गुरुवार, 9 सितंबर 2010

इस कसक से मीठा कुछ भी नहीं

साखी पर वेद व्यथित की गीतिकाओं पर अच्छा  हंगामा मचा| कुछ तो व्यथित की शैली पर, तकनीक पर और कुछ रचना की समीक्षा के लिए एक ख़ास शब्द पोस्टमार्टम  के इस्तेमाल पर| इस मारामारी में कभी भावुक क्षण भी आये, कभी ताने, उलाहने के अवसर भी लेकिन कुछ संयत स्वर भी दिखे| मेरा मानना है कि कविता पर बातचीत में किसी को भी भावुक होने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि भावुकता हमेशा तर्क और विश्लेषण को मार देती है। यह उलझाती भी है और अक्सर जब हम भावुक होते हैं तो व्यक्तिगत स्तर पर भी उतर आते हैं, जो इस मंच के लिए उचित नहीं है| प्रख्यात शायर सरवत जमाल और सलिल जी उलझे मगर कवि संजीव गौतम, कथाकार निर्मला कपिला और जाने-माने रचनाकार राजेश उत्साही ने सतर्क बीच-बचाव भी किया|  वेद ने बड़ी साफगोई से अपनी कविताओं पर भिन्न-भिन्न तरह के विचारों को स्वीकार किया और जहां जरूरी लगा, अपनी विनम्र असहमति भी जताई|  


सरवत जमाल ने कहा, वेद जी की रचनाएँ निस्संदेह शिल्प और कथ्य के स्तर पर पाठकों को बांधे रखने में सफल हैं, श्रृंगार रस में डूबी, लोगों की कोमल भावनाओं को सहलाती-दुलराती, प्रेम के उस प्रकोष्ठ तक ले जाती हैं, जिसका वर्तमान में अस्तित्व समाप्त प्राय है फिर भी टेक्निक, रिदम और प्रेम-रस, सभी मिलकर एक अनोखी दुनिया तक पहुंचा देते हैं पढ़ने वालों को| भाषा के स्तर पर रचना कई स्थानों पर कमजोर दिखी| चार  स्थान ऐसे हैं, जहां मुझे खटक महसूस होती हैं..गीतिका-१ "उन में शायद ही होंगी तुम को कोई याद अभी|". गीतिका-२ "पपीहा बादलों को ही उसे गा कर सुनाते हैं|".....यही तो नेह की मीठी बहुत नदियाँ बहाते हैं|" गीतिका-३ "हर पल मुझको याद रहा", यह टेक अंत आते आते "वो पल मुझको......"में परिवर्तित हो गया| १- २ मात्राएँ कम हैं| २- पपीहा बादलों.....भाषा के मुताबिक पपीहे होना चाहिए था| ३- यही तो नेह की मीठी बहुत..... यह बहुत नदियाँ के लिए है या नेह के लिए, स्थिति भ्रामक हो गयी है| ४- गीत का एक अनुशासन होता है, उसका पालन होना चाहिए। कई जगह तुक में भी छूट ली गयी है, जिसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता| इन कमियों से रचनाकार का कद कहीं से छोटा नहीं होता| लोगों के समक्ष अपनी रचनाएँ 'पोस्टमार्टम' के लिए पेश करना ही बहुत बड़े कलेजे का काम है| 

सर्वत जमाल का यह पोस्टमार्टम शब्द निशाने पर आ गया| गजल और कविता की अच्छी समझ रखने वाले बिहारी ब्लॉगर यानी सलिल जी ने विस्तार से अपनी बात रखी| उन्होंने कहा,  पहली गीतिका प्रेम की ओस में भीगी सी बाल्यावस्था के प्रेम का स्मरण, बड़े ही कोमल शब्दों में कराती है| कविता के पार्श्व में एक विरह का आभास दीखता है और ऐसा प्रतीत होता है कि कवि आज भी बाल्यावस्था के प्रेम पाश से मुक्त नहीं हो पाया है| कविता में  लयबद्धता कहीं भी भंग होती नहीं दिखती और शब्द विन्यास प्रत्येक शब्द को गरिमा प्रदान करता है| दूसरी गीतिका में विरह के निर्दय चित्रण की परंपरा व्यथित जी ने तोड़ी है| यद्यपि उन्होंने आँसू बहाए हैं, तथापि वे आँसू मोतियों का स्थान रखते हैं| प्रेयसि के विस्मृत बोल, वे पक्षियों के कलरव में श्रवण करते हैं, पपीहे की पुकार बादलों को संदेश देती है विरही प्रेमी का| कवि हिमालय से ऊँची पीर नहीं देखता, उससे निकलती प्रेम की मीठी गंगा को देखता है, उदासी का अंधेरा नहीं, सिंदूरी भोर में प्रेम के कमल खिलते देखता है।


