ख़ूबसूरत हैं जिनपर मिसरा ए सानी के ख़तम होते ही आपके मुँह से बेसाख़्ता वाह निकल जाए या आप अवाक् रह जाएँ एक ऐसी कैफ़ियत के साथ जो सिर्फ अंदर तक आपको हिला जाए, लेकिन ज़ुबाँ से अल्फ़ाज़ न निकलें. अशोक रावत जी की तमाम ग़ज़लें मेरे इस बयान की नुमाइंदगी करती हैं और डॉ. सुभाष राय जी ने जो इनके तार्रुफ़ में जो बात कही है उसे सौ फ़ी सद सच करार देती है. दुष्यंत कुमार की सादगी और जज़्बात की गहराई दोनों का अनूठा संगम.
    पहली ग़ज़ल ज़िंदगी की हक़ीक़त से सराबोर है और जिस कॉन्ट्रास्ट की बात मैं हमेशा कहता रहता हूँ उसका मुजस्सिमा है. यकीन न हो तो देख लें मतले से मक़्ते तक पत्थरों और आईनों, दोस्तोंऔर दुश्मनों, ख़ुदा और काफिरों, मुंसिफ और क़ातिलों, मंज़िलें और ठोकरों का हिसाब, किसी भी शख्स की ज़िंदगी की दास्तान बयान करती है. एक ऐसा सफर जिससे कोई भी आम आदमी हर रोज़ रू ब रू होता है.

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  7. दूसरी ग़ज़ल आपको कुछ कहने नहीं देती और शायद चुप और ख़ामुशी से बेहतर इस ग़ज़ल का कोई तब्सिरा नहीं हो सकता, कोई तंक़ीद नहीं की जा सकती. ये ग़ज़ल सरापा आईना है जिसमें हमारे समाज या ख़ुद हमारी इतनी घिनौनी तस्वीर दिखाई देती है कि शायद एक बार इस ग़ज़ल को पढने के बाद नदामत आपको दुबारा पढने की इजाज़त नहीं देती. एक ऐसा समाज जहाँ आपका हमसफर आपसे फ़ासले रखकर चलता है, छतों पर हिफ़ाज़ती ईंटें रखता है क्योंकि क़ानून हिफ़ाज़त करने में नाकाम है, जहाँ हर बात पर ख़ंजर निकल आते हैं, लोग मिलते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं सिर्फ इसलिए कि कहींसे दंगों की ख़बर आई है. एक घुटन का महौल और उसपर अशोक रावत जी की बयानी हमें शर्मिंदा करती है और मजबूर भी कि नवाज़ देवबंदी के लफ्ज़ों में सोचो आख़िर कब सोचोगे! एक शेर क़ाबिले दाद लगा मुझेः

    समझ लेता हूं मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
    मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बचकर निकलते हैं.

    तीसरी ग़ज़ल समाज के गिरते हुए मेयार को बयान करती है. जिस दर पर रोज़ सर झुकाएँ वोही काफिर कहे, सच बोलने वाले के सीने पर तना हुआ तमंचा है, हर जान पहचान और ईमान को नज़रअंदाज़ किया जाना और अदालत में होने वाले फैसलों का पहले से तय होना, बस यही हैं आदाब आज की दुनिया के और कामयाबी की कुँजी. शायर ने इसको चुभने वाले अशार में बयान किया है. शायर को बस इसी बात का इत्मिनान है कि

    मैं किसी पहचान में आऊं न आऊं, गम नहीं,
    मेरी गजलों को तो दुनिया भर में पहचाना गया.

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  8. आख़िरी ग़ज़ल कमोबेश पहले ही जज़्बात का एक्स्टेंशन लगता है. ये दो शेर

    दीवारों में ढूढ़ रहे हो क्या घर को,
    ईंट की दीवारों में क्या घर रहता है.
    थोड़ा झुककर रहना भी तो सीख कभी,
    चौबीसो घंटे क्या तन कर रहता है.

    मुख़्तलिफ़ बयान पेश करता है. जहाँ एक जगह शायर घर को इंसानी रिश्तों का बंधन बताता है न कि ईंट की दीवारों की सरहद, वहीं दूसरी ओर यह बताता है कि आपसे झुक के जो मिलता होगा, उसका क़द आपसे ऊँचा होगा.

    डॉ. राय से एक गुज़ारिश! ग़ज़लों या कविताओं का संकलन करते वक़्त इस बात का ख्याल रखा जाए कि कवि या शायर की चारों ग़ज़लें मुख़्तलिफ़ अंदाज़ को बयान करती हों. इससे शायर की पूरी शख्सियत उभर कर सामने आती है. साथ ही इअपर अपनी राय बताने वाले को अलग अलग पैमाने पर ग़ज़ल को परखने का मौक़ा मिलता है.

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  9. चला बिहारी ब्लॉगर बनने ………………इन्होने जो कहा पूरी तरह सहमत हूँ……………पूरी तरह गज़लो के हर शे्र की समीक्षा कर दी………………हर शेर ऐसा है जैसे समाज और इंसान दोनो को आईना दिखा रहा हो………………।जब किसी दिल पर चोट लगती है तो ऐसी ही आवाज़ होती है जिसे सिर्फ़ चोट खाया दिल ही समझ सकता है…………………बेहतरीन प्रस्तुति।

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  10. अशोक जी गज़लें पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा. आपका आभार.

