शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

नीरज गोस्वामी की गजलें


  आप जानते हैं नीरज गोस्वामी को? अगर आप की दिलचस्पी शायरी में, कविता में है तो जरूर जानते होंगे| चौदह अगस्त उन्नीस सौ पचास को पठानकोट, जम्मू में जन्मे| वे खुद कहते हैं,  याने हम ताज़ा ताज़ा सठियाये हैं| स्थाई निवास जयपुर में|  इंजीनियरिंग  की पढ़ाई की, वर्तमान में भूषण स्टील लिमिटेड खोपोली, खंडाला के पास, में वाइस प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत हैं| साहित्य, सिनेमा, संगीत ,क्रिकेट, भ्रमण में रूचि है| साखी के लिए जब मैंने नीरज जी से परिचय माँगा तो उन्होंने सिर्फ इतना ही भेजा| मुझे लगा लोग कुछ और जानना चाहेंगे तो मैंने विस्तार से लिखने को कहा| पढ़िए उन्होंने क्या लिखा... भाई जान परिचय में क्या जानना चाहते हैं ये तो बताइए और वैसे भी परिचय पढ़ने की फुर्सत किसे होती है आज के ज़माने में। कोई फोटो देख ले वो ही गनीमत समझो फिर भी अगर आप कुछ विशेष जानकारी चाहते हैं तो लिख भेजें। अब और क्या परिचय दें सिवा इसके कि  हमने शायरी अभी  पिछले तीन साल से लिखनी शुरू की जबकि पढ़नी पचास साल पहले ही कर दी थी। इस लायक कभी कुछ लिखा नहीं कि  उसे किसी रिसाले या अखबार में छपने के लिए भेजते। किताब छपवाने जैसी खतरनाक बात कभी सोची नहीं, ये सोच कर कि  अगर कभी खुदा न खास्ता छप गयी तो पढ़ेगा कौन? पहले जब गज़लें लिखता था तो अपनी एक मात्र बीवी की शराफत का नाजायज फायदा उठा कर उसको सुनाया करता था, क्यूँ कि  बेटा बहू  ने पहले ही कह दिया था कि  पापा गाली दे दो लेकिन ग़ज़ल मत सुनाना। गरीब मजलूम बीवी के हमारी गज़लें सुनते-सुनते जब कान पकने लगे, सब्र का बाँध टूटता नज़र आया और बात तलाक तक पहुँचने की नौबत आ गयी तो एक शरीफ मित्र ने समझाया कि  भाई काहे नाहक सीधी-सादी एक मात्र बीवी की जान के पीछे पड़े हो| तुम्हारी ग़ज़लें यूँ तो कोई सुनेगा नहीं| ऐसा करो एक ब्लॉग खोलो और उस पर डाल दो| अगर कोई पढ़ कर नाराज़ भी हुआ तो ज्यादा से ज्यादा एक आध गाली लिख देगा लेकिन तुम्हारा घर तो नहीं टूटेगा। तब से अब तक ब्लॉग के माध्यम से भडांस निकल रहे हैं। और क्या बताएं...? भाई मैं तो इस भड़ास में गजल देखता हूँ| लीजिये उनकी भड़ास के चार अदद टुकड़े पेश हैं---
१.

मान लूँ मैं ये करिश्मा प्यार का कैसे नहीं
वो सुनाई दे रहा सब जो कहा तुमने नहीं

इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
जान दे दो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं

तल्ख़ बातों को जुबाँ से दूर रखना सीखिए
घाव कर जाती हैं गहरे जो कभी भरते नहीं

अब्र लेकर घूमता है ढेर-सा पानी मगर
फ़ायदा कोई कहाँ गर प्यास पे बरसे नहीं

छोड़ देते मुस्कुरा कर भीड़ के संग दौड़ना
लोग ऐसे ज़िंदगी में हाथ फिर मलते नहीं

खुशबुएँ बाहर से 'नीरज' लौट वापस जाएँगी  
घर के दरवाज़े अगर तुमने खुले रक्खे नहीं

२.
जड़ जिसने थी काटी प्यारे
था अपना ही साथी प्यारे

सच्चा तो सूली पर लटके
लुच्चे को है माफी प्यारे

उल्टी सीधी सब मनवा ले
रख हाथों में लाठी प्यारे

सोचो क्या होगा गुलशन का
माली रखते आरी प्यारे

इक तो राहें काटों वाली
दूजे दुश्मन राही प्यारे

भोला कहने से अच्छा है
दे दो मुझको गाली प्यारे

मन अमराई यादें कोयल
जब जी चाहे गाती प्यारे

तेरी पीड़ा से वो तड़पे
तब है सच्ची यारी प्यारे

तन्हा जीना ऐसा "नीरज"
ज्यूं बादल बिन पानी प्यारे


गूगल से साभार 
 ३.
तीर खंजर की ना अब तलवार की बातें करें
जिन्दगी में आइये बस प्यार की बातें करें

टूटते रिश्तों के कारण जो बिखरता जा रहा
अब बचाने को उसी घर बार की बातें करें

थक चुके हैं हम बढ़ा कर यार दिल की दूरियां
छोड़ कर तकरार अब मनुहार की बातें करें

दौड़ते फिरते रहें पर ये ज़रुरी है कभी
बैठ कर कुछ गीत की झंकार की बातें करें

तितलियों की बात हो या फिर गुलों की बात हो
क्या जरुरी है कि हरदम खार की बातें करें

कोई  समझा ही नहीं फितरत यहां इन्सान की
घाव जो देते वही उपचार की बातें करें

काश 'नीरज' हो हमारा भी जिगर इतना बड़ा 
जेब खाली हो मगर सत्कार की बातें करें

४.
दर्द दिल में मगर लब पे मुस्कान है
हौसलों की हमारे ये पहचान है

लाख कोशिश करो आके जाती नहीं
याद इक बिन बुलाई सी महमान है

खिलखिलाता है जो आज के दौर में
इक अजूबे से क्या कम वो इंसान है

ज़र ज़मीं सल्तनत से ही होता नहीं
जो दे भूखे को रोटी, वो सुलतान है

मीर, तुलसी, ज़फ़र, जोश, मीरा, कबीर
दिल ही ग़ालिब है और दिल ही रसखान है

पांच करता है जो, दो में दो जोड़ कर
आजकल सिर्फ उसका ही गुणगान है

ढूंढ़ता फिर रहा फूल पर तितलियां
शहर में वो नया है या नादान है

गर न समझा तो नीरज बहुत है कठिन
जान लो ज़िन्दगी को तो आसान है

संपर्क
neeraj1950@gmail.com

ब्लाग 
http://ngoswami.blogspot.com/

फोन : 9860211911



पता: नीरज गोस्वामी द्वारा भूषण स्टील लिमिटेड , 608, रीजेंट चेम्बर्स, नरीमन पोआइंट, मुंबई -400021 

99 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही नायाब ग़ज़लें हैं। सभी ग़ज़लें बेहतरीन हैं। यह शे‘र सबसे जयादा पसंद आया-
    तल्ख बातों को जुबां से दूर रखना सीखिए
    घाव कर जाती हैं गहरे जो गभी भरते नहीं।
    ...और हां, आपका परिचय भी एक ग़ज़ल से कम नहीं।
    ...शुभकामनाएं।

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  2. आपके बारे में आज जाना, अच्छा लगा.

    आपकी सारी रचनाये बहुत अच्छी लगी. एक से बढ़ कर एक.

    बधाई...साखी पर इस प्रस्तुति के लिए.

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  3. नीरज भाई की ग़ज़लों में वो स्‍वयं स्‍पष्‍ट दिखते हैं भाव पक्ष में जब एक सीधे-सादे इंसान के रूप में सादगी से सीधी-सच्‍ची ज़बां में बात कर रहे होते हैं। स्‍वभाविक है कि इनकी ग़ज़लों में सोच और सरोकार स्‍पष्‍ट रूप से उभरकर आते हैं। यह तो हो गया इनकी ग़ज़लों का भाव पक्ष जो मैनें अब तक पढ़ा है लेकिन ग़ज़ल 2 में काफि़या लेने में चूक हो गयी है और ग़ज़ल 4 में हिन्‍दी के नजरिये से तो काफि़या दोष नहीं है लेकिन उर्दू के नज़रिये से दोष है कुछ अशआर के काफि़या में।
    ग़ज़ल 2 के मत्‍ले के शेर में काफि़या से बढ़ा हुआ मात्रिक अंश हटा देने से समतुकान्‍त शब्‍द नहीं बचते हैं। इसके अतिरिक्‍त सभी काफि़या ऐसे नहीं हैं कि उनसे मात्रा हटाने पर विशुद्ध शब्‍द बचता हो। इसका निराकरण मात्र मत्‍ले के शेर को बदलने से हो जाता है।
    ग़ज़ल 4 में आसान, नादान, मकान, इंसान आदि जो शब्‍द लिये गये हैं उनका उर्दू में जो रूप है उसमें पहचान, गुणगान, रसखान आदि मान्‍य नहीं हैं लेकिन हिन्‍दी में ये स्थिति अनुमत्‍य हैं और दोष नहीं मानी जाती।
    मैं तो इन्‍हें बड़ा भाई मानता हूँ और जिंदादिल इंसान हैं इसलिये उत्‍पात मचाने का अधिकार रखता हूँ, सो शुरुआत कर दी है।

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  4. नीरज जी क्षमा याचना के साथ गज़ल के कहन पर संक्षेप में कुछ कहना चाहता हूँ ....

    पहली गज़ल बहुत हल्की लगी, सीधी सादी बात को भी इतना लपेट कर कहा गया है की कहन खो जा रही है

    दूसरी गज़ल में कई शेर रदीफ के साथ तालमेल ही नहीं बैठा पा रहे
    जो गज़ल पर फिर से मेहनत की मांग कर रहे हैं
    और यह मिसरा अपनी बात पूरी कर सकने में सक्षम नहीं है
    दूजे दुश्मन राही प्यारे
    दुश्मन राही को प्यारा बताए जाने का बोध हो रहा है

    तीसरी गज़ल में भी काफी लोच है
    थक चुके हैं हम बढ़ा कर यार दिल की दूरियां
    में यार शब्द सीधे सीधे भर्ती का शब्द है इसे बहुत आसानी से सुधारा जा सकता था कुछ इस तरह
    थक चुके हैं हम बढ़ा कर दिल से दिल की दूरियां

    तितलियों की बात हो या फिर गुलों की बात हो
    क्या जरुरी है कि हरदम खार की बातें करें

    इस शेर में भी पहले और दूसरे मिसरे में तालमेल का झोल है

    इसे भी इस तरह कहा जा सकता था

    तितलियों की बात कर लें या गुलों की बात ही
    क्यों जरुरी है कि हरदम खार की बातें करें


    चौथी गज़ल के मक्ते में पहला मिसरा उलझा हुआ है
    गर न समझा तो नीरज बहुत है कठिन

    नीरज के कठिन होने का बोध हो रहा है

    आप की अन्य ग़ज़लों का स्तर इन ४ ग़ज़लों से बहुत ऊंचा है
    मुझे हैरानी हुई की आपने साखी के लिए यह ४ गज़ल ही क्यों दी
    साथ ही थोड़ी निराशा भी हुई

    - बेनामी

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  5. नीरज गोस्वामी की गजलों का स्थाई भाव प्रेम लगता है -
    मुझे इश्तिहार से लगती हैं ये मुहब्बतों की कहानियाँ
    जो कहा नहीं वो सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो (बशीर बद्र )
    की याद हो आयी पहली गजल पढ़ कर

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  6. अभी नीरज भाई को पढ रहा हूं. देखने आया था लेकिन एक चीज़ ने ठहरने पर मजबूर कर दिया. 'बेनामी' टिप्पणी की शुरूआत साखी पर होना दुख की बात है. अगर आप में किसी रचनाकार के गुण-दोष मुंह पर कहने की हिम्मत नहीं है तो खामोश ही रहें. एक 'पर्देदार' के चक्कर में हर कोई शक के दायरे में रहे, बेहद खराब मामला है.
    मैं ने इन्हीं स्थितियों के मद्देनज़र माडरेशन के लिए कहा था. क्या मेरी आवाज़ सुनी जाएगी?

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  7. सर्वत भाई, मैं आप की तरफ से और साखी परिवार की तरफ से श्रीमान बेनामी से निवेदन करता हूं कि वे अपना परिचय दें अन्यथा उनकी टिप्पणी होते हुए भी नहीं मानी जायेगी. मैं किसी को भी बांधना नहीं चाहता लेकिन साखी की संगोष्ठी में शामिल होने वाले मित्रों से जरूर आग्रह करूंगा कि किसी भी बेनामी टिप्पणी को नोटिस न लें, न ही उस पर अपनी कोई बात कहें. बेनामी जी यहां होते हुए भी नहीं है, ऐसा समझा जाये.

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  8. नीरज जी को कौन नही जानता। जब मै ब्लागजगत मे आयी थी तो मुझे उत्साहित करने वाले नीरज जी ही थे। उनकी गज़लों की और गज़ल पुस्तकों की समीक्षा की तो पहले ही कायल हूँ। आखिर मेरे पंजाब मे जन्मे पंजाब के शेर हैं। नीरज जी गम न करें हम भी सठियाये हुये ही है। आपकी शायरी पर तो केवल एक ही शब्द निकलता है वाह,, वाह । अनीरज जी को शुभकामनायें, आपका धन्यवाद।

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  9. बेनामी भाई...काश आपका नाम होता, लेकिन बेनामी को नाम मानते हुए कहना चाहता हूँ के बंधू आलोचना कोई गाली नहीं होती बल्कि उस से लेखन में परिपक्वता आती है...बशर्ते आलोचना को सही ढंग से लिया जाए.आपने गज़लों को लेकर जो कहा वो मेरे लेखन के भले के लिए ही है लेकिन भली बात को कहने के लिए नाम को बेनाम करने की बात समझ में नहीं आई.

    आपने जो कमियां गज़ल में बताई हैं वो वास्तव में हैं और ये ग़ज़लें सुधार की प्रक्रिया से गुजरने लायक हैं. मुझे अपने लेखन को लेकर कोई मुगालता नहीं है , मैं अभी सीखने की प्रथम सीढ़ी पर ही हूँ और आगे जाने के लिए बेनामी भाई जैसे आलोचकों की आवशयकता महसूस करता हूँ.

    मेरी आप सब से येही गुज़ारिश है के गज़ल में आये दोषों की बेधड़क व्याख्या करें इस से मुझे अधिक लाभ होगा.

