जितेन्द्र 'जौहर' का जन्म 20 जुलाई,1971 को कन्नौज में हुआ| उन्होंने अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य में परास्नातक पूरा किया| सम्प्रति वे ए. बी. आई. कॉलेज, रेणुसागर (सोनभद्र) में अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं| वे गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तछंद, हाइकू, मुक्तक, हास्य-व्यंग्य, लघुकथा समेत साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन कर रहे हैं| वे प्रेरणा के सम्पादकीय सलाहकार और प्रयास के विशेष सहयोगी के तौर पर भी काम कर रहे हैं| तमाम पत्र-पत्रिकाओं, वेब मैग्ज़ीन्स एवं न्यूज़ पोर्टल्स पर उनकी रचनात्मक उपस्थिति महसूस की जा सकती है। साहित्य श्री, नागार्जुन सम्मान, साहित्य भारती, महादेवी वर्मा सम्मान से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है| जौहर की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं......
अम्मा ने आटे के नौ-दस,
लड्डू बाँध दिये।
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
'ठोस' प्रेम का 'तरल' रूप,
आँखों ने छ्लकाया।
माँ की ममता देख कलेजा,
हाथों में आया।
'दही-मछरिया' कहकर मेरे,
गाल-हाथ चूमे।
समझाया कि 'सिर पे गमछा
बाँध लियो लू में !'
बार-बार पल्लू से गीली,
आँखें पोंछ रहीं ;
दबे होंठ से टपक रही,
बेबस मंजूरी है।
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
पिता मुझे बस में बैठाने,
अड्डे तक आये।
गाड़ी में थी देर, जलेबी-
गरम-गरम लाये।
छोटू जाकर हैण्डपम्प से,
पानी भर लाया।
मुझे पिलाकर पाँव छुए,
कह 'चलता हूँ... भाया !'
तन की तन्दूरी ज्वाला,
दर-दर भटकाती है ;
गाँव छोड़के शहर जा रहा-
हूँ, मजबूरी है!
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
ज्यों ही गाड़ी छूटी, हाय!
पिता बहुत रोये।
झुर्री वाले गाल, आँख के-
पानी से धोये !
रुँधे गले से बोले, 'लल्ला
चिट्ठी लिख देना...
रस्ते में कोई कुछ खाने-
को दे, मत लेना।
ज़हरख़ुरानी का धंधा,
चलता है शहरों में ;
सोच-समझकर चलना, बेटा !
बहुत ज़रूरी है !'
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
शहर पहुँचकर मैंने दर-दर
की ठोकर खायी।
नदी किनारे बसे गाँव की,
याद बहुत आयी।
दरवाज़े का नीम, सामने-
शंकर की मठिया।
पीपल वाला पेड़ और वह,
कल्लू की बगिया।
मुखिया की बातें कानों में,
रह-रहकर गूँजी ;
'घर का चना-चबेना, बेटा !
हलवा-पूरी है!'
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
२.
अम्मा की दुर्दशा
रोज़ी-रोटी मिली शहर में,
कुनबा ले आया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
ये कह-कहकर अम्मा पे,
गुर्राय घड़ी-घड़ी।
'कौन बनाके दे बुढ़िया को,
चाय घड़ी-घड़ी ?'
बेटे के घर बोझ बनी,
माँ की बूढ़ी काया !
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
पत्नी की जंघा सहलाने,
वाले हाथों ने ।
अम्मा के पग नहीं दबाये,
दुखती रातों में !
रूप-जाल में कामुकता ने,
इतना उलझाया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
माँसहीन हाड़ों पे सर्दी,
ने मारे चाँटे।
अगहन-पूस-माघ अम्मा ने,
कथरी में काटे।
बहू, बहू है, बेटे को भी,
तरस नहीं आया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
खटिया पे लेटीं अम्मा,
सिरहाने पीर खड़ी।
बहू मज़े से डबल-बेड पर,
सोये पड़ी-पड़ी।
क्या मतलब, अम्मा ने खाना-
खाया, न खाया !
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
रात-रातभर खाँस-खाँसकर,
साँस उखड़ जाती।
नींद न आती, करवट बदलें,
पकड़-पकड़ छाती।
जीवन पर मँडराती, पतझर-
की काली छाया !
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
३.
बँटवारा
बेटों ने आँगन में इक
दीवार खड़ी कर दी ;
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही !
बड़कू बोला, "अम्मा के
सारेऽऽऽ गहने लेंगे !"
मझला पूछे, "बगिया वाला
खेत किसे देंगे ?"
ये सवाल सुन, मइया का दिल
चकनाचूर हुआ ;
बूढ़े पाँवों के नीचे की
धरती खिसक रही।
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही !
बँटवारे ने, देखो! कितनी
राह गही सँकरी।
बड़कू ने गइया खोली, तो
मझले ने बकरी !
रस्सी थामे निकल पड़े, ले
नये ठिकाने पर ;
मुड़-मुड़ खूँटा ताके बेबस
बछिया बिदक रही !
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही!
छोटू तो छोटा ठहरा,
कुछ बोल नहीं पाया।
उसके हिस्से आया,
अम्मा- दद्दा का साया।
"गइया और मड़इया तो
दे दो बड़के भइया !"
इतना भी कहने में उसको
लगती झिझक रही।
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही!
४.
हमारा दौर : कुछ चित्र
काल-वक्ष पर टाँक रहे हो,
कायरता के मंज़र जैसे !
बाहर से हलचल-विहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे !
क्रोध-ज्वार मुट्ठी में भींचे,
साहस थर-थर काँप रहा है।
ध्वनि-विहीन विप्लव का स्वर,
अम्बर की दूरी नाप रहा है।
श्वेत-श्याममय लाल कोष्ठकों-
से विषाद-सा टपक रहा है।
भित्ति-वक्ष से सटा सिसकता,
टँगा कील पर फड़क रहा है।
मरी हुई तारीख़ों वाला,
जीवन एक कलण्डर जैसे !
