tag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post6169136531648950138..comments2023-07-07T15:27:40.554+05:00Comments on समकालीन सरोकार : जब कहता हूँ सच कहता हूँ. Subhash Raihttp://www.blogger.com/profile/15292076446759853216noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-28782088608956106602010-08-27T20:50:22.069+05:002010-08-27T20:50:22.069+05:00गौतम भाई।
तम कहीं भी हो
गो होना चाहिए
गो अंग्रेजी ...गौतम भाई।<br />तम कहीं भी हो<br />गो होना चाहिए<br />गो अंग्रेजी ही सही<br />तम जाना ही चाहिए<br />उजाला लाने को<br />तीन टिप्पणियां ही क्यों<br />एक पोस्ट श्रंखला चलानी चाहिए<br />आप नुक्कड़ पर पधारिये<br />तम को भगाइये<br />उजाले को मन में बसाइये<br />रोशनी सबके मन उपवन में उगाइये।अविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-57382144814671566722010-08-27T18:00:11.664+05:002010-08-27T18:00:11.664+05:00अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करन...अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी। <br />ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।संजीव गौतमhttps://www.blogger.com/profile/00532701630756687682noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-26339161942341133552010-08-27T17:59:44.116+05:002010-08-27T17:59:44.116+05:00इसी से ब्रज भाषा में ‘ाब्दों की लोच का कोई जवाब नह...इसी से ब्रज भाषा में ‘ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-<br />कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।<br />भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।<br />एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।<br />आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं। <br />अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये।संजीव गौतमhttps://www.blogger.com/profile/00532701630756687682noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-80812772228545979192010-08-27T17:58:52.299+05:002010-08-27T17:58:52.299+05:00@अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प...@अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प्रयोग के माध्यम से देखना चाहता था वह थी उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."<br /><br />अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने, उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@शायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाषा को देखिए वहां मेहनत हुई है।संजीव गौतमhttps://www.blogger.com/profile/00532701630756687682noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-27351438910663249042010-08-27T17:33:51.807+05:002010-08-27T17:33:51.807+05:00@अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प...@अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प्रयोग के माध्यम से देखना चाहता था वह थी उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."<br /><br />अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने, उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@शायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाषा को देखिए वहां मेहनत हुई है। इसी से ब्रज भाषा में ‘ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-<br /> कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।<br /> भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।<br />एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।<br />आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं। <br />अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये। <br /> अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी। <br /> ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।संजीव गौतमhttps://www.blogger.com/profile/00532701630756687682noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-3898309998752147482010-08-27T08:21:20.867+05:002010-08-27T08:21:20.867+05:00@अरविन्द जी "उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' क...@अरविन्द जी "उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."<br /><br />अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@षायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाशा को देखिए वहां मेहनत हुई है। इसी से ब्रज भाशा में “ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-<br /> कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।<br /> भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।<br />एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।<br />आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं। <br />अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये। <br /> अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी। <br /> ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।संजीव गौतमhttps://www.blogger.com/profile/00532701630756687682noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-53340652484682546502010-08-26T21:44:52.910+05:002010-08-26T21:44:52.910+05:00गजल को कोई और नाम दो