तीसरी गीतिका को सलिल जी ने गज़ल कहने की हिमाक़त की| कहा,  मतला व्यथित साहब के पुराने अंदाज़ यानि हिज्र के अंदाज़ से तर ब तर है, लेकिन अगले मिसरे से जो तेवर उन्होंने बदले हैं वो ग़ज़ब का कन्ट्रास्ट पेश करता है| जहाँ मुल्क़ की आज़ादी के शहीदों को वे याद करते हैं, वहीं टूटी टपकती छत, झूठे वादे और कंगाली का ज़िक्र करके याद दिलाते हैं कि उन शहीदों की क़ुर्बानियों के साथ हमारे लीडरान कितना भद्दा मज़ाक करते रहे हैं| चौथी गीतिका में एक छोटी सी भूल  ने ठिठका दिया| “तुम्हारे आँख” की जगह पर “तुम्हारी आँख” होना चाहिए था| उन्होंने कहा कि  हिंदी या हिंदुस्तानी ज़ुबान में की गई ये शायरी, गुफ्तगू करती मालूम पड़ती है| व्यथित जी की कलम को सलाम करने को जी चाहता है| अगर मुख़्तसर में बात कहनी हो तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि एक ख़ुशनुमा बारिश के मौसम में, इतवार के रोज़ बालकनी में बैठे, अपने माज़ी से मुलाक़ात करने की ख्वाहिश हो, तो इनकी ग़ज़लों से बेहतर कोई हमसफर नहीं| 

इसी क्रम में सलिल ने सर्वत साहब को भी खींच लिया | सर्वत साहब खरे साहित्यकार हैं... उन्होंने जिन कमियों की ओर इशारा किया वो दुरुस्त है... सिर्फ एक बात मुझे अखर रही है.. याद नहीं पर पहले भी कहीं किसी ने साखी पर समीक्षा के लिए पोस्ट मार्टम शब्द का प्रयोग किया था, जो सर्वथा अनुचित है| मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूँ कि किसी शायर या कवि की जीवंत रचना के लिए, जो शायर के मरने के बाद भी जीवित रहती है, इस  शब्द  का प्रयोग मज़ाक में भी न किया जाए| कविता एक जीती जागती कृति है और ज़िंदा जिस्म पर पोस्ट मार्टम नहीं किया जाता| सर्वत भावुक हो गए ,मुझे बेहद अफ़सोस है कि मुझसे भारी गलती हो गयी और एक शब्द 'पोस्ट मार्टम' का प्रयोग समीक्षा के लिए मैंने कर दिया| पोस्ट मार्टम शब्द  मैंने इन्वर्टेड कामा में लिखा था, मेरा आशय किसी को दुःख पहुँचाना नहीं था| मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, आइन्दा आपको शिकायत का मौक़ा नहीं मिलेगा| सलिल भी थोड़ा  पिघले, मेरी अगली लाइन आपने शायद ध्यान से नहीं पढ़ी, जिसमें मैंने कहा है कि पहले भी साखी पर यह शब्द किसी ने प्रयोग किया था... आपका यह लफ्ज़ मुझे पहले वाक़ये की याद दिला गया, मेरे ज़ख़्म ताज़ा हो गए| मेरी बात सोलह आने सच्ची है, आपको बुरी लगी हो तो मैं दोनों हाथ जोड़कर माफी माँगता हूँ|

राजेश जी ने सलिल जी को पूरी बात याद दिला दी| आपकी पोस्‍टमार्टम वाली टिप्‍पणी मैंने देखी थी और उस पर एक टिप्‍पणी भी की थी लेकिन वह प्रकाशित नहीं हुई। हो जाती तो बेहतर होता। इस शब्‍द का इस्‍तेमाल गिरीश जी ने किया था| उनकी पंक्तियां थीं-मुझे बड़ी खुशी होती है, जब कोई पोस्टमार्टम करता है. ऐसे लोग अब बचे ही कहाँ. एकाध दिखते हैं, तो इनका अभिनन्दन ही होना चाहिए। यह मुझे तब भी खटका था| उन्होंने सर्वत जी  को सलाह दी कि सलिल जी की बात को भावावेश में न लेंराजेश जी ने गीतिकाओं पर कहा कि वेद जी की गीतिकाएं मुझे आत्‍मालाप ज्‍यादा लगीं। लगा जैसे वे बस खुद से बतिया रहे हैं। असल में मेरा पाठक मन हर रचनाकार की रचना में समकालीन परिदृश्‍य को ढूंढता है। वेद जी की एक रचना इस बात का हल्‍का सा आभास देती है कि वे वर्तमान में हैं। पर अगले क्षण वे लौट जाते हैं अपने एकाकीपन में। सच कहूं तो वेद जी मुझे व्‍यथित नहीं कर पाए। हो सकता है मैं ही असमर्थ हूं इन्‍हें समझ पाने में ।

