गुरुवार, 2 सितंबर 2010

वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है

साखी धीरे-धीरे जीवंत साहित्यिक मुठभेड़ों का मंच बनता जा रहा है| आज के वक्त को इस तेवर की जरूरत है, इसलिए इसका स्वागत होना चाहिए| किसी भी बड़े रचनाकार को खुशी-खुशी अपनी खाल उतरवाने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी सामर्थ्य, अगर उसमें है,  कम नहीं होगी, हाँ अन्य रचनाकुल नवागंतुकों को सीखने को बहुत कुछ मिलेगा| आलोचना एक सहज और सरस प्रक्रिया है, इसलिए अपनी बात रखने वाले रचनाधर्मियों से  भी मेरा आग्रह है कि उनके शब्द गुस्साए हुए न नजर आयें| सामर्थ्य का उम्र से कोई ताल्लुक नहीं होता, ऐसा मैंने अनेक अवसरों पर महसूस किया है, इसलिए बड़ों की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने से छोटों के जायज सवालों का जवाब दें| पर हर स्तर पर  विनम्रता निहायत जरूरी है क्योंकि यही किसी को भी बड़ा बनाती है| गिरीश पंकज की ग़ज़लों पर खूब घमासान मचा| गिरीश की सामर्थ्य से किसी को इनकार नहीं, विभिन्न विधाओं में उन्होंने काफी महत्त्वपूर्ण काम किया है पर कोई बड़े से बड़ा रचनाकार भी यह नहीं कह सकता कि उससे कभी चूक नहीं हो सकती, वह भी जब ग़ज़ल कहनी हो तो| मुझे नहीं लगता कि गिरीश भाई को इस बात से इनकार होगा, साहित्य का कोई भी सच्चा सिपाही इससे इनकार नहीं कर सकता| उर्दू के कई अफलातून शायरों ने ग़लतियाँ की हैं, हम सब तो अभी ग़ज़ल के विद्यार्थी हैं| निस्संदेह संजीव गौतम मुझसे या गिरीश भाई से उम्र में छोटा है, लेकिन उसमें जो खरापन है, उसे मैंने बार-बार  महसूस किया है| कोई जरूरी नहीं कि खरी-खरी बात कहने वाला रचना के स्तर पर पूर्णता प्राप्त कर चुका हो| वह भी यात्रा में है| एक ही रास्ते के दो पथिक कभी-कभी चलने, ठहरने, रुकने और मस्ती में गाने को लेकर परस्पर असहमत हो जाएँ तो इसमें क्या आश्चर्य, क्या परेशानी| मुझे लगता है, यह  संवाद जरूरी है अन्यथा रास्ता भटक जाने का खतरा बना रहेगा| हम सब एक ही टोले के बाशिन्दे हैं, किसी की गाँठ में कुछ अनमोल है, किसी की गाँठ में कुछ और| कोई अपने पत्थर को शीशा कहकर किसी को बहका नहीं सकता और किसी के हीरे को बार-बार पत्थर कहकर भी कोई उसकी चमक कम नहीं कर सकता| साहित्यिक बहस में इस समझ की बहुत जरूरत होती है| 

ग़ज़लों के कई जानकार लोगों ने गिरीश पंकज की गजलों की सराहना की| प्रेम जनमेजय ने उन्हें अच्छी और संवेदनशील कहा। प्राण शर्मा जी ने कहा चारों गज़लें कथ्य, भाव और भाषा की दृष्टि से अच्छी लगीं|  दिगंबर नासवा जी ने  कहा कि गिरीश की ग़ज़लों में नयापन देखते ही बनता है|  संगीता स्वरूप गीत ने गिरीश की गज़लों को 31 अगस्त को चर्चामंच  पर पेश किया।  प्रदीप जिलवाने, हरकीरत हीर, महेंद्र मिश्र, सतीश सक्सेना,  मीनू खरे, वेद व्यथित, जय कृष्ण राय तुषार, सुनील गज्जाणी,  ललित शर्मा, राणा प्रताप सिंह, ओशो रजनीश और अविनाश वाचस्पति को भी ये पसंद आयीं| बिहारी ब्लागर यानी सलिल जी ने कई शेरों की तारीफ़ की, कहा कि गिरीश जी की गजलें बड़े सादे अंदाज में गहरी बातें कहती हैं, यह सादा बयानी ही उनकी ग़ज़लों की खूबसूरती है| पर उन्होंने कहीं-कहीं कुछ खटकता हुआ भी महसूस किया| उनके मुतबिक लिक्खे है को लिखता है के साथ पढ़ने पर एक रुकावट आती है।  शेर बहुत सुंदर है और बाँध लेता है, किंतु यह बात स्वयम् गिरीश जी ही बता सकते हैं कि यदि कोई तकरार लिखता है, कोई इनकार लिखता है लिखा जाता तो क्या फ़र्क पड़ता या शेर की सुंदरता कहाँ कम होती। दूसरी गज़ल के हर शेर में मिसरा ए सानी बिलकुल प्रेडिक्टेबल दिखता है। शायर क्या कहना चाहता है, आप आसानी से सोच लेते हैं। यह किसी भी ग़ज़ल की कमज़ोरी कही जा सकती है। अर्चना तिवारी पहली बार साखी पर आयीं। पंकज जी के कुछ शेर उन्हें बेहद पसंद आए। 


