सोमवार, 18 जुलाई 2011

रचती तो कविता है कवि को

साखी पर हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताओं पर गंभीर चर्चा भले न हुई हो लेकिन लम्बे अन्तराल के बाद उनकी रचनाओं ने लोगों का ध्यान खींचा| उनकी बदहवासी पर बात हुई, उनकी बदहवासी में उनके होश पर बात हुई| अनुभूति की संपादक पूर्णिमा वर्मन, व्यंग्य यात्रा के संपादक  डा प्रेम जनमेजय, वरिष्ठ कवि उमेश सिंह चौहान  की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही| 

  मेरे अनुज और कवि राजेश उत्साही ने हरे प्रकाश के परिचय और मनस्थिति पर कुछ सवाल उठाये| स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा है कि कविताएं बदहवासी में लिखी गईं थीं या भेजी गईं थीं। उनकी पहली तीन कविताओं में एक तरह की बदहवासी नजर आ रही है। कवि शायद बहुत आश्‍वस्‍त नहीं हुआ है कविता लिखते हुए। उसे संभवत: कविताओं पर कुछ और काम करने की जरूरत थी। बावजूद इसके कि कविताओं में उठाए गए विषय नए हैं, पर कविताओं में पैनापन नजर नहीं आता। कविताएं चौंकाती नहीं हैं। पहली कविता इस अर्थ में सार्थक लगती है कि बहुत दिनों बाद कवि जब अपनी कविता में लौटता है तो कुछ इसी तरह से सोचता है। यह कविता अंत तक आते आते अपना मतंव्‍य बदल देती है, वह कुछ और भी कहने लगती है।
दूसरी कविता आपाधापी को समेटने का प्रयत्‍न करती हुई नजर आती है,पर मुझे लगता है कवि इसे समेटने में थोड़ा पिछड़ गया है। तीसरी कविता असल में उस नारे से आगे नहीं बढ़ती जिसका एक तरह से हरे विरोध कर रहे हैं। हरे को इस तरह की अभिव्‍यक्ति से बचना चाहिए। चौथी कविता प्रकाशित संकलन से सुभाष जी ने ली है, दोस्‍तों के बारे में बिलकुल अलग नजरिए से रूबरू कराती है। हमने शायद दोस्‍तों को इस नजर से देखा ही नहीं। पर यहां भी लगता है कि जैसे हरे कुछ कहते कहते रूक जा रहे हैं। पूरी तरह खुल नहीं रहे हैं वे।
राजेश के सवालों पर मैंने सफाई देने की कोशिश की,  आजकल हरे कुछ बदहवास से हैं, अच्छी बात ये है कि इस बदहवासी के बावजूद वे बदहोशी में नहीं गये, अन्यथा कविता होती ही नहीं। उनकी बदहवासी का कारण मैं हूं और वे होश में रहते हैं, इसका महाकारण भी मैं ही हूं। दरअसल मैंने उनके सूली पर चढ़ने की तारीख घोषित कर रखी थी, इतना ही नहीं फंदा लिये बैठा भी था। रोज तलब करते हुए कि कविताएं दो भाई। मांग पर कविता लिखना आसान नहीं होता पर यह देखना होता है कि मांग कितनी प्यारी है, कितनी नाजुक है। दिन करीब आता गया, बैठने का मौका नहीं, मांग ठुकराने की हिम्मत नहीं। फिर बदहवासी से कोई कैसे बचा सकता था। मगर कविता लिखनी थी, कोई झाड़ू तो लगाना नहीं था, सो हरे को अपना होश भी बनाये रखना पड़ा। कुल मिलाकर मैं तो इस बदहवास हरे को भी पसंद करता हूं।
राजेश चूकने वाले कहाँ,  कौन बदहवास नहीं है। कुछ होते हैं जो बदहवासी के बावजूद अपने को इस तरह से व्‍यक्‍त करते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक है, और कुछ होते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक होने के बावजूद इस तरह प्रस्‍तुत होते हैं जैसे सारी दुनिया का बोझ उन पर ही है। अच्‍छी बात यह है कि हरे इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते हैं, वे जैसे हैं वैसे ही अभिव्‍यक्‍त हो रहे हैं। यह एक ईमानदार कोशिश है।  एक और बात कि कविता कभी भी मांग पर नहीं लिखी जा सकती। अगर लिखी जाएगी तो उसका हाल वही होगा, जिसका विरोध हरे खुद अपनी कविता में कर रहे हैं। मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि झाड़ू लगाना ऐसा काम है जिसमें होश की जरूरत नहीं होती है। मेरे हिसाब से कविता भी झाड़ू लगाती है, दिमागों में।


सद्भावना दर्पण के   संपादक और लेखक गिरीश पंकज ने कहा, हरेप्रकाश की कविताएं अपने शिल्पलोक में नए आस्वादन के साथ उपस्थित होती हैं| कविताओं में ताज़गी तो है ही, नई दृष्टि भी है| पत्रकार सत्येन्द्र  मिश्र ने कहा, कविता हरे प्रकाश के लिए ड्राइंग रूम में रखा शोपीस नहीं, वास्तविकता है जीवन की जो प्रकट होती है विभिन्न रूपों मे| प्रसिद्ध प्रवासी रचनाकार देवी नागरानी जी ने कहा, हरे के सोच की उड़ान परिंदों के पर कतरने वाली है|