बाहर से हलचलविहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे !
चाटुकारिता के कौशल ने,
नाप लिये हैं शिखर समूचे।
जीवनभर तुम रहे कर्मरत्
एक इंच ऊपर न पहुँचे।
गतिमय स्थिरता के साधक !
लहर-वलय में ख़ूब विचरते।
सीमाओं में बँधे निरंतर,
पर असीम का अभिनय करते।
ठहरे हुए जलाशय-से हो,
सपने किन्तु समुन्दर जैसे!
बाहर से हलचल-विहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे!
धरा-धाम की प्यास विकल है,
मेघ सिंधु में बरस रहे हैं।
वृक्ष खड़े निर्पात, सरोवर-
बूँद-बूँद को तरस रहे हैं।
सीख लिया है आँख मूँदना,
कर्ण-कुहर अब नहीं खोलते।
कुछ भी होता रहे कहीं पर,
अधर तुम्हारे नहीं डोलते।
विकृत अनुयायी-स्वरूप में,
गाँधी जी के बंदर जैसे।
बाहर से हलचल-विहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे !
५.
चुनावी मौसम
फिर चुनाव का मौसम आया,
इश्तिहार आये!
आकर्षक-मनभावन वादे,
बेशुमार आये!
गली-गली, चौखट, चौराहे
पर लटके वादे।
एकनिष्ठ हो सभी निशाना
वोटों पर साधे।
हंस-वेश में बग़ुले काफी
होशियार आये!
फिर चुनाव का मौसम आया,
इश्तिहार आये।
अस्पताल, सड़कें, तकनीकी
विद्यालय होंगे।
और झोपड़ी में अँगरेज़ी
शौचालय होंगे!
खादी के मन में विकास के
सद्विचार आये।
फिर चुनाव का मौसम आया
इश्तिहार आये।
संपर्क .....
IR- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र (उ प्र) 231218.
मो नं. +919450320472
ईमेल : jjauharpoet@gmail.com
१.
लम्बी दूरी है अम्मा ने आटे के नौ-दस,
लड्डू बाँध दिये।
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
'ठोस' प्रेम का 'तरल' रूप,
आँखों ने छ्लकाया।
माँ की ममता देख कलेजा,
हाथों में आया।
'दही-मछरिया' कहकर मेरे,
गाल-हाथ चूमे।
समझाया कि 'सिर पे गमछा
बाँध लियो लू में !'
बार-बार पल्लू से गीली,
आँखें पोंछ रहीं ;
दबे होंठ से टपक रही,
बेबस मंजूरी है।
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
पिता मुझे बस में बैठाने,
अड्डे तक आये।
गाड़ी में थी देर, जलेबी-
गरम-गरम लाये।
छोटू जाकर हैण्डपम्प से,
पानी भर लाया।
मुझे पिलाकर पाँव छुए,
कह 'चलता हूँ... भाया !'
तन की तन्दूरी ज्वाला,
दर-दर भटकाती है ;
गाँव छोड़के शहर जा रहा-
हूँ, मजबूरी है!
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
ज्यों ही गाड़ी छूटी, हाय!
पिता बहुत रोये।
झुर्री वाले गाल, आँख के-
पानी से धोये !
रुँधे गले से बोले, 'लल्ला
चिट्ठी लिख देना...
रस्ते में कोई कुछ खाने-
को दे, मत लेना।
ज़हरख़ुरानी का धंधा,
चलता है शहरों में ;
सोच-समझकर चलना, बेटा !
बहुत ज़रूरी है !'
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
शहर पहुँचकर मैंने दर-दर
की ठोकर खायी।
नदी किनारे बसे गाँव की,
याद बहुत आयी।
दरवाज़े का नीम, सामने-
शंकर की मठिया।
पीपल वाला पेड़ और वह,
कल्लू की बगिया।
मुखिया की बातें कानों में,
रह-रहकर गूँजी ;
'घर का चना-चबेना, बेटा !
हलवा-पूरी है!'
बोलीं, 'रस्ते में खा लेना,
लम्बी दूरी है !'
२.
अम्मा की दुर्दशा
रोज़ी-रोटी मिली शहर में,
कुनबा ले आया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
ये कह-कहकर अम्मा पे,
गुर्राय घड़ी-घड़ी।
'कौन बनाके दे बुढ़िया को,
चाय घड़ी-घड़ी ?'
बेटे के घर बोझ बनी,
माँ की बूढ़ी काया !
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
पत्नी की जंघा सहलाने,
वाले हाथों ने ।
अम्मा के पग नहीं दबाये,
दुखती रातों में !
रूप-जाल में कामुकता ने,
इतना उलझाया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
माँसहीन हाड़ों पे सर्दी,
ने मारे चाँटे।
अगहन-पूस-माघ अम्मा ने,
कथरी में काटे।
बहू, बहू है, बेटे को भी,
तरस नहीं आया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
खटिया पे लेटीं अम्मा,
सिरहाने पीर खड़ी।
बहू मज़े से डबल-बेड पर,
सोये पड़ी-पड़ी।
क्या मतलब, अम्मा ने खाना-
खाया, न खाया !
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
रात-रातभर खाँस-खाँसकर,
साँस उखड़ जाती।
नींद न आती, करवट बदलें,
पकड़-पकड़ छाती।
जीवन पर मँडराती, पतझर-
की काली छाया !
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।
३.
बँटवारा
बेटों ने आँगन में इक
दीवार खड़ी कर दी ;
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही !
बड़कू बोला, "अम्मा के
सारेऽऽऽ गहने लेंगे !"
मझला पूछे, "बगिया वाला
खेत किसे देंगे ?"
ये सवाल सुन, मइया का दिल
चकनाचूर हुआ ;
बूढ़े पाँवों के नीचे की
धरती खिसक रही।
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही !
