गुरुवार, 16 सितंबर 2010

थोड़ा नहीं ढेर सा ईमान

साखी पर अशोक रावत की गजलों को आम तौर पर साहित्यकारों, गजलकारों, काव्यप्रेमियों ने पसंद किया, पर इस बार के विमर्श को प्रवासी गजलकार और कवि प्राण शर्मा के विदग्ध चिंतन से ताकत मिली| संजीव गौतम के उकसाने पर गजलों की दुनिया के दो महारथी प्राण शर्मा और सर्वत जमाल ने अपने-अपने तरीके से हस्तक्षेप किया| प्राण जी ने गजल के विभिन्न स्वरूपों पर अपनी बात विस्तार से रखी जब कि सर्वत जमाल ने अपनी तरफ से कुछ सुझाव रखे| मैं एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि रावत जी की गजलें प्रस्तुत करने में मुझसे कुछ अयाचित त्रुटियाँ हो गयीं थीं, जिनमें  से दो तो प्रकाशन के पहले दिन ही ठीक कर ली गयीं पर एक इस चर्चा के प्रकाशन के साथ ठीक की गयी है| इसकी ओर जमाल साहब ने इंगित भी किया है कि चैन में की जगह चैन से रहता तो ठीक लगता| दर असल मूल कापी में वह चैन से ही था| राजेश उत्साही, सलिल जी और श्रद्धा जैन  ने रावत जी की गजलों पर चर्चा को और गंभीरता प्रदान की| 


कुछ टिप्पड़ियां आने के बाद संजीव ने गजल के महारथियों को आवाज दी,  अशोक जी के परिचय में जो कहा गया है कि उन्होंने ग़ज़ल को हिन्दी में दुष्यन्त के बाद आसमानी विस्तार देने की सफल कोशिश की है, इस पर भी थोड़ा विचार करना चाहिए। जिस तरह कहानी कहानी है, उसी प्रकार ग़ज़ल ग़ज़ल है लेकिन हर कवि किसी न किसी भाषा का कवि होता है, जिसे वह अपने रचना संसार से समृद्ध करता है। जिस तरह से ग़ज़ल फारसी के बाद उर्दू में आयी और उर्दू के तमाम शायरों ने उसे समृद्धि प्रदान की, उसी तरह दुष्यन्त ने हिन्दी में ग़ज़ल कहने की सफल कोशिश की। दुष्यन्त हिन्दी के लीजेंड शायर  हैं। रावत जी भी उसी परम्परा के कवि@शायर हैं। दुष्यन्त के बाद हिन्दी में तमाम बड़े शायर हुए हैं, जिन्होंने हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा को समृद्ध किया है। आदरणीय हरजीत, अदम गोंड़वी, सूर्यभानु गुप्त, एहतराम इस्लाम, राजेश रेड्डी, राजेन्द्र तिवारी, प्रमोद तिवारी, सत्यप्रकाश शर्मा  आदि-आदि। हिन्दी ग़ज़ल से आशय है हिन्दी कवियों द्वारा कही जाने वाली ग़ज़लें। अशोक जी ने अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह ‘थोड़ा सा ईमान‘ के कवर पृष्ठ  पर भी लिखा है ‘अशोक रावत की हिन्दी ग़ज़लों का संग्रह‘। मेरा अनुरोध है कि, ‘हिन्दी भाषा की काव्य परम्परा में इन ग़ज़लों के स्थान पर हमारे विद्वान समीक्षक टिप्पड़ी करें तो हम जैसे जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन हो। अशोक जी की ग़ज़लें ग़ज़ल के शिल्प और कहन से आगे की ग़ज़लें हैं। आदरणीय प्राण जी एवं सर्वत जी इस विषय के मर्मज्ञ हैं। उनके पास अनुभव और ज्ञान का विशद खजाना है। वे इस पर ज्यादा अच्छी रोशनी डाल सकते हैं। मैं दोनों आदरणीयों से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे इस पर कुछ कहें।