यहां संजीव गौतम ने भी दखल दिया, ये माफियों का दौर अच्छा नहीं लग रहा, अरे ये तो विचार हैं, कोई सहमत होगा, कोई असहमत। इसमें बुरा नहीं मानना चाहिए। सर्वत दादा से  अनुरोध है कि आप खूब टिप्पणी करें। पहले से और ज्यादा करें। अगर साखी पर आप, सलिल जी, राजेश  जी की टिप्पणियां न हों तो साखी का मतलब क्या है। आदरणीय सलिल जी का आशय आपको हर्ट करने का  नहीं था।  वेद जी को देखिए उन्होंने किस उदारता के साथ सारी टिप्पणियां स्वीकार की। उम्मीद  है ये माफियों का दौर यहीं खत्म हो जायेगा। गीतिकाओं पर संजीव ने कहा कि  वेद जी के लिए कविता कर्म के द्वारा समाज को रचने के बजाय स्वयं को रचना ज्यादा अच्छा है। मैं तो उनकी इस बात की दाद दूंगा कि उन्होंने इन रचनाओं को ग़ज़ल नहीं कहा। अगर उनकी जगह कोई और होता तो इन्हें ग़ज़ल ही कहता। इस बात के लिए औरों को वेद जी से सीख लेनी चाहिए। वेद जी बहुत संवेदनदशील रचनाकार हैं लेकिन साखी की कसौटी पर ये रचनाएं हल्की हैं। एक बात और सर्वत जी ने वेद जी की एक पंक्ति ‘यही तो नेह की मीठी बहुत नदिया बहाते हैं‘ में 'बहुत' शब्द के स्थान को लेकर कहा है कि वहां भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो रही है पर  अगर हम 'बहुत' को नेह, नदिया और मीठे, तीनों के साथ अलग-अलग भी रखकर देखें तो भी अनर्थ नहीं होता है। इस आलोचना से वेद जी को मुक्त करना चाहिए। निर्मला कपिला जी ने सलाह दी कि  हमे आलोचना को सकारात्मक रूप में लेना चाहिये। अगर हम अपना नज़रिया रख रहे हैं तो जरूरी नहीं कि  वो सब से मिलता हो। व्यथित जी की सभी रचनायें बहुत अच्छी लगी। 


कवि और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि अपनी ख़ास मौलिक रंगत के साथ लिखी गयी गीतिकाएं दिल को छू गयीं| वेद जी जैसे प्रयोगधर्मी कवि की ये रचनाएँ हमेशा याद रहेंगी। मदन  मोहन अरविन्द  ने कहा कि  सब का सोचने का अपना-अपना ढंग होता है, कई बार अलग-अलग मूड में पढ़ने पर भी एक ही बात कई तरह के अर्थ दे जाती है, हम सब लोग आपस में एक दूसरे पर विश्वास करना और एक दूसरे को समझने की बेहतर कोशिश करना जारी रखें तो ऐसा करना संभवतः मौन रहने या कुछ कहना बंद करने से अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है| नरेंद्र व्यास ने कहा कि  वेद व्यथित जी की रचनाएँ तो अच्छी लगीं ही, मेरे जैसे नव-उत्साही सीखने वालों को इस गहन चर्चा से कितना फायदा हुआ है...मैं बयान नहीं कर सकता| उम्मीद है ऐसी उच्चस्तरीय चर्चा भविष्य में भी पढ़ने को मिलेगी| लेखिका वन्दना जी, विज्ञान कथाकार अरविन्द मिश्र, शायर दिगंबर नासवा, डा रूप चन्द्र शास्त्री मयंक, अदा जी, जय कृष्ण राय तुषार, सुनील गज्जानी, विनय  और फिरदौस खान को भी वेद जी की गीतिकाएं पसंद आयीं| 