 संजीव गौतम को गिरीश जी की ग़ज़लों के कई अशआर ने प्रभावित किया-
अगर हारे नहीं, टूटे नहीं, तो देख लेना तुम
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है
कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है
लेकिन बीच-बीच में कुछ अशआर खटके भी, जैसे- पहली ग़ज़ल का पहला शेर, कोई इन्कार लिक्खे है यहां अगर कोई इन्कार लिखता है, होता तो ज्यादा ठीक होता। इसी तरह दूसरे शेर में खोल के साथ अपनी ठीक नहीं लग रहा है, अपने खोल में ज्यादा ठीक होता। दूसरी ग़ज़ल के पहले शेर का ग़ज़ल की दृष्टि से कोई अर्थ समझ में नहीं आया। दूसरा शेर 'लुटाओ धन मिलेगा तन, मगर फिर मन नहीं मिलता' यहां पहले मिसरे में भविष्य काल में बात की गई है लेकिन दूसरे मिसरे  मे वर्तमान काल में। व्याकरण की दृष्टि से होना चाहिए कि लुटाओ धन मिलेगा तन लेकिन फिर मन नहीं मिलेगा। इसी ग़ज़ल का ये शेर बहुत खटका-‘लगाओ मन फकीरी में सभी को धन नहीं मिलता।‘ इसका आशय तो ये लग रहा है कि फकीरी में मन इसलिए लगाना चाहिए क्योंकि सबको धन नहीं मिलता है। ये क्या बात हुई। अगर धन मिल जाये तो क्या प्रभु की भक्ति नहीं करनी चाहिए। एक शायर ऐसा कैसे सोच सकता है। मुझे लगता है कि इन ग़ज़लों को एक बार लिखकर दुबारा ठीक से खराद पर नहीं चढ़ाया गया।


गिरीश पंकज ने यहां दखल दिया और कहा, मुझे बड़ी खुशी होती है जब कोई पोस्टमार्टम करता है। ऐसे लोग अब बचे ही कहाँ? एकाध दिखते हैं, तो इनका अभिनन्दन ही होना चाहिए। कबीर कह भी गए हैं ''निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।'' संजीव को ''लगाओ मन फकीरी में/ सभी को धन नहीं मिलता'' पर आपत्ति है। उन्होंने शायद कबीर का वो भजन सुना-पढ़ा होगा-''मन लगो मेरो यार फकीरी में.जो सुख पायो रामभजन में, सो सुख नहीं अमीरी में।''  फकीरी का मतलब ''भिखमंगी नहीं है,  एक सादगी है। धन के पीछे मत भागो। जो है, उसी में संतुष्ट रहो। ईमानदारी से जितना मिला वही काफी है, भाव यही है। 'सपाट' अर्थ  को पकड़ कर बैठ गए, यह ठीक नहीं। कविता के  भीतर कुछ 'अन्यार्थ' भी निहित होते हैं। यह कहना कि 'इस वाक्य को ऐसे नहीं, वैसे लिखना चाहिए था'', अजीब लगता है। हर लेखक की अपनी शैली होती है। खुशी इस बात की है कि कुछ लोग इस तरह के कामों में लगे रहते हैं, अच्छा है। बहरहाल, मैंने अपने ब्लॉग में एक ग़ज़ल पोस्ट की है, उसके कुछ शेर दे रहा हूँ...
ऐसी एक जवानी लिखना
हर आँखों में पानी लिखना
दुहराती हैं जिसको सदियाँ
ऐसी कोई कहानी लिखना........ 


मदन मोहन शर्मा अरविंद ने संजीव गौतम की  ओर संकेत करते हुए  कहा, आलोचना बुरी बात नहीं, लेकिन हम किसी पर अपने विचार थोप नहीं सकते। भाषा  उपदेशात्मक होने की जगह अगर सामान्य रहे तो संभवतः अच्छी बात हो। हर रचनाकार का अपना एक अलग संसार होता है, उसकी अपनी सोच होती है और अपनी शैली। गिरीश जी की रचनाएँ भी अगर मेरे निवेदन को सहृदयता पूर्वक सुनने के बाद फिर से पढ़ी जाएँगी तो प्रभावपूर्ण और सार्थक लगेंगी। संजीव ने कहा, किसी का अपमान करना मेरा उद्देश्य नहीं है, लेकिन माफ करिए मैं अपने मन के विपरीत नहीं बोल सकता। ‘मुझे अब तक ये आया ही नहीं, नदी के साथ पानी सा बहूं।‘ मैंने किसी की व्यक्तिगत आलोचना के तहत कुछ नहीं लिखा और न आलोचना को अस्वस्थ बनाने की नीयत है। सीधे-सीधे बात का जवाब दें। अपने तर्क दें। हो सकता है मूल्यांकन में कोई कमी रह गई हो, अपने आप ठीक हो जायेगी। मैं किसी मुगालते में नहीं हूं कि मैं कोई तीसमारखां हूं। लेकिन अगर चुप रहूं तो खुद को कैसे समझाऊ-
मैं सब जैसा हो जाऊं, मन को कैसे समझाऊं।
मैं जानता हूं कि, सबको कमियां हैं पता, फिर भी सब हैं मौन
केवल इतनी बात है, पहले बोले कौन
 

गिरीश पंकज ने  कहा, गौतम जी, दुःख तब होता है, जब ऐसे लोग आलोचना करते हैं, जो खुद ही अभी ढंग से उग नहीं पाए हैं। जिनकी चलनी में पहले से ही न जाने कितने छेद हैं। खुद अभी लड़खड़ा  रहे हैं और दूसरे से कह रहे हैं कि ए भाई ज़रा देख के चलो। पहले उस अवस्था को प्राप्त करलें, खुद उस्ताद बन जाएं, तब कुछ कहने का नैतिक अधिकार है।  संजीव ने कहा, ये कोई जरूरी नहीं जो अच्छा लिख नहीं पाये, वह अच्छा आलोचक भी न हो पाये। सारे अच्छे आलोचक अच्छे रचनाकार रहे भी नहीं। हो सकता है मेरी भी नियति वही हो। अब क्या किया जाय कि,‘‘ हर आंखों में पानी लिखना‘‘ में हर के साथ आंखों नहीं आयेगा और आंखों के साथ हर नहीं आ सकता। ये ठीक है कि मुझे अपनों से बड़ों की आलोचना का नैतिक अधिकार नहीं है लेकिन क्या करूं जब लोग मित्रभाव निभाने लग जायें तो कोई तो बोलेगा। मुझे ऐसे लोग ज्यादा नहीं भाते जो जानते हुए भी अपने मित्र की कमियां बताते नहीं हैं-
मेरी कमियां मुझे बताते नहीं,
दोस्त यूं दुश्मनी निभाते हैं।
 