    नीरज

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  10. अगर ब्‍लॉग बेनामी टिप्‍पणियों की अनुमति देता है तो ये आयेंगी, और जब आयेंगी तो पढ़ी भी जायेंगी और सीधे-सीधे इनपर उत्‍तर न भी दिये जायें तो अप्रत्‍यक्ष रूप से इनपर बात भी रखी जायेगी। बेहतर विकल्‍प तो यह रहेगा कि ब्‍लॉग बेनामी टिप्‍पणियों की अनुमति ही न दे। सर्वत साहब मर्यादाओं के पक्षधर रहे हैं इसलिये वो बार-बार माडरेशन की बात करते हैं, सामान्‍य ब्‍लॉग (जहॉं केवल टिप्‍पणी प्राप्‍त होती हों) पर यह ग़ल़त भी नहीं है। लेकिन किसी चर्चा-मंच पर माडरेशन में एक समस्‍या है, वह यह कि जब तक माडरेटर स्‍वीकार न करे टिप्‍पणी दिखाई नहीं देगी। अब या तो माडरेटर दिन भर बैठा यह काम करता रहे या ब्‍लॉग विजि़टर्स को ज्ञात हो कि माडरेटर कब कब टिप्‍प्‍णी पर निर्णय लेता है जिससे वे उस समय सभी स्‍वीकृत टिप्‍पणियों को देखकर अपनी टिप्‍पणी दे सके। इसका एक और हल भी है जो मुझे लगता है शीघ्र ही हमें देखने को मिल सकता है।
    'गूगल की जासूसी' इसमें हमारी मदद करेगी। गूगल की जितनी भी सेवायें हैं उनमें कुछ ऐसी व्‍यवस्‍थायें हैं जिनके माध्‍यम से यह बात स्‍वत: उन तक पहुँच जायेगी और बहुत जल्‍दी इस पर कार्रवाई भी हो जायेगी।
    यह हल है ब्‍लॉग पर चैट रूम की; अगर ब्‍लॉग पर चैट रूम उपलब्‍ध रहे तो समझिये ऑन लाईन काफ़ी हाउस मिल गया। अपनी-अपनी बात कहें सभी सुन रहे हैं और अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। हॉं तथाकथित विवाद की स्थिति तो कहीं भी बन सकती है।
    विवाद को रोकने का सही विकल्‍प तो आत्‍मनियंत्रण है। अगर किसी ने ऐसा कुछ कहा है जो अनर्गल बकवास माना जा सकता है तो हमें उसपर ध्‍यान ही नहीं देना चाहिये और स्‍वयं को सीमित कर लेना चाहिये चर्चा के विषय पर।
    अब प्रश्‍न आता है वर्तमान बेनामी साहब का; हो सकता है कि किसी मर्यादा के कारण वे खुलकर नीरज भाई की ग़ज़ल पर कुछ कहने से हिचक रहे हों। अगर इस टिप्‍पणी में ऐसा कुछ सार्थक न लगता हो जिसपर जवाब की आवश्‍यकता हो तो यह टिप्‍पणी निरर्थक है; अगर इसमें कुछ सार्थक अंश है तो उसपर चर्चा तो होनी ही चाहिये। इस तरह की बेनामी टिप्‍पणी दो ही स्थिति में दी जा सकती हैं; पहली तो यह कि टिप्‍पणी देनेवाला आश्‍वस्‍त नहीं है कि जो बात वह कह रहा है वह ठीक है अथवा नहीं, दूसरी यह कि व‍ह किसी मर्यादा के कारण नीरज भाई के सामने यह बात खुलकर कहने का साहस नहीं कर पा रहा है।
    ग़ज़ल का हर शेर स्‍वतंत्र कविता होता है इसलिए बेनामी जी की बात सही है कि शेर 'इक तो राहें .....राही प्यारे' अलग से पढ़ा जाये तो कोई भ्रम की स्थिति नहीं रहनी चाहिये। लेकिन यहॉं यह भी देखना जरूरी है कि किसी ग़ज़ल का हर शेर परिस्थिति साम्‍य के आधार पर मौज़ू हो सके, ऐसे में वह शेर स्‍वयं में अपनी बात पूरी तरह से कहेगा तो सही लेकिन ग़ज़ल के अंश के रूप में ही। इस दृष्टि से विवेचित शेर मौज़ू रूप में प्रस्‍तुत किये जाने योग्‍य न होने से कमज़ोर है।
    जहॉं तक 'थक चुके हैं .....मनुहार की बातें करें' का प्रश्‍न है इसमें 'थक चुके हैं हम बढ़ा कर दिल से दिल की दूरियां' भी ठीक सुझाव नहीं है। दिल से दिल की दूरियॉं बढ़ाई नहीं जाती है, बढ़ जाती हैं
    अगर यह कहा जाता कि 'तल्‍ख़ बातों से अभी तक पाई हमने दूरियॉं, छोड़कर तकरार अब मनुहार की बातें करें' तो बात बनती है। पहली पंक्ति में वर्तमान तक आकर दूसरी पंक्ति में सुखद भविष्‍य की बात है जिसमें कोई दूरी नहीं रहती।
    तितलियों ......... खार की बातें करें में भी सुझाव कमज़ोर है
    फ़ूल, पत्‍ती, तितलियों के रंग हैं औ रास है
    फिर भला ग़लशन में क्‍यूँ हम खार की बातें करें।
    क्‍यूँ न कहा जाये।

    गर न समझा तो नीरज बहुत है कठिन
    जान लो ज़िन्दगी को तो आसान है

    'गर न समझे.... आसान है' में दोष ग़ल़त इंगित किया गया है। हॉं इसमें नीरज को व्‍यक्ति विशेष या तखल्‍लुस का रूप स्‍पष्‍ट करने के लिये 'नीरज' लिखा जाता तो ठीक रहता। यह शेर सरल हो सकता था अगर कहा जाता कि ' गर न समझे तो जीवन बहुत है कठिन; जान लीजे तो 'नीरज' ये आसान है'।

    पिछले एक वर्ष के अनुभव में मैनें पाया है कि कहन सब की अलग अलग होती है इसलिये इसपर टिप्‍पणी देते समय सावधान रहना बहुत जरूरी है। कहन में केवल यह देखना पर्याप्‍त रहता है कि व्‍याकरणसम्‍मत है कि नहीं।

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  11. मेरे लिये गजल गीत कविता सब एक ही है क्योंकि इस विधा की समझ अपने को नही है. यहां सिर्फ़ एक ही बात कहना चाहता हुं कि श्री नीरज गोस्वामी जी की शायरी के भाव दिल को छू लेते हैं, मेरे जैसे आम आदमी को तकनीकी और मीटर से कुछ लेना देना नही है. नीरज जी एक शनादार और प्यारी सख्शियत के इंसान हैं. आपसे बात करके यूं लगता है मानों मुंह से फ़ूल झर रहे हों. नीरज जी का एक परिचयनामा मैने मेरे ब्लाग पर किया था, नीरज जी की खुद की गाई गजल सुनकर मैने उसे उस पोस्ट में भी लगायी थी.

    नीरज जी जैसे इंसान कम ही दिखाई देते हैं इस दुनियां में. बहुत अच्छा लगा यहां उनके बारे में पढना. आपका आभार और नीरज जी को बहुत शुभकामनाएं.

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  12. एक सुंदर व्यक्तितव से रूबरू हुए, आभार
    गज़लें भी आनंदित कर गई।
    बधाई निरज जी

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  13. ्नीरज जी को पढना हमेशा सुकून देता है ………………उनकी गज़लों की रवानगी गज़ब की होती है अपने साथ बहाकर ले जाती है…………हर शेर ज़िन्दगी का आईना होता है कभी कभी तो खुद की शक्ल नज़र आती है…………………और देखिये ना आज की चारों गज़लें बेहतरीन हैं ……………।किस शेर को छोडूं और किसकी तारीफ़ करूँ……………एक अलग ही कशिश होती है उनके शेरों मे……………इसकी बानगी देखिये तो सही

    इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
    जान दे दो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं

    क्या खूब कहा है और कितनी संजीदगी से कहा है।

    छोड़ देते मुस्कुरा कर भीड़ के संग दौड़ना
    लोग ऐसे ज़िंदगी में हाथ फिर मलते नहीं

    ओह ! क्या खूब ख्याल है यहाँ जो सोचने को मजबूर कर दे।

    तितलियों की बात हो या फिर गुलों की बात हो
    क्या जरुरी है कि हरदम खार की बातें करें

    और यहाँ एक अलग ही अन्दाज़ लिये हैं।


    लाख कोशिश करो आके जाती नहीं
    याद इक बिन बुलाई सी महमान है

    खिलखिलाता है जो आज के दौर में
    इक अजूबे से क्या कम वो इंसान है

    दोनो ही शेर एक अलग अन्दाज़ पेश करते हैं और हर अन्दाज़ मे उन्हे महारत हासिल है।

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  14. सुभाष राय जी, आपने आज नीरज जी के व्यक्तित्व पर रौशनी डाली बहुत बहुत आभार. उनके चाहने वालों को खुशी मिली होगी.

    दूसरे

    तीर खंजर की ना अब तलवार की बातें करें
    जिन्दगी में आइये बस प्यार की बातें करें

    ये पंक्तियाँ उनका व्यक्तित्व ही बयाँ करती हैं.

    जवाब देंहटाएं
  15. सम्मानीय नीरज जी को बहुत समय से पढता आया हूँ..उनकी ग़ज़लों के आशारों के बारे में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखने जैसा होगा..और मैं तो अभी दीपक भी नहीं बन पाया..हूँ! नीरज जी की सभी ग़ज़लें..बेहतरीन और मुकम्मल हैं..! (हालाँकि मैं ग़ज़लों के कलापक्ष से वाकिफ नहीं पर..इतना जरूर जनता हूँ कि ये गेय हैं..इसलिए बहर में प्रतीत हुई) एक निवेदन और करना चाहूँगा कि ग़ज़लों के उर्दू शब्दों का अर्थ भी अगर लिख दिया जाए तो मेरे जैसों को और भी अच्छी तरह समझ में आयेगी.
    मैं आदरणीय सर्वत साहब की बातों से अक्षरशः सहमत हूँ कि बेनामी टिप्पणियों को साखी जैसे मंच पर आना..अच्छा अनुभव नहीं है. आलोचना स्वयं में एक परिपक्वता को दर्शाती है..अगर आपमें परिपक्वता है और समस्त लेखन विधा को गहरे से जानते हाँ तो ही आलोचना कर सकते हैं..अन्यथा वो आलोचना ना होकर..सिर्फ एक गाली तक ही सीमित रह जाती है.. अगर आपमें क्षमता है आलोचना करने की तो कीजिये, बेशक कीजिये...पर सामने आकार कीजिये..ताकि जब आपकी आलोचना का लेखन या अन्य जब स्पष्टीकरण दें, तो आप सक्षम होने चाहिए उस स्पष्टीकरण का पुनः स्पष्टीकरण कर अपनी आलोचना के पक्षों को तार्किक और मजबूती से कर सकें..यूं बनामी टिपण्णी करने को तो मैं इस तरह व्यक्त करना चाहूँगा कि आलोचना तो करदी..पर स्वयं पर विश्वास नहीं है..इसलिए अपने आपको आपको परदे के पीछे रखा है...!
    इस सन्दर्भ में मैं माननीय सुभाष राय जी से विनती और प्रार्थना करना चौंगा कि टिप्पणियों का moderation ओन करें..ताकि इस तरह की बेनामी टिप्पणियों से या अनौचित्य टिप्पणियों से बचा जासके...!
    छोटा मुह बड़ी बातें कह तो दीं...माफ़ कर दीजियेगा..प्रणाम !

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  16. नीरजजी का नाम गझल क्षेत्र में नया नहीं है | दुनिया के मशहूर और खाँसाहब की गझलें पढी हैं, मगर ये आलोचना का तरीका नहीं | आलोचक की भी भाषा में भी नम्रता और सहजता होती है | ये नीचे गिराने की भाषा है | खुद को "बेनामी" बताकर पहचान छुपाना कायरता है | मैं कायरों से बात नहीं करता | डॉ. सुभाष जी और नीरजजी के प्रति आदर होने के कारण आना पडा | वैसे एक सम्पादक ने अपना कार्य बखूबी किया उसके लिएँ धन्यवाद |

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  17. मैं आप सब के प्रेम से अभिभूत हूँ...एक साधारण से शायर को इतना मान देना एक असाधारण घटना ही कही जायेगी...मुझे समझ नहीं आ रहा मैं कैसे आपका आभार प्रगट करूँ...

    नीरज

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  18. खुशबुएँ बाहर से 'नीरज' लौट वापस जाएँगी
    घर के दरवाज़े अगर तुमने खुले रक्खे नहीं
    kamaal ki baat hai

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  19. मुझे तो गज़ल की अकल ही नहीं है ...बस हमेशा नीरज जी को पढ़ना अच्छा लगता है क्यों कि उनकी लिखी हर गज़ल सीधे मन पर दस्तक देती है ...कमियां क्या हैं यह नहीं बता सकती ...और आप मोडरेशन न भी लगाएं तो भी बेनामी की टिप्पणियों पर रोक लगा सकते हैं सेटिंग में जा कर ...

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  20. बेनामी साहब कहते हैं कि 'पहली गज़ल बहुत हल्की लगी, सीधी सादी बात को भी इतना लपेट कर कहा गया है की कहन खो जा रही है'। यह कुछ आधी-अधूरी सी बात हुई यह स्‍पष्‍ट होना चाहिये कि ग़ज़ल में हल्‍का क्‍या लगा और किस शेर से कहन नहीं निकल रही।

    मत्‍ले का शेर कह रहा है 'जो तुमने कहा नहीं है वह सुनाई दे रहा है तो मैं कैसे मान लूँ कि यह प्‍यार का करिश्‍मा नहीं है'
    दूसरे शेर में कहा गया है कि 'मुझे तो इश्‍क का यही तरीका सबसे सही लगता है कि जान भी दो तो कहीं चर्चा न हो'। यहॉं चर्चा शब्‍द रुस्‍वाई की बात कर रहा है।
    कहने की जरूरत नहीं कि पहली ग़ज़ल के औजान हैं 2122, 2122, 2122, 212
    अगर बेनामी जी आप बेनाम रहते हुए ही यही दो बातें इसी मीटर में अपने तरीके से कहें तो बात कुछ समझ में आये। हो सकता है आपकी बात में दम हो लेकिन संकोचवश न कह पा रहे हों।
    दूसरी गज़ल में केवल मत्‍ले का शेर बदलने से सारी ग़ज़ल में काफि़या दोष दूर हो जाता है। 'जड़ जिसने थी काटी, प्यारे; था अपना ही साथी, प्यारे' की जगह 'जड़ जिसने काटी थी, प्यारे; था साथी अपना ही, प्यारे' । इस ग़ज़ल में जो रदीफ़ प्रयोग किया गया है वह सामान्‍य बोलचाल की भाषा से है। और इस तरह की कहन हो सकती है।
    तीसरी और चौथी ग़ज़ल पर तो मैं अपनी बात पहले ही रख चुका हूँ।
    मुझे लग रहा है कि समस्‍या की जड़ विराम चिह्नों की अनुपस्थिति में है। विराम चिह्नों के बारे में मेरा ज्ञान इतना कम है कि मैं आश्‍वस्‍त हूँ कि मैं स्‍वयं बहुत सी ग़ल्तियॉं विराम चिह्न उापयोग में करता हूँ।

    बेनामी साहब ने जिस तरह बात समाप्‍त की है उससे यह तो स्‍पष्‍ट है वो नीरज भाई की अन्‍य ग़ज़लों को अच्‍छे स्‍तर का मानते हैं लेकिन इन ग़ज़लों के चयन पर उन्‍हें एतराज़ है और इस चयन से उन्‍हें निराशा हुई है।
    मुझे ज्ञात नहीं कि यहॉं चर्चा के लिये रचनाओं का चयन ब्‍लॉगस्‍वामी द्वारा किया जाता है या रचनाकार स्‍वयं रचनायें चुनकर देते हैं।

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  21. वही मैं सोचा करता था कि आखिर नीरज भाई ने ब्लॉग क्यूँ खोला..आदमी तो ठीक ठाक लगते हैं..आज कारण जाना तो दिल को करार आया...


    वैसे गज़ले तो एक से एक उम्दा हैं, कितनी तारीफ करुँ...

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  22. (यथाकथित/तथाकथित) श्री ‘बेनामी’ साहब,

    आपका यूँ ‘बेनामी’ रूप में प्रकट होना ‘बे-मानी’ है!मुझे आपका यह अवतार देखकर ऐसा लगा कि जैसे अचानक कोई UFO (Unidentified Flying Object,यानी- उड़नतश्तरी)‘साखी’ पर उतरकर कुछ ज़रूरी/ग़ैर-ज़रूरी सामान रखके ‘उड़नछू’ हो गया/गयी हो।

    भैया, वो तो अच्छा हुआ कि आपने अपनी वचनावली के एक आरम्भिक वाक्य-- "...संक्षेप में कुछ कहना चाहता हूँ ...." में कृपापूर्वक अपने ‘पुल्लिग’ होने स्पष्ट संकेत कर दिया, वरना मुझे आप उलझन में डाल देते कि आपके आदर में ‘श्री’ लिखूँ अथवा ‘श्रीमती’?