बँटवारे ने, देखो! कितनी
राह गही सँकरी।
बड़कू ने गइया खोली, तो
मझले ने बकरी !
रस्सी थामे निकल पड़े, ले
नये ठिकाने पर ;
मुड़-मुड़ खूँटा ताके बेबस
बछिया बिदक रही !
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही!
छोटू तो छोटा ठहरा,
कुछ बोल नहीं पाया।
उसके हिस्से आया,
अम्मा- दद्दा का साया।
"गइया और मड़इया तो
दे दो बड़के भइया !"
इतना भी कहने में उसको
लगती झिझक रही।
पिता बहुत हैरान,
उधर महतारी सिसक रही!
४.
हमारा दौर : कुछ चित्र
काल-वक्ष पर टाँक रहे हो,
कायरता के मंज़र जैसे !
बाहर से हलचल-विहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे !
क्रोध-ज्वार मुट्ठी में भींचे,
साहस थर-थर काँप रहा है।
ध्वनि-विहीन विप्लव का स्वर,
अम्बर की दूरी नाप रहा है।
श्वेत-श्याममय लाल कोष्ठकों-
से विषाद-सा टपक रहा है।
भित्ति-वक्ष से सटा सिसकता,
टँगा कील पर फड़क रहा है।
मरी हुई तारीख़ों वाला,
जीवन एक कलण्डर जैसे !
बाहर से हलचलविहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे !
चाटुकारिता के कौशल ने,
नाप लिये हैं शिखर समूचे।
जीवनभर तुम रहे कर्मरत्
एक इंच ऊपर न पहुँचे।
गतिमय स्थिरता के साधक !
लहर-वलय में ख़ूब विचरते।
सीमाओं में बँधे निरंतर,
पर असीम का अभिनय करते।
ठहरे हुए जलाशय-से हो,
सपने किन्तु समुन्दर जैसे!
बाहर से हलचल-विहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे!
धरा-धाम की प्यास विकल है,
मेघ सिंधु में बरस रहे हैं।
वृक्ष खड़े निर्पात, सरोवर-
बूँद-बूँद को तरस रहे हैं।
सीख लिया है आँख मूँदना,
कर्ण-कुहर अब नहीं खोलते।
कुछ भी होता रहे कहीं पर,
अधर तुम्हारे नहीं डोलते।
विकृत अनुयायी-स्वरूप में,
गाँधी जी के बंदर जैसे।
बाहर से हलचल-विहीन पर,
भीतर एक बवंडर जैसे !
५.
चुनावी मौसम
फिर चुनाव का मौसम आया,
इश्तिहार आये!
आकर्षक-मनभावन वादे,
बेशुमार आये!
गली-गली, चौखट, चौराहे
पर लटके वादे।
एकनिष्ठ हो सभी निशाना
वोटों पर साधे।
हंस-वेश में बग़ुले काफी
होशियार आये!
फिर चुनाव का मौसम आया,
इश्तिहार आये।
अस्पताल, सड़कें, तकनीकी
विद्यालय होंगे।
और झोपड़ी में अँगरेज़ी
शौचालय होंगे!
खादी के मन में विकास के
सद्विचार आये।
फिर चुनाव का मौसम आया
इश्तिहार आये।
संपर्क .....
IR- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र (उ प्र) 231218.
मो नं. +919450320472
ईमेल : jjauharpoet@gmail.com
साखी से पहला परिचय राजेश उत्साही जी से मिला था. साखी पर टिप्पणी करते समय ऐसा ही लगता है जैसे हंस को पत्र लिखते समय. जीतेन्द्र जौहर जी कविताओं की प्रतीक्षा कुछ दिनों से थी. उनकी पांचो कवितायेँ पढ़ ली हैं. कुछ कवितायेँ कई बार पढ़ी हैं. लम्बी दूरी है, अम्मा की दुर्दशा और बंटवारा एक मिजाज़ और विषय की कवितायेँ हैं और हमारा दौर और चुनावी मौसम अलग चित्र प्रस्तुत करते हैं, इनदिनों अच्छी कविता का अर्थ गूढ़ और उलझी हुई, जटिल कविता से होता है. जो माथापच्ची पैदा करे. इस रुझान से अलग ये पांचो कवितायेँ सरल हैं, सहज हैं. स्पष्ट हैं. बड़ी बातें नहीं, आम बात कह रही है कविता.
जवाब देंहटाएंहिंदी कविता आज कई खेमो में खड़ी है. कुछ कविता इंडिया में और इंडिया के लिए लिखी जा रही हैं. कुछ कवितायेँ भारत के लिए लिखी जा रही हैं और भारत के लिए लिखी जा रही है. अलग बात है कि ऐसी कविताओं को पन्ने कम मिल रहे हैं. इस वर्चुअल स्पेस में भारत की कविता, ठेठ छोटे शहर और गाँव से लिखी गई और गाँव के लिए लिखी गई कवितायेँ है. ये पांचो कवितायें उसी भारत की हैं. माएं आज भी लम्बी दूरी के लिए, ठेठ गरीबी में भी लड्डू बाँध देती हैं भले बेसन और चीनी उधार की हो. कविता में गाँव की महक और संवेदना यत्र तत्र सर्वत्र है. पहली कविता मुझे व्यक्तिगत तौर पर अधिक महत्वपूर्ण लग रही है क्योंकि अभी आकडे आये हैं कि देश में शहरीकरण बढ़ा है. गाँव की आबादी सीमित है और अब गाँव में केवल ६९ फिसिदी लोग रह गए हैं. जबकि आज़ादी के बाद से ही शहरों के विकेंद्रीकरण की बात चल रही है लेकिन बहुत लाभ नहीं मिला है गाँव को और पलायन जारी है. यह लम्बी दूरी महज भौतिक दूरी नहीं है बल्कि दूरी सामाजिक, संस्कृति और अवसर की उपलब्धता की है.
बाकी कविताओं पर बाद में.