मशहूर गजलकार श्रद्धा जैन ने कहा कि बहुत मीठे गीत हैं, प्यार की अठखेलियाँ याद आ गयीं, पेड़ के नीचे बातें, रूठना-मनाना| हिन्दी शब्दों का चयन भी खूब किया है| गीतिकाएं ख़ास तौर पर अपनी सी लगीं, दिल को छू गयीं| अविनाश वाचस्पति अपने रंग में दिखे, रस दे रही हैं रचनायें, गीतिकाएं हों कि कविताएं, तुक के साथ हों या कि हों बेतुकी, रसदार हों या बेरस, पर रचना कोई नीरस नहीं होती, रचना जीवन में रस भरती है, रंग भरती है, तरंग भरती है, आलोड़ित कर देती है मन को, वही व्‍यथित भी करती है, जब करे वेद को व्‍यथित तो घाव महत्‍वपूर्ण हो जाता है| 

गीतिकाकार डा वेद व्यथित ने विनम्रता पूर्वक कहा मैं तो साहित्य का बहुत ही अकिंचन प्रथम कक्षा का भी नहीं अपितु नर्सरी का विद्यार्थी हूँ परन्तु जिन भी मित्रों ने मेरा मार्ग दर्शन किया है और  उत्साह बढ़ाया है, मैं हृदय से उन का आभार व्यक्त करता हूँ | मतभेद बहुत जरूरी हैं परन्तु मनभेद न हों, यह उससे भी जरूरी है|  कुछ शब्दों ,पंक्तियों व व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियों की और मित्रों ने ध्यान दिलाया है, अत्यधिक विनम्रता से निवेदन कर रहा हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति एक ही शब्द को अलग-अलग  ढंग से उच्चारित करता है, सबका अपना अपना रिदम है, उच्चारण है, मानसिकता है| हिंदी में जो बारी है, पंजाबी में वही पारी हो जाता है | काव्य व गद्य में भी बहुत अंतर है|  सबको अपनी सोच या विचार रखने का पूरा अधिकार है इसलिए मैं सबके  विचार का सम्मान करता हूँ| भाई सुभाष राय, जो इस सारस्वत कर्म में कर्म योगी की भांति निंरतर गतिशील है, साधुवाद के पात्र हैं| औरों को मान बड़ाई देना, यही उनकी साधुता का आलोक है | वन्दना जी सहित जिन मित्रों ने अपनी कृपा दृष्टि डाली है, उन सभी का मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ |


शनिवार को अशोक रावत की गज़लें 
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10 टिप्‍पणियां:

  1. बात पहले भी कही जा चुकी है लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं जाता. शनिवार से बुधवार तक किसी एक रचनाकार की रचनाओं पर आने वाली टिप्पणियों को नजर में और गुरुवार प्रातः काल उन तमाम टिप्पणियों को एक सूत्र में पिरो कर, माला बनाना, बेहद कठिन कार्य है लेकिन कठिन कार्य ही चुनने वाले को ही शायद सुभाष राय कहते हैं.
    बहुत मेहनत और दिक्कत वाला काम है.
    मुझे एक शिकायत है हुज़ूर, मैं ने अपनी टिप्पणियाँ निकाल देने का अनुरोध किया था, आप प्रार्थना ही स्वीकार करते हैं क्या?

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  2. सर्वत साहब
    फूल तो दो चार गुल्चीं ने चुने,
    सारे गुलशन पर उदासी छा गई.

    जनाब आपकी टिप्पणी निकाल देते डॉक्टर साहब, तो बचता क्या! और डॉक्टर सुभाष राय जी का कमाल देखिए, हर कमेंट अपनी जगह सजा हुआ है. किसी को भी हटाया तो सब भहरा कर गिर जाएगा.. धन्यवाद डॉक्टर साहब...
    लेकिन एक शिकायत है तस्वीरों का संयोजन ज़रा गड़बड़ाया दिखता है. (मज़ाक) लगता है हम दोनों भाई, मैं और राजेश जी, दो अलग दिशाओं में मुँह फुलाए बैठे हैं.
    ख़ैर! बहुत प्यारा अनुभव है यह सब. अब लग रहा है कि भरा पूरा घर है क्योंकि बरतनों के टकराने की आवाज़ आने लगी है... साथ ही थालियों पर पड़ती चम्मच की थाप के साथ बजता संगीत भी.सुभाष जी हृदय से आभार आपका!
    सलिल