    आद. श्री नीरज जी एवं डॉ. सुभाष राय जी,
    मैं जल्दी लौटूँगा...‘साखी’ पर। फिलहाल कुछ ज़रूरी काम में लग गया हूँ। ज़रूर आऊँगा...वादा।

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  23. नमस्कार मित्रों,
    कल रात कमेन्ट करने के बाद आज अब नेट पर वापसी हुई
    साखी पर सक्रिय ब्लागरों की प्रतिक्रिया को पढ़ कर मैं और निराश हुआ हूँ

    बड़ा अजीब लगा की मुझे जो आप्शन दिए गए उनमें से एक चुनने पर मैं आपकी नज़रों में चोर, भगोड़ा, अमर्यादित और डरा सहमा सा कैसे हो गया :)

    भई अगर नामी और बेनामी दोनों का आप्शन दिया गया और मैंने बेनामी चुन लिया तो कम से कम इसमें नैतिकता - अनैतिकता का प्रशन तो नहीं ही खड़ा होना चाहिए था
    मगर प्रशन खड़ा किया गया

    मैं कुछ और भी कहना चाहता हूँ मगर देखा तो तिलक जी के कमेन्ट में भी वही बात कही गई है तो उस कमेन्ट का ही एक अंश यहाँ कापी पेस्ट कर रहा हूँ
    -----------------------------------------------
    " तिलक राज कपूर ने कहा…

    अगर ब्‍लॉग बेनामी टिप्‍पणियों की अनुमति देता है तो ये आयेंगी, बेहतर विकल्‍प तो यह रहेगा कि ब्‍लॉग बेनामी टिप्‍पणियों की अनुमति ही न दे।
    सर्वत साहब मर्यादाओं के पक्षधर रहे हैं इसलिये वो बार-बार माडरेशन की बात करते हैं, सामान्‍य ब्‍लॉग (जहॉं केवल टिप्‍पणी प्राप्‍त होती हों) पर यह ग़ल़त भी नहीं है। लेकिन किसी चर्चा-मंच पर माडरेशन में एक समस्‍या है, वह यह कि जब तक माडरेटर स्‍वीकार न करे टिप्‍पणी दिखाई नहीं देगी।
    ----------------------------------------------
    सुभाष जी आपसे निवेदन है की यदि आप बेनामी कमेन्ट नहीं चाहते तो आपको यह आप्शन हटा देना चाहिए
    एक विनती है माडरेशन न लगाएं

    --- ज़ारी

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  24. अभी मैं बेनामी जी का पक्ष लेने आया हूं। जब तक बेनामी टिप्‍पणियों में मर्यादित रूप में तर्कसंगत बात कही जा रही हो तब तक मुझे तो कोई समस्‍या नहीं लगती। यहां बेनामी जी के नाम से जो टिप्‍पणियां आई हैं उनमें तो काम की ही बात कही गई है। माफ करें यह उन नामचीनों से तो अच्‍छे ही हैं जो बात बात पर एक दूसरे को गाली देने लगते हैं। अगर तर्क की बात परदे के पीछे से भी कही जाए तो क्‍या फर्क पड़ता है।
    जहां तक मॉडरेटर लगाने की बात है तो मैंने तो सुभाष जी को साखी के पहले एपीसोड के बाद ही यह सलाह दे डाली थी।

    पर मेरी राय है कि कम से कम साखी पर तो उसे नहीं लगाया जाना चाहिए। अगर कोई अमर्यादित टिप्‍पणी आती है चाहे वह नाम के साथ हो उसे सेंटिंग में जाकर हटाया जा सकता है।

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  25. सुभाष जी,

    मेरा परिचय बहुत छोटा सा है
    आम आदमी हूँ छोटे से शहर में रहता हूँ
    साहित्यिक रुझान है
    लगभग एक साल से अंतरजाल पर एक पाठक के तौर पर सक्रीय हूँ
    कोई ब्लॉग नहीं है
    साखी से भी एक अनाम पाठक के तौर पर ही जुडा, साखी पर कल नीरज जी की पोस्ट को पढ़ कर रहा नहीं गया और पहला कमेन्ट किया |

    अब इस बात से किसी को क्या फर्क पड़ता है की मैं
    सरजू प्रसाद, रमेश तिवारी, विकास चावला, अनुज शर्मा में से एक हूँ या नहीं
    और मेरी उम्र २३, ३३, ४३, ५३ में से कोई या नहीं

    साखी मंच को जिस उद्देश्य से खड़ा किया गया है उसमें यह सफल है लोग जुड रहे हैं बिना हिचक के अपनी बात कह रहे है

    मगर पिछले दोनों व्यग्तिगत आक्षेप का जो दौर चला, लोग एक दूसरे को किसी व्यक्ति विशेष का पिट्ठू साबित करने पर तुले हुए थे, शायर आलोचना को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, और टिप्पणी करने वालों नें जिस तरह सिलाई उधेडू टिप्पडीयाँ की थी वह सब बहुत अफ़सोस जनक था

    खुल कर समीक्षा करने वालों की बखिया उधेड़ दी गई और भी बहुत कुछ हुआ जो किसी से छुपा नहीं है

    ऐसी माहौल में जब व्यग्तिगत आक्षेपों को अमर्यादा की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था और लोगों को सचेत करने की जरूरत थी तब आप का चुप रहना मुझ अनाम को बहुत अखरा

    साखी के सम्मानित सक्रिय सदस्यों व गुणीजन से मेरा विनम्र निवेदन है की मंच की गरिमा को बरकरार रखते हुए यह ध्यान दें की क्या कहा जा रहा है क्यों कहा जा रहा है, और जो कहा जा रहा है वह कितना उचित है
    न की यह, की कहने वाला कौन है ,,,
    ... नामी है या बेनामी है

    ... ज़ारी

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  26. मैं नीरज जी के ब्लॉग को एक साल से पढ़ रहा हूँ आपके व्यक्तित्व पर अगर यहाँ चर्चा की गई होती तो मैं ऐसा कमेन्ट करता की लोग भौचक्के रह जाते और फिर शायद मुझे भी उनका पिट्ठू घोषित कर दिया जाता

    फिलहाल यही कहूँगा की आप मिलनसार, हंसमुख, सीखने को तत्पर, रोते हो हसा देने वाले, दिलकश व्यक्तित्व के स्वामी हैं

    आपकी गजलें लोगों को अवसाद से बाहर निकालने का माद्दा रखती हैं
    आप गजलों में जीवन के हर उस रंग को समेटने की कोशिश करते हैं जो दिलकश है दिलफरेब है

    और यही कारण है की मुझे कमेन्ट करने पर विवश होना पड़ा
    मैंने इसलिए नीरज जी से पहले ही क्षमा याचना कर ली की मैं जानता हूँ नीरज जी बात को अन्यथा नहीं लेंगे
    मेरी बात को "आत्म सम्मान में ठेंस लग गई" के नजरिये से तो कदापि नहीं देखेंगे

    मुझे बहुत हैरानी हुई की गज़ल के चुनाव के समय आप सोच क्या रहे थे
    नीरज जी के पास इतने दिलकश नगीने हैं की देखने वालों की आँखें चौंधिया जाए फिर ऐसा क्यों की चार ग़ज़लों को भेजते समय इन्हें चुना जो थोडा अन गढ़ हैं

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  27. @ नीरज जी - आपने मेरे लिए जो कहा उसके लिए मैं पहले से आश्वस्त था, धन्यवाद

    @ तिलक जी - गज़ल के व्याकरण दोष पर चर्चा ही जरूरी नहीं है कहन पर भी चर्चा होनी चाहिए बशर्ते शायर के कहन से आप बिलकुल ही असंतुस्ट हों

    पहली गज़ल के बारे में मेरा आशय यह था की बात बहुत उलझा कर कही गई है
    दुष्यंत जी के चार मिसरे हैं

    मैं जिसे ओढता बिछता हूँ
    वो गज़ल आपको सुनाता हूँ

    तू किसी रेल सी गुजराती है
    मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ

    अब इस सादा कहन को जलेबी की तरह लपेट लपेट कर कहा जाए तो क्या वही आनंद आ पायेगा जो अभी मिल रहा है

    मेरे कहने का यही भाव था की गज़ल बहुत उलझी हुई लग रही है
    आपने खुद दुसरे शेर के लिए कह दिया

    “मुझे तो इश्‍क का यही तरीका सबसे सही लगता है कि जान भी दो तो कहीं चर्चा न हो'”

    मगर शेर को देखें कितना उलझा हुआ है

    इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
    जान दे दो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं

    मेरा सोचना है की अगर बात ज्यादा उलझ रही हो तो उस शेर को कहने से बचना चाहिए

    बाकी अगर आप मुझसे चाहते हैं की मैं भी बखिया उधेडू तो मुझसे यह न हो पायेगा

    ग़ज़लों पर चर्चा मुझ पर ही खत्म नहीं हो जानी थी
    बल्कि मैंने तो चौथा ही कमेन्ट किया था और मैंने कहीं भी यह नहीं कहा था की मैं जो कह रहा हूँ, जो सुझाव दे रहा हूँ वो बिलकुल सटीक है
    बल्कि मैंने तो कहा ही यह था की संक्षेप में अपनी बात रख रहा हूँ
    बाकी आपने मेरे दिल की बात कह दी की नीरज जी की अन्‍य ग़ज़लों को अच्‍छे स्‍तर का मानता हूँ और इन ग़ज़लों के चयन से मुझे निराशा हुई है।

    रही बात पोस्ट के लिए गज़ल के चुनाव की तो, यकीनन गज़लकार ही चुन कर देते हैं

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  28. आदरणीय बेनामी जी,
    ब्‍लॉगिंग की दुनिया में एक वर्ष में बहुत कुछ देखने को मिला है, यह एक नया अनुभव रहा। आपकी टिप्‍पणी से लगता तो नहीं, लेकिन अगर मेरे किसी कथन से आपको कोई चोट पहुँची हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ। आपकी बाद की टिप्‍पणियों ने मेरी यह धारणा और मजबूत कर दी है कि आप नीरज भाई के बहुत निकट हितैषी हैं और उनकी ग़ज़लों के प्रशंसक भी।

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  29. अब जब इतना कुछ कह दिया है तो जो कुछ दिल में बचा रह गया है वह भी कह ही दूं

    आज आप सभी के कमेन्ट पढ़ कर मुझे बहुत निराशा हुई

    सर्वत जी नें बेनामी कमेन्ट पर दुःख व्यक्त किया
    और सुभाष जी नें बेनामी पर ध्यान न देने को कहा

    मगर इन बातों का सबसे बड़ा प्रभाव तो नीरज जी की गजलों पर पड़ा

    लोग बेनामी का विरोध ही करते रह गए, किसी ने गज़ल पर कुछ खास नहीं कहा | सभी बेनामी कमेन्ट के विरोध में नीरज जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते रह गए

    यह मंच यहाँ पर पोस्ट की गई गज़ल पर चर्चा के लिए बनाया गया है | गज़लकार कितना ही छोटा हो, अनजान हो अथवा नामी हो, विश्व विख्यात हो, चर्चा “गज़ल” पर होनी चाहिए और उन गज़ल पर ही होनी चाहिए जो यहाँ पर पोस्ट की गई हैं, उनके अतिरिक्त गज़लकार ने गंगा ही क्यों न उतारी हो, उसके प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए

    मगर अभी यहाँ “यही” न हो कर बाकी सब कुछ हो रहा है

    सुभाष जी ने मेरे कमेन्ट पर चर्चा करने को मना कर दिया तो लोग यह भी नहीं कर सके की मेरी बात को ही सही ढंग से आगे बढ़ा पाते, जो की मैं बहुत स्पष्ट रूप से कह पाने में सफल “नहीं” हुआ था
    तिलक जी नें बाद में प्रयास किया परन्तु वो भी सभी के रंग में रंग गए और बेनामी के विरोध की पटरी पर आ गए

    मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन है की नामी बेनामी प्रकरण को समाप्त करें व नीरज जी की उन गजलों पर बात करें जो यहाँ पर प्रकाशित की गई हैं
    -----------------------------------------------------------------------------------
    आप सभी से एक और विनती है की नामधारियों की गलत बात का खुल कर विरोध किया करें और बेनामी की तर्कसंगत बात को खुले ह्रदय से स्वीकार करने का मन बनाएँ

    और यदि बेनामी स्वीकार्य नहीं हैं तो सुभाष जी से कहें वो बेनामी का आप्शन खत्म करें

    आशा करता हूँ अब आप सभी संतुष्ट होंगे और मैं यथासंभव प्रयास करूँगा की अब साखी कर कमेन्ट न करना पड़े
    धन्यवाद
    - बेनामी

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  30. इस बीच बेनामी जी की एक और टिप्‍पणी आ गयी और मेरी उनसे इस बात पर पूरी सहमति है कि नीरज भाई अपनी बेहतरीन ग़ज़लों में से भी कुछ भेज सकते थे। साथ ही नीरज भाई की सरलता भी गौर करने लायक है कि उन्‍होंने बड़ी सादगी से ऐसी ग़ज़लें भेजीं जो हो सकता है उन्‍होंने आरंभिक काल में कही हों या जिन्‍हे अभी पूरी तरह तराशा न हो। अजीब शख्सियत हैं ये भी, कभी मिले नहीं लेकिन दिल से जुड़े हैं। बहुत कम ऐसे सच्‍चे इंसान मिल पाते हैं।

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  31. नीरज जी को पढ़ते हुए काफी समय हो गया, कविता कोश पर भी और इनके अपने ब्लॉग पर भी. इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह रही है कि ये बड़े मामूली शब्दों में बहुत ही गहरे भाव व्यक्त कर जाते हैं. लेकिन आज यहाँ पर मैं भी बेनामी साहब का पक्ष लेते हुए सर्वप्रथम एक प्रश्न पूछ्ने की अनुमति चाहूँगा माननीय सुभाष जी से कि साखी के लिए ग़ज़लों, गीतों या कविताओं का चयन कौन करता है? क्या कवि स्वेच्छा से अपनी चार रचनाएँ सौंप देता है या आप चयन करते हैं? चयन कवि का हो या सुभाष जी का, जल्दबाज़ी में नहीं होना चाहिए अर्थात कुछ रचनाएँ पढकर तब चयनित की जानी चाहिये. कवि तो कवि है और आप स्वयम पारखी हैं, अतः ऐसी रचनाएँ प्रस्तुत की जाएँ जिनमें समीक्षा की गुंजाइश बने. यानि उनमें कविता का शिल्प, व्याकरण, भाव, अभिव्यक्ति आदि पर चर्चा की जा सके. ऐसा न हो कि बस रस्म अदायगी बन कर रह जाए पूरी परिचर्चा.

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  32. स्मरण हो कि मैंने अपनी आरम्भिक टिप्पणियों में कहा था कि रचनाएँ अलग अलग भाव प्रदर्शन करने वाली हों ताकि कवि की अलग अलग अभिव्यक्ति समझ में आए. यदि सारी ग़ज़लें सिर्फ रूमानियत की बातें कहे तो आप क्या अंदाज़ा लगाएंगे उस शायर के बारे में, यही कि वो रूमानीशायर है, जबकि हो सकता है कि वह शायर अपने दीगर अशार में इंक़लाब की मशाल भी रखता हो, और मज़ाहिया शायरी भी करता हो.
    बेनामी से मुझे भी कोई ऐतराज़ नहीं (सुभाष जी से क्षमा याचना सहित). मैं ख़ुद भी कई महीनों तक बेनामी रहा हूँ और वही और वैसा ही लिखता रहा हूँ जैसा अब लिख रहा हूँ. जब तक लेखन बोलता है नाम हो ये ज़रुरी नहीं
    कल शब मुझे बेशक्ल की आवाज़ ने चौंका दिया
    मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा आवारगी.
    बेनामी जी की समीक्षा कम से कम यह एलान तो नहीं कर रही कि बहुत सुंदर,अद्भुत,बेमिसाल, बेहतरीन, सारगर्भित, मन मोहक, हृदयविदारक, मार्मिक, दिल को छूने वाली, शायर की रचानाएँ मील का पत्थर हैं, इत्यादि. एक ईमानदार बयानहै और सिरे से नकारा जाए ऐसा भी नहीं है. वे अवश्य ही कोई पहुँचे हुए व्यक्ति हैं और पारखी हैं. पिछले दिनों जो माहौल बना उसके बाद उनका दूध के जले की तरह छाछ भी फूँक फूँककर पीना लाज़िमी है!
    नीरज जी पर अगली कड़ी में.

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  33. १. नीरज जी की ग़ज़लें अर्से से पढ‌ता रहा हूँ और कहूँ कि उनका दीवाना हूँ तो अतिशयोक्ति न होगी. किंतु इस पहली ही ग़ज़ल को देखकर लगा ही नहीं कि यह नीरज जी की ग़ज़ल है. तीसरे शेर को अगर छोड़ दें तो बाक़ी के सारे अशार लफ्ज़ों का उलझाव का सा असर पैदा करते हैं. जितनी सादगी से यह कहा गया है कि तल्ख़ बातों को ज़ुबाँ से दूर रखना सीखिये उतने ही उलझे लफ्ज़ हैं मतले में. तिलक राज जी के कहने पर मैं भी कोशिश करके देखता हूँ:
    यह करिश्मा प्यार का, मैं मान लूँ कैसे नहीं,
    सुन रहा हूँ वो कि मुझसे जो कहा तुमने नहीं.
    यह सलीका इश्क़ का सबसे सही मैं मानता
    जान दे दो इस तरह कि हो कहीं चर्चे नहीं.

    ग़ज़ल की सोच आला दर्ज़े की है और मेसेज बेहतरीन है.

    २.छोटे बहर की ग़ज़ल लोग कैसे कह लेते हैं, मुझे सोचकर हैरत होती है और रश्क भी. मैं ख़ुद कोशिश करके कभी नहीं कह पाया. यहाँ भी यही लगता है कि गज़ल का चयन जल्दबाज़ी में या रैन्डमली किया है. जड़ जिसने थी काटी, प्यारे में भी वही खटक रहा है... क्या फ़र्क पड़ता बहर में अगर यूँ कहा जाता कि जड़ जिसने भी काटी प्यारे या जड़ जिसने काटी थी प्यारे.
    दूसरे शेर में सच्चे तो सूलीपर लटके, लुच्चे को है माफी,प्यारे. और इक तो राहें.... में दोनों मिसरे मिलकर असर पैदा करते अगर यूँ कहा होता कि
    एक तो राहें काँटों वाली
    और दुश्मन हमराही, प्यारे!

    इनके अलावा सारे शेर नीरज जी के मूड को, जैसा मैंने जाना है, एलानिया तौर पर बयान कर रहे हैं.

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  34. ३. इस गज़ल के बयान पर पिछली सारी बातें ख़ारिज. ख़ालिस नीरज गोस्वामी स्टाइल की ग़ज़ल है. सारे लफ्ज़ अपनी जगह बिना किसी ज़ोर आजमाइश के सजे हैं. तीसरे और पाँचवे शेर पर पहले ही कहा जा चुका है, इसलिए बिना दोहराए सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि लफ्ज़ों के बरतने में कोई कमी नहीं दिखाई दे रही है और संदेश स्पष्ट है. लिहाज़ा मेरे ख़याल में ग़ज़ल दुरुस्त है और चुस्त भी.