कविता का यही चित्र सच्चा है। सच्ची बात कहने का अपना आनंद है। अहसास है। इन कविताओं में महसूसन है जो सबकी है। सब जानते हैं। पर करते वही हैं जो कविता में कहा गया है। इसे बदलना संभव नहीं है। कविता चाहे लंबी हैं पर एक बार पढ़ने में ही पूरा आनंद देती हैं। बार बार का मन करता है। सच सच ही रहता है। सच सच ही सहता है। सच सच ही कहता है। यही जौहर है कवि की कविताओं का। कवि ने कविताओं का सृजन कर नामानुरूप सुख दिया है।
जवाब देंहटाएंसब चित्र खिंचते चले गये नजरों के सामने...बहुत उम्दा रचनायें.
जवाब देंहटाएंआम जन की पीड़ा को रेखांकित करती इन सुन्दर रचनाओं हेतु बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंbhai subhas ji aabhr ye rchnaye pdhvane ke liye
जवाब देंहटाएंpdh kr dil bhr aaya aankhen nm ho gai bhai jitendr ko kotish: subhkamnayen
जौहर जी की रचनाएँ पढ़ कर मन व्यथित हो गया...कडवे सच को शब्द दिए उन्होंने अपनी रचनाओं में...
जवाब देंहटाएंनीरज
Dhanyavaad...Huzoor...ki aapne in geeton ko apna pyaar diyaa. Main phir aaunga. Abhi jahaan hoon, vahaan se Hindi mein Type karne ki suvidha nahi hai.
जवाब देंहटाएंWith Regards to all.
-Jitendra `Jauhar'
जीतेन्द्र जौहर की रचनाएँ पढ़ने के बाद गहरी संवेदनाओं को अपने अंतर्मन में उतारकर बार-बार मानव जीवन की व्यथा को महसूस करते हुए नए सृजन को तलाशने की इच्छा बलबती है , सचमुच यह जीतेन्द्र की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है ...बहुत सुन्दर,बहुत सारगर्भित और बहुत ही उम्दा रचनाएँ !
जवाब देंहटाएंआद. सुभाष जी ,
जवाब देंहटाएंसाखी पर जो विवाद हुआ आना लगभग छूट गया था
हम अगर संवेदनशील नहीं होते तो कवि न होते
कुछ ऐसी बातें चाह कर भी दिलों से दर-किनार नहीं होतीं
आज जितेन्द्र जी के आग्रह को ठुकरा न सकी
यूँ भी वे मेरे अज़ीज़ हैं आग्रह तो मानना ही था ....
जितेन्द्र जी के ये गीत तो उफ्फ्फ ...
सीधे दिल में उतरते हैं ....
पारिवारिक रिश्तों की मार्मिकता को कितनी गहराई से उतारा है उनकी कलम ने ....
ये गीत महज़ गीत नहीं हैं पारिवारिक रिश्तों में हो रहे विघटन को भी दर्शा रहे हैं
और हमें भविष्य के लिए सचेत भी कर रहे हैं ....
सीधी सरल भाषा में गाँव का परिवेश बाँध कर रख दिया है उन्होंने...
और शब्दों में भी गाँव की भीनी - भीनी , महकी - महकी सी मिठास है
जो गीत को बार बार पढने का आग्रह करती है ...
हाँ नीचे के राजनितिक गीतों से थोड़ा शक्कर और मिर्च सा मिश्रण अनुभव हो रहा है
उन्हें फिर कभी दे देते तो अच्छा था ....
ऊपर के तीनों गीतों के लिए जितेन्द्र जी को मेरा नमन ....
“ज्यों ही गाड़ी छूटी, हाय!
जवाब देंहटाएंपिता बहुत रोये।
झुर्री वाले गाल, आँख के-
पानी से धोये !
रुँधे गले से बोले, 'लल्ला
चिट्ठी लिख देना...
रस्ते में कोई कुछ खाने-
को दे, मत लेना।”
उपर्युक्त गीत की विशेष शैली मानों स्वयं ही गुनगुना कर कह रही है कि इतने सुन्दर गीतों के रचयिता जौहर साहेब ही हो सकते है. इनके गीतों में मिठास, निश्छल प्रेम, करुणा, सम्मान तथा सुन्दर शब्दों का धारा प्रवाह देखते ही बनता है. इस गीत के माध्यम से माँ बाप की अपने बेटे के प्रति ममता अत्यन्त प्रभावी ढंग से मुखरित हुई है.
“बहू, बहू है, बेटे को भी,
तरस नहीं आया।
बड़ी बहू को रास न आया,
अम्मा का साया।“ इस गीत के माध्यम से आपने अम्मा की दुर्दशा का जो सजीव चित्रण किया है वह आज घर घर की कहानी में दृष्टिगोचर होता जान पड़ता है. ‘बंटवारा’ में आपने एक और कड़वे सच को अनूठे गीत के माध्यम से प्रस्तुत किया है, जो अत्यंत प्रशंसनीय है. हमारे दैनिक जीवन में जिस तीव्रता से सामाजिक मूल्यों में गिरावट आई है, उसकी झांकी इन गीतों में स्पष्ट दिखाई देती है. “जमीन-जायदाद का बंटवारा सुगमता से हो जाता है परन्तु बूढ़े माँ बाप किसी के भी हिस्से में नहीं आते” यह कैसी विडंबना है?
“चाटुकारिता के कौशल ने,
नाप लिये हैं शिखर समूचे।
जीवनभर तुम रहे कर्मरत्
एक इंच ऊपर न पहुँचे।” के माध्यम से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार पर त्वरित किन्तु सधी हुई टिप्पणी की गई है.
चुनावी मौसम भी निकट आ रहा है, हम तो यही कह सकते हैं कि हमारी जनता गीतकार की इन पंक्तियों पर विशेष रूप से ध्यान दे-
“हंस-वेश में बग़ुले काफी
होशियार आये!