ग हटा लो जल कह दो पर
जल तो पह...गजल को कोई और नाम दो<br />ग हटा लो जल कह दो पर<br />जल तो पहले से ही मौजूद है<br />गज हटाओ ल रहता है<br />हाथी जैसी चिंघाड़ गजल में होती है<br />ज हटा दो मध्य से तो<br />गल होती है<br />चाहे पंजाबी विच ही सही<br />गल ही गजल <br />जल जल होती है<br />पल पल होती है<br />बल बल होती है<br />पर जो मैं कह रहा हूं<br />न गजल है<br />न जल है<br />न पल है<br />पर शब्दों का एक<br />अद्वितीय बल है<br />बहुत सबल है।<br />जो सीखने को मिला है<br />वो शब्दों का संबल है। <br />मैं गजलों पर अपरिहार्य कारणोंवश टिप्पणी करने से महरूम रह गया। इसलिए इस रूम (टिप्पणी रूम) में जो मन में आया, कह गया। वैसे कल आगरा में मदन मोहन अरविंद जी का सुखद सान्निध्य प्राप्त हुआ था।अविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-1645605899022892972010-08-26T15:07:27.611+05:002010-08-26T15:07:27.611+05:00बहुत अच्छा विश्लेषण किया सुभाष जी आपने. ब्लॉग जिस ...बहुत अच्छा विश्लेषण किया सुभाष जी आपने. ब्लॉग जिस मकसद और सोच के तहत आपने लांच किया था, वो पूरा होता दिख रहा है. पोस्ट की मीयाद खत्म हो चुकी है, बहुत सारा कुछ कहा-सुना जा चका है, आगे कुछ कहने की गुंजाइश न होने के बावजूद, एक बात जरूर कहना चाहूँगा.<br />मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द' जी ने २५-२६ कमेंट्स प्रकाशित होने के बाद, जो सफाई दी, वो मेरे ख्याल से बेमानी थी. यदि यह पता हो इस रचना में झोल है तो कोई भी रचनाकार उसे खराद पर चढ़ाने के लिए प्रस्तुत नहीं करेगा. एक तरफ यह कहना कि मुझे मालूम था, दूसरी ओर यह कहना कि 'उर्दू' का ज्ञान नहीं, गले के नीचे नहीं उतरता. फिर यह कहना कि भाग दौड़ और आपाधापी के दौर में अगर इतनी छूट ले ली गयी तो गजल का क्या बिगड़ गया.<br />मैं टोकने के लिए बदनाम हूँ. लेकिन यह टोकना केवल इस लिए होता है कि रचनाकार, समझदारों के बीच अपमानित न हो. <br />शर्मा जी ने एक बात और कही कि इस व्यस्तता के दौर में अगर थोड़ी छूट ले ली.... छूट लेते ही आप गजल के दायरे से बाहर निकल गए. गजल-गजल है और यह अपने नियमों, व्याकरण, शास्त्र, अनुशासन के दम पर ही चलती है. दुष्यंत, शेरजंग गर्ग, त्रिलोचन शास्त्री, सूर्य भानु गुप्त, अंसार कम्बरी, तुफैल चतुर्वेदी, विज्ञान व्रत, ज्ञान प्रकाश विवेक, महेश अश्क, अदम गोंडवी, देवेन्द्र आर्य, संजीव गौतम जैसे अनगिनत रचनाकारों के साथ प्रार्थी को भी कभी छूट लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई, फिर आप ही क्यों छूट लेने अमादा हैं.<br />मैं फिर कहना चाहता हूँ कि गजल अनुशासन की वस्तु है, यदि कोई अनुशासन न मानने पर ही तुला हो तो क्या किया जा सकता है? वैसे एक सवाल जरूर पूछना चाहूँगा--- क्या गजल ही कहना जरूरी है?सर्वत एम०https://www.blogger.com/profile/15168187397740783566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-5205237531212761842010-08-26T10:33:34.402+05:002010-08-26T10:33:34.402+05:00Yah ek saraahaneey baat hai ki aap tippaniyo par k...Yah ek saraahaneey baat hai ki aap tippaniyo par kuchh likh rahe hai. itani mehanat mere khyal se ek-do bloger hi kar rahe hai.YAH BLOG blog nahi raha, ek ptrika-saa asvaad dene lagaa hai. badhai iss abhinav soch k liye..agale ank mey log meri shalykriyaa karenge. svagat rahega sabka...girish pankajhttps://www.blogger.com/profile/16180473746296374936noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-954846169421193068.post-80777242906617105892010-08-26T00:18:52.474+05:002010-08-26T00:18:52.474+05:00इस तरह की चर्चा लेखक को सही दिशा देती है ...रही गज...इस तरह की चर्चा लेखक को सही दिशा देती है ...रही गज़ल की बात तो मुझे उसकी तकनिकी जानकारी नहीं है ..बस भावनाओं को ही समझती हूँ ....उस दृष्टि से हर गज़ल बहुत अच्छी लगी ...बाकी गजलकार जाने ...:) :) ..शुभकामनायेंसंगीता स्वरुप ( गीत )https://www.blogger.com/profile/18232011429396479154noreply@blogger.com