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  11. अशोक रावत जी की ग़ज़लें पढ़ने का सुअवसर मिला। सचमुच बहुत बेहतरीन ग़ज़लें लगीं। कई अशआर तो भीतर तक उतर गए।

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  12. ाशोक जी क्की गज़लों पर अगर कुछ कहूँ तो सूरज को दीप दिखाने जैसा होगा मगर उनका कहन इतना कमाल है कि दिल को छू लेता है। उनकी गज़लों से बहुत कुछ सीखने को भी मिला। क्योंकि मैं तो अभी गज़ल की कक्षा की कच्ची पक्की की छात्रा हूँ उम्र से क्या होता है। अशोक जी को बहुत बहुत बधाई और आपका धन्यवाद।

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  13. अशोक जी की ग़ज़ले मैं पढ़ता रहा हूँ. उनका ग़ज़ल संग्रह जब आया था, तब मेरे मित्र ने मुझे दिखाया भी था. उस वक्त अशोक जी से मैंने बात की थी और बधाई भी दी थी. तब वे शायद कोल्कता में थे. उनकी ग़ज़ले अपनी पत्रिका में प्रकाशित भी कर चुका हूँ. आज फिर अशोक जी से रू-ब-रू होने का अवसर मिला तो पुराने दिन याद आ गए. सुभाषजी को बधाई, कि उन्होंने एक और अच्छे रचनाकार से परिचित कर दिया. चारों ग़ज़ले यादगार है. हर शेर काबिल-ए दाद है

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  14. Subash jee , aapke parkhee nazar kee prashansa
    kartaa hoon. Aap dhoondh -dhoonh kar stariy
    gazalkaaron ko apne blog mein sthaan de rahe hain. Ashok Rawat jee kee gazalen achchhee lagee
    hain.Unke sher kahne kaa andaz pasand aayaa hai.
    Pahlee aur chauthee gazalon mein unhonne Hindi
    chhandon strakhini aur kundal kaa bahut achchha
    prayog kiya hai.

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  15. अशोक रावत जी की सारी गज़लें बहुत पसंद आयीं ..
    हाँ मिला तो मगर मुश्किलों से मिला,
    आइनों का पता पत्थरों से मिला.


    दोस्ती आ गयी आज किस मोड़ पर,
    दोस्तों का पता दुश्मनों से मिला.

    विरोधाभास शैली में आज की विसंगतियों को कहा है ...बहुत सुन्दर शेर हैं ..

    हमारे हमसफर भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
    हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं.

    पुरानी पीढ़ी के संकोच को यहाँ कहा गया है ...आज नौजवान थोड़ा संकोच विहीन हो गए हैं..

    समझ लेता हूं मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
    मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बचकर निकलते हैं.

    धर्म के नाम पर ...मार्मिक बात कह दी है

    उनकी हां में हां मिलाना मुझको नामंजूर था,
    मेरे सीने पर तमंचा इसलिये ताना गया.

    चापलूसी का बोल बाला है ...

    तंग आ गया हूं मैं इसकी बातों से,
    कौन है ये जो मेरे भीतर रहता है.

    स्वयं से ही जूझना ...कभी कभी परेशान कर जाता है ...

    हर गज़ल का हर शेर उम्दा लगा ..

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  16. साखी पर हर रोज आना होता है। रचनाएं भी बार बार पढ़ने का मन होता है और यह देखने का मन भी कि किसने क्‍या कहा। बहरहाल मैं अपनी टिप्‍पणी कल ही दर्ज कर गया था। पर तब से ही मुझे लग रहा था कि मुझे अपनी बात कुछ अधिक सम्‍मानजनक तरीके से कहनी चाहिए थी। पहले सोचा टिप्‍पणी हटाकर फिर से लिखूं। फिर बात रह गई।

    आज सुबह खबर मिली कि सुभाष जी को अगस्‍त माह के लिए हिन्‍द-युग्‍म का कवि घोषित किया गया है। उनकी कविता वहां देखी, तो मन किया कि उनसे फोन पर बात की जाए। फोन लगाया तो वे संयोग से अशोक रावत जी के घर पर ही थे। सुभाष जी ने बात की और फोन अशोक जी को पकड़ा दिया। मैंने सबसे पहले उनसे इस बात के लिए क्षमा मांगी कि मुझे अपनी बात इस तरह नहीं कहनी चाहिए थी। अशोक जी ने कहा इसमें क्‍या है,सबका कहने का अपना तरीका होता है,मुझे तो यह भी ठीक लगा।

    सचमुच यह सुनकर मेरे दिल का बोझ हल्‍का हो गया। अन्‍यथा कल से मैं बस इस बात को लेकर ही परेशान था।
    अशोक जी आपको बहुत बहुत साधुवाद,आप की ग़ज़लें आसमान को छूती हैं,पर वे ज़मीन पर खड़ी हैं।

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  17. जाने क्या लिख दिया उसने तकदीर में,
    मुझको जो भी मिला मुश्किलों से मिला.

    छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
    कहीं कानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं

    जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिजोरी में,
    परखते हैं कसौटी पर तो सब पत्थर निकलते हैं

    जब देखो तब हाथ में खंजर रहता है,
    उसके मन में कोई तो डर रहता है

    गौर से देखा हर अक्षर को तब जाना,
    प्रश्नों में ही तो हर उत्तर रहता है

    Aadarneey Ashok ji
    aapki gazlon ne man moh liya sabhi gazlen abhut pasand aayi magar ye sher khas pasand aaye ..... aapki kitaab ke bare mein pata chala wo kis tarah manga sakti hun krupya bataye main aapko aur padhne ki utsuk hun

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  18. मुझे लगता है कि अभी तक साखी पर अशोक जी की प्रस्तुत ग़ज़लों पर जो टिप्पणियां आयी हैं वह अच्छी, बहुत अच्छी से ऊपर नहीं हैं। हालांकि सलिल जी ने प्रस्तुत ग़ज़लों के कथ्य को लेकर विस्तार से टिप्पणी की है। राजेष जी ने भी बहुत कुछ कहा है। लेकिन मुझे लगता है कि ऊपर अशोक जी के परिचय में जो कहा गया है कि उन्होंने ग़ज़ल को हिन्दी में दुष्यन्त के बाद आसमानी विस्तार देने की सफल कोशिश की है, इस पर भी थोड़ा विचार करना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं कि ग़ज़ल तो ग़ज़ल है उसमें हिन्दी और उर्दू विवाद क्यों किया जा रहा है। मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। मैं स्पश्ट कर दूं कि बेषक जिस तरह कहानी कहानी है उसी प्रकार ग़ज़ल ग़ज़ल है। लेकिन हर कवि किसी न किसी भाषा का कवि होता है, जिसमें वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। उसे अपने रचना संसार से समृद्ध करता है। जिस तरह से ग़ज़ल फारसी के बाद उर्दू में आयी और उर्दू के तमाम ‘ााइरों ने उसे समृद्धि प्रदान की उसी तरह से दुष्यन्त ने हिन्दी में ग़ज़ल कहने की सफल कोशिश की। दुष्यन्त हिन्दी के लीजेण्ड ‘ाायर हैं। अशोक रावत जी भी उसी परम्परा के कवि@शायर हैं। दुष्यन्त के बाद हिन्दी में तमाम बड़े ‘ाायर हुए हैं, जिन्होंनें हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा को समृद्ध किया है। आदरणीय हरजीत, अदम गोंड़वी, सूर्यभानु गुप्त, एहतराम इस्लाम, राजेश रेड्डी, राजेन्द्र तिवारी, प्रमोद तिवारी, सत्यप्रकाश ‘ार्मा, आदि-आदि। हिन्दी ग़ज़ल कोई अलग नामकरण नहीं है। हिन्दी ग़ज़ल से आषय है हिन्दी कवियों के द्वारा कहने वाली ग़ज़लें। अशोक जी ने अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह ‘थोड़ा सा ईमान‘ के कवर पृश्ठ पर भी लिखा है ‘अशोक रावत की हिन्दी ग़ज़लों का संग्रह‘ं। कुल मिलाकर मेरा अनुरोध है कि, ‘हिन्दी भाषा की काव्य परम्परा में अशोक रावत जी ग़ज़लों का स्थान‘ इस पर भी हमारे विद्वान समीक्षक टिप्पणी करें। तो हम जैसे जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन हो। साखी पर अभी तक जो टिप्पणियां आयी हैं वे षिल्प और कथ्य की दृष्टि से तो प्रकाषित रचनाओं का विवेचन करती हैं, लेकिन अपने समय की दृष्टि से और काव्य परम्परा में उनका क्या स्थान है, पर प्रकाश नहीं डालतीं। मुझे लगता है कि इस पर भी ध्यान जाना चाहिए। हिन्दी में छान्दसिक कविता की आलोचना का पैमाना दुर्भाग्य से अभी भी “ौषव अवस्था में ही है। जो अच्छे आलोचक हैं वे गीत और ग़ज़ल को कविता ही नहीं मानते और जो मानते हैं वे बहर और व्याकरण से ऊपर उठकर बात ही नहीं कर पाते। अशोक जी की ग़ज़लें मेरी नजर में इस बात का सही प्लेटफार्म हैं जहां से हम ‘अच्छी‘ और ‘बुरी‘ टिप्पणियों से आगे की बात पर चिंतन-मनन कर सकते हैं। अशोक जी ग़ज़लें ग़ज़ल के शिल्प और कहन से आगे की ग़ज़लें हैं। आदरणीय प्राण जी एवं सरवत जी इस विषय के मर्मज्ञ हैं। उनके पास अनुभव और ज्ञान का विशद खजाना है। सरवत जी के ब्लाग पर उनके हिन्दी ग़ज़ल के ऊपर लिखे गये लेख को मैं पढ़ चुका हूं। वे इस पर ज्यादा अच्छी रोशनी डाल सकते हैं। मैं दोनों आदरणीयों से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे इस पर कुछ कहें।

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  19. 1. पता आजकल मेल में मिलता है
    जो डाक से नहीं आती
    इंटरनेट से आती है