फिर चुनाव का मौसम आया,
इश्तिहार आये।” अंत में मैं यही कहूँगा कि गीतकार ने जिस उद्देश्य से इन गीतों की रचना की है, वह सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय होने के साथ साथ मनोरंजक एवं मनमोहक भी है. इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई व साधुवाद. – अश्विनी रॉय ‘प्रखर’
जितेन्द्र जौहर की कविताओं में मानवीय संवेदना के साथ ही पारिवारिक आत्मीयता है। बदलते परिवेश में जबकि आदमी आत्मकेन्द्रित हो गया है, इस तरह की अनुभूतिजन्य रचनाएं कविता के जीवंत होने का प्रमाण हैं
जवाब देंहटाएंएक से एक रचनाएं। पढ़कर काफ़ी विचार मंथन हुआ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत गीत हैं। जितेन्द्र जी की रचनाएँ पढ़ने का अपना अलग ही आनंद है। इन्हें पढ़वाने के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएं'लम्बी दूरी' और' अम्मा की दुर्दशा' कविताएँ दिल से निकलती हैं और दिल पर चोट करती हैं । सबसे बड़ा दुख है कविता के प्रति सामान्य पाठको की अरुचि और उसका कारण है पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाई जानेवाली रूखी और कोरी तुकबन्दी वाली कविताएँ; जो रुचि के अंकुर को पहले ही कुचल देती हैं। । कारण है बड़े लोगों की घटिया कविताओं को शामिल कर लेना । जौहर जी की ये कविताएँ अहसास कराती हैं कि कविताएँ ऐसी होती हैं ।
जवाब देंहटाएंमैंने कविता बांचना इसलिए शुरू किया क्योंकि जितेन्द्र जौहर जी ने लिंक भेजा था परन्तु जैसे ही गीत बांचना शुरू किया ....गीत और गीत और गीत और गीत की रौ में मैं यों बहता गया कि जितेन्द्र जी बहुत पीछे छूट गये और उनके गीत बहुत आगे निकल गये
जवाब देंहटाएंइस अनुपम काव्य-यात्रा को मैं लम्बे समय तक अपने भीतर महसूसता रहूँगा
धन्यवाद...बहुत बहुत धन्यवाद इन्हें बांचने का अवसर देने के लिए ..
हार्दिक बधाई जितेन्द्र जी !
Kavivar jitendra mere manpasand kavi hain.
जवाब देंहटाएंunkee sabhee kavitaayen main bade manoyog
se padh gayaa hoon . Utkrisht bhavabhivyakti
ne man ko chhoo liya hai .
इन सुन्दर रचनाओं हेतु बधाई
जवाब देंहटाएंजौहर जी, आपकी कविताओं पर कमेंट करने के लिए तो पूरा दिन चाहिए। इन्हें पढ़वाने के लिए आपका आभारी हूँ। अभी तो इन पंक्तियों में ही उलझ कर रह गया हूँ...
जवाब देंहटाएंपत्नी की जंघा सहलाने,
वाले हाथों ने ।
अम्मा के पग नहीं दबाये,
दुखती रातों में !
आपकी कविताएँ पढ़कर सहसा प्रेमचंद की कहानियाँ याद हो आईं।
जीवन में संयुक्त परिवार की कठोर वास्तविकताओं को रेखांकित करती इन सुन्दर कविताओं के वाचन का अवसर उपलब्ध करवाने हेतु आपको साधुवाद.
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र जी की कवितायें अंतर्मन की संवेदना को झकझोर गयीं !
जवाब देंहटाएंसामाजिक विद्रूपताओं को रेखांकित करती ये रचनाएँ सोचने को विवश करती हैं !
आभार !
पहली बार विषय से हटकर एक विज्ञापन
जवाब देंहटाएंमेरी आपबीती क्या यहीं पर नहीं रूक सकती कि और किसी के साथ कभी ऐसा न हो। इसके लिए लिंक में दी गई पोस्ट को अपने ब्लॉग/वेबसाइट/पत्र एवं पत्रिका में प्रकाशित कर मुझे हौसला प्रदान कीजिए
इन फर्जी डॉक्टरों से समाज को मुक्ति कैसे मिलेगी
सुंदर शब्द चित्र ....
जवाब देंहटाएंआज ब्लॉग लेखन में या अन्यत्र भी कविता लिखना इतना सहज और सामान्य समझा जाने लगा है कि हर व्यक्ति कविताई करता दिखाई देता है. उन्हें ऐसी कविता लिखते समय तनिक भी भान नहीं होता कि मूर्ख उन जगहों पर धडल्ले से प्रवेश कर जाते हैं जहां पाँव धरते हुए देवदूत भी भयभीत होते हैं. यही कारण रहा है कि मैं स्वयं कविता लिखने से दूर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंजीतेन्द्र जी की कवितायेँ जब-जब पढ़ी हैं, तब-तब यह प्रतीत हुआ है कि इनकी कविताओं में इनका अनुभव (अल्पवय होने के बावजूद भी) और ज्ञान दोनों परिलक्षित होता है. एक और विशेषता यह दिखाई देती है कि भाषा के विद्यार्थी होने के कारण अंगरेजी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं पर समान प्रभाव दिखाई देता है. ऐसे में शब्दों का चयन, भावों का सम्प्रेषण, विषय का चयन, और शब्दों की मितव्ययिता देखी जा सकती है.
आज के “साखी” के अंक में इनका चयन और पाँच कविताओं का संकलन स्वागत योग्य है. जब मैंने पहले कविता से पढाना प्रारम्भ किया तो लगा कि अपने ही गाँव में बैठा हूँ, आस पड़ोस की कहानी सुन देख रहा हूँ, अपनी माता को मुझे विदा करते हुए और अंचरा के कोर से आँखें पोंछते देख रहा हूँ. गाँव से शहर की ओर पलायन करते लोगों के साथ परिवार का मनोविज्ञान का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है.
