बुधवार, 25 अगस्त 2010

जब कहता हूँ सच कहता हूँ.

अपनी गज़लों के कथ्य और भाव के लिये मदन मोहन शर्मा अरविंद की सराहना की गयी पर  गज़ल की तकनीक के अधूरेपन को लेकर उनका घिराव भी किया गया। गज़ल की दुनिया के महारथियों, सर्वत जमाल, प्राण शर्मा और संजीव गौतम  ने साखी के व्यूह में उन्हें घेरा, उन पर सधे तीर चलाये और गज़ल के बुलंद दरवाजे में दाखिल होने की जरूरतें पूरी करने की सलाह दी। मदन ने अपने बचाव में अपने तर्कों के पुष्पवाण छोड़े पर विनम्रता का प्रदर्शन करते हुए गज़ल  के मर्मज्ञ रचनाकारों से इस कला की बारीकियां सीखने की उत्सुकता भी दिखायी। सलिल जी, श्रद्धा जैन और कई अन्य रचनाकर्मियों के सार्थक  दखल ने बहस को  रोचक  और सारगर्भित बनाने में पूरी मदद की। सर्वत जमाल ने माना कि  मदन जी की गजलें अर्थ, भावाभिव्यक्ति के आधार पर मंत्रमुग्ध कर देने की हैसियत रखती हैं। ये गजलें परम्परा से हट कर, समकालीन मानवीय मूल्यों से जुड़ी हुई हैं और इन्हें पढ़ने से रचनाकार का व्यक्तित्व  काफी कुछ सामने आ जाता है पर यह भी जोड़ा कि कुछ शेरों पर थोड़ी मेहनत और की गयी होती तो नतीजा बेहतर हो सकता था। पहली गजल की रदीफ़ है---कुछ ऐसे बरस। अगर यह गजल मेरी होती तो मैं रदीफ ' हाँ अबके बरस' रखता। शर्मा जी द्वारा प्रयुक्त रदीफ़ के कारण कुछ शेर अर्थ को सीधी राह नहीं दे सके। दूसरी गजल अच्छी है,  रात सितारों वाली- हमारे सपनों, सियासत, समाज सभी के पर्याय के रूप में काम कर गयी पर 'मैं भी कितना पागल हूँ', इस गजल में शायद रचनाकार कुछ जल्दबाजी से काम ले गया। मतले में ही, "जब कहता हूँ सच कहता हूँ......"किया होता तो क्या गलत होता। उल्टा वाक्य रख कर अनूठापन पैदा करने का प्रयास सफल नहीं हुआ। चौथी गजल- मेरे लिए हैरान करने वाली है। गलती नजर की चूक हो तो नजरअंदाज़ हो सकती है, गलती बार-बार हो तो सोचना पड़ता है। " जिस्म बौछार जलाती क्यों है-ये घटा आग लगाती क्यों है", इसका वजन है-२१२२११२२२। मतले के बाद गजल के हर पहले मिसरे का वजन है- २१२२१२१२२२। लम्बे अरसे से गजल साधना में रत किसी गजलकार के लिए यह दोष निराशा पैदा करने वाला है। शर्मा जी को मेरा मशवरा है कि गजल का व्याकरण ढंग से सीख लें, सीखना तो जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
 

प्राण शर्मा जी ने कहा, मदन मोहन शर्मा के कई शेरों के बयान स्पष्ट नहीं हैं.उनका एक शेर है -
थी फलों की आस जिनसे वो तने सड़ गल गये
हो नयी फिर से फसल तैयार कुछ ऐसा बरस
इस शेर से यह आभास नहीं होता है कि गज़लकार का इशारा पानी से
है या बादल से ? उनका एक और शेर देखिए --


बिन बुलाये गरीब की छत पर 
रोज तूफान मचाती क्यों है
इस शेर में तूफ़ान मचाने वाली कौन है ,बिलकुल स्पष्ट नहीं है। गज़लकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ग़ज़ल का हर शेर स्वंतत्र, अपने बयान में परिपूर्ण और स्पष्ट होना चाहिए। इस बिन्दु पर शर्मा जी ने दखल देने की कोशिश की और स्पष्ट क़िया कि पानी बरसे या बादल, फसल पर दोनों का प्रभाव एक ही होगा, वैसे भी बादल पानी ही बरसाते हैं, फिर अस्पष्टता का प्रश्न समझ में नहीं आता। गरीब क़ी छत पर तूफान मचाने वाली बरसात ही होगी। हर शेर में बरसात की पुनरावृत्ति कोई अच्छा प्रभाव उत्पन्न नहीं करती। प्राण जी ने समझाया,  गज़ल साफ-सुथरा बयान चाहती है। एक बार मैंने ये  मिसरा कहा था, वो गिरेगी, आशियां जल जायेगा। मेरे  उस्ताद ने आंखें तरेर कर पूछा, कौन गिरेगी? मैंने कहा, बिजली। उस्ताद ने कहा, जाओ मिसरे में बिजली का इस्तेमाल करो, गज़ल में किसी भी शब्द की कंजूसी करना सही नहीं। कभी कविवर राम नरेश त्रिपाठी ने कहा था, भाषा को मांजने, संवारने और स्पष्ट कविता लिखने में जितना काम उर्दू शायरों ने किया है, उतना हिंदी के कवि नहीं कर पाये।