वरिष्ठ कवि उमेश सिंह चौहान ने कहा कि हरे की ये कविताएं वैसी ही हैं, जैसी कविताओं के लिए उनकी पहचान बनी है। धारदार, असरदार, कपट को नंगा करतीं। बहुत अच्छा लगा उन्हें पढ़कर एक अन्तराल के बाद। पूर्णिमा वर्मन ने कहा, हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ भले ही अंतराल के बाद आयी हों मगर कुछ खोया है ऐसा नहीं लगता। शायद उन्होंने एक लंबी छलांग लगाने के लिये यह समय अपने को तैयार करने में लगाया। जहाँ पहले वे सहज और सरल अभिव्यक्ति के कारण आकर्षित करते थे, अब उसमें जीवन के अनुभव की संपन्नता व वैचारिक गहनता भी जुड़ने लगी है। लेखक और जनसेवक अमिताभ ठाकुर कहते है, मैं इन चार कविताओं को पढ़ने के बाद आराम से यह कह सकता हूँ कि एक विधा के रूप में कविता (या नयी कविता) किसी भी प्रकार से कमतर नहीं है, न ही कविता की आवश्यकता और जरूरत ही हम लोगों के लिए कम हो रही है| यदि कोई जरूरत है तो मात्र इतनी  ही कि लिखने वाला व्यक्ति हरे प्रकाश उपाध्याय हों जो कविता नहीं लिखें, अपने मन की भावनाओं को उड़ेल दें और साथ ही इस बात का भी भरपूर ख्याल रखें कि उनकी बात उचित ढंग से और आसानी से पाठकों को संप्रेषित हो रही है| लेखिका नूतन ठाकुर ने कहा, हरे प्रकाश की कविताओं में गहराई और संवेदनाओं की संश्लिष्टता है जो केवल उन्ही कवियों में हो सकती है जो बहुत अधिक गंभीरता से चीज़ों को देखते और समझते हैं|

प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने कहा कि  हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताओं की स्वाभाविकता मुझे बहुत आकर्षित करती है| माघ में गिरना कविता की यह पंक्तियाँ --मैं रचता क्या उसे,रचा तो मुझे जाना था...क्या कवि कर्म कि उस ऊँचाई को साक्षात  नहीं करती हैं जहाँ कविता रची नहीं जाती अपितु वह कवि को रचनात्मकता प्रदान करती है और कवि उदात्त गुणों की ओर अग्रसर होता है| अक्सर कवि सोचता है कि वह कविता को रच रहा है पर रचती तो कविता है कवि को| सुनील अमर ने कहा, मन को छू गईं ये पंक्तियाँ! सरल, सहज और संवेदनशील ! अ-कृत्रिम ! 

लेखक और ब्लागर रवीन्द्र प्रभात ने लिखा,  हरे प्रकाश की कविताई तेवर में अवमूल्‍यन के प्रति आक्रोश तथा यथास्थितिवाद के खिलाफ परिवर्तन का स्‍वर उदघोषित हो रहा है। रूप चन्द्र शास्त्री मयंक , प्रमोद ताम्बट, आहट,  काजल कुमार, प्रकाश बादल, दिगंबर नासवा , गीता पंडित , आशुतोष, कौशल किशोर, वंदना शुक्ल , श्याम बिहारी श्यामल, विवेक जैन, डंडा लखनवी, अवनीश सिंह चौहान , फरीद खान ने भी इन कविताओं की सराहना की| प्रज्ञा पाण्डेय ने कहा, ये कवितायेँ एकदम नयी पेंटिंग जैसी हैं| नए ढंग की बिलकुल ताज़ी हवा की तरह .. आगे और भी पढ़ने की उम्मीद रहेगी| ब्रजेश कुमार पाण्डेय के अनुसार समय की तल्खियों से लैस एक ताजगी लिए ये कवितायेँ हरे भाई के विस्तृत दृष्टि परास को सामने लाती है| थोड़ी चुप्पी के बाद ही सही इस तरह आना अच्छा लगा| अरुण चन्द्र राय ने कहा, हरेप्रकश नई पीढी के सशक्त हस्ताक्षरों में से हैं|  इनकी कविता इस पीढी के द्वंद्व  और संक्रमण की कविता होती है|  जैसे मायावी संसार में वे लिखते हैं..."जहां रहने का ठौर, मन वहां न लागे मितवा/चल, यहां नहीं, यहां नहीं, यहां नहीं../ पता नहीं कहां/ चल कहीं चल मितवा...अधिकांश चीजें मायावी हैं| माघ में गिरना कविता में कविता को माघ, सावन में पाना दरअसल खुद को पाना है... खिलाडी साथी भी बेहतरीन कविता है..| 

लेखक जाकिर अली कहते हैं, उनकी कविता भी गहरे अर्थों को बयां करती हैं। उन्‍हें समझने के लिए एकाग्रता की जरूरत होती है, अन्‍यथा ऊपरी तौर पर देखने पर लोग कुछ का कुछ समझ लेते हैं।  प्रमोद रंजन कहते हैं, हरे की बातों से गुजरना मेरे लिए हमेशा एक सुखद अहसास की तरह होता है, चाहे वह गपशप में हो, या कविता में। 'मायावी यह संसार' के लिए बधाई|  लेखक विमल चंद पाण्डेय कहते हैं, हरे का कवि सारे शातिरपने को जानते हुए भी शातिरों से मुस्करा कर मिलता है लेकिन अपनी पैनी आँखों से आर-पर देख रहा होता है|

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६ अगस्त शनिवार को साखी पर जितेन्द्र जौहर की रचनाएँ 

हां, आज ही, जरूर आयें

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