खेत में भूख उगे फाकों के अंकुर फूटें, क्या इसी वास्ते खूनों से धरा सींची थी, ऐ मेरे देश के नेताओं बताओ इतना, क्या नए देश की तस्वीर यही खींची थी, अपने आग भरे अल्फाज से ये सवाल उठाने वाले नसीम साकेती को साहित्य की दुनिया में सभी जानते हैं| वे केवल शायर या कवि नहीं हैं, एक सरोकार संपन्न लेखक के रूप में भी उन्होंने अपनी पहचान बनाई है| इधर हंस, वागर्थ और लमही में आयी उनकी कहानियां काफी चर्चा में रही हैं| एक साफ-सुथरा नजरिया और जनपक्षधरता नसीम की पूंजी है, जिसके बूते वे अपना किरदार खड़ा करते हैं| उनकी सादगी में उनका बड़ा होना देखा जा सकता है| अम्बेडकर नगर जिले के मिझौड़ा कसबे में जन्मे नसीम रेलवे में इंजीनिअर रहे| अब वे पूरी तरह लेखन में जुटे हैं| प्रारंभिक दौर में प्रेमचंद और अमृत लाल नागर की कहानियों तथा साहिर, कैफ़ी और दुष्यंत की कविताओं ने उन्हें बहुत प्रभावित किया| नसीम की कविताएं भी कहानियों का आनंद देती हैं| यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएँ--
१. पत्थरों का शहर
-------------------
पहले आप..पहले आप
जेहन में उभरते ही
बिजली की तरह कौंध जाता है
शहर का नाम
जो कभी जाना जाता था
तहजीब और तमद्दुन के लिए
नजाकत और नफासत के लिए
प्यार और मुहब्बत के लिए
अम्न और शांति के लिए
भाई चारे के लिए
इंसानियत के लिए
सबसे बड़ी बात इज्जत के लिए
लेकिन आज...?
जिस शहर में खड़ा हूँ
ये तो वो शहर नहीं है
पहले आप..पहले आप के बजाय
पहले मैं..पहले मैं
मैं...माफिया हूँ, नेता हूँ
धन-कुबेर हूँ, तिकड़मी अफसर हूँ
मेरे हुक्म के बगैर
एक पत्ता नहीं हिलता
मैं...जो चाहता हूँ, करता हूँ
है किसी में हिम्मत
मुझ पर डाल दे हाथ
किया तो था मेरे बेटे ने उस
लड़की का अपहरण, हत्या
क्या हुआ
घूम तो रहा है वह बेख़ौफ़, निश्चिन्त
इसी शहर में
आँखें फाड़-फाड़ कर देखता हूँ
कुछ धुंधला-धुंधला सा दिखता है
शहर बहुत बड़ा हो गया है
पर आदमी छोटा
बागों के शहर में उग आये हैं
कंक्रीट के जंगल
अख़बार बोझिल हैं
अपराध की खबरों से
इसीलिये दीनानाथ ने छोड़ दिया
अख़बार पढ़ना
पर इससे क्या सब कुछ बदल जायेगा..?
पहले जब कोई मां, कोई बहन
कोई चाची-ताई
मनचले लड़कों को
किसी लड़की पर बुरी निगाह
डालते देखती थी
डांटती, फटकारती थी---
कलमुंहे तेरी यह मजाल
और लडके सर नीचा करके
रफू चक्कर हो जाते थे
लेकिन अब तो
सगी मां, बहन, चाची, ताई के
मना करने पर
आँखें तरेरकर खड़े हो जाते हैं
धमकाते, कट्टा दिखाते
कई बार पूरी ढिठाई के साथ
खड़े हो जाते हैं
क्यों? क्योंकि अब पूरा शहर
पत्थरों का शहर हो गया है
२. मुल्क की बात करो
---------------------
मियां बीवी राजी
तुम क्यों दुबले हो रहे हो काजी..?
मचल रहे थे शब्द
दोनों पक्षों के जुबान की नोंक पर
अदालत के फैसले का सम्मान करेंगे
फैसला आ गया
मनहूस आशंकाएं काफूर हो गयीं
फिर तुम अपनी नाक क्यों
घुसेड़ते हो..मुसरचंदों..?
पहले की तरह
आग लगा कर जमालो दूर खड़ी
लेकिन सुनो
नयी नस्लों को अब वैसा तमाशा नहीं
दिखा पाओगे मदारिओं ...?