शायर सर्वत जमाल  ने बात सम्भालने की कोशिश की। कहा, गिरीश की गजलों ने मुझे प्रभावित किया, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं। गिरीश ने अपनी गजलों की जमीन वही चुनी है जो दुष्यंत ने ढूंढी थी और बाद के दिनों में उसकी आबयारी सूर्य भानु गुप्त, महेश अश्क, अदम गोंडवी, ज्ञान प्रकाश विवेक, सुल्तान अहमद जैसे गजलकारों ने की। "किसी को धन नहीं मिलता-किसी को तन नहीं मिलता", बहुत मामूली सा मतला दिखाई देता है लेकिन इसे लिखने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए। इसी गजल में- लगाओ मन फकीरी में...बहुत गहरा व्यंग्य है। बड़ी बहर वाली गजल से मैं थोड़ा उलझन में हूँ। मुझे लगता है गिरीश भी लिखते समय उलझन में रहे होंगे। दरअसल, ये 'लिखता है' की रदीफ़ ही वाहियात है जो गिरीश को फंसा लेने में कामयाब हो गयी। प्रभावित कर लेने के बावजूद, गिरीश के रचनाकार से एक शिकायत मुझे है--अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल न करना। इन गजलों को थोड़ी मेहनत से और तराशा गया होता तो कहानी दूसरी होती। 

कवि राजेन्द्र स्वर्णकार ने कई शेरों के हवाले से गिरीश की गज़लों को बेहतरीन बताकर विश्लेषण क़िया।
अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम 
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है 

क्या बात है ! जीवन में संघर्ष के लिए जिस आत्मविश्वास की आवश्यकता हुआ करती है, कितनी ख़ूबसूरती से कह दिया है । इसी तरह और भी तमाम शेर उन्हें अच्छे लगे। प्रेम की आवश्यकता का पाक साफ़ चित्रण, प्यास , ख़ोज , तड़प , निराशा , वर्तमान का यथार्थ …और भी बहुत कुछ। पर राजेंद्र ने भी कोई तकरार लिक्खे है, की जगह कोई तकरार लिखता है, को अधिक सही कहा । खोल को पुल्लिंग के रूप में ही सही बताया। किसी को धन नहीं मिलता, किसी को तन नहीं मिलता, में बात क्या कहनी है स्पष्ट नहीं हो पाया । उन्होंने सलाह दी कि  विमर्श वैमनस्य नहीं बनना चाहिए, यदि विमर्श वस्तुतः विमर्श है तो
राजेश उत्साही ने  गज़लों पर कुछ नहीं कहा, वे अपना क्षोभ जता गये, साखी पर पहली बार ऐसा लग रहा है कि आलोचना पच नहीं रही है। 


गजलगो और कवि डा त्रिमोहन तरल की पीड़ा वाजिब है, देखने में आ रहा है कि 'साखी' पर कवियों/लेखकों की सहिष्णुता घटती जा रही है। मुझे लगता है कि साखी की शुरुआत यह सहिष्णुता बढ़ाने के लिए की गयी थी ताकि रचनाधर्मिता के क्षेत्र में विमर्श की कमी को पूरा किया जा सके। यह विमर्श किसी भी क्षेत्र को पुष्ट और स्वस्थ बनाने के लिए अत्यावश्यक है। रचनाकारों के मिज़ाज में सहिष्णुता की आवश्यकता पर सुभाष जी ने काफी कुछ कह दिया है। उसे दोहराने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। हाँ, इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि साखी पर आने वाले हर रचनाकार को अपनी रचना पर विमर्श होने देने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। तभी और सिर्फ तभी हमारे भीतर की वे कमियां, जिनके प्रति हम सामान्यतः अनजान बने रहते हैं, दूर हो सकतीं हैं। टिप्पणीकार की उँगली अगर सही जगह उठी है तो उसका सधन्यवाद स्वागत होना चाहिए। यहाँ सभी टिप्पणीकार स्वयं रचनाकार भी हैं और मुझे नहीं लगता कि कोई रचनाकार साथी रचनाकार को नीचा दिखाने की मंशा से टिप्पणी करेगा। यदि ऐसा कोई करता भी है तो अधिक समय तक स्वीकार्य नहीं रहेगा। यदि आलोच्य रचनाकार को ऐसा लगता है कि ग़लती न होते हुए भी उसकी रचना पर उँगली उठाई जा रही है तो उसे अपने ज्ञान के आधार पर प्रत्युत्तर में टिप्पणीकार को सही करने का पूरा अधिकार है। बाकी लोग निश्चित रूप से उसे सपोर्ट करेंगे। लेकिन ग़लती होते हुए भी ग़लती न मानना और टिप्पणीकार के प्रति अनावश्यक आक्रोश व्यक्त करना तो यही ज़ाहिर करता है कि आप अपनी गलतियों के साथ ही खुश हैं तथा स्वयं को सुधारना आपकी प्राथमिकताओं में शामिल ही नहीं है।

