रविवार, 11 जुलाई 2010

संजीव गौतम की गज़लें

संजीव गौतम ग़ज़लों और गीतों की दुनिया में एक जाना पहचाना नाम है| वे मिजाज से निहायत संजीदा और पुरखुलूस इंसान हैं. जिन्दगी को बहुत सादगी, सच  और स्वाभिमान के साथ जीते हैं. अपने बाहर के नंगे सच को बहुत बारीकी से देखते हैं और उसे समझने की कोशिश करते हैं| समाज और  सियासत की दुविधा, आडम्बर और पाखंड को न केवल महसूस करते हैं बल्कि  उसे शब्द देने की भी कोशिश करते हैं| उनकी तीन गज़लें हम साखी के जरिये आप के सामने रख रहे हैं. हम चाहते हैं कि इन गज़लों के कथ्य पर, इनकी तकनीक पर और इनके प्रभाव पर आप बात करें| बात तार्किक, स्पष्ट और साफ लहजे में होनी चाहिए|

 १.
सजा मेरी खताओं की मुझे दे दे
मेरे ईश्वर मेरे बच्चों को हंसने दे

इशारे पर चला आया यहाँ तक मैं
यहाँ से अब कहाँ जाऊं  इशारे दे


विरासत में मिलीं हैं खुशबुएँ  मुझको
ये दौलत तू मुझे यूँ ही लुटाने दे


मैं खुश हूँ इस गरीबी में, फकीरी में
मैं जैसा हूँ मुझे वैसा ही रहने दे


उजालों के समर्थन की दे ताकत तू
अंधेरों से उसी ताकत से लड़ने दे


२.
प्रयासों में कमी होने न पाए
विजय बेशक अभी होने न पाए


इसी कोशिश में हर इक पल लगा हूँ
कि गूंगी ये सदी होने न पाए

तुम्हें भी सोचना तो चाहिए था
कि रिश्ता अजनबी होने न पाए


वतन की बेहतरी इसमें छिपी है
सियासत मजहबी होने न पाए


जुदा हैं हम यहाँ से देखना पर
मुहब्बत में कमी होने न पाए


३.
हर कदम इम्तेहान है फिर भी
वो बड़ा सख्तजान है फिर भी


रेज़ा-रेज़ा बिखर गये सपने
उसकी हिम्मत जवान है फिर भी


झूठ ने पर कतर दिए सच के
इस परिंदे में जान है फिर भी


मुल्क अपना निजाम भी अपना
मुश्किलों में किसान है फिर भी


रंक, राजा, फकीर सब फानी
तुझको किसका गुमान है फिर भी

संवाद, ११ ब, गौरीकुंज, गैलाना रोड, आगरा-२८२००७
(फोन 09456239706)
संजीव का ब्लाग -- http://kabhi-to.blogspot.com/

17 टिप्‍पणियां:

  1. दूसरी और तीसरी गज़ल बहुत पसंद आई...खास तौर पर यह बयानी:


    मुल्क अपना निजाम भी अपना
    मुश्किलों में किसान है फिर भी


    कितने अफसोस की बात...लेकिन यही सच है. बधाई संजीव को.

    हालाँकि मैं गज़ल के व्याकरण का ज्ञाता नहीं मगर पहली गज़ल में काफिये की गड़बड़ी लगती है . अब जानकार लोग बेहतर प्रकाश डाल सकते हैं किन्तु मुझे महसूस हुआ. कृपया अन्यथा न लें शायद मैं गलत होऊँ.

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  2. झूठ ने पर क़तर दिए सच के
    इस परिंदे में जान है फिर भी

    वाह संजीव भाई ! बहुत खूब। सच के परिंदे में वाकई बहुत जान होती है।

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  3. Sajeev goutam ji ki gazlen samayik aur bahut gahri hoti hai .. unki gazal ka har sher unki kalam kee taqat ka andaza deta hai ....... mere bachhon ko hansne de ......
    tumhe bhi sochna chahiye tha .....

    is parinde mein jaan hai phir bhi

    kis kis sher kee tareef kee jaaye ........ har sher kamaal

    Subhaash ji Sanjeev ji ko padhwane ke liye dhanyvaad

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  4. Dhanyvaad Shraddhajee, aap yahan aayeen bahut achchha laga. aap Sanjiv kee gazalon kee tareef kar gayeen, yah bhee achchha laga, par ham aap se aur bhee bahut kuchh chahate hain. aap se ham log kuchh aur seekhana chahate hai aur vah tabhee ho payegaa jab aap hamare likhe par baat karengee. aage ham aap se aisa hee chahenge. dhanyvad.