संजीव गौतम ने कहा, अच्छी रदीफ ग़ज़ल के अधिकांश  मिजाज को तय कर देती है और रदीफ क्या है, भाषा के मुहावरे का हिस्सा। यहीं हिन्दी के अधिकांश ग़ज़लकार गलती करते हैं और उर्दू में इसी हिस्से पर सबसे ज्यादा मेहनत की गई है। ये भले ही कड़वा लगे लेकिन सच है कि हिन्दी के ऊपर हिन्दी वालों से ज्यादा मेहनत उर्दू वालों ने की है। इसी मुहावरे की कमी के कारण अरविंद जी की ग़ज़लें कुछ कमजोर कही जा सकती हैं। मिसरा पढ़ते ही उसका चित्र आंखों के सामने आ जाना चाहिए, अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो कमी है और यह कमी भाषा पर मुहावरे की कम पकड़ के कारण ही आती है। अरविन्द जी का कथ्य,  उनकी साफगोई एवं अनुभव की प्रामाणिकता  उनमें प्रभावोत्पादकता पैदा करती है लेकिन जब ग़ज़लों की बात चलती है तो कम्बख्त व्याकरण बीच में आ ही जाता है। साहित्य और छंद शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य संजीव वर्मा सलिल और गीतकार रूप चन्द्र शास्त्री मयंक की मौजूदगी महत्वपूर्ण रही| शास्त्री जी ग़ज़लों को पढ़कर प्रसन्न हुए जबकि सलिल जी मदन की ग़ज़लों पर दो दोहे कह गए-
मनमोहन जी की ग़ज़ल, है अनूप-जीवंत.
शब्द-शब्द में भाव हैं, सँग अनुभाव अनंत..
'सलिल' मुग्ध है देखकर, भाषिक सरल प्रवाह.
बिम्ब-प्रतीकों ने दिया, शैल्पिक रूप अथाह..


बिहारी ब्लागर यानि सलिल जी ने अपनी गंभीर उपस्थिति दर्ज कराई| उनके मुताबिक अलंकारिक प्रयोग  ग़ज़लों की सुंदरता को बढ़ा देता है| पहली गज़ल वर्तमान परिस्थिति पर एक अफसोस ज़ाहिर करती हुई, एक उम्मीद की आस लगाए बरसात से विनती करती प्रतीत होती  है। मौक़ापरस्तों और ठगों की बस्तियाँ जलाने का अनुरोध, मुल्क़ के सौदागरों को ख़त्म करने के भाव, धरती के घिनौने दाग़ धो डालने की उम्मीद और एक नई धुली, सद्यःस्नाता धरा की कामना भी है| दूसरी ग़ज़ल में  सितारों की चमक  आशावाद का प्रतीक है|  तीसरी ग़ज़ल, तो एक एलानिया बयान है कि हाँ मैं ऐसा ही हूँ, भले ही तुम्हारी दुनिया मुझे पागल समझे|  हर शेर अपने आप में एकबालिया बयान है इस शायर को पागलख़ाने में डालने के लिए।  जुर्म सिर्फ इतना कि इसने ज़माने के आदाब नहीं अपनाए| चौथी ग़ज़ल में घटा से जिस्म का जलना,  महलों को छोड़कर कच्चे घरों को गिराना, ग़रीब की छत पर तूफान मचाना और मुफलिस के सारे किये पर पानी फेर देना आम आदमी की वेदना है| सलिल जी ने कहा कि इन ग़ज़लों में एक कमी खटकती है, वो यह है कि मिसरा ए सानी को पढ़ने के बाद आपके मुँह से बेसाख़्ता वाह नहीं निकलती है और न टीस पर आह निकलती है| ग़ज़ल की सफलता पूरी तरह उस इम्पैक्ट पर मुनस्सिर है जो मिसरा ए ऊला के साथ डेवेलप होता है और मिसराए सानी के साथ क्या बात है, की बुलंदी पर ख़त्म होता है| राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा कि इन चार ग़ज़लों में चार ख़ूबसूरत शेर छांटने को कहा जाए तो मुश्किल काम साबित हो सकता है । अशआर एक से एक बेहतरीन हैं !
खुश्क मौसम को सिखा दे प्यार कुछ ऐसे बरस
आग पानी से करे सिंगार कुछ ऐसे बरस