प्राणजी इससे पहले साखी पर आ चुके थे और संक्षेप में अपनी बात कह गये थे| उन्होंने कहा कि रावत जी के शेर कहने का अंदाज पसंद आया| पहली और चौथी गजल में उन्होंने दो हिन्दी छंदों स्रखिनी और कुंडल का सफल प्रयोग किया है| पर संजीव के आग्रह के बाद उन्हें फिर आना पड़ा|  उन्होंने कहा, कुछ लोगों की राय है कि ग़ज़ल को ग़ज़ल ही कहा जाए| मेरी राय भी यही है| मैंने कभी किसी कवि सम्मलेन या मुशायरे में ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल नहीं कहा है| मैं ही क्या कोई भी हिंदी कवि जब ग़ज़ल पढ़ता है, वह यह नहीं कहता है कि वह हिंदी ग़ज़ल सुनाने जा रहा है लेकिन जिस भाषा और लिपि से ग़ज़ल जुड़ी है, उस भाषा और लिपि का उल्लेख नहीं करना उनके साथ अन्याय है| अगर ग़ज़ल सिर्फ़ ग़ज़ल है तो उस पर उर्दू का ही अधिकार क्यों हो ? हिंदी , पंजाबी , गुजराती , मराठी , बँगला या अन्य भाषाओं का उस पर अधिकार क्यों न हो ? उर्दू ग़ज़ल पर कई पुस्तकें हैं . पुस्तकों के शीर्षक ही " उर्दू ग़ज़ल " को लेकर हैं. मसलन - के सी नंदा की उर्दू गजल-ऐन एंथोलोजी, मास्टरपीसेज आफ उर्दू गजल, मुमताज उल हक़ की उर्दू ग़ज़ल की रिवायत और तरक्की पसंद ग़ज़ल़| वली, मीर तकी मीर, ग़ालिब, ज़ौक , दर्द , दाग़ , इकबाल इत्यादि उर्दू के बेहतरीन ग़ज़लगो थे, अगर यह  लिखना जायज़ माना जाता है तो शम्भू  नाथ शेष, बालस्वरूप राही , दुष्यंत कुमार , कुंवर बेचैन और सूर्य भानु गुप्त इत्यादि हिंदी के उत्कृष्ट ग़ज़लकार क्यों नहीं माने जा सकते हैं ? ग़ज़ल का इतिहास यही बताता है कि वह जिस - जिस भाषा - लिपि के साथ जुड़ी , उसका नामकरण उसी के आधार पर हुआ है। वह फारसी के साथ जुड़ कर फारसी ग़ज़ल, जर्मन के साथ जुड़ कर जर्मन ग़ज़ल ,अंग्रेज़ी के साथ जुड़कर अंग्रेज़ी ग़ज़ल कहलाई| ये पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं ---" Recognising the growing interest in 1966, the acclaimed kashmiri american poet Aga Shahid Ali decided to complete and edit the first anthology of English language ghazals
ग़ज़ल की तरह गीत भी एक फॉर्म है| अगर वह हिंदी, पंजाबी, बँगला, कश्मीरी, मराठी, गुजराती, सिंधी, पश्तो गीत कहला सकता है तो ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल , पंजाबी, बँगला, कश्मीरी, मराठी, गुजराती, सिंधी, पश्तो ग़ज़ल क्यों नहीं कहला सकती है ? 