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  5. भाई संजीव गौतम की गज़लें पढ़कर उनके तेवर पता चले। वे समसामयिक हैं यह सुकुन देने वाली बात है। बधाई। गज़ल का व्‍याकरण मैं भी बहुत अच्‍छी तरह नहीं जानता। पर हां उसमें व्‍यक्‍त विचार पर तो बात की ही जा सकती है। पहली गज़ल में मुझे लगा कि पहला शेर
    ही पूरी गज़ल की जान है। इस तरह से यह बात पहले मैंने कहीं नहीं पढ़ी या सुनी। इसलिए इस बात को गज़ल के आखिरी शेर के रूप में कहा जाता तो संभवत: अधिक प्रभावशाली होता। इसी तरह दूसरी गज़ल में दूसरा शेर पूरी गज़ल की जान है। और यह बात भी मैंने कहीं और इस तरह से नहीं पढ़ी। इसे भी गज़ल का आखिरी शेर होना चाहिए था।

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  6. डॉ सुभाष नए ब्लाग के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है।
    नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

    पढिए एक प्रेम कहानी

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  7. साखी ब्‍लॉग बन रहा है
    काव्‍य जगत की सखी
    नजर नजर की पारखी।

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  8. मंगलवार 13 जुलाई को आपकी रचना ...( यही है साखी ).. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  9. इसी कोशिश में हर इक पल लगा हूँ
    कि गूंगी ये सदी होने न पाए

    बहुत ख़ूब !बेहतरीन!

    मुल्क अपना निजाम भी अपना
    मुश्किलों में किसान है फिर भी

    वाक़ई मुल्क ये त्रासदी तो झेल रहा ही है

    शायर से माफ़ी चाहती हूं लेकिन
    पहली ग़ज़ल के बारे में मैं समीर जी से सहमत हूं

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  10. Sajeev Gautam kee achchhee gazalon ke liye unhen
    badhaaee.Bhai Sameer aur Ismat zaidee ne pahlee
    gazal ke qaafiyon ko galat kahaa hai.Urdu shayree
    ke vyakaran ke hisaab se ve sahee hain.DE,NE aur
    Re kaa " AE" swar qaafia hai.swar " AA" ( LAGAA,
    MUDDAA, DAGAA aadi) kee tarah " AE" bhee qaafia
    ke roop mein istemaal kiya jaa sakta hai.jaese-
    " parche" ke doosre qaafiye badle, saste, kaese,
    ujle , dhandhe, kitne, dooje ityaadi ho sakte
    hain.

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  11. संजीव गौतम को कई बार पढ़ा है...
    ब्लॉग पर भी,,,, पत्रिकाओं में भी
    संजीव को समय की नब्ज़ पहचान कर
    उसे खूबसूरत अलफ़ाज़ में ढालने का हुनर मालूम है
    और ये गज़लें पढ़ते हुए ये यक़ीन पक्का होने लगता है
    गुज़ारिश . . .
    समीर जी और इस्मत जी की बात पर भी गौर फरमाएं

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  12. संजीव भाई ग़ज़ल कहने की तकनीक से भली-भांति वाकिफ हैं यह बात तो उनकी इन ग़ज़लों को पढ़ने के बाद साफ़ ज़ाहिर है। ये अलग बात है की बड़े शायरों के अंदाज़े-बयां में भी बेहतरी की गुंजायश तो बनी ही रहती है फिर वे तो अभी नौजवान शायर हैं। मुझे लगता है कि कहन और तकनीक की दृष्टी से दूसरी और तीसरी ग़ज़ल के अशआर पहली ग़ज़ल की तुलना में बेहतर बन पड़े हैं। मेरा मानना है कि शायर को अपने वक़्त की आवाज़ तो बनना ही चाहिए उसे रास्ता दिखाने का माद्दा भी विकसित करना चाहिए। बाद की दोनों ग़ज़लों में यह बखूबी हो रहा है:

    इसी कोशिश में हर इक पल लगा हूँ
    कि गूंगी यह सदी होने न पाए

    यह बड़ी बात है संजीव की। शायरी की पूरी ताक़त अपने समय को गूंगेपन से बचाने के लिए झोंक दी जानी चाहिए। शायरी व्यवस्था के महासागर में भटकते ज़िन्दगी के जहाज को रास्ता दिखाने वाली 'बीकन लाइट' है। और यह लाइट शायर के मन में ,उसके सीने में , जलती है। चूंकि बाहर बहुत अँधेरा है, कोहरा है, धुंध है ; लागों को साफ़ नज़र नहीं आ रहा है कि क्या हो रहा है। शायर के मन की रौशनी अँधेरे को चीरकर व्यवस्था का असली चेहरा उजागर करने का काम करती है। दूसरी ग़ज़ल के कुछ शेर यह भूमिका ठीक से निभा रहे हैं। पहली ग़ज़ल पर मैं कुछ ज्यादा नहीं कहना चाहता क्योंकि इसमें तो मनुष्य की अपार क्षमताओं एवं संभावनाओं का संपूर्ण समर्पण है जिसका जदीद शायरी में बहुत बड़ा स्थान नहीं है। बहरहाल शायर की आस्थागत भावनाओं का मैं पूरा सम्मान करता हूँ। जहाँ तक काफियों का मुआमला है मैं समझता हूँ की संजीव के काफिये सही हैं। उन्होंने इस ग़ज़ल में सिर्फ एक मात्रा 'ऐ' को काफिया बनाया है और उसे अंत तक ठीक से निभाया है। हालाँकि हिंदी ग़ज़ल में इसका इस्तेमाल बहुत नहीं हो रहा है और इससे बचे रहने में ज्यादा समझदारी है। कुल मिलाकर इस युवा शायर में एक उम्दा शायर बनने की पूरी संभावनाएं हैं। वैसे उन्हें अपने अंदाज़ के पैनेपन में थोड़ी 'पैशन' और मिला लेनी चाहिए। भाषा में अभी अभिधा हावी है। थोड़ी व्यंजना तथा कुछ बिम्बों-प्रतीकों का प्रयोग उनके लहजे को और खूबसूरत बना सकता है।