    2. ईंट पत्‍थर से बनते हैं रिश्‍ते
    कायम नहीं होते
    पर यम हो जाते हैं

    3. मुजरिम जरूर पैसे वाले रहे होंगे
    या नेता उनके जानने वाले होंगे

    4. मौसम ही तनने का है
    तनने का बनने का है

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  20. सबसे पहले ईद, गणेशोत्सव और हरितालिका तीज की शुभकामनाएँ, देर सही लेकिन दुरुस्त.
    अशोक रावत गजलों की दुनिया में एक बड़ा नाम है. सुभाष जी ने भूमिका में जो कुछ भी लिखा है, उसे नकारने का साहस तो किसी में भी नहीं होगा, मैं सुभाष जी के कथन से पूरा इत्तिफाक रखता हूँ.
    चारों गजलों के अध्ययन के बाद यह तो सब पर ज़ाहिर है कि ये गजलें आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट और कुंठा की जीती जागती तस्वीर हैं. रचनाकार ने कहीं भी समझौते का प्रयास नहीं किया. गजलों में रोमांस की चाशनी नहीं है. अर्थात रचनाएँ सही मायने में उस उक्ति की परिचायक हैं जिसके अंतर्गत यह कहा गया था कि-"साहित्य समाज का दर्पण होता है".
    लेकिन हर रचनाकार, जिसमें हमा-शुमा शामिल हैं, सम्पूर्ण होने दावा तो नहीं कर सकता. साहित्य एक अथाह सागर है और हम अपनी पूरी साहित्य-यात्रा में कितने घूँट पीते हैं, कितना छोड़ देते हैं, यह प्रश्न ही नहीं उत्तर भी है. यह कहते हुए मैं अशोक रावत का कद कहीं से छोटा करने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ. यह एक सामान्य सी बात है, शायद मैं अति सतर्कता में बात को ज्यादा लम्बा खींच रहा हूँ, ऐसा लग सकता है लेकिन समीक्षा में बहुत सी गैर जरूरी लगने वाली बातों का वर्णन इस लिए भी आवश्यक होता है क्योंकि 'साखी' पर बहुत से नवोदित रचनाकार भी आते हैं जिन्हें न केवल रचना प्रक्रिया बल्कि समीक्षा का भी व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिए.
    अशोक रावत की पहली गजल- ६ अशआर की इस गजल में, ५ शेर पता मिलने की बात कर रहे हैं. यदि 'पता' शब्द इतना ही जरूरी था तो इसे रदीफ़ में शामिल किया जाना चाहिए था. हिंदी के हिसाब से भी 'पुनरुक्ति' दोष ही माना जाता है. दूसरी ओर, एक ही शब्द की बार बार तकरार से रचनाकार के शब्दकोश में कमी का आभास होता है. इसी गजल में एक जगह
    मुश्किलों से मिला लेकिन मिला तो. "कर्मण्ये वाधिकारस्ते....." वाली थ्योरी के विपरीत लगा मुझे शेर, गीता को मानूं या इस शेर को आईना बनाया जाए, असमंजस में हूँ. मुश्किलों से ही सही, लेकिन अगर मिल रहा है तो इसका शिकवा नहीं होना चाहिए.
    हमारे हमसफर भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
    हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं
    घर से बाहर निकलने में फासला रखना भी मुझे समझ नहीं आया, सफर के दौरान, खुद को अलग-थलग रखने की केमिस्ट्री तो ठीक है.
    छतों पर ईंट और पत्थर कहा जा सकता था, रचना पर दोबारा निगाह डाली जाती तो शायद यह दिखाई पड़ जाता.
    चैन में लेकिन हर इक पत्थर रहता है यहाँ भी अगर 'चैन से' का प्रयोग होता तो ज्यादा बेहतर था.
    इन सबके बावजूद, इन गजलों में नया लहजा, आधुनिकता, वर्तमान की पीड़ा और सच तो हैं ही. अशोक रावत कि यहाँ प्रकाशित ४ गजलें, शाहकार भले न हों लेकिन बहुत सारी रचनाओं से बेहतर हैं.
    सुभाष जी का आदेश और बहुत से मित्रों के अनुरोध को ठुकराना मेरे बस से बाहर था, इस लिए व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालना ही पड़ा. देर से आया लेकिन आया तो.
    अशोक जी, मेरी बातों आहत मत हो जयेगा, मेरे ऊपर कभी कभी दौरा पड़ता है और उस सूरत में पता नहीं क्या क्या लिख जाता हूँ. तय किया था कि अब से समीक्षा में आलोचना शामिल नहीं करूंगा लेकिन दौरा पड़ ही गया.

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  21. दोस्ती आ गयी आज किस मोड़ पर,
    दोस्तों का पता दुश्मनों से मिला....

    बहुत खूब .... एक से बढ़ कर एक ... लाजवाब ग़ज़लों का संकलन है ... अशोक जी आज के दौर के ग़ज़लक़ार हैं ....

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  22. आदरणीय सुभाष जी ,अशोक जी ,
    सादर प्रणाम !
    अशोक जी कि पांचो गज़लें उम्दा है .छोटे बहर और बडे बहर कि ग़ज़ल थी , बात बड़ी सहज थी मगर कहने का अंदाज़ शायराना था , जिसे पढ़ मज़ा आया , सारे शेर शानदार है और कई शेर'' कोट '' करने लायक है ,
    साधुवाद !
    सादर !

