शनिवार, 28 मई 2011

कुछ तीसमार खान भी

चंद्रभान भारद्वाज की गजलों के साथ साखी पर नए सिरे से हलचल शुरू हुई. कुछ मित्र आये. कुछ को शायद पता नहीं चला. चलिए चर्चा की शुरुआत तो हुई. भारद्वाज जी के बहाने एक और रोचक प्रसंग नेपथ्य में चला. उसका उल्लेख करने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ. मैंने अपने मित्रों और साखी से जुड़े रहने वाले रचनाकर्मियों को नयी गजलों का ब्लाग-सूत्र भेजा .  प्रिय  राजेन्द्र स्वर्णकार को भी. वे साखी पर तो नहीं आये पर उन्होंने वापसी की डाक से मुझे अपनी नयी रचना देखने का न्योता दिया. उनकी रचना मैंने पढ़ी. शीर्षक था, कई मुर्दों में फिर से जान आयी. ( आप उनकी रचना देख सकते हैं ) उन्होंने लिखा, कइयों के लिए पहेली, कई मित्र तह तक पहुँच जायेंगे. चूंकि उनहोंने आमंत्रित किया था, इसलिए मैंने एक आगंतुक की तरह उनकी रचना पर छोटी सी टिप्पणी  की, अच्छी रचना हमेशा मुक्त करती है. जो निर्बंध मन की भूमि से पैदा होती है. इसके लिए हीनता से ऊपर उठना पड़ता है. ईश्वर करे आप ऐसे ही ऊपर उठते रहें. रचना की आग से आप मुक्त हों, उसमें तपें नहीं. इसके लिए मेरी शुभकामनाएं. 

   एक-दो दिन बाद उनका ख़त आया. यह रहा उनका ख़त....आदरणीय सुभाष राय जी, मेरा परम सौभाग्य कि आप मेरे यहाँ पधारे. यहाँ आप का सदैव सच्चे हृदय से ससम्मान स्वागत है...और मैं आप को पूरे दायित्व के साथ आश्वस्त करता हूँ कि यहाँ किसी टुटपुंजिये को तो क्या किसी दिग्गज तुर्रम खां को भी हिमाकत से किसी को यह कहने की छूट नहीं है कि..ऐसी क्या गरज आन पड़ी कि आप यहाँ आन खड़े हुए. जैसा कि आप के यहाँ साखी पर मुझे कहा गया और आप खामोश रहे. आप कहते हैं..रचना की आग से आप मुक्त हों, उसमें तपें नहीं. साखी पर उपरोक्त तरीके से मुझे सम्मानित करने के बाद वहां ८-९ माह तक व्याप्त सन्नाटे के बाद आप ने चंद्रभान भारद्वाज जी की गजलें लगाईं. मैं भारद्वाज जी का प्रशंसक होने के उपरांत साखी पर प्रतिक्रिया देने आप की मेल मिलने के बावजूद इसलिए नहीं आया क्योंकि आऊँ तो फिर कोई किराये का गुंडा कह सकता है, ऐसी क्या गरज आन पड़ी की आप यहाँ आ खड़े हुए. उन्हीं भारद्वाज जी के ब्लाग पर लगी गजल की प्रतिक्रिया जो लिख कर आया हूँ, वह आप की उपरोक्त टिप्पणी का भी जवाब है. भारद्वाज जी के निम्नांकित शेर के साथ...
जिसकी नसों में आग का दरिया न बहता हो
काबिल भले हो वह मगर शायर नहीं होता 
रचना की आग से मुक्त होने, उसमें न तपने की नसीहत भोले लोग दे जाएँ तो क्या कीजे? निःसंदेह उनके लिए दुआओं के अलावा आप-हम क्या करें...शायरी आप की- हमारे रगों में जो है, आप जैसे सहृदयी गुणी को किसी और के पाप का उलाहना देते हुए मुझे बहुत अफ़सोस हो रहा है. इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.   सादर, राजेन्द्र स्वर्णकार.
अब मैं आप को राजेन्द्र जी की उस टिप्पणी से भी रू-ब-रू कराता हूँ, जो प्रियवर उन्होंने भारद्वाज जी के ब्लाग पर दी--यह है.....आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी ,सादर प्रणाम !
जिसकी नसों में आग....रग़ों में जो है. 
उमड़ीं घटायें जब कभी बिन प्यार के बरसीं
तन भीग जाता है मगर मन तर नहीं होता
हर शे'र उम्दा ! पूरी ग़ज़ल तारीफ़ के काबिल !
राजेन्द्र की चिट्ठी का जवाब मैंने उन्हें इस प्रकार भेजा. 
प्रिय राजेन्द्र, एक सच्चे रचनाकार को मानवीय सरोकारों से जुड़े रहना चाहिए पर मानवीय दुर्बलताओं  से मुक्त होने की कोशिश करनी चाहिए. कोई दुर्बलता है तो कोई बाधा है. मैंने तो सिर्फ सलाह दी, तय करना तुम्हारा काम है. तुम्हें किसी को भी हीनता की नजर से नहीं देखना चाहिए. यथासंभव विनम्रता और तीक्ष्णता से बड़ी से बड़ी आलोचना का जवाब दिया जा सकता है. शब्दों में मार-पीट की नौबत नहीं आनी चाहिए. साखी पर सब बोलते हैं, मैं चुप रहता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि यहाँ आने वाले सभी तीखे से तीखे सवाल का भी जवाब दे सकते हैं. मैं किसी सरपंच की भूमिका में नहीं आना चाहता. साखी से कोई मेरी जीविका नहीं चलती है. लोग पसंद करते हैं, इसलिए मैं साखी को जिन्दा रखना चाहता हूँ. तुम आओगे तो अच्छा लगेगा, नहीं  आओगे तो बुरा नहीं लगेगा. बाकी मर्जी तुम्हारी. 