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  13. डॉ. सुभाष राय जी को नए ब्लॉग के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.
    संजीव गौतम की तीनों ग़ज़लें अच्छी लगीं. काफ़िये के बारे में डॉ. त्रिमोहन तरल जी और प्राण शर्मा जी की टिप्पणी में बहुत अछि तरह समझा दिया है कि काफ़िये बलिकुल सही हैं. जिस तरह अलिफ़ का काफ़िया इस्तेमाल किया जाता है, उसी तरह ए, ई, ऊ वगैरह के काफ़िये भी सही होते हैं .
    पहली ग़ज़ल में 'मुझे दे दे' और तीसरी ग़ज़ल में 'रेज़ा-रेज़ा' लफज़ी-तक़रारे- मुवक्कद ( مُؤکّد) की अच्छी मिसालें हैं. हालांकि कुछ लोग लफज़ी-तक़रार को ऐब-ए-कलाम मानते हैं लेकिन मौलाना हसरत मोहानी ने इसे बाज़ हालात में हुस्ने-बयान क़रार दिया है. संजीव की ग़ज़लों में इन तकरार से ग़ज़ल की ग़ज़लियत में इज़ाफ़ा ही हुआ है. बहर-ओ- वज़न को भी निभाया है. ख़याल और बयान का भी ध्यान रखा गया है. हिन्दी भाषा में लफ़्ज़ों के लहजे में फ़र्क़ आने से कभी कभी वज़न में फ़र्क़ महसूस होने लगता है लेकिन हिन्दी में लिखने से उर्दू वालों को एक समझोता तो करना ही चाहिए. दुष्यंत कुमार ने भी एक बार 'महल' का वज़न हिन्दी के उच्चारण से ही इस्तेमाल किया था हालांकि कुछ उर्दू के शायरों ने इसे ग़लत माना था.
    राजेश उत्साही की टिपण्णी पढ़कर बहुत अच्छा लगा. उन्होंने कहा है कि पहली ग़ज़ल का पहला शेर ग़ज़ल की जान है इसलिए इसे आखिरी शेर के रूप में कही जाती तो अधिक प्रभावशाली होता. ग़ज़ल के सब से अच्छे शेर (बैत-उल-ग़ज़ल) के लिए ज़रूरी नहीं कि वह आखिरी शेर या मक़ता ही हो, वह कहीं भी हो सकता है.
    संजीव गौतम जी को बधाई.
    महावीर शर्मा

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  14. आदरणीय महावीर जी, आप ने अपनी व्यस्तताओं में से समय निकालकर संजीव की रचनायें पढीं और उन पर अत्यंत सार्थक टिप्पणी की, यह मेरे इस ब्लाग क़ॆ उद्देश्य को और दृढ़्ता के साथ आगे बढ़ाने में मेरे लिये सहायक होगा। आप का बहुत- बहुत आभार।

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  15. अपने अज्ञान को छिपा ले जाता तो प्राण जी, महावीर जी एवं अन्य ज्ञानियों से ये सीखने से वंवित रह जाता. इस हेतु प्रथम आभार तो संजीव को ही और आप सब का भी आभार इतने प्रभावशाली ढंग से सीखाने के लिए.

    यह इस नवीनतम ब्लॉग की उपलब्धि है.

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  16. उजालों के समर्थन की दे ताकत तू
    अंधेरों से उसी ताकत से लड़ने दे
    Gautam ji ki rachnatmak oorja hi unka parichay hai. Shri Mahavir ji ki ghazal ke baare mein di gayi jaankari bahut hi kargar rahi mere liye. shubhkamnaon ke saath.

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  17. saniv gautam mahoday ki ghazale bhi to dekh lee jaye. yah sochaa kar idhar aaya. ustaon se seekhane mey koi burai nahee. lekin mera durbhagy hai ki yahaa se nirash laut rahaa hoon.ye itane bade ustaad hai, ki inse seekh panaabharee pad jayega.. fir bhi aap toh logo ko sikhane ke kaam mey lage rahe.

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