(पिछली टिप्पणी से आगे)
जवाब देंहटाएंबाद की दोनों कविताओं में अम्मा की व्यथा और बंटवारे का दुःख मन को झकझोर गया. किन्तु साथ ही लगा कि तीनों कविताओं की पृष्ठभूमि और परिवेश एक से हैं और व्यथा भी अल्पाधिक हर ग्रामीण परिदृश्य की कथा, कहानी, कविताओं, फिल्मों में होता है. जौहर जी ने कई विषयों पर लिखा है और इनकी रचनाओं में इतनी विविधता है कि उनकी पाँच रचनाएँ पाँच रंगों की रंगोली प्रस्तुत कर सकती हैं.
मेरे विचारों को जौहर जी ने थामने को कहा और सामने दिखी हमारे दौर की कुछ तस्वीरें. मुझे लगा कि चलो मेरे विचारों को सहमति मिली. हमारे नपुंसक दौर के वर्णन में जिस ओज का परिचय जौहर जी ने दिया है वह उनके ही नहीं इस दौर की हर संवेदनशील जनता की सोच है. इस कविता में जिन शब्दों का चयन किया गया है वे शब्द उस आक्रोश को व्यक्त करने में सफल रहे हैं. और इतने उचित हैं कि उनके स्थानापन्न शब्दों की कल्पना भी उस आक्रोश को कम करती सी लगती है.
अंतिम रचना एक व्यंग्य रचना है इसलिए उसे हलके फुल्के अंदाज़ की ही रचना कहना उचित होगा. कुल मिलाकर जीतेन्द्र जौहर साहब का रचना संसार मुग्ध करता है.
(आदरणीय सुभाष राय जी से क्षमा प्रार्थी हूँ कि कुछ व्यक्तिगत कारणों से विलम्ब से उपस्थित हुआ. किन्तु अब शिकायत का अवसर प्रदान नहीं करूँगा)
Johar ji ne aisa drishy khainxh diya ki dil se utar nahi raha... Bahut hi maarmik.. Prabhavi rachnaayen hain...
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र जौहर उन रचनाकारों में हैं, जो दिल से लिखते हैं और जो लोग दिल से लिखते हैं, वे सीधे पाठकों के दिल में उतर जाते हैं। मैं उनकी रचनाएं पढता रहा हूं। उनकी एक कविता मैंने 'हमराही' पर भी प्रकाशित की थी, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया था।
जवाब देंहटाएं------
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
मुग्ध होकर पढ़ती चली गयी...
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव, सुंदर भाषा,क्या कहूँ... सभी रचनाएं मनोहारी...
आपको बधाई जितेन्द्र जौहर जी..
और आभार...
प्रस्तुत कविताओं पर यहां जो टिप्पणियां आई हैं। उन में जी भर तारीफ हुई है। संभवत: हैं भी वे इस लायक। लेकिन कई बार कुछ बातें और कुछ ऐसे पहलू भी होते हैं जो हमें प्रत्यक्ष नजर नहीं आते। इन कविताओं में भी ऐसा कुछ है। यह भी बहुत संभव है कि मेरे पूर्ववर्ती पाठकों ने उन्हें देखा भी हो, पर साथ ही नजरअंदाज कर दिया हो। मैं अभिव्यक्ति के इस खतरे को जानते हुए भी अपनी बात रख रहा हूं। मेरी इस टिप्पणी को सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में ही लिया जाए।
जवाब देंहटाएं*
सारी ही कविताएं जो गीत की तर्ज पर लिखी गई हैं। इन्हें निश्चित तौर पर व्यापक जनसमूह के सामने मंच से पढ़ा जाएगा तो वन्स मोर वन्स मोर की ध्वनि सुनाई देगी। इस कसौटी पर वे खरी उतरती हैं। लेकिन यहीं इनमें एक गंभीर बात छिपी है। पहली तीन कविताएं आंसू बहाऊ फिल्मों की स्क्रिप्ट लगती हैं।
*
पहली कविता हिन्दुस्तान के किसी ऐसे गांव का वर्णन लगता है जो शहर को लेकर अतिपूर्वाग्रही है। ऐसे गांव भी शायद फिल्मों में ही नजर आते हैं।
दूसरी कविता अम्मा की दुर्दशा जबरन संवदेना से भर देती है। लेकिन जरा रुककर आप इसे पढ़ें। यह घोर स्त्री विरोधी कविता है। स्त्री को स्त्री के खिलाफ खड़ी करती कविता। वही बहू और सास के टाइप्ड स्टीरियो। जीवन का सच यही भर नहीं है। याकि इतना सफेद और काला नहीं है कि आप किसी भी एक पक्ष में खड़े हो जाएं।
तीसरी कविता बंटवारा पढ़ते हुए फिर एक बार लिजलिजी संवदेना उभर आती है। चौथी कविता में शब्दों से चमत्कार पैदा करने की कोशिश है जिसमें कवि सफल भी हुआ है। पर बात जैसे कुछ बनती नहीं है। अंतिम कविता चुनावी मौसम भी चुनाव के नारों की तरह ही लगती है।
*
इन कविताओं में मूल स्वर निराशा ही पकड़ में आता है। पांच कविताओं में से एक भी ऐसी नहीं है जो जीवन के प्रति किसी तरह की आशा जगाती हो। कम से कम कवि अपनी इन कविताओं में तो कोई नई जमीन नहीं खोज पा रहा है।
सभी रचनाये संवेदनशील ... ज़मीन से जुड़े सत्य को लक्षित कर के लिखी गयी हैं .... जितेंदे जी की रचनाएं कहीं न कहीं उस यथार्थ से परिचय करवा रही हैं जो भुगता हुवा है .... साखी में प्रकाशित रचनाएं और उनका स्तर बहुत उत्तम है ... बधाई है साखी के इस प्रयास को ...