वर्तमान सन्दर्भ में मैं समझता हूँ कि व्याकरण सम्बन्धी कई चूकों पर सही उँगली उठाई है भाई संजीव ने और कुछ पर आदरणीय सलिल जी ने। पंकज जी ने अपने प्रत्युत्तर में यह कहीं नहीं बताया है कि ऊँगली कहाँ गलत उठी है। उन्होंने आलोचना का अधिकार सिर्फ श्रद्धेय प्राण शर्मा सरीखे उम्रदराज़ लोगों को ही दिया है। आलोचना की क्षमता विकसित करने में उम्र की कुछ भूमिका है ज़रूर लेकिन सिर्फ उम्र ही इसका सही आधार है यह बात सही नहीं लगती। वैसे मुझे थोड़ा आश्चर्य ज़रूर हो रहा है कि आदरणीय शर्मा जी ने इन ग़ज़लों को पूरी तरह क्लीन चिट कैसे दे दी! उनसे इतनी अपेक्षा तो थी ही कि कुछ साफ़ दिख रहीं गलतियों पर तो कुछ कहना ही चाहिए था।  अरविन्द जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि हर लेखक/कवि की अपनी अलग शैली होती है क्यों कि वही तो उसकी पहचान होती है। लेकिन क्या व्याकरण सम्बन्धी गलतियाँ भी शैली में शामिल हो गयीं हैं? कम से कम मैं इस मामले में अनभिज्ञ हूँ। 



अगले शनिवार को वेद व्यथित के गीत 
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16 टिप्‍पणियां:

  1. चर्चा में तल्ख़ी न आ पाती … तो ज़्यादा श्रेयस्कर होता ।

    और मेरी टिप्पणी
    date Wed, Sep 1, 2010 at 2:12 AM
    subject [साखी] गिरीश पंकज की गज़लें पर नई टिप्पणी , पता नहीं … छपने के बाद कैसे गायब हुई ?


    दुबारा आपने दो घंटे पहले छापा था , देखें , फिर गायब है …

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. सुन्दर समीक्षा।

    कृष्ण प्रेम मयी राधा
    राधा प्रेममयो हरी


    ♫ फ़लक पे झूम रही साँवली घटायें हैं
    रंग मेरे गोविन्द का चुरा लाई हैं
    रश्मियाँ श्याम के कुण्डल से जब निकलती हैं
    गोया आकाश मे बिजलियाँ चमकती हैं

    श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये

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  3. सुभाष जी, यह संपादन-कौशल का ही कमाल है कि इतनी सारी प्रतिक्रियाओं को समेट कर आपने संतुलित टिप्पणी की. अधिकांश टिप्पणियों में से एक-दो ने मेरी किसी एक ग़ज़ल के एक-दो शेरों में हुई भूल की ओर इशारा किया है. खास कर ''हर'' वाले मामले में. हर ekvachan है,यह जनता हूँ.उसे सुधार लिया है. मध्ययुगीन कवियों से ले कर बाद के अनेक कवियों में भी कही-कहीं कुछ गलतिया, नज़र आती है. लेकिन समग्रता में ही किसी रचनाकार का मूल्यांकन करना चाहिए. ''भूल-चूक लेनी-देनी'' हमारे यहाँ कहा ही गया है. बड़े से बड़े लेखक की गलतियाँ निकाली जा सकती है. गलतियाँ बड़ी खतरनाक और मजेदार दोनों होती हैं. कई बार छपने के बाद ही वह गलती सबसे पहले नज़र आती है. मुँह चिढ़ाते हुए कहती है,कि 'बड़े तोपचंद बनते हो, देखो, मैं यहाँ रह गई हूँ'. मेरे साथ अक्सर यही होता है. लिखता हूँ. प्रूफ भी पढ़ता हूँ. पर गलती दिखती ही नहीं. लेकिन जैसे ही मेरे पत्रिका छप कर आती है, तो सबसे पहले उसी गलती पर नज़र पड़ती है और सिर पीट लेता हूँ. और तब उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. मौके के इंतज़ार में बैठे लोग पिल पड़ते है. यह स्वाभाविक है. इसलिए यह सब एक सबक ही है, कि लिखने के बाद और छपने से पहले अपने लिखे को बार-बार देख-समझ लो, कि कहीं कोई गलती तो नहीं रह गई. हँसी तब आती है, जब अपरिपक्व लोग उंगलियाँ उठाते है.बहरहाल, ''साखी' के माध्यम से आपने एक सार्थक खुला-मंच बनाया है. उन्मुक्त जिरह करने वाली यह साहित्यक-लोक अदालत है.यहाँ सबको कहने-सुनने और प्रतिक्रियाएं देने का अधिकार आपने दिया है.यह सुखद लोकतंत्र है. इसका मैं स्वागत करता हूँ. सच कहे तो मुझे आनंद ही आता है. पवित्र और साधक किस्म के लोग आलोचना करे तो बड़ा सुकून मिलता है. ''साखी' के कारण मेरी ग़ज़ले अनेक सार्थक लोगों तक पहुँची, उन्होंने मुझे स्नेह दिया, यही मेरी थाती है. इस हेतु आपका आभार...दिल से. आप से परिचय हुआ, यह मेरी इस साल की उपलब्धि है. बनारस का हूँ. इसलिये हर वक्त चाहता हूँ, कि प्रेम-''रस'' ''बना'' रहे. आपका यह प्यार बना रहे. अपने sheron के साथ बात ख़त्म करता हूँ, कि-
    आपकी शुभकामनाएँ साथ है
    क्या हुआ गर कुछ बलाएँ साथ है
    हारने का अर्थ यह भी जानिए
    जीत की संभावनाएं साथ है
    इस अँधेरे को फतह कर लेंगे हम
    रौशनी की कुछ कथाएँ साथ है.
    आपकी शुभकामनाएँ साथ है............