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  23. सबसे पहले ईद, गणेशोत्सव और हरितालिका तीज की शुभकामनाएँ, देर सही लेकिन दुरुस्त.
    अशोक रावत गजलों की दुनिया में एक बड़ा नाम है. सुभाष जी ने भूमिका में जो कुछ भी लिखा है, उसे नकारने का साहस तो किसी में भी नहीं होगा, मैं सुभाष जी के कथन से पूरा इत्तिफाक रखता हूँ.
    चारों गजलों के अध्ययन के बाद यह तो सब पर ज़ाहिर है कि ये गजलें आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट और कुंठा की जीती जागती तस्वीर हैं. रचनाकार ने कहीं भी समझौते का प्रयास नहीं किया. गजलों में रोमांस की चाशनी नहीं है. अर्थात रचनाएँ सही मायने में उस उक्ति की परिचायक हैं जिसके अंतर्गत यह कहा गया था कि-"साहित्य समाज का दर्पण होता है".
    लेकिन हर रचनाकार, जिसमें हमा-शुमा शामिल हैं, सम्पूर्ण होने दावा तो नहीं कर सकता. साहित्य एक अथाह सागर है और हम अपनी पूरी साहित्य-यात्रा में कितने घूँट पीते हैं, कितना छोड़ देते हैं, यह प्रश्न ही नहीं उत्तर भी है. यह कहते हुए मैं अशोक रावत का कद कहीं से छोटा करने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ. यह एक सामान्य सी बात है, शायद मैं अति सतर्कता में बात को ज्यादा लम्बा खींच रहा हूँ, ऐसा लग सकता है लेकिन समीक्षा में बहुत सी गैर जरूरी लगने वाली बातों का वर्णन इस लिए भी आवश्यक होता है क्योंकि 'साखी' पर बहुत से नवोदित रचनाकार भी आते हैं जिन्हें न केवल रचना प्रक्रिया बल्कि समीक्षा का भी व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिए.
    अशोक रावत की पहली गजल- ६ अशआर की इस गजल में, ५ शेर पता मिलने की बात कर रहे हैं. यदि 'पता' शब्द इतना ही जरूरी था तो इसे रदीफ़ में शामिल किया जाना चाहिए था. हिंदी के हिसाब से भी 'पुनरुक्ति' दोष ही माना जाता है. दूसरी ओर, एक ही शब्द की बार बार तकरार से रचनाकार के शब्दकोश में कमी का आभास होता है. इसी गजल में एक जगह
    मुश्किलों से मिला लेकिन मिला तो. "कर्मण्ये वाधिकारस्ते....." वाली थ्योरी के विपरीत लगा मुझे शेर, गीता को मानूं या इस शेर को आईना बनाया जाए, असमंजस में हूँ. मुश्किलों से ही सही, लेकिन अगर मिल रहा है तो इसका शिकवा नहीं होना चाहिए.
    हमारे हमसफर भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
    हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं
    घर से बाहर निकलने में फासला रखना भी मुझे समझ नहीं आया, सफर के दौरान, खुद को अलग-थलग रखने की केमिस्ट्री तो ठीक है.
    छतों पर ईंट और पत्थर कहा जा सकता था, रचना पर दोबारा निगाह डाली जाती तो शायद यह दिखाई पड़ जाता.
    चैन में लेकिन हर इक पत्थर रहता है यहाँ भी अगर 'चैन से' का प्रयोग होता तो ज्यादा बेहतर था.
    इन सबके बावजूद, इन गजलों में नया लहजा, आधुनिकता, वर्तमान की पीड़ा और सच तो हैं ही. अशोक रावत कि यहाँ प्रकाशित ४ गजलें, शाहकार भले न हों लेकिन बहुत सारी रचनाओं से बेहतर हैं.
    सुभाष जी का आदेश और बहुत से मित्रों के अनुरोध को ठुकराना मेरे बस से बाहर था, इस लिए व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालना ही पड़ा. देर से आया लेकिन आया तो.
    अशोक जी, मेरी बातों आहत मत हो जयेगा, मेरे ऊपर कभी कभी दौरा पड़ता है और उस सूरत में पता नहीं क्या क्या लिख जाता हूँ. तय किया था कि अब से समीक्षा में आलोचना शामिल नहीं करूंगा लेकिन दौरा पड़ ही गया.

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  24. सबसे पहले ईद, गणेशोत्सव और हरितालिका तीज की शुभकामनाएँ, देर सही लेकिन दुरुस्त.
    अशोक रावत गजलों की दुनिया में एक बड़ा नाम है. सुभाष जी ने भूमिका में जो कुछ भी लिखा है, उसे नकारने का साहस तो किसी में भी नहीं होगा, मैं सुभाष जी के कथन से पूरा इत्तिफाक रखता हूँ.
    चारों गजलों के अध्ययन के बाद यह तो सब पर ज़ाहिर है कि ये गजलें आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट और कुंठा की जीती जागती तस्वीर हैं. रचनाकार ने कहीं भी समझौते का प्रयास नहीं किया. गजलों में रोमांस की चाशनी नहीं है. अर्थात रचनाएँ सही मायने में उस उक्ति की परिचायक हैं जिसके अंतर्गत यह कहा गया था कि-"साहित्य समाज का दर्पण होता है".
    लेकिन हर रचनाकार, जिसमें हमा-शुमा शामिल हैं, सम्पूर्ण होने दावा तो नहीं कर सकता. साहित्य एक अथाह सागर है और हम अपनी पूरी साहित्य-यात्रा में कितने घूँट पीते हैं, कितना छोड़ देते हैं, यह प्रश्न ही नहीं उत्तर भी है. यह कहते हुए मैं अशोक रावत का कद कहीं से छोटा करने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ. यह एक सामान्य सी बात है, शायद मैं अति सतर्कता में बात को ज्यादा लम्बा खींच रहा हूँ, ऐसा लग सकता है लेकिन समीक्षा में बहुत सी गैर जरूरी लगने वाली बातों का वर्णन इस लिए भी आवश्यक होता है क्योंकि 'साखी' पर बहुत से नवोदित रचनाकार भी आते हैं जिन्हें न केवल रचना प्रक्रिया बल्कि समीक्षा का भी व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिए.
    अशोक रावत की पहली गजल- ६ अशआर की इस गजल में, ५ शेर पता मिलने की बात कर रहे हैं. यदि 'पता' शब्द इतना ही जरूरी था तो इसे रदीफ़ में शामिल किया जाना चाहिए था. हिंदी के हिसाब से भी 'पुनरुक्ति' दोष ही माना जाता है. दूसरी ओर, एक ही शब्द की बार बार तकरार से रचनाकार के शब्दकोश में कमी का आभास होता है. इसी गजल में एक जगह
    मुश्किलों से मिला लेकिन मिला तो. "कर्मण्ये वाधिकारस्ते....." वाली थ्योरी के विपरीत लगा मुझे शेर, गीता को मानूं या इस शेर को आईना बनाया जाए, असमंजस में हूँ. मुश्किलों से ही सही, लेकिन अगर मिल रहा है तो इसका शिकवा नहीं होना चाहिए. jaree.....