 मैंने इस प्रसंग की जानकारी कुछ मित्रों को भी दी. उनमें से एक ने मेरे लिए की गयी गुंडई का मेहनताना माँगा. पर मैं पहले राजेन्द्र जी से पूछ तो लूं कि मेरे दोस्त की गुंडई कितनी दमदार रही, मेहनताना कितना बनता है. 
खैर. आइये चर्चा चंद्रभान जी की गजलों की कर लें. रचनाकर्मी श्री दानिश जी ने कहा, वरिष्ठ और विद्वान् साहित्यकारों की महफिलों में  चन्द्र भान भारद्वाज जी का नाम बड़े ही अदब और अहतराम से लिया जाता है. उन्हें पढ़ना हर बार एक नया-सा तजुर्बा  रहता है, हमेशा इक नए अहसास से रु ब रु होना होता है. गीतकार रूप चन्द्र शास्त्री मयंक ने चंद्रभान भारद्वाज की ग़ज़लें पढ़वाने के लिए आभार जताया. कवि मदन मोहन शर्मा अरविन्द ने कहा, बाद की तीन गजलें पुर असर हैं, लेकिन पहली गजल में कुछ छूटता सा लग रहा है, शायद मुद्रण की त्रुटि हो. साखी की फिर से वापसी पर बधाई. रचनाकार सुनील गज्जाणी ने लिखा, सभी गजलें  उम्दा है , अच्छे शेर. मन को सुकून देने वाले. गीतकार अवनीश चौहान ने कहा,
जब किसी को प्यार की कोमल कसौटी पर कसो
बात में ठहराव नज़रों में रवानी देखना
सभी गज़लें यूँ तो अच्छी लगीं  किन्तु ऊपर की  पंक्तियाँ मन में पैठ बना गई. कवि जितेन्द्र जौहर के मुताबिक  पत्र-पत्रिकाओं में तो चन्द्रभान भारद्वाज जी को ख़ूब पढ़ा है, आज ‘साखी’ पर पढ़कर भी सुखद अनुभूति हो रही है। एक-से-बढकर-एक अशआर ...हार्दिक बधाई! प्रवासी रचनाकार देवी नागरानी ने कहा, हर बिम्ब जिन्दगी से जुड़ता हुआ, मन की तहों को झकझोरता हुआ लगता है.

गजलकार नीरज गोस्वामी के मुताबिक चन्द्र भान जी की ग़ज़लें महज़ ग़ज़लें नहीं हैं जीवन जीने की प्रेरणायें हैं...ज़िन्दगी के चटक और धूसर रंगों को वो बेहद सादा ज़बान में अपने अशआरों में ढाल देते हैं. मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है और लगातार सीखता रहता हूँ...अपनी लेखनी से वो हमेशा चमत्कृत कर जाते हैं...उनकी चारों ग़ज़लें बेहद खूबसूरत हैं और मेरी कही बात की तस्दीक करती हैं. ईश्वर  से प्रार्थना करता हूँ कि वो सालों साल स्वस्थ रह कर इसी तरह अपनी ग़ज़लों से हमें राह दिखाते रहें. कवि राजेश उत्साही ने कहा,
हमने प्रस्ताव ठुकरा दिया इसलिए
प्यार भी मिल रहा था दया की तरह
चन्‍द्रभान जी का यह एक शेर ही यह बता देता है कि वे आमजन के खास शायर हैं। शायर मोहब्‍बत भी इज्‍जत और खुद्दारी के साथ करना चाहता है। वह किसी के रहमोकरम पर जिंदा नहीं रहना चाहता। यह भी नोट करने वाली बात है कि उनकी ग़ज़लों में मायूसी के साथ साथ उम्‍मीद भी है। और जो शायद उम्‍मीद बंधाए वह असली है।  तो ऐसे उम्‍मीद बंधाने वाले शायर को सलाम।

लन्दन से प्राण शर्मा जी ने लिखा, अच्छे भावों के लिए भारद्वाज जी को बधाई लेकिन पहली गजल में वे बहर निभा नहीं पाए हैं. कई मिसरे बेवजन हैं. भारद्वाज जी ने जवाब दिया लेकिन लिखने की त्रुटि स्वीकार की. भारद्वाज जी ने लिखा, भइ सुभाष राय जी, साखी में मेरी जो ग़ज़लें आपने प्रकाशित की हैं, उनमें पहली गज़ल के एक मिसरे में कुछ गलती रह गई है, जिसकी ओर भाई प्राण शर्मा जी ने संकेत किया है. असल में यह गलती मेरे लिखने में रह गई थी। यदि हो सके तो इस मिसरे को सुधारने की कॄपा करें। मिसरा निम्नानुसार है-
'भले मौसम बहारों का कभी नही आता '
'किसी की चाह की बगिया मगर हरी होती'