    ४. इस ग़ज़ल को पढकर लगा कि अगर मैं मौसिक़ार होता तो इसे पढ़ते पढ़ते मौसिक़ी तरतीब हो जाती. नीरज जी मुशायरों में भी शिरकत करते रहे हैं. ये तो वही बता सकते हैं कि यह ग़ज़ल उन्होंने तरन्नुम में पढी है या नहीं. ख़ैर, ग़ज़ल पर यही कहना है कि बाज मर्तबा बुलाये गए मेहमान भी जाने का नाम नहीं लेते. नीरज जी ने जो हक़ीक़त आज के दौर की, की है बयान, वो आँखों में डालकर उँगलियाँ, दिखाना चाहता है कि वो अजूबा है जो आज के दौर में खिलखिला सकता है, सदरे मुल्क़ वही है जो दो वक़्त की रोटी मुहय्या करा सके रियाया को और क़ाबिल है वो जो दो और दो पाँच कर ले.

    नीरज गोस्वामी जी की ग़ज़लों में लफ्फाज़ी बिल्कुल नहीं होती… और ग़ज़लों की जो परिभाषा हमने साखी के पिछले अंकों में देखी थी उसपर खरी उतरती है. यानि ग़ज़लों में हर शेर सादगी से ऐसी बात कह जाता है कि बेसाख़्ता वाह निकल जाती है या फिर सुनने वाला अवाक रह जाता है. साखी पर इनकी ग़ज़लें उस पुरानी कहावत को भी झुठलाती हैं कि चावल के चार दानों से आप भात का अंदाज़ा लगा सकते हैं.

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  35. बेनामी जी का नीरज गोस्वामी की चार ग़ज़लों
    को नकार देना मेरे हलक के नीचे नहीं उतरा है .
    एकाध दोष गिना देने से कोई शायर या कवि
    छोटा नहीं हो जाता है . काश , उन्होंने अच्छे शेरों
    को भी रेखांकित किया होता !
    बढ़िया गज़लकार की भी हर ग़ज़ल बढ़िया नहीं
    होती है . दुष्यंत कुमार ग़ज़ल के पर्याय बन गये
    हैं . उनके अनेक शेरों में भाषा , बह्र , काफ़िया और
    रदीफ़ संबंधी दोष हैं . अपने उन दोषों के कारण वह
    छोटे नहीं हो गये . कहा जाता है कि कि सात शेरों
    की ग़ज़ल में तीन शेर भी अच्छे हैं तो वह ग़ज़ल
    सफल है . मुझे तो नीरज गोस्वामी की चार ग़ज़लों
    के अधिकाँश शेरों की बानगी अच्छी लगी है .
    भाई तिलक राज कपूर जी ने सही कहा है -
    ` कहन सबकी अलग - अलग होती है ------ कहन में
    यह देखना पर्याप्त रहता है कि व्याकरणसम्मत है कि
    नहीं .` एक ही विषय पर इन प्रसिद्ध ग़ज़लकारों का
    कहन देखिए . हर शेर की अपनी बानगी है . किसी
    शायर ने अन्य शायर की खामी नहीं बतायी .
    दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान देखिए
    खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये
    - राम प्रसाद बिस्मिल
    दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये
    बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये
    - शहरयार
    रोशनी ही रोशनी हो जाए सारे शहर में
    इस सिरे उस सिरे तक आग जलनी चाहिए
    - श्याम प्रसाद अग्रवाल
    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
    हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
    - दुष्यंत कुमार
    आग है , पानी है , मिट्टी है , हवा है मुझमें
    और फिर मानना पड़ता है के खुदा है मुझमें
    - कृष्ण बिहारी नूर
    आग है , पानी है , मिट्टी है , हवा है मुझमें
    मुझको यह वहम नहीं है कि खुदा है मुझमें
    - राजेश रेड्डी
    ग़ज़लों पर अपनी बेबाक़ टिप्पणी अवश्य करिए . साखी कबीरा
    इसीलिए है लेकिन आलोचना करने का सलीका होता है . लाठी दिखाने
    को आलोचना नहीं कहा जा सकता है .

    जवाब देंहटाएं
  36. नीरज गोस्वामी जी कि ग़ज़लें पहले भी पढ़ी है.''साखी'' मे उन्हें देख कर ख़ुशी हुई. यह मंच ग़ज़ल वालों के लिये अच्छा मंच बन गया है. नीरज जी कि ग़ज़लों मे जीवन-दर्शन की बहुलता है. हर शेर हमें सोच की गहराइयों तक ले जाते हैं इनकी ग़ज़लों की 'बेनामी' -''सुनामी' खिंचाई पर प्राण जी ने जो कुछ कहा है, उसे मैं सहमत हूँ. हर ग़ज़लकार अपने तरीके से अपनी बात कहता है. उसे यह बताने की कोशिश कि ''इस शेर को वैसे नहीं, ऐसे कहना था'' किस्म की टिप्पणियाँ देख कर हैरत होती है. अक्सर हँसी भी आती है. रचनाकार तो अपनी गुणवत्ता के कारण दिलों मे राज करता है, समग्रता मे रचनाकर का अवदान देखे फिर टिप्पणी करे यह समालोचन है. रचना की निंदा नहीं. आलोचना होनी चाहिए.कुछ लोग निंदा करने की कोशिश करते हैं. खैर, ''साखी'' की सफलता है कि इसे अनेक जागरूक लोग पढ़ाते है. अंत में नीरज जी और सुभाष जी को बधाई....

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  37. मुझे एक संस्‍मरण याद आ रहा है।
    प्रसंग यह था कि एक कवि ने अपनी रचना प्रकाशन के लिये भेजी तो संपादक महोदय ने वह रचना इस टीप के साथ लौटा दी कि कृपया इसे अगले वर्ष भेजें। अगले वर्ष भेजी गयी रचना पर फिर वही जवाब और यह सिलसिला चल निकला। थक कर प्रेषक ने पूरा लेखा-जोखा बनाकर निवेदन किया कि हर वर्ष आप ऐसा क्‍यूँ करते हैं। प्रकाशक ने कवि का ध्‍यान इस बात पर दिलाया कि हर बार रचना बदल जाती है; इसपर कवि ने कहा कि हर बार उसे अपनी पूर्व रचना कमज़ोर लगी इसलिये नयी रचना भेजी। इसके बाद क्‍या हुआ वह कहने की आवश्‍यकता नहीं है। सार यह है कि रचनाधर्मी निरंतर परिष्‍कृत होता रहता है और जब वह परिष्‍कृत होने लगता है तो उसकी रचनाओं में निखार आने लगता है। इसी प्रकार स्‍वरचित रचना को जब कोई रचनाधर्मी बार-बार पढ़ता है तो हर बार कुछ न कुछ सुधार की गुँजाईश पाता है। जब स्‍वयं के देखने से निरंतर सुधार होता है तो किसी अन्‍य के देखने से तो स्‍वाभाविक है कि सुधार की गुँजाईश निकलती रहेगी।
    जब शाइर मीटर का पालन सख्‍ती से करता है तो शब्‍द संयोजन में कलाबाजी की स्थिति बन ही जाती है। अधिक तो नहीं कहूँगा लेकिन पहली ग़ज़ल के अशआर इसकी बह्र पर गेय रूप 'फ़ायलातुन्, फ़ायलातुन्, फ़ायलातुन्, फ़ायलुन्' में पढ़ें तो जो शब्‍दों की कलाबाजी की स्थिति दिखती है वो नहीं दिखेगी।

    मान लूँ मैं/ ये करिश्मा/ प्यार का कै/से नहीं
    वो सुनाई/ दे रहा सब/ जो कहा तुम/ने नहीं

    इश्क का मैं/ ये सलीका/ जानता सब/ से सही
    जान दे दो/ इस तरह कि/ हो कहीं चर/चे नहीं

    तल्ख़ बातों/ को जुबाँ से/ दूर रखना/ सीखिए
    घाव कर जा/ती हैं(ह) गहरे/ जो कभी भर/ते नहीं

    अब्र लेकर/ घूमता है/ ढेर-सा पा/नी मगर
    फ़ायदा को/ई कहाँ गर/ प्यास पर बर/से नहीं

    छोड़ देते/ मुस्कुरा कर/ भीड़ के संग/ दौड़ना
    लोग ऐसे/ ज़िन्‍दगी में/ हाथ फिर मल/ते नहीं

    खुशबुएँ बा/हर से(स) 'नीरज'/ लौट वापस/ जाएँगी
    घर के(क) दरवा/ज़े अगर तुम/ने खुले रक्/ खे नहीं

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  38. vnmr nivedn haiki jaisa maine apni rchnaon ke likha tha ki gjl ke liye us ka roj bhi jroori hai jAISA DOHACHHND KE LIYE EK NISHCHITMATRAJRORI HAIN YDUROOJ KI SRTEN POORI NHO TO HMIN RCHNAON KO NV GEETIKA KHNE ME KYON SNKOCH KR RHEN HAIN GETIKA PRACHIN PRMPRA SE AAJ TK NIRJHRI KI BHANTI PRVAHMAN HAI YE SUNDR RCHNAYEN NVGEETIKA HAIN MERA AISANIVEDN HAI YH MERA MATRVINMR NIVEDN HAI SBHI RCHNAYEN SUNDR HAIN BDHAI DETA HOON

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  39. यूँ तो मेरी ग़ज़लें अन्य ब्लोग्स पर भी पोस्ट होती रही हैं लेकिन साखी की बात ही अलग है...यहाँ बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है...मुझे बेनामी जी से कोई शिकायत नहीं है...जो भी मेरे लेखन में कमजोरी बताता है मैं उसे अपना हितैषी समझता हूँ...सीखा तभी जा सकता है जब आपमें आलोचना सहने की क्षमता हो...गज़ल की बारीकियां समझाने में मेरे परम श्रधेय गुरुओं का बहुत बड़ा हाथ है...प्राण साहब और पंकज सुबीर जी ने मेरी ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया है और अभी भी सिखा रहे हैं...मेरे छोटे भाई सामान तिलक जी भी चुहुल चुहुल में मुझे बहुत पते की बात बता जाते हैं...ऐसे गुनी लोगों का साथ पा कर मैं अपने आप को धन्य मानता हूँ..मैं इन सब का और मेरे प्रिय पाठकों का तहे दिल से आभारी हूँ और हमेशा रहूँगा...बिना पाठकों के स्नेह के मैं यहाँ तक कभी नहीं पहुँच पाता.
    आप सब द्वारा मेरे प्रति प्रगट किये उदगार मेरे लिए बहुत मूल्यवान हैं.
    मैं अपनी गज़लों के पक्ष या विपक्ष में कहने के लिए अपने आपको शक्षम नहीं समझता, मेरी ग़ज़लें जैसी लिखी गयीं थीं वैसी ही आपके सामने पेश कर दी हैं...ठुकराने और प्यार करने का अधिकार आपके पास है, जिसे आप अवश्य प्रयोग करें.

    नीरज
    ये गज़लें मैंने ही चुन कर सुभाष जी को भेजी थीं इसलिए इनके गुण दोष का श्रेय सिर्फ और सिर्फ मेरा है...

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  40. ये बेनामी सुनामी वाली बात… ये ग़ज़ल की निंदा करने वाली बात और ये बात कि शेर ऐसे नहीं वैसे कहा जाना चाहिए... कुछ समझ में नहीं आया.. ज़रा स्पष्ट किया गया होता तो बेहतर होता... मेरी बात अगर तल्ख़ हो रही हो तो मुआफ़ी का मुस्तहक हूँ... जिसने नाम न लिखा वो बेनामी, पर जिन्होंने ने नाम लिखा है उन्हें तो व्यक्तिवाचक संज्ञा से सम्बोधित किया जाना चाहिए, सुनामी जैसे जतिवाचक या समूहवाचक संज्ञा का प्रयोग उचित नहीं लगता.
    निंदा तो मेरे विचार से किसी ने नहीं की. साखी पर यदि ग़ज़ल पर चर्चा हो रही है तो सिर्फ इतना कहने से काम नहीं चलता कि ग़ज़ल बहुत अच्छी थी, अद्भुत, शानदार, बेहतरीन, ऐण्ड सो ऑन! ऐसा तो कोई भी कह देगा… जब इतने गुणीजन (मेरी गिनती को छोड़कर) हैं तो मज़ा तो तब है जब कोई यह बताए कि यहाँ कमी रह गई.
    यह शेर यूँ कहा जा सकता है में दोष बताने से अच्छा होता अगर जो शेर बताया गया उसमें दोष बताया जाता.
    अंत में सुभाष जी से अनुरोधः
    कृपया साखी पर ग़ज़लें पोस्ट करते समय यह ख़्याल रखें कि उम्रदराज शायरों की रचना के साथ एक सूचना दें कि इतनी उम्र से कम के व्यक्ति कृपया अपना कमेंट न दें. उसे अमान्य समझा जाएगा.

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  41. उम्र दराज़ शायर...हा हा हा हा हा...आप उम्र दराज़ किसे मानते हैं जो काफी उम्र से ग़ज़लें लिख रहा है या फिर जिसकी उम्र अधिक है...:-))
    अगर उम्र दराज़ से आपका अभिप्राय काफी उम्र से गज़ल लेखन से है तो मैं अभी बच्चा हूँ और अगर उम्र दराज़ का अर्थ जिंदगी में बिताये सालों से है तो भाई मैं बड़ा हूँ लेकिन चाहता हूँ के मेरी गज़लों पर टिप्पणी करने वालों की आयु पांच से अस्सी बरस के बीच ही हो...बस,क्यूँ के इस आयु वर्ग के बाहर के प्राणी कम्यूटर चलाने में माहिर नहीं होंगे ऐसा मैं सोचता हूँ.
    नीरज

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  42. साखी पर बात निकलती है तो दूर तलक जाती है,यह अब स्थापित होता जा रहा है। कबीरा बाबा का चौराहा है ही ऐसा। इसमें आकर रास्ते मिलते भी हैं तो निकलकर दूर तक जाते भी हैं। नीरज जी की ग़ज़लो पर विद्वान विचार कर रहे हैं। जो कुछ कहने के लिए बच रहेगा, हम बाद में करेंगे। हम तो वह खिलाड़ी हैं जो मैदान के बाहर से खेल देखते-देखते अचानक सीमा रेखा पर गेंद लपककर अपने को तीसमारखां समझ लेते हैं।

    मैं जो कुछ कहने जा रहा हूं उसका कुछ हिस्सा सलिल जी कह गए हैं। मैं बात नाम लेकर ही कहूंगा। प्राण जी हम सबके सम्मानीय हैं। वे जो कहते हैं, सोच समझकर ही कहते हैं। पर इस बार जो उनकी टिप्पणी आई है। वह कुछ पच नहीं रही। उन्होंने कहा है कि एक ही विषय पर इन प्रसिद्ध ग़ज़लकारों का कहन देखिए।

    क्या सचमुच उन्होंने जो उदाहरण दिए हैं वे एक ही विषय पर हैं और उसमें केवल कहन का फर्क है? मैंने एक विश्लेषण किया है आप भी देखिए।
    .
    दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान देखिए
    खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये
    - राम प्रसाद बिस्मिल

    मेरे हिसाब से यहां बिस्मिल अपनी जान की ताकत की बात कर रहे हैं और खंजर चलाने वाले को चुनौती दे रहे हैं कि जरा खंजर तानकर मारिए, मैं बहुत सख्त जान हूं।

    दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये
    बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये
    - शहरयार
    जब कि यहां शहरयार समर्पण की बात कर रहे हैं। आप हमारा कहा मानिए हम दिल ही नहीं जान भी आपको दे देंगे।
    सोचिए कि क्या दोनों शायर एक ही विषय पर बात कह रहें हैं।

    रोशनी ही रोशनी हो जाए सारे शहर में
    इस सिरे उस सिरे तक आग जलनी चाहिए
    - श्याम प्रसाद अग्रवाल
    यहां श्या्म प्रसाद जी मेरी समझ से दंगाईयों की बात कर रहे हैं। जो सारे शहर को जलाकर रोशनी करना चा‍हते हैं।

    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
    हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
    - दुष्यंत कुमार
    यहां दुष्यंत उस आग की बात कर रहे हैं जो अन्याय के खिलाफ सीने में धधकती है।

    सोचिए कि क्या दोनों शायर एक ही विषय बात कह रहे हैं।

    आग है , पानी है , मिट्टी है , हवा है मुझमें
    और फिर मानना पड़ता है के खुदा है मुझमें
    - कृष्ण बिहारी नूर
    नूर साहब खुद में ईश्वर को देखने की बात कर रहे हैं।

    आग है , पानी है , मिट्टी है , हवा है मुझमें
    मुझको यह वहम नहीं है कि खुदा है मुझमें
    - राजेश रेड्डी
    राजेश रेड्डी कह रहे हैं कि मुझमें ईश्वर नहीं है।

    फिर सोचिए एक बार कि क्या दोनों शायर एक ही विषय पर बात कह रहे हैं।

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  43. प्राण जी,तिलकराज की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि केवल यह देखना चाहिए कि शेर में कही गई बात व्याकरण सम्मत है कि नहीं। और फिर यह भी कहते हैं दुष्यंत की शायरी में व्याकरण के मान से बहुत दोष हैं,फिर वे बड़े शायर हैं। प्राण जी किसका पक्ष ले रहे हैं यह साफ नहीं होता।