सर्वत जमाल ने कहा, ये गजलें आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट और कुंठा की जीती जागती तस्वीर हैं| रचनाकार ने कहीं भी समझौते का प्रयास नहीं किया| लेकिन कोई रचनाकार सम्पूर्ण होने दावा तो नहीं कर सकता| साहित्य एक अथाह सागर है और हम अपनी पूरी साहित्य-यात्रा में कितने घूँट पीते हैं, कितना छोड़ देते हैं, यह प्रश्न ही नहीं उत्तर भी है, यह कहते हुए मैं अशोक रावत की गजलों पर आता हूँ|  पहली गजल- ६ अशआर की इस गजल में, ५ शेर पता मिलने की बात कर रहे हैं| यदि 'पता' शब्द इतना ही जरूरी था तो इसे रदीफ़ में शामिल किया जाना चाहिए था| हिंदी के हिसाब से भी 'पुनरुक्ति' दोष ही माना जाता है| दूसरी ओर, एक ही शब्द की बार बार तकरार से रचनाकार के शब्दकोश में कमी का आभास होता है| इसी गजल में एक जगह मुश्किलों से मिला लेकिन मिला तो| मुश्किलों से ही सही, लेकिन अगर मिल रहा है तो इसका शिकवा नहीं होना चाहिए|
हमारे हमसफर भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं
घर से बाहर निकलने में फासला रखना भी मुझे समझ नहीं आया, सफर के दौरान, खुद को अलग-थलग रखने की केमिस्ट्री तो ठीक है| छतों पर ईंट और पत्थर कहा जा सकता था, रचना पर दोबारा निगाह डाली जाती तो शायद यह दिखाई पड़ जाता| चैन में लेकिन हर इक पत्थर रहता है यहाँ भी अगर 'चैन से' का प्रयोग होता तो ज्यादा बेहतर था| इन सबके बावजूद, इन गजलों में नया लहजा, आधुनिकता, वर्तमान की पीड़ा और सच तो हैं ही|

कवि राजेश उत्साही ने कहा, रावत जी की ग़ज़लों के कथ्‍य में वे सब चिंताएं हैं जो हम रोज देखते हैं। उनमें नया कुछ नहीं है। असल में नया कुछ होता भी नहीं है। पर किसी भी रचनाकार को उसकी रचना महत्‍वपूर्ण इसीलिए बनाती है कि वह रोजमर्रा की उसी बात को इस अंदाज में कहता है कि वह अंदर तक भेद जाती है। मुझे अशोक जी में यह कौशल नज़र आया। उनकी एक ग़ज़ल के ये तीन शेर मेरी बात के गवाह हैं-
हमारे हमसफर भी घर से कब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बीच में कुछ फासला रखकर निकलते हैं.
जिस पीढ़ी के अशोक जी हैं,  मैं उनसे बस थोड़ा सा पीछे ही हूं। पर उन्‍होंने इस शेर में जैसे हमारी पीढ़ी के संस्‍कार और संकोच को सामने रख दिया है। अव्‍वल तो घर से बाहर निकलना ही मुहाल था, और जो निकल आए तो सफर में हमेशा फासला होता था।
छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं कानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं.
यह शेर पढ़कर मुझे 1992 याद आ गया। भोपाल में मैं जहां रहता था, पड़ोस की छत पर यही हाल था। बावजूद इसके कि सामने के घरों में प्रशासन के आला अफसर रहते थे।
समझ लेता हूं मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बचकर निकलते हैं.
और यहां तो जैसे उन्‍होंने दिल चीर कर ही रख दिया है। यह देखकर अच्‍छा लगा कि अशोक जी की रचनाओं में थोड़ा सा नहीं बहुत सारा ईमान है। अशोक जी को बहुत बहुत साधुवाद, उनकी ग़ज़लें आसमान को छूती हैं,पर वे ज़मीन पर खड़ी हैं।