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  4. लिए हाथों में हाथ मित्रो
    और बातों में करामात हैं
    कमियां बतलाने वाले
    हर कदम पर मिल जायें
    तो संभावनाएं सच हो जायेंगी
    मुझे तो तब और अच्‍छा लगेगा
    व्‍यंग्‍य में भी कमियां बतलाने
    एक ब्‍लॉग बनाया जायेगा
    जिस पर जिरह करने
    संजीव भाई जैसा तम को
    (गो) भगाने आयेगा।
    सुभाष भाई का श्रम काबिले-गौर है और खुश हूं कि इस पर ध्‍यान दिया जा रहा है।

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  5. आदरनीय सुभास जी, प्रान जी गजल के विधा पर एक अथॉरिटी हैं...इसलिए उनके ऊपर जिम्मेबारी अऊर जादा हो जाता है...कहीं अईसा न हो कि राह चलते राह्गीर के ऊपर पत्थर मारने वाला बचवा के हाथ में पैसा धरा दिया जाए... दोसरा बात कि उमर के साथ न तो लिखने का सम्बंध है, न समीक्षा करने का.. एगो पुराना उदाहरन याद आ गया कि हम मुर्गी जईसा अण्डा त नहीं दे सकते हैं बाकी ऑमलेट के बारे में मुर्गी से जादा जानते हैं... गौतम जी का बात सिरा से खरिज नहीं किया जा सकता है अऊर ई भी नहीं माना जा अकता है कि गिरीस जी गजलकार नहीं हैं... उनका गजल जईसे आनंद पहुँचाता है, वईसहीं गौतम जी का बेबाक टिप्पणी भी... हमको त दोनों में आनंद आया… आउर आप जईसे समेटे हैं इस पोस्ट में ऊ काबिले तारीफ है!!!

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  6. गिरीश भाई की विनम्रता से मुझे बहुत साहस मिला है. जिस तरह से उन्होंने इस बातचीत को खुले मन से स्वीकार किया है, उससे कोई भी समझ सकता है कि उनमें कितना बड़ा रचनाकार है. सलिलजी आप जब पहली बार इस ब्लाग पर कुछ लिख गये थे, तभी मुझे आप की ताकत का पता चल गया था.मैंने आप के बारे में जो अनुमान किया था, वह सही निकला. आप की आज की बात से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूं. धन्यवाद.

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  7. Adbhut kalash hai chalak kar bhi jo nahin chalakta. Bahut hi ruchikar aur sahitya ke stareey sameekshatmak tipni ka manch Pradan karne ke liye..

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  8. राजेश उत्साही7 सितंबर 2010 को 12:35 am बजे

    क्षोभ तो अभी भी बचा हुआ है या कहूं कि बढ़ गया है सुभाष जी। सोचता हूं उसे भी व्‍यक्‍त कर ही दूं। वैसे भी आज कृष्‍ण का जन्‍मदिन है जो कहते हैं कि यहां तेरा कोई सगा नहीं है। इतना सब होने के बाद भी गिरीश जी अपनी इस‍ टिप्‍पणी में तीर छोड़ने से नहीं चूके हैं। उनकी ये पंक्तियां देखें- ‘मध्ययुगीन कवियों से ले कर बाद के अनेक कवियों में भी कही-कहीं कुछ गलतियां, नज़र आती है। लेकिन समग्रता में ही किसी रचनाकार का मूल्यांकन करना चाहिए। बड़े से बड़े लेखक की गलतियाँ निकाली जा सकती है।- उन्‍होंने स्‍वयं ही स्‍वयं को न केवल बड़ा लेखक घोषित कर दिया है बल्कि मध्‍ययुगीन कवियों के समकक्ष भी ला खड़ा किया। बधाई हो। वे कह रहे हैं,’ -हँसी तब आती है, जब अपरिपक्व लोग उंगलियाँ उठाते हैं।- अब बताएं कि कौन परिपक्‍व है और कौन अपरिपक्‍व यह कैसे तय होगा। और उंगली तो गलती पर ही उठाई जा रही है,फिर उसमें इस बात से क्‍या फर्क पड़ता है कि कौन उठा रहा है। वैसे भी साखी पर उनका जो परिचय लगाया गया था वह देखकर तो अच्‍छे अच्‍छे परिपक्‍व भी कुछ कहने से बचते रहें हैं। कुछ हैं जो रचनाकार की समीक्षा उसकी यहां प्रस्‍तुत रचना पर करते हैं, बिना परिचय से आतंकित हुए। वही यहां किया भी गया। उन्‍हें अपरिपक्‍व का तमगा दे दिया गया। उनकी यह बात देखें जो अपने आप में विरोधाभास है। वे कहते हैं-.यह सुखद लोकतंत्र है। इसका मैं स्वागत करता हूँ। सच कहें तो मुझे आनंद ही आता है। पवित्र और साधक किस्म के लोग आलोचना करे तो बड़ा सुकून मिलता है। जरूर आनंद आता होगा और सुकून मिलता होगा लेकिन लोकतंत्र में तो (हम जैसे) पापी, दूषित और असाधक भी होंगे गिरीश जी आपको उनको भी झेलना ही होगा। क्‍यों कि लोकतंत्र में बोलने का अधिकार तो उनके पास भी है।