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. सलिल भाई खूब कही आपने। सचमुच, एक तो अपनी शक्‍ल ही ऐसी है कि कितना भी संभलकर बैठो मुंह फूला हुआ ही आता है। यहां तो सचमुच ऐसा ही लग रहा कि हम दोनों की दिशाएं अलग हैं। सुभाष जी हम दोनों की तस्‍वीर की जगह बदलकर बात की दिशा भी बदल सकते हैं। पर मैं तो यह भी कहूंगा कि अपन(मैंने)ने तो ऐसा कुछ नहीं किया था कि गुरुवार को रिलीज होने वाली इस फिल्‍म के पोस्‍टर पर छप जाते। पर लग रहा है पोस्‍टमार्टम का झंडा लेकर अपन पीपली लाइव के ओंकारदास मानिकपुरी यानी नत्‍था हो गए।

    वैसे मुझे तो यहां भी कलात्‍मकता दिख रही है और उसके पीछे की सोच भी। सलिल भाई, हमारी फोटो के ऊपर सर्वत भाई मुस्‍कराते हुए जमे हैं और ऊपर पंक्ति है-'इस कसक से मीठा कुछ भी नहीं।'

    जैसे सुभाष जी कहना चाहते हों सलिल और राजेश, 'तुम्‍हारी मारामारी के बीच सर्वत भाई की जो कसक है वही असली है।'

    बहरहाल अब तो यह मानना ही पड़ेगा कि टिप्‍पणियां लिखने से ज्‍यादा कई हजार गुना काम सब को समेटकर यहां अर्थवान रूप में प्रस्‍तुत करना है। यह बहुत धैर्य और कुशलता का काम है। सुभाष भाई आपको सादर नमन।

    वेद जी को भी साधुवाद की उन्‍होंने हमारे पत्‍थरों को सहजता से झेला।
    ९ सितम्बर २०१० ९:०६ पूर्वाह्न

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  5. वाह भाई राजेश, अपन से सधता ही नहीं. कभी फोटो उपर खिसक जाती है, कभी नीचे, कभी गायब हो जाती है. ऐसे में एक बार भी सब दिखायी पड़ जायें तो मैं प्रकाशित करने में देर नहीं करता. क्या करूं, इस अनजाने, अनबूझे में भी आप सब इतनी अच्छी बातें खोज लेते हो तो अपन को खुशी तो मिलती है न.

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  6. "पोस्टमार्टम" पर हुई चर्चा के सन्दर्भ में एक नया शब्द उपयोग करने का सुझाव देने की जुर्रत कर रहा हूं,"बायोप्सी" (यह जिन्दा लोगों पर होती है)

    -चैतन्य

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  7. गज़ब का विश्लेषण्…………………बहुत बढिया लगा ----- हर रचनाकार का कद कितना बढ जाता है………………बेहतरीन कार्य्।

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  8. लोगों के समक्ष अपनी रचनाएँ 'पोस्टमार्टम' के लिए पेश करना ही बहुत बड़े कलेजे का काम है|
    --
    इस वाक्य ने तो मन मोह लिया है!

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  9. ऊपर की टिप्‍पणियों में चित्रों की की गई बायोप्‍सी अच्‍छी लगी। पेप्‍सी का स्‍वाद दे गई। पर अगर पेप्‍सी में हमने स्‍वाद को जाहिर कर दिया तो बाबा रामदेव जी नाराज हो जायेंगे। खैर ... कोई नाराज हो, बेराज हो, पर कुछ के चेहरे पर प्रसन्‍नता आये तो मैं चाहूंगा कि मेरी व्‍यंग्‍य रचनाओं का 'पोस्‍टमार्टम' भी किया जाना चाहिए 'बायोप्‍सी' नहीं। कोई मेरी प्रार्थना की तरफ गौर ही नहीं कर रहा है तो सर्वत भाई आपकी टिप्‍पणियां कैसेट हटाई जा सकती हैं। महल का ह यानी आपकी टिप्‍पणियां ही हटा दीं तो ... खैर ... बॉबी मिल जाए।

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  10. बहुत खुश हूँ कि चलो ब्लाग पर किसी चर्चा का तो सुखद परिणाम निकला इसके लिये सब को बधाई।इस बात से सहमत हूँ कि---
    टिप्‍पणियां लिखने से ज्‍यादा कई हजार गुना काम सब को समेटकर यहां अर्थवान रूप में प्रस्‍तुत करना है। यह बहुत धैर्य और कुशलता का काम है। सुभाष भाई जी के इस कार्य की सराहना की जानी चाहिये। धन्यवाद।

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हां, आज ही, जरूर आयें

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