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  25. हमारे हमसफर भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
    हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं
    घर से बाहर निकलने में फासला रखना भी मुझे समझ नहीं आया, सफर के दौरान, खुद को अलग-थलग रखने की केमिस्ट्री तो ठीक है.
    छतों पर ईंट और पत्थर कहा जा सकता था, रचना पर दोबारा निगाह डाली जाती तो शायद यह दिखाई पड़ जाता.
    चैन में लेकिन हर इक पत्थर रहता है यहाँ भी अगर 'चैन से' का प्रयोग होता तो ज्यादा बेहतर था.
    इन सबके बावजूद, इन गजलों में नया लहजा, आधुनिकता, वर्तमान की पीड़ा और सच तो हैं ही. अशोक रावत कि यहाँ प्रकाशित ४ गजलें, शाहकार भले न हों लेकिन बहुत सारी रचनाओं से बेहतर हैं.
    सुभाष जी का आदेश और बहुत से मित्रों के अनुरोध को ठुकराना मेरे बस से बाहर था, इस लिए व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालना ही पड़ा. देर से आया लेकिन आया तो.
    अशोक जी, मेरी बातों आहत मत हो जयेगा, मेरे ऊपर कभी कभी दौरा पड़ता है और उस सूरत में पता नहीं क्या क्या लिख जाता हूँ. तय किया था कि अब से समीक्षा में आलोचना शामिल नहीं करूंगा लेकिन दौरा पड़ ही गया.

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  26. मेरी टिप्पणी में २१२ २१२ २१२ २१२ वाले छंद का नाम गलत प्रिंट हो गया है . सही वर्तनी है - स्रखिनी . इस शब्द का
    अंतिम अक्षर भी सही टाइप नहीं हो रहा मुझसे .सही अक्षर है -- णी . कृपया संशोधन कर लीजियेगा. श्री रावत जी ने पहली
    और चौथी ग़ज़लों में दो हिंदी छंदों स्रखिनी और कुंडल का सफल प्रयोग किया है.

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  27. संजीव गौतम जी ने अच्छा प्रश्न किया है.उनकी ही तरह कुछ लोगों की राय है कि ग़ज़ल को ग़ज़ल ही कहा जाए.मेरी राय भी
    यही है.मैंने कभी किसी कवि सम्मलेन या मुशायरा में ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल नहीं कहा है .मैं ही क्या कोई भी हिंदी कवि जब ग़ज़ल
    पढता है.वह यह कभी नहीं कहता है कि वह हिंदी ग़ज़ल सुनाने जा रहा है.लेकिन जिस भाषा और लिपि से ग़ज़ल जुडी है उस भाषा और
    लिपि का उल्लेख नहीं करना उनके साथ अन्याय है.
    अगर ग़ज़ल सिर्फ़ ग़ज़ल है तो उस पर उर्दू का ही अधिकार क्यों हो ? हिंदी , पंजाबी , गुजराती , मराठी , बँगला
    या अन्य भाषा का उस पर अधिकार क्यों न हो ? उर्दू ग़ज़ल पर कई पुस्तकें हैं . पुस्तकों के शीर्षक ही " उर्दू ग़ज़ल " को लेकर हैं.मसलन -
    1 . URDU GHAZAL - AN ANTHOLOGY ( FROM 16TH TO 20 CENTURY ) BY K.C NANDA
    2 . MASTERPIECES OF URDU GHAZAL ( FROM 17TH TO 18TH CENTURY ) BY K.C NANDA
    3 . उर्दू ग़ज़ल की रिवायत और तरक्की पसंद ग़ज़ल - लेखक - मुमताज़ उल हक़
    " वली , मीर ताकी मीर , ग़ालिब ,ज़ौक , दर्द , दाग़ , इकबाल इत्यादि उर्दू के बेहतरीन ग़ज़लगो थे " लिखना अगर जायज़ माना
    जाता है तो शम्बू नाथ शेष, बालस्वरूप राही , दुष्यंत कुमार , कुंवर बेचैन और सूर्य भानु गुप्त इत्यादि हिंदी के उत्कृष्ट ग़ज़लकार क्यों
    नहीं माने जा सकते हैं ? ग़ज़ल का इतिहास यही बताता है कि वह जिस - जिस भाषा - लिपि के साथ जुडी , उसका नामकरण उसीके आधार
    पर हुआ है.वह फारसी के साथ जुड़ कर फारसी ग़ज़ल,जर्मन के साथ जुड़ कर जर्मन ग़ज़ल ,अंग्रेज़ी के साथ जुड़कर अंग्रेज़ी ग़ज़ल कहलाई
    है.ये पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं ---
    " Recognising the growing interest in 1966, the acclaimed kashmiri american poet Aga Shahid Ali decided to complete
    and edit the first anthology of English language ghazals .
    -------------------------------
    ग़ज़ल की तरह गीत भी एक फॉर्म है. अगर वह हिंदी गीत , पंजाबी गीत , बँगला गीत , कश्मीरी गीत , मराठी गीत ,
    गुजराती गीत , सिंधी गीत ,पश्तो गीत इत्यादि कहला सकता है तो ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल , पंजाबी ग़ज़ल , बँगला ग़ज़ल , कश्मीरी ग़ज़ल ,
    मराठी ग़ज़ल , गुजराती ग़ज़ल , सिंधी ग़ज़ल , पश्तो ग़ज़ल इत्यादि क्यों नहीं कहला सकती है ?