    गिरीश जी की ग़ज़लों पर मैंने कुछ नहीं कहा। क्‍योंकि इस विधा के व्‍याकरण से मैं अनभिज्ञ हूं। लेकिन इस पूरी चर्चा के बाद कुछ कहने का मन है। यह बात साखी पर मैंने ही कही थी कि रचनाओं के बहाने रचनाकार की समीक्षा का मंच इसे बनना चाहिए। यह शाश्‍वत बहस रही है कि एक लेखक जो लिखता है और जो जीवन वो जीता है या अपने निजी जीवन में जैसा होता है क्‍या उसमें कोई संबंध होना चाहिए या नहीं। मैं तो इस हमेशा इस पक्ष में रहा हूं कि जो आप अपने लेखन में कह रहे हैं उसे अपने जीवन और व्‍यवहार में भी उतारें। अन्‍यथा वह नारेबाजी के अलावा कुछ नहीं है। गिरीश जी यहां जिस तरह से प्रस्‍तुत हुए हैं उसके बाद उनकी ये पंक्तियां पढ़कर लगता है कि क्‍या सचमुच ये उन्‍होंने ही लिखा है। आप भी गौर फरमाएं-



    कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है

    हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है

    (यहां तो आप कुछ और भी लिख रहे हैं।)



    वे अपनी खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आते

    (और आप भी अपने खोल में ही रहना चाहते हैं।)



    यहाँ छोटा-बड़ा कोई नहीं सब जन बराबर हैं

    (यह बराबरी किस दुनिया के लिए लिख रहे हैं।)


    प्रेम से तो पेश आना सीख ले
    चार दिन का तू अरे मेहमान है

    (क्‍या ये सीख औरों के लिए ही है। )
    मेरी जुबां पर सच भर आया
    कुछ हाथों में पत्थर आया

    (जब औरों की जुबां पर सच आया तो आपने क्‍या किया?)

    मुझे पता है कि वे कहेंगे कि बाल की खाल निकाल रहे हो। जी सही है, क्‍योंकि अपना तो काम ही यही है।

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  9. राजेश उत्साही7 सितंबर 2010 को 12:40 am बजे

    क्षोभ तो अभी भी बचा हुआ है या कहूं कि बढ़ गया है सुभाष जी। सोचता हूं उसे भी व्‍यक्‍त कर ही दूं। वैसे भी आज कृष्‍ण का जन्‍मदिन है जो कहते हैं कि यहां तेरा कोई सगा नहीं है। इतना सब होने के बाद भी गिरीश जी अपनी इस‍ टिप्‍पणी में तीर छोड़ने से नहीं चूके हैं। उनकी ये पंक्तियां देखें- ‘मध्ययुगीन कवियों से ले कर बाद के अनेक कवियों में भी कही-कहीं कुछ गलतियां, नज़र आती है। लेकिन समग्रता में ही किसी रचनाकार का मूल्यांकन करना चाहिए। बड़े से बड़े लेखक की गलतियाँ निकाली जा सकती है।- उन्‍होंने स्‍वयं ही स्‍वयं को न केवल बड़ा लेखक घोषित कर दिया है बल्कि मध्‍ययुगीन कवियों के समकक्ष भी ला खड़ा किया। बधाई हो। वे कह रहे हैं,’ -हँसी तब आती है, जब अपरिपक्व लोग उंगलियाँ उठाते हैं।- अब बताएं कि कौन परिपक्‍व है और कौन अपरिपक्‍व यह कैसे तय होगा। और उंगली तो गलती पर ही उठाई जा रही है,फिर उसमें इस बात से क्‍या फर्क पड़ता है कि कौन उठा रहा है। वैसे भी साखी पर उनका जो परिचय लगाया गया था वह देखकर तो अच्‍छे अच्‍छे परिपक्‍व भी कुछ कहने से बचते रहें हैं। कुछ हैं जो रचनाकार की समीक्षा उसकी यहां प्रस्‍तुत रचना पर करते हैं, बिना परिचय से आतंकित हुए। वही यहां किया भी गया। उन्‍हें अपरिपक्‍व का तमगा दे दिया गया। उनकी यह बात देखें जो अपने आप में विरोधाभास है। वे कहते हैं-.यह सुखद लोकतंत्र है। इसका मैं स्वागत करता हूँ। सच कहें तो मुझे आनंद ही आता है। पवित्र और साधक किस्म के लोग आलोचना करे तो बड़ा सुकून मिलता है। जरूर आनंद आता होगा और सुकून मिलता होगा लेकिन लोकतंत्र में तो (हम जैसे) पापी, दूषित और असाधक भी होंगे गिरीश जी आपको उनको भी झेलना ही होगा। क्‍यों कि लोकतंत्र में बोलने का अधिकार तो उनके पास भी है।



    गिरीश जी की ग़ज़लों पर मैंने कुछ नहीं कहा। क्‍योंकि इस विधा के व्‍याकरण से मैं अनभिज्ञ हूं। लेकिन इस पूरी चर्चा के बाद कुछ कहने का मन है। यह बात साखी पर मैंने ही कही थी कि रचनाओं के बहाने रचनाकार की समीक्षा का मंच इसे बनना चाहिए। यह शाश्‍वत बहस रही है कि एक लेखक जो लिखता है और जो जीवन वो जीता है या अपने निजी जीवन में जैसा होता है क्‍या उसमें कोई संबंध होना चाहिए या नहीं। मैं तो इस हमेशा इस पक्ष में रहा हूं कि जो आप अपने लेखन में कह रहे हैं उसे अपने जीवन और व्‍यवहार में भी उतारें। अन्‍यथा वह नारेबाजी के अलावा कुछ नहीं है। गिरीश जी यहां जिस तरह से प्रस्‍तुत हुए हैं उसके बाद उनकी ये पंक्तियां पढ़कर लगता है कि क्‍या सचमुच ये उन्‍होंने ही लिखा है। आप भी गौर फरमाएं-



    कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है

    हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है

    (यहां तो आप कुछ और भी लिख रहे हैं।)



    वे अपनी खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आते

    (और आप भी अपने खोल में ही रहना चाहते हैं।)



    यहाँ छोटा-बड़ा कोई नहीं सब जन बराबर हैं

    (यह बराबरी किस दुनिया के लिए लिख रहे हैं।)


    प्रेम से तो पेश आना सीख ले
    चार दिन का तू अरे मेहमान है

    (क्‍या ये सीख औरों के लिए ही है। )
    मेरी जुबां पर सच भर आया
    कुछ हाथों में पत्थर आया

    (जब औरों की जुबां पर सच आया तो आपने क्‍या किया?)