आग का पानी से श्रृंगार, बिल्कुल नयी बात है ! वैसे  तग़ज़्ज़ुल और तख़य्युल के पैमाने पर ग़ज़लें कुछ कमजोर हैं । लगभग सपाटबयानी - सी होने के कारण शिल्प - सौष्ठव की परिपक्वता दबती प्रतीत हो रही है । हां , एक दो जगह अलंकारों की उत्पत्ति हुई है , जो सराहने योग्य है ।


श्रद्धा जैन ने ग़ज़लों की तारीफ की| उनको ये ग़ज़ल  खास तौर पर पसंद आई, और सकून समेटते हुए ग़ज़ल के मतले से मक्ते तक का सफ़र तय हुआ... 
अब ये बरसात क्यों नहीं जाती
नींद मुफलिस की उड़ाती क्यों है
उन्होंने इस गजल पर भी मदन मोहन को दिली दाद कबूल कराने को कहा...
कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 

कवि और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा, अरविन्दजी की ग़ज़लें  नए तेवर के साथ सामने आई हैं| रचनाओं के तेवर बतलाते हैं कि ये कम नहीं हैं|  कथ्य और शिल्प दोनों मोर्चे पर इनका अपना रंग है..ढंग है। ऐसे पागल ही आज के दौर को चाहिए, जो परिवर्तनकामी हों| कवि राजेश उत्साही ने कहा कि मदन जी की पहली ग़ज़ल के भाव  दोहरा अर्थ पैदा करते हैं। ऐसे बरस से जो ध्‍वनि पैदा होती है वह बारिश का आभास भी देती है और समय का भी। तीसरी ग़ज़ल पढ़कर लगता है जैसे वे हम जैसे पागलों की बात कह रहे हैं। हममें कितने लोग ऐसे हैं जिन्‍हें जब चुप रहना चाहिए तब ही बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो केवल सच बोलते हैं। असल में पागलों को ही मिटने का खौफ नहीं होता है। जिसे मिटने का खौफ न हो, वही सच्‍चाई से नहीं डरता है।
चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

कुल मिलाकर मदनमोहन जी दिल और दुनिया के बहुत नजदीक हैं। वे केवल दिल की बात नहीं करते, वे दुनिया की बात दिल से करते हैं। यही उनकी रचनात्‍मक ताकत है। 

कवि और रचनाधर्मी सुरेश यादव ने कहा कि मदन मोहन जी की गज़लें मानवीय भावों का तनाव लेकर उपस्थित हैं ,सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बधाई| विनोद कुमार पाण्डेय ने कहा, मदन मोहन जी के भाव और शब्द चयन दोनों का कोई जोड़ नहीं| ब्लागलेखन की दुनिया में चर्चित संगीता स्वरुप, अरविन्द मिश्र, नरेंद्र व्यास, डा अमर ज्योति, वंदना जी, गज़लकार दिगंबर नासवा, गीतकार वेद व्यथित, सुनील गज्जाणी और  राणा प्रताप सिंह  की मौजूदगी ने बहस में और रंग भर दिया| 


मदन मोहन शर्मा अरविन्द ने अंत में अपनी ग़ज़ल पर बात करने के लिए साखी पर आये सभी रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों के प्रति आभार जताया| आलोचना के बाबत उन्होंने कहा, एक प्रयोग के नजरिये से चौथी ग़ज़ल में मैंने गेयता, प्रवाह और लय का पूरा ध्यान रखते हुए बहर की पाबन्दी में थोड़ी ढील जानबूझ कर छोड़ दी| एक उस्ताद शायर की नज़रों के सिवा यह कमी सब को धोखा दे गयी|  मेरे प्रयोग का यही मकसद था| सही-गलत का फैसला मेरे जैसे नौसिखिये के लिए आसान नहीं, इस पर तो विद्वान् ही कुछ कहें तो बेहतर| प्राण शर्मा जी और सर्वत जमाल साहब के  मार्गदर्शन का लाभ मुझे जरुर मिलेगा| जिन्हें ग़ज़लें कमजोर लगीं, उनसे  निवेदन है, आशीर्वाद दें कि आगे जो  लिखूं,  अच्छा लगे| राजेश उत्साही जी, श्रद्धा जी, डॉ रूप चन्द शास्त्री मयंक जी और बिहारी ब्लॉगर साहब की टिप्पणियों में जिस प्यार और अपनेपन की खुशबू का अहसास हुआ, वह मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं, धन्यवाद कहकर इस अपनेपन में कमी लाने की हिम्मत मैं कैसे करूँ|  संगीता स्वरुप जी , अरविन्द मिश्रा जी, नरेंद्र व्यास जी, दिगंबर नासवा जी, आचार्य संजीव सलिल जी, सुनील गज्जानी जी और गिरीश पंकज जी ने मेरा उत्साह वर्धन किया, आप सबके असीम स्नेह के समक्ष मैं नत मस्तक हूँ|
  