कविता और गजल की अच्छी समझ रखने वाले सलिल जी ने कहा,  डॉ. सुभाष राय जी ने रावत जी  के तार्रुफ़ में जो बात कही है, वह सौ फ़ीसद सच हैं|  यहाँ दुष्यंत कुमार की सादगी और जज़्बात की गहराई दोनों का अनूठा संगम है| पहली ग़ज़ल ज़िंदगी की हक़ीक़त से सराबोर है और जिस कॉन्ट्रास्ट की बात मैं हमेशा कहता रहता हूँ, उसका मुजस्सिमा है| मतले से मक़्ते तक पत्थरों और आईनों, दोस्तों और दुश्मनों, ख़ुदा और काफिरों, मुंसिफ और क़ातिलों, मंज़िलें और ठोकरों का हिसाब, किसी भी शख्स की ज़िंदगी की दास्तान बयान करती है| दूसरी ग़ज़ल आपको कुछ कहने नहीं देती और शायद ख़ामुशी से बेहतर इस ग़ज़ल का कोई तब्सिरा नहीं हो सकता, कोई तनक़ीद नहीं की जा सकती| ये ग़ज़ल सरापा आईना है, जिसमें हमारे समाज या ख़ुद हमारी इतनी घिनौनी तस्वीर दिखाई देती है कि शायद एक बार इस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद नदामत आपको दुबारा पढ़ने की इजाज़त नहीं देती| अशोक रावत जी की बयानी हमें शर्मिंदा करती है और मजबूर भी कि नवाज़ देवबंदी के लफ्ज़ों में सोचो आख़िर कब सोचोगे! एक शेर क़ाबिले दाद लगा मुझेः
समझ लेता हूं मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बचकर निकलते हैं.
तीसरी ग़ज़ल समाज के गिरते हुए मेयार को बयान करती है| जिस दर पर रोज़ सर झुकाएँ वो ही काफिर कहे, सच बोलने वाले के सीने पर तना हुआ तमंचा है, हर जान पहचान और ईमान को नज़रअंदाज़ किया जाना और अदालत में होने वाले फैसलों का पहले से तय होना, बस यही हैं आदाब आज की दुनिया के और कामयाबी की कुँजी| शायर को बस इसी बात का इत्मिनान है कि
मैं किसी पहचान में आऊं न आऊं, गम नहीं,
मेरी गजलों को तो दुनिया भर में पहचाना गया.
आख़िरी ग़ज़ल कमोबेश पहले ही जज़्बात का एक्स्टेंशन लगता है| डॉ. राय से एक गुज़ारिश है कि  ग़ज़लों या कविताओं का संकलन करते वक़्त इस बात का ख्याल रखा जाए कि कवि या शायर की चारों ग़ज़लें मुख़्तलिफ़ अंदाज़ को बयान करती हों| इससे शायर की पूरी शख्सियत उभर कर सामने आती है| साथ ही अपनी राय बताने वाले को अलग अलग पैमाने पर ग़ज़ल को परखने का मौक़ा मिलता है|
सिंगापुर की मशहूर गजलकार श्रद्धा जैन ने कहा, रावत जी की गजलों ने मन मोह लिया| सभी गजलें पसंद आयीं पर ये शेर ख़ास तौर से पसंद आये.....
जाने क्या लिख दिया उसने तकदीर में,
मुझको जो भी मिला मुश्किलों से मिला.
छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं कानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं
जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिजोरी में,
परखते हैं कसौटी पर तो सब पत्थर निकलते हैं
जब देखो तब हाथ में खंजर रहता है,
उसके मन में कोई तो डर रहता है
गौर से देखा हर अक्षर को तब जाना,
प्रश्नों में ही तो हर उत्तर रहता है

 
कवि और व्यंग्यकार गिरीश पंकज के अनुसार अशोक जी की ग़ज़ले मैं पढ़ता रहा हूँ। उनका ग़ज़ल संग्रह जब आया था, तब मैंने उनसे बात की थी और बधाई भी दी थी। एक बार फिर अशोक जी से रू-ब-रू होने का अवसर मिला तो पुराने दिन याद आ गए। चारों ग़ज़ले यादगार हैं। हर शेर काबिल-ए दाद है। निर्मला कपिला जी ने कहा, अशोक जी का कहना इतना कमाल का है कि दिल को छू लेता है। उनकी गज़लों से बहुत कुछ सीखने को भी मिला। प्रख्यात रचनाकार सुभाष नीरव ने कहा, अशोक रावत की ग़ज़लें सचमुच बेहतरीन लगीं। कई अशआर तो भीतर तक उतर गए। अरविन्द मिश्र ने कहा, अशोक रावत जी की कालजयी रचनाये स्तब्ध करती हैं। उड़नतश्तरी यानि समीरलाल जी, वन्दना जी, विवेक सिंह, वेद व्यथित, राणा प्रताप सिंह, डा. रूप चन्द्र शास्त्री मयंक, मदन मोहन अरविन्द को भी गजलें पसन्द  आयीं।