जवाब देंहटाएंसरल, सहज लेकिन सारगर्भित व मानवीय संवेदनाओं से लबालब ये कवितायेँ सीधे दिल को छूती हैं और कुछ सोचने - समझने को विवश करती हैं. साधुवाद .
जवाब देंहटाएंMANOJ BHAWUK
www.manojbhawuk.com
तन की तन्दूरी ज्वाला,
जवाब देंहटाएंदर-दर भटकाती है ;
गाँव छोड़के शहर जा रहा-
हूँ, मजबूरी है!
जिन्दगी की विवशता का एक सच्चा चित्र .
साखी पर पहली बार आया हूँ. और प्रथम परिचय हुआ है जीतेंद्र जी की स्पर्श करती रचनाओं से. प्रथम तीन रचनाएँ भोगे हुए यथार्थ का शब्द चित्र प्रस्तुत करती हैं.
जवाब देंहटाएंराजेश जी क्षमा करेंगे, स्त्री-स्त्री के बीच खाई बढाने जैसी कोई बात है ही नहीं.....यथार्थ का बयान है यह. सत्य को उपेक्षित कर एक काल्पनिक सुखद चित्र खींचने से अधिक प्रेरक है वास्तविक दुखद चित्र खींचना. कल्पना हमें भटकाती है.....वास्तविकता चिंतन के लिए प्रेरित करती है....... इसलिए रचना धर्मिता का उद्देश्य तो इसी में पूर्ण हो पाता है. अंतिम रचना में भी फ़िल्मी जैसा कुछ नहीं लगा मुझे.
सरल सहज रचनाओं के लिए जीतेन्द्र जी को साधुवाद ! कन्नौजी बोली के आंचलिक शब्दों की मिठास और आंचलिक शब्दों को संरक्षित करने के अनुकरणीय प्रयास के लिए जौहर जी को विशेष बधाई. हिन्दी की समृद्धता तो आंचलिक अगढ़ शब्दों से ही है. हिन्दी के प्राण बसते हैं इनमें. कन्नौजी बोली की ग्राम्य सरलता आकर्षक है.
namaskaar !
जवाब देंहटाएंgahree abhivyakti sunder shabd chitr . man ko choone wale rachnaye hai , johar saab ko badhai m sadhuwad .
saadar
आप सभी विद्वज्जनों/जागरूक पाठकों की उस सदाशयता एवं सद्भावना के लिए हार्दिक आभारी हूँ जिससे अनुप्राणित होकर आपने अपना अनमोल समय निकालकर निजी अभिमत प्रस्तुत किया।
जवाब देंहटाएंमैं देर से आ सका...इसके लिए मुझे खेद है! कभी-कभी कुछ ऐसी परिस्थितियाँ/व्यस्तताएँ आ जाती हैं कि व्यक्ति चाहकर भी...!
सभी टिप्पणियाँ/अभिमत किसी-न-किसी रूप में महत्त्वपूर्ण हैं; इनमें जो भी मुझे विशेष रूप से ग्राह्य लग रहा है, उसे मैं आभार सहित सिर-माथे स्वीकार करता हूँ।
मैं विनम्रतापूर्वक एक बात का ध्यान दिलाना चाहूँगा कि लगभग सभी विद्वानों से एक चूक हो गयी है; ये प्रस्तुत रचनाएँ वस्तुतः ‘कविताएँ’ नहीं, गीत हैं। यह और बात है कि गीतादि सभी पद्यात्मक विधाएँ एक ही वर्ग (‘कविता’ शीर्षकान्तर्गत) परिगणित होती हैं। ख़ैर...यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं जिसे तूल दिया जाय।
निम्नांकित टिप्पणी:
"...तीसरी कविता ‘बँटवारा’ पढ़ते हुए फिर एक बार लिजलिजी संवदेना उभर आती है..."
-में प्रयुक्त ‘लिजलिजी संवदेना’ नामक वाक्यांश अरसा-पूर्व गीत के खिलाफ़ छेड़े गये एक आन्दोलन(वस्तुतः ‘षणयंत्र’) में प्रयोग किये गये ‘लिजलिजी भावुकता’ नामक आक्षेप का ‘उच्छिष्ट-चर्वण’ है। ध्यातव्य है कि जो लोग गीतिकाव्य पर ‘लिजलिजी भावुकता’ का आरोप लगाते रहे हैं, उनकी बोझिल कविताएँ वृहत्तर पाठक-वर्ग ने नकार दी थीं। उनमें बिम्ब और प्रतीक इतने जटिल थे कि कविता जो कि हृदय-प्रधान मानी जाती है (और ‘है’ भी), बुद्धिवादी होकर रह गयी थी। कुछेक कवि अपने उक्ति-वैचित्र्य एवं खनकती हुई भाषा के प्रयोग से अपनी छाप अवश्य छोड़ गये, लेकिन उनकी भी कविताएँ आम आदमी की ज़ुबान अथवा कण्ठ पर आसीन होने का गौरव नहीं पा सकीं। हम स्वयं अपनी स्मृति को टटोलकर देखें कि हमें कितनी ‘मुक्तछंद’ अथवा ‘छंदमुक्त’ कविताएँ कंठस्थ हैं।
मेरा आशय यह कदापि नहीं कि उन या इन वर्षों में छंदोबद्ध काव्य में जो कुछ लिखा गया, वह सब सराहनीय रहा...कचरा तो कमोवेश हर जगह होता ही है।
टिप्पणीकार का यह कथन कि:
"...सारी ही कविताएं जो गीत की तर्ज पर लिखी गई हैं"
-पूर्णतः अनौचित्यपूर्ण है। ये ‘गीति रचनाएँ’ हैं, न कि किसी "गीत की तर्ज" पर लिखी गयी हैं, जैसा कि टिप्पणीकार अनवधानतावश कह बैठा है।
टिप्पणीकार का यह कथन कि:
"दूसरी कविता ‘अम्मा की दुर्दशा’...घोर स्त्री विरोधी कविता है। स्त्री को स्त्री के खिलाफ खड़ी करती कविता..."