    मैंने पहले भी कहा है फिर कह रहा हूं दुष्यंत की शायरी इसीलिए जिंदा है क्योंकि उनका कथ्य महत्पूयर्ण है। किसी भी विधा में कथ्य ही उसे महत्वपूर्ण बनाता है। कविता हो,कहानी हो,नाटक हो,उपन्यास हो। सबने अपने बने बनाएं ढांचे तोड़े हैं। फिर ग़ज़ल को आप क्यों नहीं ढांचों से निकलने देना चाहते। साखी पर मनोज भावुक की ग़ज़लों के समीक्षा अंक मैंने अपनी टिप्पणी में छह बातें कहीं थीं। उनमें भी इन सवालों को उठाया था। जिन्होंने न पढ़ी हों,वे एक बार पढ़ आएं। एक सातवीं बात कहने से रह गया था कि लिखने वाले कभी-कभी अपनी रचनाओं को भी पाठक की तरह पढ़ने की आदत भी डालें। केवल लेखक ही न बने रहें।

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  44. और हंसी तो हमें भी आती है जब गिरीश पंकज जी आकर प्राण जी की बातों का समर्थन करते हैं। अगर कोई यह कह भी रहा है कि इस शेर को इस तरह नहीं उस तरह कहना चाहिए था तो इससे शायर को एक नया दृष्टिकोण ही तो मिल रहा है। वह माने या न माने यह तो उसका अधिकार ही है न। एक तरफ लोग कहते हैं कि आप ठोस उदाहरण देकर बात करिए। जब ठोस उदाहरण दिए जाते है तो लोग कहते हैं कि आप हमें सिखा रहे हैं। और जहां तक समग्रता में अवदान देखकर टिप्पणी करने की बात है तो फिर तो किसी की रचना पर कुछ कहा ही नहीं जा सकता। क्यों कि सब पहुंचे हुए रचनाकार हैं। सबकी रचनाओं पर बस एक ही लेबिल काफी होगा, ‘वाह,बहुत सुंदर।‘

    और यहां रचना की या रचनाकार की निंदा कहां हो रही है। हां अगर अब गिरीश जी की निंदा की परिभाषा प्रचलित परिभाषा से कुछ अलग है तो हो सकता है,यहां सब जो कह रहे हैं वह निंदा ही हो। गिरीश जी ने एक बात और कह दी है वह कहीं स्थापित ही न हो जाए, इसलिए सुभाष जी से कहना चाहता हूं कि साखी केवल ग़ज़ल का मंच ही बनकर न रह जाए यह ध्यान उनको भी रखना होगा। वरना कुछ समय बाद हम जैसों के लिए तो यहां ‘प्रवेश निषेध’ का बोर्ड ही लग जाएगा। साखी के परिचय में आपने काव्य के विविध रूपों की बात कही है,तो वह संतुलन बना रहे।

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  45. ब्लॉग जगत में नीरज जी ग़ज़ल लेखन के जाने माने नाम हैं .... जीतने सरल हृदय से उन्होने अपने बारे में कहा है ... ग़ज़लें भी उतनी ही सरल, जन मानस के विषयों और अनोखे अंदाज़ में कहते हैं ... उनकी ग़ज़लें पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ...

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  46. @राजेश भाई
    आप मज़ाक तो नहीं कर रहे। शायर ऐसी बात नहीं कहते।
    रोशनी ही रोशनी हो जाए सारे शहर में
    इस सिरे उस सिरे तक आग जलनी चाहिए
    - श्याम प्रसाद अग्रवाल
    में बात ठंडी प्रकृति में गर्माहट लाने की है जिससे सारे श‍ह्र में जागृति आ जाये। एक सोये हुए शह्र को जगाने जैसी बात है यह।
    प्राण साहब ने समान रदीफ़ काफि़या और बह्र के साथ सोच की विविधता की बात की है।
    यह आपकी क्षमता पर प्रश्‍न न होकर केवल स्‍पष्‍टता के लिये कह रहा हूँ।
    कृपया अन्‍यथा न लें।

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  47. @ माफ करें तिलकराज जी,
    प्राण जी ने कहा है -एक ही विषय पर इन प्रसिद्ध ग़ज़लकारों का
    कहन देखिए- वे बहुत स्‍पष्‍ट रूप से विषय की बात कर रहे हैं।
    सही बात कही आपने शायर ऐसी बात नहीं कहते। पर क्‍यों नहीं कह सकते, यह संदर्भ का मसला है। हो सकता है अग्रवाल जी अपनी उस ग़ज़ल में ऐसी ही कोई बात कह रहे हो। हां, मुझे नहीं पता कि अग्रवाल जी की जिस ग़ज़ल का यह शेर है, वह किस मिजाज की है। मैंने तो इसे ऐसे ही समझा ।पर आप लोग ही कहते हैं हर शेर स्‍वतंत्र होता है।

    और फिर जो अर्थ आपने बताया वह भी अगर मान लिया जाए तो दुष्‍यंत जो कह रहे हैं यह उससे अलग विषय है।

    और जहां तक अन्‍यथा न लेने का प्रश्‍न है तो हम तो साखी पर खडें हैं,-ले लकुटिया हाथ,जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ का भाव लिए- जिस दिन अन्‍यथा लेंगे घर बैठ जाएंगे।

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  48. साखी पर कुछ नई परिभाषाएँ देखने को मिल रही हैं. कुछ शब्दार्थ ध्यानार्थः
    समीक्षा= सिर्फ तारीफ
    समीक्षा= पोस्टमॉर्टेम
    समीक्षा= छिद्रांवेषण
    समीक्षा= खिंचाई
    समीक्षा= निंदा
    समीक्षा= आलोचना (??)
    समीक्षा= लाठी दिखाना
    (क्षमा चाहता हूँ, इस तरह की बातें करना मेरी फ़ितरत में नहीं, किंतु मजबूरी में यह कहना पड़ रहा है).

    आभार श्रद्धेय तिलक राज जी का, जो किसी भी बात से विचलित न होकर इतनी सार्थकता के साथ अपनी बात रखते हैं कि मुझे लगता है कि उनकी हर बात इस सोच से ओतप्रोत होती है कि कोई आहत न हो. और नीरज जी के क्या कहने. ऐसे विशाल हृदय वाले व्यक्ति को नमन करता हूँ मैं.

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  49. @ आदरणीय बिहारी ब्‍लॉगर साहब
    साहित्‍य में मेरी स्थिति एक बच्‍चे जैसी है जो निरंतर सीखने में लगा है, मैं तो स्‍वयं को निपट अज्ञानी ही मानता हूँ और गुणीजनो के बीच चर्चा में इसलिये आता हूँ कि कुछ नया मिलेगा जो जीवन सार्थक करने में सहायक होगा।
    आपको मेरे व्‍यवहार में अगर कुछ अच्‍छा लगा तो यह आपकी भावना है जो सम्‍माननीय है। मेरा तो निवेदन यही रहता है कि:
    सद्गुण कोई पाया हो तो तुम अपना लो,
    मुझको मेरे दुर्गुण का एहसास करा दो।

    मुझे याद आ रही है इपीक्‍टीटस (एक ग़ुलाम जो बाद में राजगुरू हए) की, एक बड़ी खूबसूरत बात उन्‍होंने कही थी कि 'हे ईश्‍वर; मुझे शॉंति दे कि मैं उन स्थितियों को सहजता से स्‍वीकार कर सकूँ जिन्‍हें मैं बदल नहीं सकता, साहस दे कि उन स्थितियों को बदलूँ जिन्‍हें बदल सकता हूँ, और विवेक दे कि दोनों स्थितियों में भेद कर सकूँ' । इतनी सी बात समझाने में एक लेखक को लगभग 70 पृष्‍ठ लगे (Seven habits of highly effective persons)। ये अन्‍तर होता है कहन का और कथन का। कथन के लिये कथानक लगता है जबकि कहन उस कथानक का सार होती है। ऐसे में स्‍वाभाविक है कि सार को समझने के लिये प्रयास भी लगेगा। कहन में उतरना पड़ता है। जब हम काव्‍य में बिम्‍ब की बात करते हैं तो यह भूलना उचित नहीं होगा कि बिम्‍ब स्‍वयं में आभासी स्थिति है और बिम्‍ब संयोजन में पढ़ने/ स़नने वाले की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
    कहते हैं कि 'जहँ न पहुँचे रवि तहँ पहुँचे कवि'। अब अगर कवि ऐसी जगह पहुँच सकता है तो उसे समझने के लिये प्रयास तो करने ही होंगे।
    उपरोक्‍त कथन का उद्देश्‍य इपीक्‍टीटस की कहन के माध्‍यम से यह व्‍यक्‍त करने का है कि यदि हम अपने को उस दायरे में सीमित करलें जहॉं तक हम प्रभावित कर सकते हैं तो काफ़ी कुछ विजय पा लेते हैं जीवन की जटिलताओं पर जिनमें परस्‍पर संबध भी सम्मिलित हैं।
    अपनी बात दृढ़ता से रखना और उसे स्‍वीकारने के लिये दबाव बनाना दो अलग स्थिति हैं, दबाव बनाने के प्रयास में मर्यादायें टूटने की संभावना बढ़ जाती है; इतना भी ध्‍यान रख लिया जाये तो आहत होने और उसके कारण उत्‍तर-प्रत्‍युत्‍तर से बचा जा सकता है।
    अगर किसी से कुछ त्रुटि हो जाती है तो उसका ध्‍यान उस त्रुटि की ओर शालीनता से भी आकर्षित किया जा सकता है; और इस प्रकार एक ऐसा वातावरण निर्मित हो सकता है जो परस्‍पर सम्‍मान पर आधारित होगा।

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  50. साखी पर ग़ज़ल की रचना प्रक्रिया और विधान पर इतने विद्वद जनों की प्रतिक्रियाएँ जान कर मन में हर्ष व विषाद के भाव उमड़ रहे हैं । हर्ष इस बात का कि ब्लॉग जगत में ग़ज़ल के व्याकरण की समझ रखने वाले इतने विद्वद जन सक्रिय हैं और विषाद इसलिए कि रचना के मूल भाव की उपेक्षा हो रही है । ऐसा भी लगा कि रचना के मूल भाव को छोड़ कर एक-दूसरे की टिप्पणियों पर ही चर्चा होने लगती है । नीरज जी की ग़ज़लों का मूल भाव बहुत सुंदर है, मुझे उसमें कहीं कोई कमी नहीं नजर आ रही है और मैंने उनका भरपूर आनंद लिया है । पर यहाँ नीरज जी के मूल भाव की ओर ध्यान न देकर ग़ज़ल के व्याकरण और उसकी रचना प्रक्रिया... यहाँ तक कि उनके चयन के संबंध में भी बहस हो रही है । फिर टिप्पणी को लेकर चर्चा हो रही है । मैं समझता हूँ कि इससे नीरज जी के कृतित्व को अनदेखा किया गया है और टिप्पणीकारों का ध्यान गुरुवार की चर्चा में जगह पाना भी एक इसका कारण हो सकता है । मुझे तो रचना के भाव से मतलब है ...यदि भाव सुंदर है और उसमें लोक कल्याण का भाव है, तो निश्चित रूप से रचना सार्थक है ; और नीरज जी की ग़ज़लों में ये दोनों ही गुण हैं । बहुत बार भाव इतना प्रबल होता है कि वह किसी रुढ़ परम्परा को नहीं मानता । नए प्रतिमान भी बनाए जाते हैं और प्रतिभाशाली कवि या फ़नकार लीक को बहुत बार तोड़कर ही वह स्थान पाते हैं , जो उन्हें महानता की श्रेणी में ला खड़ा करता है । नीरज जी की दी गई सभी ग़ज़ले भाव की दृष्टि से उम्दा हैं । कुछ ने तो दिल के अंत:स्थल को छू लिया है :

    थक चुके हैं हम बढ़ा कर यार दिल की दूरियां
    छोड़ कर तकरार अब मनुहार की बातें करें

    दौड़ते फिरते रहें पर ये ज़रुरी है कभी
    बैठ कर कुछ गीत की झंकार की बातें करें

    तितलियों की बात हो या फिर गुलों की बात हो
    क्या जरुरी है कि हरदम खार की बातें करें

    इतने अच्छे भावों को आलोचना के तीखे प्रहारों से नष्ट मत करें । जो संदेश दिया गया है...वह उत्तम है ।

    मुझे ग़ज़ल की समझ नहीं है...फिर भी मुझे जो लगा मैं यहाँ कह रहा हूँ ...यदि साखी के लिए यह टिप्पणी उचित न लगे तो नि:संकोच इसे हटा दें ।

    धन्यवाद सहित

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  51. इस सिरे से उस सिरे तक आग जलनी चाहिए

    दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये

    जैसे मिसरों के विषय एक ही हैं लेकिन
    अन्य शायर ने अपने कहन के मुताबिक़ दूसरी
    पंक्ति जोड़ कर शेर के विषय को ही बदल दिया .
    उर्दू शायरी में मिलते - जुलते शेरों की भरमार है .
    कुछ दिन पहले मैंने तिलक राज कपूर जी को
    लिखा था कि आपके दो शेरों को अगर मैं कहता
    तो यूँ कहता . जवाब में उन्होंने लिखा कि मेरे
    एक शेर को अगर वह कहते तो यूँ कहते . उनकी
    हाज़िर जवाबी और प्रतिभा ने मुझे अत्यधिक प्रभावित
    किया .

    कभी उर्दू महफ़िलें जमती थीं एक मिसरे पर
    न जाने कितने शायर दूसरा मिसरा जोड़ते थे .
    फलस्वरूप अच्छे शेर निकलते थे . शायर एक - दूसरे
    से बहुत कुछ सीखते थे . बाल से खाल निकालना उनका
    मक़सद नहीं होता था . अच्छे शेरों पर भी वे खुल कर
    ऐसी दाद देते थे कि बैठक गूँज उठती थी . कोई जल -
    भुन कर यह नहीं कहता था कि आप अमुक की तारीफ़
    किसलिए कर रहे हैं ? काश , वैसे महफ़िलें फिर जुड़ें और
    नयी प्रतिभाओं को बढ़ने का सुअवसर मिले .

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  52. आरम्भ में, असली चर्चा शुरू ही हो पायी थी/पाया था कि अचानक ‘नामी-बेनामी’ प्रसंग उभर आने से नीरज गोस्वामी जी की प्यारी-सी ग़ज़लें कुछ देर तक कमोवेश ‘ग़ुमनामी’ में चली गयीं थीं। जब उस मुद्दे से हटे, तो समीक्षा/ आलोचना/ निन्दा/ प्रशंसा/ आदि पर मामला आ गया। आज थोड़ा-सा वक़्त मिला था, सोचा था कि नीरज गोस्वामी जी की ग़ज़लों पर अपनी राय पेश करूँगा। लेकिन अब समय ज़्यादा हो गया है इसलिए फिलहाल सिर्फ़ ‘आलोचना’ शब्द पर एक नज़र---- ‘आ’ उपसर्गपूर्वकात्‌ वा सम‍न्तात्‌ लोचन‍म्‌/इक्षणम्‌ इति आलोचनम्‌। इस आलोक में कहना होगा कि किसी कृति के संदर्भ में गुण-दोष विमर्शपूर्वक अवलोकन ही आलोचन है।

    >>>>>>>>>>>>>>>>>>>> ऐसे में, सलिल वर्मा जी (उर्फ़ चला बिहारी...)जी की यह पीड़ा नाजायज़ नहीं है कि :

    ‘साखी’ पर कुछ नई परिभाषाएँ देखने को मिल रही हैं. कुछ शब्दार्थ ध्यानार्थः
    समीक्षा= सिर्फ तारीफ
    समीक्षा= पोस्टमॉर्टेम
    समीक्षा= छिद्रांवेषण
    समीक्षा= खिंचाई
    समीक्षा= निंदा
    समीक्षा= आलोचना (??)
    समीक्षा= लाठी दिखाना

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  53. मित्रों नमस्कार,

    कल कमेन्ट करने के बाद मैंने सोचा नहीं था की इतनी जल्दी फिर से कमेन्ट करना पडेगा |
    प्राण जी की मुझे संबोधित करके कही गई बातों में से अधिकतर से सहमत हूँ मगर दो बात से मैं सहमत नहीं हूँ इस लिए यह कमेन्ट करना जरूरी हो गया
    ------------------------------------------------------
    प्राण जी ने कहा…
    बेनामी जी का नीरज गोस्वामी की चार ग़ज़लों
    को नकार देना मेरे हलक के नीचे नहीं उतरा है .
    और

    ग़ज़लों पर अपनी बेबाक़ टिप्पणी अवश्य करिए . साखी कबीरा
    इसीलिए है लेकिन आलोचना करने का सलीका होता है . लाठी दिखाने
    को आलोचना नहीं कहा जा सकता है .
    ------------------------------------------------------
    @ प्राण जी,

    नीरज जी की ग़ज़लों को नकारने की बात मैंने न पहले कही थी न अब कह सकता हूँ
    मैंने बस यही कहा था की मैं ग़ज़लों के चयन से थोड़ा सा निराश हूँ