अविनाश वाचस्पति का अपना अंदाज है, 1. पता आजकल मेल में मिलता है, जो डाक से नहीं आती, इंटरनेट से आती है। 2. ईंट पत्‍थर से बनते हैं रिश्‍ते, कायम नहीं होते पर यम हो जाते हैं। 3. मुजरिम जरूर पैसे वाले रहे होंगे या नेता उनके जानने वाले होंगे। 4. मौसम ही तनने का है, तनने का बनने का है।  दिगम्बर नासवा ने कहा, एक से बढ़ कर एक,  लाजवाब ग़ज़लों का संकलन है। अशोक जी आज के दौर के ग़ज़लक़ार हैं। सुनील गज्जाणी को भी गज़लें उम्दा लगीं। उन्होंने कहा, बात बड़ी सहज है मगर कहने का अंदाज़ शायराना, जिसे पढ़ कर मज़ा आया, सारे शेर शानदार हैं। नरेन्द्र व्यास ने कहा, सभी ग़ज़लें स्वयं की अनुभूत जिंदगी की परछाई सी लगती हैं, जिसे हर किसी ने कहीं न कहीं, कभी न कभी, किसी न किसी रूप में जिया जरूर है, जो कोरी कल्पना की उड़ान नहीं, बल्कि यथार्थ के धरातल पर सजीव अहसासों को संजोये हैं अपने सीने में। जो मुझे बेहद पसंद आये, उन्हीं की नज़र करता हूँ-
गौर से देखा हर अक्षर को तब जाना,
प्रश्नों में ही तो हर उत्तर रहता है.
थोड़ा झुककर रहना भी तो सीख कभी,
चौबीसो घंटे क्यों तन कर रहता है.
संगीता स्वरूप को सारी गज़लें बहुत पसंद आयीं। उन्होंने कई अशआर कोट किये और अपनी नजरिया  रखा...
हाँ मिला तो मगर मुश्किलों से मिला,
आइनों का पता पत्थरों से मिला.
दोस्ती आ गयी आज किस मोड़ पर,
दोस्तों का पता दुश्मनों से मिला.
उनकी हां में हां मिलाना मुझको नामंजूर था,
मेरे सीने पर तमंचा इसलिये ताना गया.
संगीता जी ने इन गजलों को 14 अगस्त के चर्चामंच पर भी प्रस्तुत किया। जनाब  ए के सूद ने कहा, गजलों में बहुत सरल भाषा में आज के समय को परिभाषित किया गया है। आम आदमी के वजूद के लिये व्यवस्था में सुधार की जरूरत रचनाकार महसूस करता है। 


कवि, गजलकार अशोक रावत ने अपनी  बात रखते हुए कहा, यद्यपि सभी ग़ज़लें सामान्य स्तर की थीं फिर भी लोगों को कुछ शेर पसन्द आये। मैं उन सभी साहित्यकारों, पाठकों को धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने मेरी ग़ज़लों पर अपना मत व्यक्त किया। अपने ब्लाग पर स्थान देने के लिए मैं डॉ. सुभाष का भी आभार व्यक्त करता हूं। हिन्दी में लिखी जा रही ग़ज़लों की संख्या इस बात का प्रमाण है कि ग़ज़ल का जादू हिन्दी के रचनाकारों के सिर चढ़कर बोल रहा है लेकिन संख्या के आधार पर साहित्य में श्रेष्ठता सिद्ध नहीं की जा सकती। नयी कविता के चलन ने उन लोगों को भी कवि बना दिया है, जिनके पास काव्य कला के संस्कार नहीं हैं। कला साधना से आती है लेकिन बिना किसी साधना के लोग महाकवि होने की दावेदारी प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठकों का साहित्य से विमुख होते जाना चिन्ता का कारण  भले ही न हो लेकिन चिन्तन का विषय जरूर है और साहित्यकारों के रचना कर्म पर प्रश्न भी लगाता है। अतः रचनाकारों को अपने लेखन के विषय में जरूर सोचना चाहिए कि वे पाठकों का सम्मान क्यों प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। सिर्फ टेलीवीजन को जिम्मेदार ठहराकर अपनी कमियों से मुक्त नहीं हो सकते। अपने उत्तरदायित्वों के प्रति अधिक जागरूक होने की जरूरत है। एक दूसरे की तारीफ करके अगर किस्सा खत्म होता रहा तो लिखने पढ़ने का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। 