    मुझे पता है कि वे कहेंगे कि बाल की खाल निकाल रहे हो। जी सही है, क्‍योंकि अपना तो काम ही यही है।

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  10. क्षोभ तो अभी भी बचा हुआ है या कहूं कि बढ़ गया है सुभाष जी। सोचता हूं उसे भी व्‍यक्‍त कर ही दूं। वैसे भी आज कृष्‍ण का जन्‍मदिन है जो कहते हैं कि यहां तेरा कोई सगा नहीं है। इतना सब होने के बाद भी गिरीश जी अपनी इस‍ टिप्‍पणी में तीर छोड़ने से नहीं चूके हैं। उनकी ये पंक्तियां देखें- ‘मध्ययुगीन कवियों से ले कर बाद के अनेक कवियों में भी कही-कहीं कुछ गलतियां, नज़र आती है। लेकिन समग्रता में ही किसी रचनाकार का मूल्यांकन करना चाहिए। बड़े से बड़े लेखक की गलतियाँ निकाली जा सकती है।- उन्‍होंने स्‍वयं ही स्‍वयं को न केवल बड़ा लेखक घोषित कर दिया है बल्कि मध्‍ययुगीन कवियों के समकक्ष भी ला खड़ा किया। बधाई हो। वे कह रहे हैं,’ -हँसी तब आती है, जब अपरिपक्व लोग उंगलियाँ उठाते हैं।- अब बताएं कि कौन परिपक्‍व है और कौन अपरिपक्‍व यह कैसे तय होगा। और उंगली तो गलती पर ही उठाई जा रही है,फिर उसमें इस बात से क्‍या फर्क पड़ता है कि कौन उठा रहा है। वैसे भी साखी पर उनका जो परिचय लगाया गया था वह देखकर तो अच्‍छे अच्‍छे परिपक्‍व भी कुछ कहने से बचते रहें हैं। कुछ हैं जो रचनाकार की समीक्षा उसकी यहां प्रस्‍तुत रचना पर करते हैं, बिना परिचय से आतंकित हुए। वही यहां किया भी गया। उन्‍हें अपरिपक्‍व का तमगा दे दिया गया। उनकी यह बात देखें जो अपने आप में विरोधाभास है। वे कहते हैं-.यह सुखद लोकतंत्र है। इसका मैं स्वागत करता हूँ। सच कहें तो मुझे आनंद ही आता है। पवित्र और साधक किस्म के लोग आलोचना करे तो बड़ा सुकून मिलता है। जरूर आनंद आता होगा और सुकून मिलता होगा लेकिन लोकतंत्र में तो (हम जैसे) पापी, दूषित और असाधक भी होंगे गिरीश जी आपको उनको भी झेलना ही होगा। क्‍यों कि लोकतंत्र में बोलने का अधिकार तो उनके पास भी है। jaree.....

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  11. क्षोभ तो अभी भी बचा हुआ है या कहूं कि बढ़ गया है सुभाष जी। सोचता हूं उसे भी व्‍यक्‍त कर ही दूं। वैसे भी आज कृष्‍ण का जन्‍मदिन है जो कहते हैं कि यहां तेरा कोई सगा नहीं है। इतना सब होने के बाद भी गिरीश जी अपनी इस‍ टिप्‍पणी में तीर छोड़ने से नहीं चूके हैं। उनकी ये पंक्तियां देखें- ‘मध्ययुगीन कवियों से ले कर बाद के अनेक कवियों में भी कही-कहीं कुछ गलतियां, नज़र आती है। लेकिन समग्रता में ही किसी रचनाकार का मूल्यांकन करना चाहिए। बड़े से बड़े लेखक की गलतियाँ निकाली जा सकती है।- उन्‍होंने स्‍वयं ही स्‍वयं को न केवल बड़ा लेखक घोषित कर दिया है बल्कि मध्‍ययुगीन कवियों के समकक्ष भी ला खड़ा किया। बधाई हो। वे कह रहे हैं,’ -हँसी तब आती है, जब अपरिपक्व लोग उंगलियाँ उठाते हैं।- अब बताएं कि कौन परिपक्‍व है और कौन अपरिपक्‍व यह कैसे तय होगा। और उंगली तो गलती पर ही उठाई जा रही है,फिर उसमें इस बात से क्‍या फर्क पड़ता है कि कौन उठा रहा है। वैसे भी साखी पर उनका जो परिचय लगाया गया था वह देखकर तो अच्‍छे अच्‍छे परिपक्‍व भी कुछ कहने से बचते रहें हैं। कुछ हैं जो रचनाकार की समीक्षा उसकी यहां प्रस्‍तुत रचना पर करते हैं, बिना परिचय से आतंकित हुए। वही यहां किया भी गया। उन्‍हें अपरिपक्‍व का तमगा दे दिया गया। उनकी यह बात देखें जो अपने आप में विरोधाभास है। वे कहते हैं-.यह सुखद लोकतंत्र है। इसका मैं स्वागत करता हूँ। सच कहें तो मुझे आनंद ही आता है। पवित्र और साधक किस्म के लोग आलोचना करे तो बड़ा सुकून मिलता है। जरूर आनंद आता होगा और सुकून मिलता होगा लेकिन लोकतंत्र में तो (हम जैसे) पापी, दूषित और असाधक भी होंगे गिरीश जी आपको उनको भी झेलना ही होगा। क्‍यों कि लोकतंत्र में बोलने का अधिकार तो उनके पास भी है। jaree...