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  29. अब जब मनीषियों का प्रवेश हो गया है तो मेरी ज़ुबान पर ताले पड़ना स्वाभाविक है...क्योंकि मैंने पहले भी कहा है कि मुझे ग़ज़ल का व्याकरण नहीं मालूम... किंतु आज हिंदी और उर्दू ग़ज़ल की बात पर दो शेर कोट करना चाहूँगाः
    उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
    वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.

    और दूसरा शेरः
    उनके दर्शन से जो आ जाती है मुख पर आभा
    वो समझते हैं कि रोगी की दशा उत्तम है.

    मेरे व्यक्तिगत और ग़ज़ल के अवैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर तो बस यही अंतर है उर्दू और हिंदी ग़ज़लों में. हमारे भाई राजेंद्र स्वर्णकार राजस्थानी में ग़ज़लें लिखते हैं. और अंतर स्पष्ट है... वर्ना उर्दू ऐसे रच बस गई है हमारी रोज़मर्रा की ज़ुबान में कि कहाँ और कैसे इन दो ज़ुबानों के बीच फ़र्क़ पता लगाया जाए, मुश्किल है.

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  30. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय प्रान जी और दादा सर्वत जी। देखिए अब कुछ बात बनी। सर्वत जी की समीक्षा तो उत्तम है ही। प्रान सर का लेख पढ़कर आनन्द आ गया। बहुत काम की जानकारियां मिलीं। आपके पास एक पूरे युग का अध्ययन और अनुभव है। हम सबका सौभाग्य होगा कि हम लोग इस बहाने उसके थोड़े से अंष से भी रूबरू हो सकंे।
    आदरणीय सर्वत जी आप यह न देखें कि ग़ज़ल किसकी है और कौन क्या सोचेगा। सबको खुश आज तक तो कोई कर नहीं पाया। माफी भी न मांगा करें आप। मुझे तो नहीं लगता कि आपको इसकी कोई जरूरत है। आप बड़े हैं। आपका अधिकार है, जिसे सीखना हो वह सीखे और जिसे कुढ़ना हो वह कुढ़े।

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  31. आदरणीय अशोक जी की सभी ग़ज़लें पढ़ी..मनभावन और आम इंसान के आस-पास और उसकी स्वयं की अनुभूत जिंदगी की ही परछाई सी लगती हैं. जिसे हर किसी ने कहीं ना कहीं, कभी ना कभी , किसी ना किसी रूप में जिया जरूर है, जो कोरी कल्पना की उड़ान नहीं, बल्कि यथार्थ के धरातल पर सजीव अहसासों को संजोये है अपने सीने में. इसी सन्दर्भ में आदरणीय अशोक जी के बारे में श्री सुभाष राय जी ने ठीक ही कहा "अशोक जी की ग़ज़लों को आप भीड़ में पहचान सकते हैं।" मेरी पसंद के शेर, जो मुझे बेहद पसंद आये, उन्ही की नज़र करता हूँ-
    गौर से देखा हर अक्षर को तब जाना,
    प्रश्नों में ही तो हर उत्तर रहता है.
    थोड़ा झुककर रहना भी तो सीख कभी,
    चौबीसो घंटे क्यों तन कर रहता है.
    आदरणीय सुभाष जी का आभार इतनी उम्दा और मुकम्मल ग़ज़लों से रूबरू करवाने हेतु. प्रणाम !

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  32. It is the definition of Kalyuga presented in the poems in a very simple and understandable language. The views/explannation definitely indicates for improvement in the set up of the society for the existence of the innocent or so called Aam Aadmi. Well said . Keep it up till positive results are visible. AKSUD