जनमानस करवट बदल चुका है
अब तुम्हारी दाल नहीं गलेगी
कल की तरह आज भी
तुम्हारी सोच से
सियासत की बू आती है
तुम्हीं तो थे
विवाद की आंच पर
स्वार्थ की रोटियां सेंकते हुए
खून-खराबा को दावत देते हुए
अनेक शहरों में बम-ब्लास्ट करते हुए
छीन लेते थे क्षण भर में जिंदगियां
लूट लेते थे मां-बहनों की अस्मतें
बेबस मजबूर आँखों के सामने....
साठ साल का तवील अरसा....
हजारों साल पीछे चली गयी
अयोध्या के चेहरे पर उभरने वाली रौनक
विकास का मुंह टेढ़ा हो गया
अफवाहों के हाथ लम्बे हो गये
कारोबार बौने हो गये
घर के चूल्हे ठन्डे पड़ गये
फाके पर फाके
अयोध्या रो पडी
लेकिन इसका अफ़सोस
तुम्हें नहीं है शायद
अयोध्या को तो है
अयोध्यावासियों के जख्मीं दिलों से
पूछ कर तो देखो
सरयू की पावन धारा का
करुण क्रंदन तो सुनो
कलेजा मुंह को आ जायेगा
सद्य स्नाता दुल्हन सी लगती थी अयोध्या
लेकिन आज..?
किसी विधवा की मांग सी लगती है
चेहरा पीला मुरझाये फूल सा हो गया है
शरीर सूख कर कांटा हो गया है
शर्म करो..चुल्लू भर पानी में डूब मरो
क्योंकि सरयू तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी
अभी भी वक्त है
गंगा-जमुनी तहजीब को निखारने का
कौमी एकता की डोर को मजबूत करने का
सदियों से अपनी सांझी शहादत की दास्ताँ
सुना रहा है जन्मस्थान रामकोट के पास
कुबेरटीला का ऐतिहासिक इमली का पेड़
जो साक्षी है
१८५७ के बागियों
रामदास, अच्छन खां, अमीर अली को
१८ मार्च १८५८ को एक साथ
फांसी पर चढ़ा दिया गया था
वो इमली का पेड़
जब देशभक्तों के लिए
रोशनी का मीनार बनने लगा
१९३५ में अंग्रेजों ने उसे भी
शहीद कर दिया
चश्मदीद गवाह है
मणिपर्वत पर
पैगम्बर शीश की मजार
स्वर्ग द्वार पर शाहजहानी मस्जिद
आज भी उसी अयोध्या में
रामगुलाम, गुलाम हुसेन
अगल-बगल मकानों में रहते हैं
उनका राम-भरत जैसा प्यार
भाई-चारे की ऐसी मिसाल
चिराग लेकर ढूँढने पर भी
नहीं मिलेगी
भगवान के लिए
खुदा के वास्ते
बंद करो
पत्थर फेंकना
प्यार के ठहरे हुए पानी में
बंद करो स्वार्थ की रोटियां सेंकना
सियासत के तवे पर
यहाँ की दरो-दीवार
हवा, फिजां
सरयू की धारा
की आवाजें सुनों
अमन के दीप जलाओ
नफ़रत के अँधेरे मिटाओ
दिल से दिल को मिलाओ
कौमी एकता के गीत गाओ
जय-पराजय की नहीं सौहार्द की बात करो
मंदिर-मस्जिद की
मिल्कियत के आईने में
मुल्क की बात करो
३. अंतिम अभिलाषा
-------------------
मुहब्बत के चिरागों को जला लूं तो चलूँ
नफ़रत के अंधेरों को मिटा लूं तो चलूँ
ऐ मौत मुझे थोड़ी सी मोहलत दे दे
वतन की खाक को आँखों में लगा लूं तो चलूँ
१. पत्थरों का शहर
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पहले आप..पहले आप
जेहन में उभरते ही
बिजली की तरह कौंध जाता है
शहर का नाम
जो कभी जाना जाता था
तहजीब और तमद्दुन के लिए
नजाकत और नफासत के लिए
प्यार और मुहब्बत के लिए
अम्न और शांति के लिए
भाई चारे के लिए
इंसानियत के लिए
सबसे बड़ी बात इज्जत के लिए
लेकिन आज...?