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१८ जून को हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ

   

बुधवार, 18 मई 2011

चंद्रभान भारद्वाज की ग़ज़लें

चंद्रभान भारद्वाज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. गजलों की दुनिया में उनका एक बड़ा नाम है. ४ जनवरी १९३८ को इंदौर में जन्मे श्री भारद्वाज ने अपनी पढ़ाई-लिखाई आगरा विश्वविद्यालय और हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से पूरी की. हिंदी गजलों को नयी ऊंचाई देने में उनके योगदान को सभी लोग स्वीकार करते हैं. वही सीधी-सादी बातें, जो सबके अनुभव में रहतीं हैं, भारद्वाज जी की कलम का स्पर्श पाते ही इस तरह चमक उठतीं हैं कि पाठक सम्मोहित हुए बगैर नहीं रहता. यहाँ प्रस्तुत हैं चंद्रभान भारद्वाज की चार गजलें---                           

                               (१)


बुझे दीये में भी इक बार रोशनी होती
किसी के नाम से यदि ज़िन्दगी जुड़ी होती

कड़कती धूप में तपता भले ही सिर अपना
मगर पाँवों के नीचे आज चाँदनी होती

भले मौसम बहारों का कभी नहीं आता
किसी की चाह की बगिया मगर हरी होती 

नज़र में दूर तक फैला सदा अँधेरा ही
मगर विश्वास की कोई किरण दिखी होती

डगर में पाँव के छाले कहीं पे सहलाने
किसी भी पेड़ की इक छाँह तो मिली होती

कभी  ये ज़िन्दगी ऐसे न धुँधवाती रहती
सुलगने  को कहीं थोड़ी हवा रही होती

जगह देती न 'भारद्वाज' को अगर दुनिया
नई दुनिया किसी दिल में अलग बसी  होती  

  (२)

फूस पर चिनगारियों का नाम हो जैसे
ज़िन्दगी दुश्वारियों का नाम हो जैसे

पेड़ जब होने लगे हैं छाँह के काबिल
हर तने पर आरियों का नाम हो जैसे

आह आँसू  करवटें तड़पन प्रतीक्षाएँ
प्यार ही सिसकारियों का नाम हो जैसे

कुर्सियों पर लिख रहे हैं लूट के किस्से
हर डगर पिंडारियों का नाम हो जैसे

नाम अपना भी वसीयत में लिखा था कल
आज सत्ताधारियों का नाम हो जैसे

दुश्मनी तो दुश्मनी है क्या कहें उसकी
यारियाँ गद्दारियों का नाम हो जैसे

लोग 'भारद्वाज' कहते हों भले जनपथ
पर वो अब अतिचारियों का नाम हो जैसे


 (३)

राह में जिसकी जलते शमा की तरह
वो गुजरता है पागल हवा की तरह

छलछलाते हैं आँसू अगर आँख में
पीते रहते हैं कड़वी दवा की तरह

करना मुश्किल उसे धड़कनों से अलग
प्राण लिपटे तने से लता की तरह

प्यार का पुट न हो ज़िन्दगी में अगर
तो वो लगती है बंजर धरा की तरह

इक नियामत सी लगती थी जो ज़िन्दगी
कट रही एक लम्बी सजा की तरह

उड़ गए संग झोंकों के बरसे बिना
जो  घुमड़ते रहे थे घटा की तरह

एक पत्थर की मूरत पसीजी नहीं
पूजते हम रहे देवता की तरह

हमने प्रस्ताव ठुकरा दिया इसलिए
प्यार भी मिल रहा था दया की तरह

सूझता ही न अब कुछ 'भरद्वाज' को
प्यार सिर पर चढ़ा है नशा की तरह 

(४)

आदमी की सिर्फ इतनी सी निशानी देखना
आग सीने में जली आँखों में पानी देखना

जब किसी को प्यार की कोमल कसौटी पर कसो
बात में ठहराव नज़रों में रवानी देखना

आँख के आगे घटा जो सिर्फ उतना सच नहीं
आँख के पीछे घटी वह भी कहानी देखना

वक़्त ने कितनी बदल डाली है सूरत आपकी
एलबम में अपनी तसवीरें पुरानी देखना

देखना क्या नफरतें क्या गफ्लतें क्या रंजिशें
जो किसी ने तुम पे की वह मेहरबानी देखना

गैर के दुःख दर्द अपनी खुशियाँ हर दम बाँटना
हर कदम पर ज़िन्दगी सुंदर सुहानी देखना

वक़्त 'भारद्वाज' अपने आप बदलेगा नज़र
बेटियों में शारदा कमला शिवानी देखना

संपर्क--०९८२६०२५०१६
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शनिवार १८ जून को साखी पर 
हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएं

हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...