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  33. YADYPI SABHI GHAZLEN SAMANYA STAR KI THIN PHIR BHI LOGON KO KUCH SHER PASAND AYE. MEN UN SABHI SAHITYKARO/ PATHKON KA KO DHANYABAD DETA HUN JINOHNE MERI GHAZLON PER APNA MAT VYAKT KIYA. APNE BLOG PER STHAN DENE KE LIYE MEN DR. SUBHASH KA BHI ABHAR VYAKT KARTA HUN. HINDI MEN LIKHI JA RAHI GHAZLON KI SANKHYA IS BAT KA PRAMAN HAI KI GHAZAL KA JADOO HINDI KE RACHNAKARON KE SIR CHADH KAR BOL RAHA HAI. LEKIN SANKHYA KE ADHAR PER SAHITYA MEN SHRESHTHTA SIDDH NAHIN KI JA SAKATI. NAI KAVITA KE CHALAN NE UN LOGON KO BHI KAVI BANA DIA HAI JIN KE PAS KAVYA KALA KE SANSKAR NAHIN HAIN.KALA SADHANA SE ATI HAI LEKIN BINA KISI SADHANA KE LOG MAHAKAVI HONE KI DAVEDARI PRASTUT KAR RAHEN HEN. PATHKON KA SAHITYA SE VIMUKH HOTE JANA CHINTA KA KARAN BHALE HI NA HO LEKIN CHINTAN KA VISHYA ZARUR HAI. PATHAKON KA VIMUKH HONA SAHITYKARON KE RACHANA KARM PER BHI PRASHANA LAGATA HAI. ATAH RACHANAKARON KO APNE LEKHAN KE VISHAYA MEN ZARUR SOCHANA CHAHIYE KI VE PATHKON KA SAMMAN KYON PRAPT NAHIN KAR PA RAHEN.SIRF TELEVISION KO ZIMMEDAR THARA KAR APNI KAMIYON SE MUKT NAHIN HO SAKTE.APNE UTTARDAYITVON KE PRETI AHIK JAGROOK HONE KI ZARURAT HAI. AIK DUSARE KI TARIF KARKE AGAR KISSA KHATM HOTA RAHA TO LIKHNE PADHNE KA KOI MATLAB NAHIN RAH JAYEGA.

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  34. अशोक रावत
    यद् पि सभी ग़ज़लें सामान्य स्तर की थीं फिर भी लोगों को कुछ दशेर पसन्द आये। मैं उन सभी साहित्यकारों@पाठकों को धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने मेरी ग़ज़लों पर अपना मत व्यक्त किया। अपने ब्लाग पर स्थान देने के लिए मैं डॉ0 सुभाष का भी आभार व्यक्त करता हूं। हिन्दी में लिखी जा रही ग़ज़लों की संख्या इस बात का प्रमाण है कि ग़ज़ल का जादू हिन्दी के रचनाकारों के सिर चढ़कर बोल रहा है लेकिन संख्या के आधार पर साहित्य में श्रेष्ठता सिद्ध नहीं की जा सकती। नयी कविता के चलन ने उन लोगों को भी कवि बना दिया है जिनके पास काव्य कला के संस्कार नहीं हैं। कला साधना से आती है लेकिन बिना किसी साधना के लोग महाकवि होने की दावेदारी प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठकों का साहित्य से विमुख होते जाना चिन्ता का कारन भले ही न हो लेकिन चिन्तन का विषय जरूर है। पाठकों का विमुख होना साहित्यकारों के रचना कर्म पर भी प्रष्न लगाता है। अतः रचनाकारों को अपने लेखन के विषय में जरूर सोचना चाहिए कि वे पाठकों का सम्मान क्यों प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। सिर्फ टेलीवीजन को जिम्मेदार ठहराकर अपनी कमियों से मुक्त नहीं हो सकते। अपने उत्तरदायित्वों के प्रति अधिक जागरूक होने की जरूरत है। एक दूसरे की तारीफ करके अगर किस्सा खत्म होता रहा तो लिखने पढ़ने का कोई मतलब नहीं रह जायेगा।

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  35. आया तो मैं पहली बार आपके ब्‍लॉग पर लेकिन लगता है निरंतर आता रहूँगा। अधिकॉंश समय बिना टिप्‍पणी दिये भी लोट सकता हूँ। वस्‍तुत: यह पोस्‍ट देखूँ तो लगता है कि गजलों के साथ इतना सार्थक विचार विमर्श दुर्लभ है। जिस तरह की पोस्‍ट है और जिस स्‍तर की चर्चा है, दोनों किसी टिप्‍पणी की मोहताज नहीं हैं।
    इस स्‍तरीय प्रस्‍तुति के लिये हार्दिक बधाई।

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  36. क्‍या कुछ ऐसी व्‍यवस्‍था हो सकती है कि प्रकाशित रचनाकारों के ई-मेल आई डी प्राप्‍त हो जायें जिससे उनसे संपर्क में सुविधा रहे?

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  37. G.WALD-C.DARWIN-G.MENDEL and others minds and not only WHAT SCIENTISTS HAVE WAVES Timeless Shimmering this side of existence (for your life) IN THE INTERPRETATION AND ILLUSION OF LIFE AND THE UNIVERSE extension. Thus aware, and me about the dual VALUES AND LIFE FROM genome DNA to selection of species and father GENETICS AND FAITH TO LIFE IS CAUSED BY, OR AS Accidents (Select type) or as creation (creation), third times AGREE all three, so far does not? Nobel Prize 1967.WALD says that CASE PHILOSOPHICAL AND RELIGIOUS AWARENESS, NOT A SCIENCE. THE ONLY OTHER SCIENCE AND ART to find new spiritual symbols CONTEMPORARY AND NEW WORDS AND A NEW abstract concepts and beliefs into Philosophizing Finding debate reconciliation and extension DUAL MODERN, POST MODERN EX historical and contemporary consciousness! E TU is inviolable ARTS IN POST MODERN TIMES RECONCILIATION these two classic and contemporary.

    Milivoj Šegan;sculptor, painter, photographer, ceramicist, cartoonist, Senior Conservator

    Many thanks sir अशोक रावत , you have my digital work attach your magnificent intellectual work,wery nice from you.... greetings from Croatian


    http://kkartlab.in/profile/MilivojSegan

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हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...