जिस शहर में खड़ा हूँ
ये तो वो शहर नहीं है
पहले आप..पहले आप के बजाय
पहले मैं..पहले मैं
मैं...माफिया हूँ, नेता हूँ
धन-कुबेर हूँ, तिकड़मी अफसर हूँ
मेरे हुक्म के बगैर
एक पत्ता नहीं हिलता
मैं...जो चाहता हूँ, करता हूँ
है किसी में हिम्मत
मुझ पर डाल दे हाथ
किया तो था मेरे बेटे ने उस
लड़की का अपहरण, हत्या
क्या हुआ
घूम तो रहा है वह बेख़ौफ़, निश्चिन्त
इसी शहर में
आँखें फाड़-फाड़ कर देखता हूँ
कुछ धुंधला-धुंधला सा दिखता है
शहर बहुत बड़ा हो गया है
पर आदमी छोटा
बागों के शहर में उग आये हैं
कंक्रीट के जंगल
अख़बार बोझिल हैं
अपराध की खबरों से
इसीलिये दीनानाथ ने छोड़ दिया
अख़बार पढ़ना
पर इससे क्या सब कुछ बदल जायेगा..?
पहले जब कोई मां, कोई बहन
कोई चाची-ताई
मनचले लड़कों को
किसी लड़की पर बुरी निगाह
डालते देखती थी
डांटती, फटकारती थी---
कलमुंहे तेरी यह मजाल
और लडके सर नीचा करके
रफू चक्कर हो जाते थे
लेकिन अब तो
सगी मां, बहन, चाची, ताई के
मना करने पर
आँखें तरेरकर खड़े हो जाते हैं
धमकाते, कट्टा दिखाते
कई बार पूरी ढिठाई के साथ
खड़े हो जाते हैं
क्यों? क्योंकि अब पूरा शहर
पत्थरों का शहर हो गया है
२. मुल्क की बात करो
---------------------
मियां बीवी राजी
तुम क्यों दुबले हो रहे हो काजी..?
मचल रहे थे शब्द
दोनों पक्षों के जुबान की नोंक पर
अदालत के फैसले का सम्मान करेंगे
फैसला आ गया
मनहूस आशंकाएं काफूर हो गयीं
फिर तुम अपनी नाक क्यों
घुसेड़ते हो..मुसरचंदों..?
पहले की तरह
आग लगा कर जमालो दूर खड़ी
लेकिन सुनो
नयी नस्लों को अब वैसा तमाशा नहीं
दिखा पाओगे मदारिओं ...?
जनमानस करवट बदल चुका है
अब तुम्हारी दाल नहीं गलेगी
कल की तरह आज भी
तुम्हारी सोच से
सियासत की बू आती है
तुम्हीं तो थे
विवाद की आंच पर
स्वार्थ की रोटियां सेंकते हुए
खून-खराबा को दावत देते हुए
अनेक शहरों में बम-ब्लास्ट करते हुए
छीन लेते थे क्षण भर में जिंदगियां
लूट लेते थे मां-बहनों की अस्मतें
बेबस मजबूर आँखों के सामने....
साठ साल का तवील अरसा....
हजारों साल पीछे चली गयी
अयोध्या के चेहरे पर उभरने वाली रौनक
विकास का मुंह टेढ़ा हो गया
अफवाहों के हाथ लम्बे हो गये
कारोबार बौने हो गये
घर के चूल्हे ठन्डे पड़ गये
फाके पर फाके
अयोध्या रो पडी
लेकिन इसका अफ़सोस
तुम्हें नहीं है शायद
अयोध्या को तो है
अयोध्यावासियों के जख्मीं दिलों से
पूछ कर तो देखो
सरयू की पावन धारा का
करुण क्रंदन तो सुनो
कलेजा मुंह को आ जायेगा
सद्य स्नाता दुल्हन सी लगती थी अयोध्या
लेकिन आज..?