    बाद में अन्य गुणीजन नें भी यह बात स्वीकार की है

    आलोचना शब्द बहुत व्यापक है परन्तु अब बोलचाल में आमजन इसका अर्थ “निंदा” के रूप में लेते हैं, परन्तु आप न आमजन हैं न कोई नवोदित रचनाकार
    आप खुद गज़ल पर इस्लाह देते हैं फिर भी लाठी दिखाने की बात कह रहे हैं तो मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है

    आपने गज़ल के लिए एक बात कही है की अलग अलग व्यक्ति की अलग अलग कहन अलग अलग सोच होती है
    यही बात तो समीक्षा पर भी लागू होती है
    अलग अलग व्यक्ति की अलग अलग सोच होती है और तरीका भी

    आपने कहा -
    दुष्यंत कुमार ग़ज़ल के पर्याय बन गये
    हैं . उनके अनेक शेरों में भाषा , बह्र , काफ़िया और
    रदीफ़ संबंधी दोष हैं . अपने उन दोषों के कारण वह
    छोटे नहीं हो गये

    और फिर –

    कहन में यह देखना पर्याप्त रहता है कि व्याकरणसम्मत है कि
    नहीं

    एक साथ विरोधाभासी बात कह के आपने मुझ जैसे कई लोगों को उलझा दिया

    एक बात और कहना चाहता हूँ यहाँ कोई मुशायरा नहीं हो रहा है बल्कि गज़ल समीक्षा के लिए पोस्ट की जा रही है इसलये केवल “जयकारा” की अपेक्षा करना बेमानी है अगर लोग नीरज जी की गज़ल की कमियों पर “भी” बात नहीं करेंगे तो फिर यहाँ से अच्छा तो उनका ब्लॉग ही है, लोग वहाँ जाना ज्यादा पसंद करेंगे

    हाँ, उदाहरण के जरिये आपने जो कहा वो मुझे बहुत पसंद आया

    जवाब देंहटाएं
  54. प्राण जी आये बेनामी को फटकारा चले गए :)
    एक और सज्जन आये, हाँ गिरीश जी और उन्होंने कहा की - जो इतना कहा है वो भी क्यों कहा, आपको कुछ कहना ही नहीं था, आते वाह वाह करते चल देते |
    तिलक जी आये उन्होंने कहा की बात को और विस्तार से कहो, और उदाहरण दो
    जो कहना है साफ़ साफ कहो

    अब बताईये -
    कोई कहता है गलत तरीके से समीक्षा की
    कोई कहता है जो किया वो क्यों किया
    कोई कहता है बात को और विस्तार से कहो

    अब मैं करू तो क्या करूं
    पिछले कुछ दिनों से कई पोस्ट पर अलग अलग लोगों द्वारा यह बात बार बार कही जा रही है

    इसका कुछ तो विकल्प दिया जाए मैं या कोई भी इन तीनों बात पर खरा कैसे उतर सकता है

    तिलक जी नें पहली गज़ल पर काम करके जो सुधार किये हैं उसके बाद गज़ल संतुलित नज़र आ रही है

    @ तिलक जी – आपने तैश मुझे दिलाया की गलत लग रहा है तो सही करो और खुद ही जुट गए :) हा हा हा

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  55. मुझे दूसरी गज़ल के कहन से ज्यादा शिकायत नहीं रही बस यह खटक रहा है की कुछ शेर में रदीफ का शब्द “प्यारे” उचित नहीं है

    वो शेर ये हैं

    सच्चा तो सूली पर लटके
    लुच्चे को है माफी प्यारे

    उल्टी सीधी सब मनवा ले
    रख हाथों में लाठी प्यारे

    सोचो क्या होगा गुलशन का
    माली रखते आरी प्यारे

    इक तो राहें काटों वाली
    दूजे दुश्मन राही प्यारे

    इनके अलावा जो शेर बचते हैं वो “प्यारे” रदीफ को बढ़िया निभा रहे हैं
    देखिये -

    जड़ जिसने थी काटी प्यारे
    था अपना ही साथी प्यारे

    भोला कहने से अच्छा है
    दे दो मुझको गाली प्यारे

    मन अमराई यादें कोयल
    जब जी चाहे गाती प्यारे

    तेरी पीड़ा से वो तड़पे
    तब है सच्ची यारी प्यारे

    तन्हा जीना ऐसा "नीरज"
    ज्यूं बादल बिन पानी प्यारे

    अच्छा हो की नीरज जी बाकी के ४ शेर जिनमें “प्यारे” रदीफ खटक रहा है उनको इस गज़ल से अलग करके उनके रदीफ को बदल दें
    दोनों में कुछ शेर बढ़ा कर फिर से काम करें और दो गज़ल तैयार करें

    एक सुझाव यह भी हो सकता है

    सच्चा तो सूली पर लटके
    लुच्चे को है माफी ,,, हद है

    उल्टी सीधी सब मनवा ले
    रख हाथों में लाठी ,,, हद है

    सोचो क्या होगा गुलशन का
    माली रखते आरी ,,, हद है

    इक तो राहें काटों वाली
    दूजे दुश्मन राही ,,, हद है

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  56. सबके पास नमक है ..रे ..!
    अपने ज़ख्म छिपाने का...

    कुछ कमेंट्स तो बिना ग़ज़लों को ठीक से साझे हुए लगते हैं...
    और कुछ कमेंट्स बिना कमेंट्स को समझे हुए...
    बेवजह के उदाहरण ना ग़ज़ल का मजा लेने देते..ना बहस का....
    एकाध जगह की बात समझ में आई...लेकिन ज़्यादातर आलोचनाये खाली पिली टाइम पास है....
    और हिंदी उर्दू की बात हो तो फिर ग़ज़ल की बात ही छोड़ देनी चाहिए...
    सिर्फ भाषा की ही बात करनी चाहिए...हिंदी...और उर्दू की


    कितनी शान्ति मिलती है वो नीरज साहब का ये शे'र याद करके...


    दिल तेरा घबराए तो
    गीत लता के गाने का...

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  57. जो बेनामी साहब हैं उनसे अनुरोध है कि वे अब अपना नाम भी बता ही दें तो बेहतर है। वे इतने ज्ञानी हैं कि उनसे परिचय की आकांक्षा प्रबल हो उठी है।
    और मैं सुभाष जी से यह अनुरोध भी करना चाहता हूं कि बेनामी नाम से एकाध टिप्‍पणी तो ठीक ही लगती है। लेकिन जब कोई इतने सक्रिय रूप से समीक्षा में भाग ले रहा हो तो इतनी अधिक बातें परदे के पीछे से सुनना ठीक नहीं लग रहा है।

    बेनामी मुद्दे पर सर्वत भाई से सहमत हूं और अनुरोध करता हूं कि इस बारे में विचार करें।

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  58. राजेश जी, सुभाष जी क्या करें, यह खुला मंच है, सोचा था कोई ताला नहीं लगाऊंगा ताकि लोग खुलकर अपनी बात कह सकें, उसे बदलने का कोई मन नहीं है. माडरेशन बहुत कठिन काम है, तिलक जी ने कहा न कि दिन भर कोई कैसे बैठा रहेगा. जहां तक बेनामी टिप्पड़ियों का सवाल है, मैं व्यक्तिगत रूप से इसके पक्ष में नहीं हूं. इस मंच पर विचार-विमर्श का मतलब केवल बौद्धिक रेचन नहीं है, मैं सोचता हूं कि हम लोग एक ऐसा परिवार भी बना रहे हैं जो सहिष्णु और समर्थ हो, पर यह तभी होगा जब हम आपस में एक दूसरे को पहचानें, मिलें और बतियायें. इसी नीयत से मैं चाहता हूं कि हमारे चेहरे भी खुले हों.
    बेनामी जी जिस तरह से अपनी बात कर रहे हैं, मेरे मन में उनके प्रति आदर भाव है, प्रेम है और मैं ऐसे हर व्यक्ति से बार-बार मिलते, बतियाते रहना चाहता हूं, पर कैसे होगा यह? बेनामी जी से मेरी बात, आप सब की बात कैसे होगी. मैं जानता हूं कि मैं अपनी ही बात से पलट रहा हूं, पर यह उसी आदर भाव के कारण है. मैं बेनामी जी से प्रार्थना कर रहा हूं कि जरा सामने तो आओ छलिये, छुप-छुप छलने में क्या राज है, मेरी आत्मा की ये आवाज है? महाराज अब प्रकट तो हो जाओ, मेरे नटवर नागर, इस तरह पास होकर भी आप का दूर होना सहा नहीं जाता. इस तन से प्राण छूट जायेंगे तो आप के प्रसन्न होने से क्या होगा? अगर आप जल्द नहीं सनाम हुए तो मुझे विवश होकर आप को कोई नाम देना पड़ेगा.

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  59. नीरज जी की ग़ज़लें पढता रहा हूँ..यहाँ पढना और भी अच्छा लगा.

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  60. नीरज जी का परिचय पढ़ा. अच्छा लगा यह जानकर कि वे कितनी साफगोई से आप बीती कह देते हैं. रचनाएँ पढीं तो लगा कि उन्होंने अपने आस-पास के बदलते परिवेश को सलीके से अपनी गजलों में संजोया है. मेरी बधाई स्वीकारें.

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  61. इस प्रस्तुति पर सबसे पहली प्रतिक्रिया सौभाग्य से मेरी ही है...डॉ. साहब,आपने हिंदयुग्म में मेरी ग़ज़ल पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की इसके लिए हृदय से धन्यवाद...आपकी आत्मीयता से मैं अभिभूत हूं।

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  62. Benamee jee ,kripya aap apnee pahlee tippani
    padhiyega .Neeraj Goswami kee gazalon ke sheron mein kahin aapko " telmel" nazar nahin
    aayaa aur kahin kshamtaa nazar nahin aayee .
    khaamiyon ke saath - saath kash aapko kisee sher mein khoobee bhee nazar aatee ( jaese auron ko nazar aayee .) Iseeliye mujhko likhna padaa - " Benaamee jee kaa Neeraj Goswami kee
    chaar gazalon ko nakaar dena mere halak ke neeche nahin utra hai ".
    Smeekshak kaa kaam mahaj khaamiyan
    nikaalnaa hee nahin , khoobiyan dikhaanaa bhee
    hota hai . Aapkaa Smeeksha karne kaa dhang agar khaamiyan dikhanaa hee hai to bhaiya mere dono
    haath aapke saamne khade hain .
    Mujhe lagtaa hai ki umr mein aapse badaa hoon main . Badaa hone ke naate aapse " guzaarish " kartaa hoon - kripya
    apnaa naam to bataaeeyega . Ye kya benaam se
    ban kar rahte hain aap ? yadi nahin bataeeyega
    to kabhee n kabhee pataa lagaa hee lenge hum .
    Aapkee nazr mera ek sher hai --

    KOEE SHAY CHHUP NAHIN SAKTEE

    NIGAAHON SE KABHEE INKEE

    KI AANKHEN DHOONDH LETEE HAIN

    SUEE KHOYEE HUEE PYAARE

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  63. @प्रिय मित्र बेनामी जी
    आपने कहा 'तिलक जी नें पहली गज़ल पर काम करके जो सुधार किये हैं उसके बाद गज़ल संतुलित नज़र आ रही है
    @ तिलक जी – आपने तैश मुझे दिलाया की गलत लग रहा है तो सही करो और खुद ही जुट गए :) हा हा हा'
    हुजूर मैनें कहॉं कुछ सुधार किया यह तो आपका मित्रभाव है कि अब वही ग़ज़ल आपको संतुलित लग रही है। आभारी हूँ आपका और आपसे सादर निवेदन करता हूँ कि अपने शब्‍दाभूषणों सहित प्रकट होकर मंच पर छाये रहस्‍य को तोड़ें। और दोस्‍त मुझपर तो आपका रहस्‍य पहले ही खुल चुका है, अपनों से ये पर्दादारी अच्‍छी नहीं। आप स्‍वयं ही अपना नाम सामने लायेंगे तो अच्‍छा लगेगा सभीको। विवाद तो चलते रहते हैं, जब भी प्रेमभाव से निमंत्रण मिले स्‍वीकार अवश्‍य करना चाहिये।
    आप भले ही -बेनामी' से संबंध व्‍यक्‍त न करें लेकिन आपकी अगली टिप्‍पणी मैं अपेक्षा करता हूँ कि आपे नाम से ही रहेगी और अब आप पुन: नाम से सक्रिय होंगे।

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  64. @ मनु जी आप का मेल पढ़ कर बहुत खुशी हुई मेरी इतनी पुरानी गज़ल के शेर आपको याद हैं...वाह...दिल बाग बाग हो गया..सच्ची...

    @गुरुदेव आप बेनामी जी के पीछे नाहक ही परेशान न हों, अब सबको सबकी रचनाएँ पसंद आये ये जरूरी तो नहीं होता...सब की अपनी सोच है अपनी समझ है और सबको अपनी सोच और समझ ही सही लगती है...इसमें कोई नयी बात नहीं है...दुःख की बात ये जरूर है के उन्होंने गज़लों की कमियां अपना नाम छुपा कर बताईं....पता नहीं क्यूँ? शायद उन्हें मेरी आदत पता नहीं है,अगर बता देते तो मैं उनको अपने साथ बिठा कर कॉफी पिला रहा होता...क्यूँ की किसी ने कहा है " निंदक नियरे राखिये...." बेनामी जी उच्च स्तर के रचनाकार हैं इसमें संदेह नहीं...

    @तिलक भाई की तो बात ही निराली है, उन्होंने गज़ल में जो तब्दीलियाँ की हैं वो कमाल की हैं लेकिन उससे वो गज़ल अब उनकी कही लग रही है, इतना परफेक्शन मेरी गज़लों में अभी तक नहीं आया है और इस बात को कहते मुझे कोई शर्म भी नहीं है, मैं उनके सानिध्द्य में सीख रहा हूँ शायद किसी दिन उन जैसी गज़ल कहने लग पढूं...

    @सुभाष जी आपने साखी पर मेरी गज़ल लगा कर जो उपकार किया है उसके लिए धन्यवाद शब्द अधूरा है. मुझे यहाँ बहुत कुछ सीखने का मौका मिला है...चर्चा बहुत सार्थक हुई है...और खुले मन से हुई है...

    @सलिल जी बहुत पारखी व्यक्ति हैं...जितना अच्छा लिखते हैं उतने ही सरल भी हैं...उनकी कही बात बहुत मूल्यवान है...उन्होंने जो कहा खूब कहा...

    @ शेष उन सब के लिए, जिन्होंने मुझे जैसा मैं हूँ वैसा ही स्वीकार किया,अपनी टोपी उतार कर सर झुकता हूँ. आशा करता हूँ के आप सब का स्नेह मुझे यूँ ही मिलता रहेगा.

    @ बेनामी भाई...आपको धन्यवाद दिए बिना यहाँ से जाना गुनाह होगा क्यूँ की आपकी टिपण्णी के कारण ही बात चीत यहाँ तक बढ़ी है और बहुत कुछ सीखने को मिला है...अब आप अपना मुखौटा उतार कर सामने आईये...यहाँ नहीं तो मेरे ब्लॉग पर आईये और खुल कर आलोचना कीजिये आपका स्वागत है...लेकिन आलोचना सकारात्मक होनी चाहिए विद्वेष की भावना लिए हुए नहीं...गुरुदेव के कथनानुसार आलोचना में सिर्फ कमियां ही नहीं देखी जाती खूबियां भी देखी जाती हैं और हाँ अगर आप को कोई खूबी नज़र न आये तो भी ये बात भी स्पष्ट कहें...

