स्मृतियाँ स्टेटिक नहीं गत्यात्मक होतीं हैं। स्मृति अगर वर्तमान को रचती है, भविष्य को गढ़ती है तो उसका महत्त्व है। वह वैयक्तिक भी होती है और सामूहिक भी, जातीय भी। वैयक्तिक स्मृतियाँ बहुत लम्बी नहीं होतीं लेकिन सामूहिक स्मृतियाँ लम्बी होती हैं। स्मृति सुरक्षित रहे, आगे बढ़ती रहे, इसके लिए जरूरी है बार-बार उसका दुहराया जाना। ऐसा नहीं होने पर वे नष्ट हो जातीं हैं। जब स्मृतियों के संरक्षण की बात उठती है तो तमाम तरह के सवाल भी उठते हैं। किन स्मृतियों का संरक्षण, किसलिए, व्यक्तिगत हित में या सामूहिक लाभ के लिए। स्मृतियाँ अदने गरीब आदमी की भी होती हैं और अमीरों की भी। वे नकारात्मक भी होतीं हैं और सकारात्मक भी। सवाल यह है कि हम किन स्मृतियों को आगे ले जाना चाहते हैं। वे समाज हित में हैं या समाजहित के विरुद्ध। स्मृतियाँ केवल मीठी और मधुर होतीं हैं या खतरनाक और वंचक भी।
इस तरह के तमाम सवाल उठे, उन पर चर्चा हुई, स्मृतियों के सफ़ेद- स्याह पक्षों को समझने की कोशिशें हुई छह सितम्बर को मऊ में आयोजित एक गहन परिसंवाद में। इसका आयोजन रामगोविंद राय, रामायण राय स्मृति संस्थान ने किया था। विषय था, मनुष्यता के लिए क्यों जरूरी हैं स्मृतियाँ। विचार के क्रम में स्मृतियों के राजनीतिक मायने भी समझने के प्रयास हुए और बताया गया की किस तरह ताकतवर लोग या सत्ता संरचनाएं स्मृतियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। देखा गया है कि जब भी सरकारें बदलती हैं, सबसे पहले इतिहास से छेड़छाड़ की कोशिश होती है। स्मृतियों का एक वस्तुनिष्ठ पक्ष होता है लेकिन उनके अनुकूल या प्रतिकूल अर्थ निकाले जाने की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। स्मृतियाँ किसी देश का निर्माण कर सकती हैं तो उसे नष्ट भी कर सकती हैं। वे समाज को प्यार और सद्भाव के रास्ते पर भी ले जा सकती हैं और दंगे, मार- काट और अराजकता में भी धकेल सकती हैं। सत्ता हमेशा देश की स्मृतियों को कब्जे में लेने का अभियान छेड़ती हैं क्योंकि उसे पता होता है कि उनकी अपने पक्ष में व्याख्या लम्बे समय तक सत्ता में टिके रहने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। जगहों के नाम बदलना, पाठ्यक्रम बदलना या नायकों के जीवन दर्शन के नए अर्थ करना इसी अभियान के हिस्से हैं। आजकल स्मृतियों को खतरनाक हथियार के रूप में इस्तेमाल करके एक ख़ास तरह के अधिनायकवाद की नींव मजबूत करने का अभियान चल रहा है।
संगोष्ठी की अध्यक्षता की अभिनव कदम के सम्पादक, लेखक और कवि जयप्रकाश धूमकेतु ने। प्रमुख वक्ता के रूप में मौजूद थे साहित्य, इतिहास, राजनीति और विज्ञान की समझ से लैस आई आई टी,बी एच यू के प्रोफ़ेसर डा आर के मंडल। साहित्य और समाज पर राजनीति के प्रभाव की समझ रखने वाले बी एच यू में अंग्रेजी विभाग के प्रोफ़ेसर डा संजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक बंशीधर मिश्र और कथाकार एवं गाँव के लोग के सम्पादक रामजी यादव ने विशिष्ट वक्ता के रूप में अपनी भूमिका निभाई। विषय प्रतिपादन किया युवा कवयित्री और कथाकार सोनी पांडेय ने। रामगोविंद राय, रामायण राय स्मृति संस्थान के संयोजक राजेंद्र राय ने बताया कि इस वर्ष भारतीय शास्त्रीय संगीत के युवा गायक देवेश सिंह उर्फ़ राजा सिंह को सम्मानित किया गया। उन्हें प्रशस्ति पत्र एवं 11 हजार रुपये की धनराशि पुरस्कार स्वरुप प्रदान की गयी। कार्यक्रम के उत्तरार्ध में प्रखर संगीत शिक्षक डा गिरिजा शंकर तिवारी के शिष्य देवेश और बलवंत सिंह ने सांगीतिक प्रस्तुति दी।