-टिप्पणीकार इसे सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने में असफल रहा। इस गीत में वस्तुस्थिति का यथातथ्य/यथासत्य चित्रण है, न कि ‘स्त्री को स्त्री के खिलाफ खड़ा करने’ की कोशिश। क्या ऐसी घटनाएँ हमारे घर-परिवार में नहीं घटतीं? यदि हाँ...तो उनके चित्रण से गुरेज/परहेज कैसा? यहाँ ‘अम्मा की दुर्दशा’ का यथातथ्य चित्रण गीतकार का अभीष्ट रहा है...न कि वह जिसे टिप्पणीकार ज़बरन घसीट लाया है। उसे फतवा-शैली में जजमेण्टल नहीं होना चाहिए... आप्त-वचनीय मुद्रा संवाद की स्वस्थ परम्परा को आहत कर देती है।
जितेन्द्र जौहर जी को इस रूप में देखकर कुछ अलग ही अनुभूति हुई। गांव का वह परिदृश्य भी जीवन का हिस्सा रहा है और वे परिस्थितियां भी, जिन्हें पहले तीनो गीतों में शब्द-चित्रों में बांधा है जितेन्द्र जी ने। नज़दीक से देखी-भोगी यह अनुभूति संवेदना को भी झंकृत कर गई और स्मृतियों को भी। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। गांव अब गांव नहीं रह गये हैं, उनमें भी शहर की आत्मा बस गई है और शहर आज हमारी भौतिक जरूरत बन गये हैं। पर आत्मिक जरूरतें पूरी नहीं हो पाती, सो मन उस सबको याद करता ही है, जो भले नहीं रहा, पर हमारे अन्तर्मन में कौंधता जरूर है। पहला गीत पढ़कर करीब पच्चीस वर्ष पूर्व पढ़े एक गीत की अनुभूति भी मेरी स्मृति में ताजा हो आई है, सम्भवत डा. अश्वघोष जी का गीत है- ‘बहुत दिनों के बाद मिला है, अम्मां का खत गांव से’।
जवाब देंहटाएंजीतेन्द्र भाई ,
जवाब देंहटाएंलम्बी दूरी है .. रास्ते में खा लेना , ................ हिम्मत नहीं हो रही कुछ कहने कि , सिर्फ आँखों से आंसू निकल रहे है ... सच्चाई को इतने सरल शब्दों में बयाँ करना आसान नहीं , मेने पांच माह पहले ही अपने पिता को खोया है .......... उनकी यादो के साथ इस कविता को पड़ा और माँ का हाल भी जाना ............ इससे ज्यादा लिख पाना शायद इस वक्त संभव नहीं है ... एक बार फिर बधाई .......... पंकज सारस्वत
बहुत गहरे भावों को इतनी सहजता व प्रभाव के साथ लिखना आसान नही । शब्द जैसे बह रहे हैं । किसी तरह की कोई बनावट नही । मन को पूरी तृप्ति मिली । कविता में और क्या चाहिये ।
जवाब देंहटाएंसरल सहज रूप में लिखी कविताये एक ऐसा यथार्थ दिखाती है कि मन उस पीड़ा कि अनुभूति करने लगता है.
जवाब देंहटाएंयदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो कृपया मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://no-bharat-ratna-to-sachin.blogspot.com/
लेखक बहुत दिनों के बाद ''साखी'' पर आया, और यहाँ जितेन्द्र का जौहर पाया. इनके गीत नए है, और अतीत की मधुर स्मृति-लोक तक ले जाने वाले. अब गीत लिखे ही नहीं जा रहे. साहित्य को बर्बाद करने में एक माफिया सक्रीय है. छंद से उसे परहेज है. जितेन्द्र के गीत-नवगीत ह्रदय को झकझोरने वाले है. ऐसे गीत अब कम लिखे जा रहे है. लिखे जाने चाहिए. छंद बचेगा, तो समाज बचेगा. परपरा का श्रेष्ठ बचेगा. ''बहुत पहले लेखा अपना नवगीत याद आ रहा है-''बहुत दिनों के बाद मिली है बिटिया की पाती/ अरसे बाद जुडी है अब तो अम्मा की छाती''. कविता की गीतात्मकता कविता को अम्र बना देती है. मगर ऐसे गीतों में भी अगर कोइ खोट निकालने की कोशिश करे, तो ऐसे निंदकों (आलोचकों को नहीं) को केवल प्रणाम ही किया जा सकता है
जवाब देंहटाएं@उमेश जी, पंकज जी, गिरिजा जी एवं स्वतन्त्र नागरिक जी....... आप सभी सुज्ञजनों की काव्य-रसज्ञता एवं हार्दिकता के लिए अत्यन्त आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएं@ गिरीश पंकज जी, आपके हौसले को...साहसिकता को नमन जिसके बल पर आपने आलोचना के नाम पर निंदा पर उतारू ‘छद्म समीक्षा’ को वक्रोक्तिमय ‘प्रणाम’ निवेदित किया। बहुत कम लोग इतनी हिम्मत का परिचय दे पाते हैं।
आपकी इस हिम्मत के लिए मेरा प्रणाम...! प्रणाम इसलिए भी कि आपकी इस प्रतिक्रिया से कतिपय बुध्दिवादी लोगों के माइण्ड-सेट पर कुछ अंकुश तो अवश्य लगेगा जो हर रचना को संकुचित स्टीरियो-टाइप्ड साँचों में फ़िट करके देखने/परखने के अभ्यस्त-से हो चले हैं...और इतस्ततः से शब्दों/शब्द-युग्मों का ‘उच्छिष्टचर्वण’ करके लौटे सतही एवं cliche (घिसे-पिटे शब्द) का जाल फैलाकर स्वयं को समीक्षक-रूप में पेश करने की कुचेष्टा करते हैं...!