    नीरज

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  65. नीरज जी,
    पहली बात तो यह कि आपका फोटो बहुत सुंदर लगा। देखकर दिल बाग बाग हो गया। और उसके बाद परिचय पढ़कर हम गार्डन गार्डन हो गए।

    ग़ज़लों की बात करें तो हमें सब रंग दिखाई दिए जिंदगी के। शिल्‍प के अपन जानकर नहीं हैं। पर इतना जरूर कह सकते हैं कि कुछ बिलकुल आसान शेर हैं जो याद रह जाएंगे और कुछ ऐसे कि स्‍कूल का जमाना याद आ जाएगा याद करने में। और कुछ ऐसे भी कि उन्‍हें समझने के लिए बार-बार पढ़ना पढ़ता है। मैं उदाहरणों में नहीं जाऊंगा क्‍योंकि वे दिए जा चुके हैं।

    ज़र ज़मीं सल्तनत से ही होता नहीं
    जो दे भूखे को रोटी, वो सुलतान है

    इस शेर को पढ़ते हुए मैं भूखे पर अटक गया। ग़ज़ल के वजन की बात होगी शायद। वरना भूखे की जगह अगर पेट को रखकर अर्थ देखें तो मुझे सुलतान ज्‍यादा अच्‍छा लगता है। बहरहाल मुझे ये दो शेर सबसे अच्‍छे लगे-

    छोड़ देते मुस्कुरा कर भीड़ के संग दौड़ना
    लोग ऐसे ज़िंदगी में हाथ फिर मलते नहीं

    खुशबुएँ बाहर से 'नीरज' लौट वापस जाएँगी
    घर के दरवाज़े अगर तुमने खुले रक्खे नहीं

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  66. @आदरणीय नीरज जी
    न जाने क्‍यूँ कुछ भ्रामक स्थिति निर्मित हो गयी है। आपकी ग़ज़ल वही है जो आपने लगाई थी मैनें उसमें कोई बदलाव नहीं किया है। हॉं उसको संक्षिप्‍त तक्‍ती करके रखा है जिससे बेनामी भाई (जो सुरीले कंठ और संगीत के भी स्‍वामी हैं) को पढ़ने में आनंद आ जाये। उन्‍हें आनंद आया भी इस रूप में पढ़ने में। इस संक्षिप्‍त तक्‍ती में कहीं कहीं कोष्‍ठक में जो लिखा गया है वह केवल यह स्‍पष्‍ट करने के लिये कि वहॉं पढ़ा क्‍या जायेगा।

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  67. या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥




    प्रियवर सुभाष जी
    साखी को विदा कह कर जाने के बाद मोबाइल पर आपने विस्तार से बात की थी ,
    तब आप भी जानते थे कि एक के न आने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता ,
    फिर भी बड़प्पन रखते हुए मुझसे 35 - 37 मिनट तक बात की थी ।
    आभार तब भी माना था मैंने आपका , अब भी मानता हूं ।

    …और क्योंकि,
    मैंने स्वयं को कभी रचनाओं पर लंबी - चौड़ी समीक्षात्मक आलोचना करने में सक्षम पाया ही नहीं ,
    इसलिए आपके यहां होने वाली 'विद्वतापूर्ण बहसों'के अनुकूल-अनुरूप स्वयं को न पाने के कारण
    आ'कर कुछ कहता भी तो क्या ?

    … फिर , मेरी रचनाओं के बाद आपने आदरणीय प्राण जी की रचनाएं लगाई थीं …
    सुभाष जी ,
    स्वयं आपके इस बयान के बाद , कि -
    " अपने समकाल में जो लोग पहचान बनाने के लिए जूझ रहे हैं,
    अगर उन्हें सामने नहीं लाया जाएगा तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि वे जो लिख रहे हैं,
    वह कितना ठीक हैं उन्हें कितनी मेहनत की जरूरत है
    और वे कहाँ क्या गलतियां कर रहे हैं|
    तब तो वे अपनी दुनिया में मस्त रहेंगे अपने को खुदा समझते हुए|
    जो समझेंगे, उन्हें हम परिष्कार का मौका भी दे रहे हैं । "


    … तब मैं क्या यह कहने आता कि प्राण जी को भी परिष्कार का मौका दे'कर
    आपने उन्हें भी धन्य किया , इसके लिए बधाई !?
    … लगातार


    आज आने का कारण !

    कार्याधिकता एवं अन्य कारणों से मुझे समय नहीं मिल रहा ,
    कई मित्रों सहित नीरज जी को भी व्यक्तिगत रूप से लिखना था ,
    मेरे उनके साथ बहुत मधुर संबंध हैं , लेकिन नहीं लिख पाया ।
    उन्होंने मेरी पोस्ट पर कमेंट किया था , उसके लिए उन्हें धन्यवाद दिया भी था संक्षेप में ,
    लेकिन मुझे तब तक नहीं मा'लूम था कि साखी पर क्या खिचड़ी पक रही है ।


    किसी बेनामी महाशय/महाशया की टिप्पणियों को ले'कर अटकलों का दौर चल रहा है साखी पर
    इतना सारा लिखा हुआ बहुत ध्यान और गंभीरता से तो नहीं पढ़ पाया ,
    फिर भी आदरणीय तिलकराज जी कपूर की दो टिप्पणियों पर दृष्टि ठहर गई ।
    कपूर साहब अनुमान लगाते हुए कह रहे हैं -
    "…अपने शब्‍दाभूषणों सहित प्रकट होकर मंच पर छाये रहस्‍य को तोड़ें। "
    ज़ाहिर है आभूषण का ताल्लुक स्वर्णकार से सर्वाधिक होता है ।

    इसके बाद कपूर साहब कहते हैं -
    "…बेनामी भाई (जो सुरीले कंठ और संगीत के भी स्‍वामी हैं)"
    मुझे कोई ख़ुशफ़हमी तो नहीं कि मैं सुरीले कंठ और संगीत का स्वामी हूं ,
    बहुत सारे ब्लॉगर हो सकते हैं ।
    हां , मेरी पहचान इस प्रकार से भी है अवश्य ।


    मैं यह कहने ही आया हूं कि …

    अगर कपूर साहब या किसी और महाविद्वान का यह अनुमान हो कि बेनामी मैं हूं ,
    यानी राजेन्द्र स्वर्णकार …
    तो कृपया , यह बात दिमाग से निकाल दें ।


    मुझे कुछ कहने का समय होता तो मैं नीरज जी की ख़ूबसूरत रचनाओं पर कुछ कहता ।
    जैसे कि उनके ब्लॉग पर मैं कहता रहा हूं …
    उनकी कुछ ग़ज़लों का बिना उनके आग्रह के मैंने राजस्थानी भाषा में ग़ज़ल रूपांतरण किया था …

    और उनके साथ मेरे संबंधों में तिलकजी की इस 'बुद्धिमत्ता पूर्ण 'भ्रामक भटकन का कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा ।
    मेरी आत्मा कहती है नीरज जी मुझे कभी ग़लत मान ही नहीं सकते ।

    … और क्योंकि अंतर्जाल पर , ब्लॉग मालिक नहीं ,वरन् टिप्पणी करने वाले शेखी बघारते हुए हिमाकतें करते पाए जाते हैं ,
    कोई :- किसी को किसी और के ब्लॉग पर जा'कर बातचीत में बिना ज़रूरत घुसपैठ करके 'ध्रष्ट' कहते लज्जा नहीं करता ,
    कोई :- यह कहते नहीं झिझकता कि 'ऐसी क्या गरज आन पड़ी कि आप यहां आ खड़े हुए ।'
    कोई :- स्वयं की जीवन भर में लिखी 20-50 रचनाओं ही के दम पर पर इतराते हुए ,
    अधिक संख्या में सरस्वती की कृपा से सृजन करने वाले को 'ख़ूब लिखने की अपेक्षा अच्छा लिखने का बिन मांगा सुझाव' दे देता है ।

    सुभाष जी से पुनः कहूंगा ,
    मंच आपका , आप जिसे जो कहना - कहलाना चाहें !



    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  68. @प्रिय राजेन्‍द्र भाई
    आप मेरी ओर से निश्चिंत रहें। ये बेनामी आप नहीं हो सकते; मैं तो आश्‍वस्‍त हूँ।
    आप मेरी टिप्‍पणियों और उसपर बेनामी जी की प्रतिक्रियाओं को जोड़कर देखेंगे तो बहुत कुछ साफ़ हो जायेगा कि मेरी टिप्‍पणियॉं परस्‍पर सम्‍बद्ध हैं ओर उनमें एक प्रयास है बेनामी भाई को जानने का, और जिस तरह से उन्‍हें वही ग़ज़ल गेय रूप में प्रस्‍तुत करने पर अच्‍छी लगी वह उनके संगीत प्रेम और गेयता पर नियंत्रण को दर्शाता है। भाई ये आदमी जो भी है है नियमित ब्‍लॉगर है, भले ही कहे कि इसका कोई ब्‍लॉग नहीं है। ये आदमी इस ब्‍लॉग पर नियमित भ्रमण करता है और यह भी जानता है कि इस ब्‍लॉग पर रचनाओं का चयन रचनाकार करता है न कि ब्‍लॉगस्‍वामी। ये आदमी खिन्‍न है ब्‍लॉग पर पिछले दिनों उपस्थित रही परिस्थितियों से, ये आदमी ब्‍लॉग्‍स पर लंबी टिप्‍पणियॉं देने में नियमित है विशेषकर अगर कोई विवादित स्थिति बनती है। ये आदमी ग़ज़ल की बारीकियॉं भी समझता है। ये आदमी प्राण शर्मा साहब से नाराज़ है किसी कारण और नीरज भाई का सम्‍मान करता है। बहुत कुछ हैं ऐसे कारण जिनके कारण आपको ऐसा लगा कि अंगुली आपपर उठाई जा रही है। आपने ऐसा कैसे मान लिया कि ये स्थितियॉं अन्‍य किसी से नहीं जुड़ती हैं। इस प्रकार परिस्थितिसाम्‍य से जोड़कर स्‍वयं को लक्ष्‍य मानना उचित नहीं है। अनावश्‍यक रूप से आप अपने उपर कोई भार न लें।
    मेरे कारण निर्मित किसी स्थिति के कारण आपको यह कष्‍ट उठाना पड़ा इस असुविधा के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ।
    आप आये, अच्‍छा लगा (न भी लगे तो क्‍या फ़र्क पड़ता है)।
    भाई आपकी जो क्षमतायें हैं और मॉं सरस्‍वती की जो कृपा आपपर है वो सबपर नहीं होतीं, हो भी नहीं सकतीं।
    मैं आपसे कोई विरोध रखता तो बिन बुलाये आपके ब्‍लॉग पर नहीं आता।
    हम सब एक दिन चले जायेंगे और हमारे मतभेद यहीं रह जायेंगे, तो क्‍यों नहीं यह हमारे जीवनकाल में ही पीछे रह जायें।

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  69. मित्रों नमस्कार,

    मैं आप सभी का गुनाहगार हूँ की मैंने नीरज जी की ग़ज़लों पर जो पसंद “नहीं” आया उसकी और ध्यान दिलाया परन्तु जो पसंद आया उस पर बात नहीं की |
    मैं स्वीकार करता हूँ की यदि पसंद की बात “भी” की होती तो मेरी बात अधूरी न होती और तब शायद आप लोग मुझसे कुछ अधिक सहमत होते
    प्राण जी नें भी मेरे विषय में बार बार यही बात कही,

    मैं आप सभी से क्षमा प्रार्थी हूँ

    @ नीरज जी – “विद्वेष की भावना” शब्द पढ़ कर खुद पर ग्लानि हो आई
    अगर आपको ऐसा लगा है की मैंने यह सब “विद्वेष की भावना” से कहा है तो मेरे कहने में ही कमी रह गई, मैं आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ


    मैं एक बात आप सभी से कहना चाहता हूँ की मेरी बह’र की समझ बहुत कम है |
    यह भी कारण रहा की मैंने केवल कहन पर बात की

    ... जारी

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  70. आप सभी से अनुरोध है की अटकलें न लगाएं
    मैं बेनामी, पता नहीं आप लोगों के विशवास के लायक हूँ या नहीं
    मगर मैं कसमिया कहता हूँ की मेरा कोई ब्लॉग नहीं है और इस पोस्ट से पहले मैंने साखी पर कोई कमेन्ट नहीं किया इसलिए निवेदन करता हूँ की घुमावदार बातें कह के किसी पर भी तोहमत न लागाएं

    @ तिलक जी - प्राण जी से आज तक मेरा कोई संवाद ही नहीं रहा है तो विवाद या नाराज़गी तो बहुत दूर के बात है


    मैं इतने दिन से चुप रह कर साखी पर आता रहा हूँ तो भविष्य में भी यह कर सकता हूँ

    कोई जरूरी नहीं की अब मैं साखी पर हमेशा कमेन्ट करू, परन्तु यदि कमेन्ट करने की नौबत आ ही गई तो अब अपनी प्रोफाईल बना कर ही कमेन्ट करूँगा, जिससे आपको मुझे संबोधित करने में कोई दिक्कत न हो, किसी को कोई शंका न हो

    प्रोफाईल बनाने का एक और कारण होगा जो ज्यादा बड़ा है
    वो यह की मुझे खुद नहीं पता था की पहले कमेन्ट के बाद मुझे दूसरा तीसरा और अब चौथा कमेन्ट करना पडेगा
    भगवान ने मुझे जितनी बुद्धि क्षमता प्रदान की है उसके अनुसार मेरा अधिक से अधिक प्रयास था “और है” की किसी का दिल न दुखे और सही ढंग से अपनी बात मंच पर रख सकूं
    परन्तु यदि किसी अन्य नें खुजली मिटाने के लिए “बेनामी” बन कर अर्नगल प्रलाप कर दिया तो उसे भी मेरा ही कमेन्ट माना लिया जायेगा और मैं लाख सर पीट लूं मेरी कोई सुनवाई नहीं हो पायेगी

    और अप सब भी यही चाहते हैं की मैं प्रोफाईल से कमेन्ट करूं


    कल कुछ लिखने का प्रयास किया तो ये शेर बन गए, इन्हें यहीं छोड़े जा रहा हूँ
    ( काफिया और रदीफ नीरज जी की पहली गज़ल से लिया है)

    आजकल मिल कर भी तुम मिलते नहीं
    और कहते हो “खफा तुमसे नहीं”

    लोग ऐसे “भी” मिले मुझको यहाँ
    खुल के जो कहते नहीं, सुनते नहीं

    आप की हर बात मैंने मान ली
    और फिर भी आप खुश होते नहीं

    किस तरह तुमसे मिलूँ की यह लगे
    अब्र बाहों में भरा, भीगे नहीं



    अंत में सुभाष जी से यही कहूँगा की बेनामी आप्शन बंद करें नहीं तो फिर कोई बेनामी अपनी बात कहेगा और अगली बार कोई शायद मुझसे अच्छे और ज्यादा तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कहे

    विदा

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  71. राजेन्द्र स्वर्णकार ,
    अब तो इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि आप सुरीले कंठ के मालिक,संगीत के स्वामी और शब्दों के स्वयं घोषित राजकुमार हैं। पर इनका दंभ आपके अंदर इतना कूट कूट कर भरा है शालीनता के लिए जगह ही नहीं बची। इसलिए उसे आपसे किनारा कर लेना ही बेहतर लगा।
    आपने यहां जो टिप्पेणी की है वह इस बात का परिचायक है। टिप्पणी देखें।-

    इसमें पहला-कोई- सलिल भाई हैं। उन्हों ने मेरे ब्लांग गुलमोहर पर मेरी कविताओं पर हरकीरत हीर की टिप्पणी का जवाब दिया था। मैं यहां कहता हूं कि ऐसा करके उन्हों ने कोई धृष्टता नहीं की थी। मैंने जवाब वहां भी दिया था। बाद में इस मुद्दे पर साखी के पिछले अंक में भी जिक्र छिड़ा था। इसलिए मैं इस मुद्दे को तूल नहीं देना चाहता था। हरकीरत हीर ने अपनी हालिया पोस्टे के परिचय में वरिष्ठ ब्लागर और केंचुल उतारने की बात कहकर इस तरफ इशारा किया है। मैं फिर भी चुप रहा। आपने वहां भी टिप्पणी करके उस बात का परिचय दिया है जिससे यह पता चलता है कि शालीनता आपसे दूर ही रहती है। मैं फिर भी चुप रहा। न मैंने हरकीरत हीर के ब्लाग पर इस बारे में कुछ कहा और न अपने ब्ला ग पर। हां यह जरूर किया कि जिन लोगों ने हरकीरत हीर की पोस्ट के परिचय पर कुछ कहा था उन्हें ईमेल के जरिए यह संदेश भेजा कि वे गुलमोहर पर आकर देखें कि मामला है क्या।

    लेकिन आप नहीं चाहते हैं कि मैं चुप रहूं। इसलिए यह धृष्टता कर रहा हूं। मुझे पता है कि ऐसा करके मैं बहुत से सम्मानीय साथियों को दुखी करूंगा। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि अगर अब भी चुप रहूंगा तो मेरा ज़मीर मुझे कभी माफ नहीं करेगा।

    आपकी टिप्पणी में दूसरा –कोई- मैं हूं। राजेन्द्र स्वर्णकार मैं आज फिर यह कहता हूं कि, ‘ऐसी क्यां गरज आन पड़ी कि आपको फिर यहां आकर खड़ा होना पड़ा।‘

    सलिल भाई माफ करें कि उनका नाम मैंने यहां लिया। नीरज जी माफ करें कि उनकी ‘ग़ज़लों की खीर’ से कंकड़ चुनकर हम ग़ज़ल का मजा ले रहे थे। पर बीच में ये बड़े कंकड़ आन पड़े सो इन्हें निकाल फेंकना भी जरूरी है। सुभाष भाई माफ करें कि साखी पर यह सब कहना और करना पड़ रहा है। मुझे पता है कि विवाद थमने वाला नहीं है, पर मैं उसके लिए तैयार हूं।
    0 राजेश उत्साही

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  72. हम सब एक दिन चले जायेंगे और हमारे मतभेद यहीं रह जायेंगे, तो क्‍यों नहीं यह हमारे जीवनकाल में ही पीछे रह जायें

    वाह...वाह...वाह...तिलक जी कितनी अच्छी बात कही है...आईये हम सभी इस बात को अपने जीवन में उतार कर परम आनंद की स्तिथि को स्थाई करें.