श्री जयप्रकाश धूमकेतु ने बीज वक्तव्य के लिए सोनी पांडेय की सराहना की, फोक पर गंभीर काम के लिए प्रो संजय कुमार का विशेष उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि सबकी अपनी अपनी स्मृतियाँ होती हैं। गोडसे की भी स्मृति है और गांधी की भी। एक हत्या की स्मृति है और दूसरी शांति की, एक धाँय-धाँय की, दूसरी हे राम की। मुझे दूसरी पसंद है। धूमकेतु जी ने माटी की गंध, भाई-भाई के प्यार और आम जन के सरोकार को आगे बढ़ाने वाली स्मृतियों को महत्वपूर्ण और रचनात्मक बताते हुए कहा कि ऐसी स्मृतियाँ रामगोविंद राय की भी हो सकती हैं, रामायण राय की भी और अन्य तमाम पिताओं के जीवन की भी। उन्होंने स्मृतियों के सकारात्मक पक्ष को जरूरी बताते हुए दिनकर को याद किया और कहा कि जो स्मृतियों का रचनात्मक उपयोग नहीं करेंगे, समय उनका अपराध दर्ज करेगा--जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
प्रो आर के मंडल ने स्मृतियों की जटिलताओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि विज्ञान की भी अपनी मेमोरी है जैसे अन्य समाज विज्ञानों की। सवाल यह है कि मेमोरी कितनी दूर तक जानी चाहिए। सच यह है कि हमारे पास जो भाषा है, जिसमें हम व्यक्त होते हैं, वह भी हमारी बनायी हुई नहीं है। वह भी स्मृति का ही हिस्सा है। हम जानते हैं कि इतिहास समाज को कुछ न कुछ देता है, उसे बनाता है इसलिए इतिहास के प्रति हमें आदर रखना चाहिए। आप कुछ भी कह दें, बिना यह सोचे कि वह प्रामाणिक है या नहीं और जब उसकी व्याख्या का प्रश्न उठे तो चुप्पी साध लें तो खतरा बड़ा हो जाता है। कहते तो हैं कि हम सांझी स्मृतियों वाले लोग हैं लेकिन उन्हें ही ख़त्म कर देने की कोशिशें चल रहीं हैं। प्रयास है कि स्मृतियाँ एकपक्षीय हों। विज्ञान किसी तथ्य के प्रति एकमत रहता है, हम सर्वसम्मति वाले लोग हैं लेकिन एक कविता की हर कोई अलग-अलग व्याख्या कर देगा। इसी तरह स्मृतियों की अलग-अलग तरह से व्याख्या की जा सकती है। अब फेथ को ही लीजिये। आप कहते हैं आप का फेथ है, कोई बात नहीं लेकिन आप कहें कि फेथ में वस्तुनिष्ठता है तो हम कहेंगे कि विज्ञान का इतिहास पढ़िए। कोई आप की आलोचना करे तो उसे मार दोगे, उस पर हमला कर दोगे, कहोगे स्टेट की आलोचना करना अपराध है। अरे भाई ये आजादी तो हमें हमारे संविधान ने दी है। जो गलत है उसे गलत कहने की आजादी तो देनी ही पड़ेगी। सम्मान के साथ जीने का अधिकार तो हमें मिला हुआ है।उससे आप हमें वंचित नहीं कर सकते।