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  12. क्षोभ तो अभी भी बचा हुआ है या कहूं कि बढ़ गया है सुभाष जी। सोचता हूं उसे भी व्‍यक्‍त कर ही दूं। वैसे भी आज कृष्‍ण का जन्‍मदिन है जो कहते हैं कि यहां तेरा कोई सगा नहीं है। इतना सब होने के बाद भी गिरीश जी अपनी इस‍ टिप्‍पणी में तीर छोड़ने से नहीं चूके हैं। उनकी ये पंक्तियां देखें- ‘मध्ययुगीन कवियों से ले कर बाद के अनेक कवियों में भी कही-कहीं कुछ गलतियां, नज़र आती है। लेकिन समग्रता में ही किसी रचनाकार का मूल्यांकन करना चाहिए। बड़े से बड़े लेखक की गलतियाँ निकाली जा सकती है।- उन्‍होंने स्‍वयं ही स्‍वयं को न केवल बड़ा लेखक घोषित कर दिया है बल्कि मध्‍ययुगीन कवियों के समकक्ष भी ला खड़ा किया। बधाई हो। वे कह रहे हैं,’ -हँसी तब आती है, जब अपरिपक्व लोग उंगलियाँ उठाते हैं।- अब बताएं कि कौन परिपक्‍व है और कौन अपरिपक्‍व यह कैसे तय होगा। और उंगली तो गलती पर ही उठाई जा रही है,फिर उसमें इस बात से क्‍या फर्क पड़ता है कि कौन उठा रहा है। वैसे भी साखी पर उनका जो परिचय लगाया गया था वह देखकर तो अच्‍छे अच्‍छे परिपक्‍व भी कुछ कहने से बचते रहें हैं। jaree....

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  13. कुछ हैं जो रचनाकार की समीक्षा उसकी यहां प्रस्‍तुत रचना पर करते हैं, बिना परिचय से आतंकित हुए। वही यहां किया भी गया। उन्‍हें अपरिपक्‍व का तमगा दे दिया गया। उनकी यह बात देखें जो अपने आप में विरोधाभास है। वे कहते हैं-.यह सुखद लोकतंत्र है। इसका मैं स्वागत करता हूँ। सच कहें तो मुझे आनंद ही आता है। पवित्र और साधक किस्म के लोग आलोचना करे तो बड़ा सुकून मिलता है। जरूर आनंद आता होगा और सुकून मिलता होगा लेकिन लोकतंत्र में तो (हम जैसे) पापी, दूषित और असाधक भी होंगे गिरीश जी आपको उनको भी झेलना ही होगा। क्‍यों कि लोकतंत्र में बोलने का अधिकार तो उनके पास भी है। jaree....

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  14. गिरीश जी की ग़ज़लों पर मैंने कुछ नहीं कहा। क्‍योंकि इस विधा के व्‍याकरण से मैं अनभिज्ञ हूं। लेकिन इस पूरी चर्चा के बाद कुछ कहने का मन है। यह बात साखी पर मैंने ही कही थी कि रचनाओं के बहाने रचनाकार की समीक्षा का मंच इसे बनना चाहिए। यह शाश्‍वत बहस रही है कि एक लेखक जो लिखता है और जो जीवन वो जीता है या अपने निजी जीवन में जैसा होता है क्‍या उसमें कोई संबंध होना चाहिए या नहीं। मैं तो इस हमेशा इस पक्ष में रहा हूं कि जो आप अपने लेखन में कह रहे हैं उसे अपने जीवन और व्‍यवहार में भी उतारें। अन्‍यथा वह नारेबाजी के अलावा कुछ नहीं है। गिरीश जी यहां जिस तरह से प्रस्‍तुत हुए हैं उसके बाद उनकी ये पंक्तियां पढ़कर लगता है कि क्‍या सचमुच ये उन्‍होंने ही लिखा है। आप भी गौर फरमाएं-jaree....

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  15. कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है

    हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है

    (यहां तो आप कुछ और भी लिख रहे हैं।)



    वे अपनी खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आते

    (और आप भी अपने खोल में ही रहना चाहते हैं।)



    यहाँ छोटा-बड़ा कोई नहीं सब जन बराबर हैं

    (यह बराबरी किस दुनिया के लिए लिख रहे हैं।)


    प्रेम से तो पेश आना सीख ले
    चार दिन का तू अरे मेहमान है

    (क्‍या ये सीख औरों के लिए ही है। )
    मेरी जुबां पर सच भर आया
    कुछ हाथों में पत्थर आया

    (जब औरों की जुबां पर सच आया तो आपने क्‍या किया?)

    मुझे पता है कि वे कहेंगे कि बाल की खाल निकाल रहे हो। जी सही है, क्‍योंकि अपना तो काम ही यही है।

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  16. namaskar sir... meri hindi itni achchi nahin hain lekin koshish kartha hoon :-)

    aapki ek help chahiye thi... mein indiblogger me ek contest me bhaag le raha hoon aur aapki vote ki bohut zaroorat hain..
    krupya zaroor vote karein...

    http://digs.by/c6CRNr

    bahut bahut dhanyavaad... bahut mehebaani hogi...

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हां, आज ही, जरूर आयें

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