    @तिलक जी मैं अपनी टिपण्णी से शर्मिंदा हूँ आपने सच ही गज़ल में कोई बदलाव नहीं किया था सिर्फ उसकी तकती ही की थी...जैसा मैंने अपने परिचय में कहा है के हम अभी अभी सठियाये हैं तो इस बात का प्रमाण भी इस टिपण्णी के माध्यम से दे दिया समझें...अब ताज़ा ताज़ा सठियाया इंसान कुछ भी हरकत कर सकता है उस पर किसी का जोर थोड़े ही चलता है. टेक ईटी लाईट मैन'

    @राजेंद्र जी , जिसने आपको जाना या पढ़ा है वो सपने में भी बेनामी के रूप में आपको नहीं सोच सकता. तिलक जी तो इस तरह की हरकत कभी नहीं करेंगे, मैंने जितना उन्हें जाना है उस के हिसाब से वो निहायत शरीफ,खुशमिजाज़,साफ़ दिल और काले को मुंह पर काला कहने वाले इंसान हैं.

    @बेनामी भाई मैंने आलोचना में विद्वेष की बात आपको इंगित करके नहीं कही थी, अगर आपको ऐसा लगा तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ...आपकी आलोचना सकारात्मक थी जैसी होनी चाहिए...जो आपको पसंद नहीं आया उसे खुल कर कहा और इसमें कोई बुरी बात नहीं है...लेकिन हर शायर या लिखने वाला जब कहता है तो वो एक प्रक्रिया से गुज़रता है पढ़ने वाला पढते वक्त उसी प्रक्रिया से गुज़रे ये जरूरी नहीं इसलिए गज़ल में पेश किये भाव शायर के अपने भाव होते हैं चाहे वो तकनिकी दृष्टि से कमज़ोर ही क्यूँ न हों...अपना बच्चा जिस तरह हमें सबसे प्यारा लगता है क्यूँ की वो हमारी क्रियेशन है जब की पडौसी को उस बच्चे में हज़ार कमियां नज़र आ जाएँगी...उसी तरह हर शेर शायर को प्रिय होता है जबकि पढ़ने वाले को शेर कमज़ोर लग सकता है...गज़ल के तकनिकी पक्ष पर आलोचना की जा सकती है भाव पक्ष पर नहीं. स्पष्ट हो गया है के आप न सिर्फ अच्छे आलोचक हैं बल्कि बहुत अच्छे शायर भी हैं...आपकी सोच कमाल की है...और कहने का अंदाज़ बेहद दिलकश...उम्मीद करते हैं के आपका लिखा हमें समय समय पर आपके नाम से पढ़ने को मिलता रहेगा.

    @सुभाष भाई आपके माध्यम से हम सब अपनी बात खुल कर कह पा रहे हैं इसके लिए आपको धन्यवाद.

    आईये हम सब साखी को अपनी बात को सार्थक ढंग से कहने का मंच बनायें और इसे नयी उचाईयां प्रदान करें.

    नीरज

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  73. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  74. ऊपर मुझे अपनी टिप्‍पणी बेनामी का सहारा लेकर दर्ज करनी पड़ी क्‍योंकि वह पोस्‍ट ही नहीं हो रही थी। तीन बार कोशिश की अंत में यह तरीका अपनाना पड़ा। इसीलिए उसमें वर्तनी की अशुद्धियां भी हैं। और राजेन्‍द्र स्‍वर्णकार की टिप्‍पणी का वह अंश भी नहीं आ सका जिसके बारे में मेरी प्रतिक्रिया है।

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  75. राजेन्द्र स्वर्णकार की टिप्पणी को दुबारा पढ़ा तो समझ आया कि वे सुभाषभाई के फोन पर बात करने के बड़प्पन के आगे अपना छुटपन दिखाने से भी बाज नहीं आए। तिलकराज जी को भी उन्होंने गरियाया ही है। और उनकी टिप्पणी में तीसरा-कोई-संजीव गौतम हैं। उन्होंने राजेन्द्र की रचनाओं की समीक्षा में कहा था कि दुनिया अधिक लिखने वाले को नहीं, अच्छा लिखने वाले को याद रखती है।

    कुल मिलाकर यह है कि जिन लोगों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी रचनाओं की आलोचना की वे सब उनके निशाने पर हैं। तिलकराज जी ने सही कहा जैसी कृपा मां सरस्वती की उन पर है ऐसी किसी और पर हो भी नहीं सकती। मैं तो प्रार्थना करूंगा कि किसी पर न हो। ऐसी कृपा से मूढ़ रहना भला।

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  76. देर, बहुत देर से आ सका हू. मेरे कहने को बचा ही नही कुछ. फिर भी, आया हू तो कुछ कहना ज़रूरी है. सबसे पहले यह तथ्य कि जब हम किसी रचनाकार पर तब्सिरा करते है तो रचनाके अलावा के एक नज़र उसकी शख्सियत पर भी डालते है. ’नीरज’ गोस्वामी वह शख्स है एक बागो-बहार तबीयत का मालिक है. हर हाल मे मुस्कुरा लेने का हुनर उसे पता है. यह शख्स इतना मासूम है कि गज़ले भेजने मे कोई एह्तिमाम भी नही करता और जो मिला वही भेज दिया. बार बार कह रहा है कि मै सीख रहा हू और उस्ताद नही हू. फिर हमे इस बात को ध्यान मे रखते हुए ही अपने विचार देने थे.
    दूसरी तरफ़, ’साखी’ जिस मकसद के तहत है, हम उसे भूल कर, बेनामी वगैरह पर केन्द्रित रहे.
    नीरज भाई की गज़लो पर मुझे सन्तोष है. बहुत कुछ कहा जा चुका है इस लिए इतना ही...बस.

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  77. सम्मानिय सुभाष जी!
    सम्म्निया नीरज जी !
    प्रणाम !
    नीरज जी कि ग़ज़लों पे ७६ प्रतिक्रिया पढ़ी ,शायद जो सार्थक बहस कि बजाय टांग खिचाई बन गयी , मैं अपनी प्रातक्रिया स्वरूप मात्र इतना ही कहना चाहुगा कि नीरज के चाँद शेर नए प्रयोग में दिखे , बेहद सुंदर लगी आप कि गज़ले ,
    सादर !

    --

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  78. सुभाष भाई आशा है सब कुशल है।

    साखी पर यह सन्‍नाटा कैसा है। शुक्रवार की दोपहर होने को आई। कोई हलचल ही नहीं हो रही। मुझे तो ब्‍लाग की यह दुनिया भी सन्‍नाटे से भरी लग रही है।

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  79. कहीं ये शोर से पहले होने वाला सन्नाटा तो नहीं...काश ऐसा ही हो और खूब सारे पढ़ने वाले आते रहें...साखी को नयी दिशाएं प्रदान करते रहें...मुझे हैरत है के हमारे गुरुकुल के सदस्य यहाँ अपनी प्रतिक्रिया देने नहीं आये...कहाँ हो गुरु भाइयो..आओ और अपनी सुनाओ...

    नीरज

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  80. तल्ख़ बातों को जुबाँ से दूर रखना सीखिए
    घाव कर जाती हैं गहरे जो कभी भरते नहीं
    कमाल का शेर...
    लाख कोशिश करो आके जाती नहीं
    याद इक बिन बुलाई सी मेहमान है...
    बहुत खूब...नीरज जी निसंदेह बहुत अच्छे शायर हैं.
    और हां, नीरज के घर में बने
    इतने ’संगीन’ वातावरण के लिए
    सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं...
    जिनकी बदौलत उनकी बेहतरीन शायरी दुनिया के सामने आ रही है
    (हा हा हा)

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  81. चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय,
    दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय.

    मास्टर साहब हमारी कापियाँ जाँच ली गई हों तो रिज़ल्ट भी बता दें. कल हमारी दिल्ली में छुट्टी थी, दिन भर इंतज़ार करता रहा और आज भी सन्नाटा.. कहीं दुर्गा पूजा की छुट्टी तो डिक्लेयर नहीं कर दी!!

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  82. इतना सन्‍नाटा क्‍यूँ है ?
    कितने आदमी थे?
    आदमी तो दो ही थे हुजूर, एक बेनामी और बाकी सब नामी।

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  83. साखी निर्माता, निदेशक, कथा-पट्कथा, सम्वाद आदि आदि वाले डा. सुभाष राय आगरा से लखनऊ आ कर किसी नई भूमिका के निर्वहन में व्यस्त हो गए हैं. अब टिप्पडयों की पोस्ट कब छपेगी,नया कौन होग, ये सब सवाल भविष्य के गर्भ में पडे हुए हैं. सन्नाटे से आप ही नहीं, मैं भी घबराया हुआ हूं लेकिन आस ज़िन्दा है.

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  84. शुक्रिया सर्वत भाई इस जानकारी के लिए।
    जानकर अच्‍छा लगा कि सब कुछ कुशल है।

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  85. @राजेश भाई
    अगर आपकी य‍ही बात बह्र-ए-रजज के शेर में कही जाती तो कुछ यूँ:
    है सब कुशल, ये जानकर, सबको यहॉं, अच्‍छा लगा
    सबकी तरफ, से आपका, करता चलूँ, मैं शुक्रिया।

    गुनगुनाने के लिये याद करें ग़ुलाम अली साहब की गायी ग़ज़ल 'ये दिल ये पागल दिल मेरा, क्‍यूँ बुझ गया आवारगी।

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  86. मित्रो 'नुक्‍कड़' पर अविनाश जी से यह जानकारी प्राप्‍त हुई है कि 'साखी' चौराहे के कबीरा यानी सुभाष भाई लखनऊ में 'जनसंदेश' के सम्‍पादकीय प्रभार को सम्‍भालने की तैयारी में व्‍यस्‍त हैं।

    हम यह आशा करते हैं कि जल्‍द ही वे थोड़ा समय निकालकर साखी पर भी लौटेंगे। नई जिम्‍मेदारियों के लिए उन्‍हें बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

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  87. मित्रो सुभाष भाई से फोन पर चर्चा हुई। वे कहते हैं अभी लगभग महीने भर तो साखी पर अवकाश रखना पड़ेगा, उसके बाद ही वे लौट पांएंगे। पर इतना तय है कि लौटेंगे जरूर।
    चलिए जब तक हम लोग साखी पर जो कहा और सुना गया है उसे गुनते हैं।

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  88. हम इन्तेज़ार करेंगे उनका क़यामत तक...खुदा करे के क़यामत हो और सुभाष जी आयें...

    नीरज

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  89. Neeraj ji ki gazlon tak bahut der se pahunchi .. iske liye maafi chahti hun ..

    Mujhe aaj bhi yaad hai jab main koi 2-3 saal pahle net par aana shuru hui thi aur gazal ki A, B , C , D mein ulajhi hui thi.. tab neeraj ji ki gazlen padh kar bas man karta tha ki kaash ek baar unse baat ho jaaye .. phir lagta tha itne bade shayar hai kyun baat karenge .. kabhi koshish hi nahi kee himmat hi nahi hui ..

    phir bahut samay baad jab koshish karne ki himmat hui to maine add request ke saath inke blog par comment kiya .. ummeed nahi ki koi positive jawaab bhi milega magar theek ulta hua na sirf jwaab aaya balki sneh bhi mila .. aur pata hi nahi chala ki kab Neeraj ji doston mein shamil ho gaye :-)

    inki gazlen mujhe hamesha hi pasand aayi hai
    Sakhi par inhe dekh kar bahut khushi hui ..

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  90. जो कुछ नज़र पड़ा मिरा देखा हुआ लगा
    ये जिस्म का लिबास भी पहना हुआ लगा

    जो शेर भी कहा वो पुराना लगा मुझे
    जिस लफ्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा

    -कुमार पाशी

    गज़ल के आहंग में नये की तलाश करना बड़ा मुश्किल है..ख़याल,रदीफ़...शब्द-उपमा...शब्द विन्यास सॅज़ोना ...कुमार पाशी जैसे शायर को पुराना या कहूँ बरता हुआ लगा...
    बस हमें भी कुछ नया ढूँढना है / तलाश करना है / खोजना है...
    वरना बस पढ़ा जाए !!....जब तक गज़ल कहते नहीं..तो क्यों लिखा जाए..!!
    मेरा अपना मान ना है शायरी आम लोगों के लिए नही होती..काव्य हमेशा से एक विशेष वर्ग के लिए रहा है..सामान्य के लिए तो वो बस ध्वनि मात्र है...
    खैर हर बात को तर्क़ की भट्टी मे डाला जा सकता है..उसके बाद कौन देखता है क्या निकला..

    ऐसा मुझे लगता है
    -मस्तो

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  91. डॉ. सुभाष राय जी...नमस्कारम्‌!
    इस सन्नाटे को देखकर, आज तो यही उद्धृत करना चाहूँगा कि-

    इंतज़ार एक शाम का नहीं,
    इंतज़ार उम्र तमाम का है।
    अब तो मिलता नहीं कोई छोर भी,
    इंतज़ार है अभी और भी!

    आख़िर कब तक...? आप तो सिर्फ़ एक माह की बात कह रह थे...है न?

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  92. डा.सुभाष राय@ नीरज जे की गजलों को पेश करने का बहुत बहुत शुक्रिया. एक साथ बहुत कुछ पढने को भी मिल गया और आज मैं नीरज जो को करीब से पढ़ सका.

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  93. काबिलेतारीफ़ है प्रस्तुति ।
    आपको दिल से बधाई ।
    ये सृजन यूँ ही चलता रहे ।
    साधुवाद...पुनः साधुवाद ।
    satguru-satykikhoj.blogspot.com

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  94. Neeraj Ko sunne ka awsar Mumbai mein kai baar mila hai, aur har baar unki gazal mein nayi tazgi mili shayad naye pryog mein laye hue kafiyon ka asar hai.
    भोला कहने से अच्छा है
    दे दो मुझको गाली प्यारे
    Yahi unki vinamrata hai yahi unki pehchaan bhi hai.
    Charcha manch par bahut kuch seekhne ko milta hai..

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  95. यहाँ के बेनामी जी तो बड़े ही सभ्य और सुसंस्कृत हैं जी। मेरे यहाँ तो बड़े ही दुष्ट और .........टाइप के बेनामी आते हैं। नीरज जी आपकी शायरी बेमिसाल लगी। क्योंकर खार की बातें वाले शेर पर बेनामी जी गलत और आप सही है नीरज जी। पोस्ट बहुत सुंदर थी और इस पर की गई टिप्प्णियों को बहुत संभाल कर रखना चाहिए आय थिंक। दे आर वैरी स्पेशल।

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  96. @ रचनाधर्मी निरंतर परिष्‍कृत होता रहता है और जब वह परिष्‍कृत होने लगता है तो उसकी रचनाओं में निखार आने लगता है। इसी प्रकार स्‍वरचित रचना को जब कोई रचनाधर्मी बार-बार पढ़ता है तो हर बार कुछ न कुछ सुधार की गुँजाईश पाता है।
    तिलक राज कपूर जी की इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ. इसके अतिरिक्त ५ बातें और कहूंगा -
    १- पढाई के दिनों में फिजिक्स से डर लगता था, आज भूल का अहसास हो गया .....अच्छा हुआ साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा ......यहाँ तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा .
    २. आज ..अभी ..यहीं ....नीरज जी से थोड़ा सा रू-ब-रू हुआ, गज़ब के इंसान हैं नवनीत सा दिल ..कोई भी कायल हो जाय ...मेरा आदाब क़ुबूल कीजिये हुज़ूर !
    ३- बेनामी से बोध होता है कि एक व्यक्ति जिसका नाम अज्ञात है....कुछ तो बोध हुआ ....तो यह संज्ञा भी वार्ता के लिए पर्याप्त है....सबने पुकारा "बेनामी भाई" तो अब यही इनका नाम है, झगड़ा ख़तम.
    ४- साहित्यकार यदि साहित्यकार न होता तो शायद राजा होता .....साहित्यकार बन कर वह अपने मन का राजा हो गया है. कमाल है ! मन के राजा को अपनी भड़ास निकालने के लिए भी बेशुमार नियमों की ज़रुरत है ! भाव अच्छा हो .......कथन स्पष्ट हो ...भाषा सुबोध हो ताकि सन्देश अपने लक्ष्य तक पहुंचे ......बस हो गया ...और क्या चाहिए ?
    ५- मैं साहित्य का ओलम भी नहीं जानता पर इतनी समझ है कि कि जो सरल-सुबोध नहीं है वह व्यापक भी नहीं है .....देव वाणी संस्कृत में कहाँ दोष है ? किन्तु कितनी व्यापक है आज ? अस्तित्व बचाना मुश्किल है . वेदों के कितने पाठक हैं आज ? आल्हा आज भी गाई जाती है .......न केवल महोबा में बल्कि बिहार में भी सुनी है मैंने. वेदों का सन्देश नहीं पहुंचा लोगों तक पर आल्हा का सन्देश पहुंचा. कारण है सुबोधता. विद्वत जन ! कृपया इन बातों पर भी गौर करने का कष्ट करेंगे.

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  97. नीरज जी की कृति को पढ़ने का सौभाग्य मिला। अति उत्तम लिखते हैं।

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  98. mai inhe abtak nahin janta tha lekin ab jaan gya hun inki gajale sach me bahut shandaR HAI

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हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...