प्रो संजय कुमार ने स्मृति के महत्त्व को गंभीरता से रेखांकित करने की कोशिश की। उन्होंने सवाल किया कि स्मृति केवल अतीत भर है या भविष्य में भी उसका कोई योगदान है। जवाब देते हुए कहा कि व्यक्तिगत स्मृतियाँ दो-तीन पीढ़ियों तक रहतीं हैं जबकि जातीय स्मृतियाँ हजारों साल तक। जातीय स्मृतियाँ इसलिए लम्बे समय तक रहती हैं क्योंकि वे बार-बार दुहराई जाती हैं। हम जो भी देखते हैं उसका अर्थ करने की कोशिश करते हैं। अगर जीवन का कोई अर्थ नहीं है तो हम क्यों जियें। इसी मायने में अर्थपूर्ण होना ही मनुष्य होना है। हम इसी अर्थ को अपनी स्मृतियों के सहारे रचते हैं। यहीं एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि स्मृति का कल्पना से कोई सम्बन्ध है या नहीं। सच यह है कि बिना स्मृति के कल्पना संभव नहीं है और बिना कल्पना के स्मृति भी नहीं। भविष्य की परिकल्पना हमें अपनी स्मृतियों के प्रति सतर्क करती है। ऐसा न हो तो हम सतत वर्तमान में रहने को अभिशप्त हो जाएँ। अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य की परिकल्पना वर्तमान को गढ़ती हैं। इसी अर्थ में स्मृतियाँ महत्वपूर्ण हैं। प्रो संजय कुमार ने स्मृतियों के एक खतरनाक पक्ष का भी संकेत किया। सत्ता संरचनाएं हमेशा देश की स्मृतियों पर नियंत्रण की कोशिश करती हैं। उन्हें पता होता है कि इनकी अनुकूल व्याख्या कर वे अपनी नींव मजबूत कर सकती हैं।
श्री बंशीधर मिश्र ने इतिहास, संस्कृति और साहित्य का हवाला देते हुए कहा कि युद्ध और मौतें जिनके हाथ का खिलौना हैं, उनके हाथ में हमारी सभ्यता को खतरा है। क्या हम सचमुच ऐसे मुकाम पर पहुँच गए हैं जहां सभ्यता नष्ट हो जाने के कगार पर है। जिस यूरोप में ईसा आये थे, जिन्होंने अपने हत्यारों के लिए भी प्रार्थना की। हे ईश्वर उन्हें माफ़ करना क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। उसी यूरोप में दो हजार साल बाद औद्योगिक क्रान्ति की वीभत्सता दिखाई पडी। उसी की नींव पर रखा गया विकास का सपना आखिर कितना लंबा चलने वाला है। श्री रामजी यादव ने कहा कि हमें तय करना होगा कि हम किस तरह की स्मृतियाँ सुरक्षित रखना चाहते हैं। वे नकारात्मक भी हैं, सकारात्मक भी। सत्ता से सांठ -गाँठ कर हत्याएं, लूट के जरिये देश को ख़त्म कर देने की कोशिशें हो रहीं हैं, अन्याय को न्याय लिखा जा रहा है। देश में गरीब भी हैं, शिल्पकार भी हैं, वे भी देश बनाते हैं, केवल नारे लगाने वाले देश नहीं बनाते। आम जनता किनारे है, हताश है, आत्म हत्या करने पर विवश है। अच्छी स्मृतियों से शोषण, अपमान और अन्याय का प्रतिकार होना चाहिए। अच्छी स्मृतियों को बनाये रखने के लिए बुरी स्मृतियों से लड़ने की जरूरत है।
युवा कथाकार और कवयित्री सोनी पांडेय ने विषय रखते हुए स्मृतियों में बेटियों की जगह का प्रश्न उठाया, इतिहास और साहित्य के सबक की चर्चा की और स्मृतियों के रचनात्मक उपयोग की सलाह दी। इस अवसर पर श्री राजेंद्र राय, दीनानाथ राय, हरे राम सिंह, रवींद्र राय, डा झारखंडे राय, प्रभात कुमार राय, संदीप कुमार राय, शशिप्रकाश राय, रंजीत राय, रवि प्रकाश, वेदप्रकाश ने अपने विचार रखे। पहले सत्र का संचालन वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय ने और दूसरे सत्र का संगीत के जानकार प्रमोद राय ने किया। स्मृति सभा में बड़ागांव तथा आस-पास के गाँवों और मऊ के सैकड़ों लोग मौजूद थे।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-09-2017) को "चमन का सिंगार करना चाहिए" (चर्चा अंक 2723) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'