शनिवार को राजेन्द्र स्वर्णकार की रचनाएं 
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10 टिप्‍पणियां:

  1. रचनाओं की समीक्षा पढ़ कर काफी जानकारी मिलती है ...अच्छी समीक्षा के लिए आभार

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  2. बढ़िया समीाक्षा के साथ,
    उपयोगी पोस्ट!
    --
    आज दो दिन बाद नेट सही हो पाया है!
    --
    शाम तक सभी के ब्लॉग पर
    हाजिरी लगाने का इरादा है!

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  3. बहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति...अच्छा लगा पढ़कर

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  4. डॉ. साहब, अच्छा क्रम.. अच्छा सन्योजन. पहले भी कहा था और अब दुबारा भी कह रहा हूँ कि प्रान साहब और बड़े भाई सरवत साहब के आने से चार चाँद लग गए परिचर्चा में. अच्छी रचना के साथ इन गुणी जन का वक्तव्य, अपनी समझ को तोलने और हमेशा नया कुछ सीखने का अवसर प्रदान करता है. और आपने ऐसा मंच उपलब्ध कराकर कवि और शायरों के साथ साथ मुझ जैसे कई सुधि पाठकों के लिए भगीरथ बनकर काव्य जाह्नवी अवतरित की है. साधुवाद!!

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  5. सलिल जी अपना मेल पता तो दे दो भाई. हमरा के तनी असान हो जाई रऊआ से तार भिड़वले में.

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  6. डॉक्टर साहब तार त पहिलहिं से जुड़ा हुआ है.. न बड़े भाई उत्साही जी ई गली में लाकर पटकते, न हम इस गली के होकर रह जाते... हम दूगो दोस्त हैं (हम अऊर चैतन्य)… अलग अलग सहर में रहकर ब्लॉग लिखते हैं सम्वेदना के स्वर http://samvedanakeswar.blogspot.com/ .आजकल ऊ जब कभी कुछ लिखते हैं (खासकर कबिता) त हमको मेल करके कहते हैं कि सलिल भाई इसकी साखी कर दो... मतलब श्रृंगार...आप नया पहचान दिये हैं हमको!!
    हमरा मेल chalabihari@gmail.com

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  7. घोषणा हो चुकी है कि राजेन्‍द्र जी की रचनाएं आ रही हैं अगले शनिवार। मेरा अनुरोध यह है कि साखी पर नियमित रूप से आने वाले हम लोग थोड़ा पीछे रहें। मेरा मतलब है जरा देर से आएं,कहने के लिए। कुछ और लोगों को भी अपनी बात पहले कहने का मौका दिया जाए तो साखी की साख और बढ़ेगी। साथ ही उन लोगों से भी निवेदन है कि जो लोग केवल अच्‍छी है कहकर निकल लेते हैं वे अपनी बात जरा विस्‍तार से यहां कहें। चर्चा मंचों पर चर्चा करवाने वालों से भी मेरी अपेक्षा है कि वे यहां अपनी बात जरा ठीक से कहें। क्‍योंकि चर्चा मंच पर तो आप केवल लिंक ही देते हो और दो लाइन कहते हो। यह एक सुझाव भर है।

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  8. एक अच्छी समीक्षा को संकलित किया है संक्षेप में आपने .... ....

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  9. मैं भाई श्री राजेश उत्साही जी के विचारों का समर्थन करता हूँ! अतिसुन्दर! पहले तमाम अन्य लोगों को भी बात रखने दें।
    डॉ. राय जी आप काफी बड़ा योगदान दे रहे हैं,कवियों की रचनाधर्मिता पर बहस आयोजित करके।बधाई!

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हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...