किसी विधवा की मांग सी लगती है
चेहरा पीला मुरझाये फूल सा हो गया है
शरीर सूख कर कांटा हो गया है
शर्म करो..चुल्लू भर पानी में डूब मरो
क्योंकि सरयू तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी
अभी भी वक्त है
गंगा-जमुनी तहजीब को निखारने का
कौमी एकता की डोर को मजबूत करने का
सदियों से अपनी सांझी शहादत की दास्ताँ
सुना रहा है जन्मस्थान रामकोट के पास
कुबेरटीला का ऐतिहासिक इमली का पेड़
जो साक्षी है
१८५७ के बागियों
रामदास, अच्छन खां, अमीर अली को
१८ मार्च १८५८ को एक साथ
फांसी पर चढ़ा दिया गया था
वो इमली का पेड़
जब देशभक्तों के लिए
रोशनी का मीनार बनने लगा
१९३५ में अंग्रेजों ने उसे भी
शहीद कर दिया
चश्मदीद गवाह है
मणिपर्वत पर
पैगम्बर शीश की मजार
स्वर्ग द्वार पर शाहजहानी मस्जिद
आज भी उसी अयोध्या में
रामगुलाम, गुलाम हुसेन
अगल-बगल मकानों में रहते हैं
उनका राम-भरत जैसा प्यार
भाई-चारे की ऐसी मिसाल
चिराग लेकर ढूँढने पर भी
नहीं मिलेगी
भगवान के लिए
खुदा के वास्ते
बंद करो
पत्थर फेंकना
प्यार के ठहरे हुए पानी में
बंद करो स्वार्थ की रोटियां सेंकना
सियासत के तवे पर
यहाँ की दरो-दीवार
हवा, फिजां
सरयू की धारा
की आवाजें सुनों
अमन के दीप जलाओ
नफ़रत के अँधेरे मिटाओ
दिल से दिल को मिलाओ
कौमी एकता के गीत गाओ
जय-पराजय की नहीं सौहार्द की बात करो
मंदिर-मस्जिद की
मिल्कियत के आईने में
मुल्क की बात करो
३. अंतिम अभिलाषा
-------------------
मुहब्बत के चिरागों को जला लूं तो चलूँ
नफ़रत के अंधेरों को मिटा लूं तो चलूँ
ऐ मौत मुझे थोड़ी सी मोहलत दे दे
वतन की खाक को आँखों में लगा लूं तो चलूँ
संपर्क-१/७५६, आदिलनगर एन्क्लेव, लेन ५, कंचना विहारी मार्ग, कल्यानपुर पश्चिम लखनऊ
मोबाईल 09415458582
ati sundr bebak kthn bhut 2 sadhuvad
जवाब देंहटाएंsoochne per Majboor karne wali kavitayen..badhaiyan -aage bhi is block me parhne ki ummid ke sath
जवाब देंहटाएंNASEEM SAKETI KEE KAVITAAON KEE BHASHA AUR BHAVON ,DONO NE PRABHAAVIT KIYAA HAI .
जवाब देंहटाएंNASEEM SAKETI KEE KAVITAAON KEE BHASHA AUR BHAVON ,DONO NE PRABHAAVIT KIYAA HAI .
जवाब देंहटाएंक्या जज़्बा है। क़ुरबान जाऊँ इस क़लम पर। सचमुच बेहद अच्छी कविताएँ हैं। सुभाष जी, आभारी हूँ आपका, इतने अच्छे कवि से परिचित कराने के लिए।
जवाब देंहटाएंपत्थरों के शहर में इंसान पत्थर हो गया है
जवाब देंहटाएंभावना संवेदना के स्तर पर लचर हो गया है
मुल्क की भलाई क्यों सोचेगा वह भला क्यों
खाता काली कमाई का विदेशी घर हो गया है
नसीम साकेती की रचनाएँ नहीं, तल्ख हकीक़तें हैं जिनमें आग है, शोले हैं, दर्द है. बदलते हुए मानवीय मूल्यों का चित्रण जिस तरह कविता की शक्ल में ढाला है उन्होंने, हर किसी के बस की बात नहीं.
जवाब देंहटाएंअभी केवल इतना ही, बाद में कुछ और भी कहने की इच्छा है.
सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंनसीम साहब जी
जवाब देंहटाएंआज मैलानी को आपकी जरुरत है ! क्योकि आपके प्रयासों से मैलानी में निर्मित रेलवे मनोरंजन संस्थान में वर्षों से कोई सांस्कर्तिक कार्यक्रम नहीं हुआ है |
मुझे अपने बचपन के वो दिन याद है जब वर्ष में कई बार आपके अथक प्रयासों से सांस्कर्तिक कार्यक्रम आयोजित हुआ करते थे |
आपके बेटे के समान --
सुनील निगम
दैनिक जागरण
मैलानी खीरी
मो .- 9935985849
मुहब्बत के चिरागों को जला लूं तो चलूँ
जवाब देंहटाएंनफ़रत के अंधेरों को मिटा लूं तो चलूँ
ऐ मौत मुझे थोड़ी सी मोहलत दे दे
वतन की खाक को आँखों में लगा लूं तो चलूँ
yah hai sachchaa prem- manavata ke prati evam rashtra ke prati. aur jeevan mein ujala lane kee ek sundar koshish bhee. badhai aap donon ko. sadar- abnish chauhan