अगले शनिवार को गिरीश पंकज की गज़लें 

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10 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह की चर्चा लेखक को सही दिशा देती है ...रही गज़ल की बात तो मुझे उसकी तकनिकी जानकारी नहीं है ..बस भावनाओं को ही समझती हूँ ....उस दृष्टि से हर गज़ल बहुत अच्छी लगी ...बाकी गजलकार जाने ...:) :) ..शुभकामनायें

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  2. Yah ek saraahaneey baat hai ki aap tippaniyo par kuchh likh rahe hai. itani mehanat mere khyal se ek-do bloger hi kar rahe hai.YAH BLOG blog nahi raha, ek ptrika-saa asvaad dene lagaa hai. badhai iss abhinav soch k liye..agale ank mey log meri shalykriyaa karenge. svagat rahega sabka...

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  3. बहुत अच्छा विश्लेषण किया सुभाष जी आपने. ब्लॉग जिस मकसद और सोच के तहत आपने लांच किया था, वो पूरा होता दिख रहा है. पोस्ट की मीयाद खत्म हो चुकी है, बहुत सारा कुछ कहा-सुना जा चका है, आगे कुछ कहने की गुंजाइश न होने के बावजूद, एक बात जरूर कहना चाहूँगा.
    मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द' जी ने २५-२६ कमेंट्स प्रकाशित होने के बाद, जो सफाई दी, वो मेरे ख्याल से बेमानी थी. यदि यह पता हो इस रचना में झोल है तो कोई भी रचनाकार उसे खराद पर चढ़ाने के लिए प्रस्तुत नहीं करेगा. एक तरफ यह कहना कि मुझे मालूम था, दूसरी ओर यह कहना कि 'उर्दू' का ज्ञान नहीं, गले के नीचे नहीं उतरता. फिर यह कहना कि भाग दौड़ और आपाधापी के दौर में अगर इतनी छूट ले ली गयी तो गजल का क्या बिगड़ गया.
    मैं टोकने के लिए बदनाम हूँ. लेकिन यह टोकना केवल इस लिए होता है कि रचनाकार, समझदारों के बीच अपमानित न हो.
    शर्मा जी ने एक बात और कही कि इस व्यस्तता के दौर में अगर थोड़ी छूट ले ली.... छूट लेते ही आप गजल के दायरे से बाहर निकल गए. गजल-गजल है और यह अपने नियमों, व्याकरण, शास्त्र, अनुशासन के दम पर ही चलती है. दुष्यंत, शेरजंग गर्ग, त्रिलोचन शास्त्री, सूर्य भानु गुप्त, अंसार कम्बरी, तुफैल चतुर्वेदी, विज्ञान व्रत, ज्ञान प्रकाश विवेक, महेश अश्क, अदम गोंडवी, देवेन्द्र आर्य, संजीव गौतम जैसे अनगिनत रचनाकारों के साथ प्रार्थी को भी कभी छूट लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई, फिर आप ही क्यों छूट लेने अमादा हैं.
    मैं फिर कहना चाहता हूँ कि गजल अनुशासन की वस्तु है, यदि कोई अनुशासन न मानने पर ही तुला हो तो क्या किया जा सकता है? वैसे एक सवाल जरूर पूछना चाहूँगा--- क्या गजल ही कहना जरूरी है?

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  4. गजल को कोई और नाम दो
    ग हटा लो जल कह दो पर
    जल तो पहले से ही मौजूद है
    गज हटाओ ल रहता है
    हाथी जैसी चिंघाड़ गजल में होती है
    ज हटा दो मध्‍य से तो
    गल होती है
    चाहे पंजाबी विच ही सही
    गल ही गजल
    जल जल होती है
    पल पल होती है
    बल बल होती है
    पर जो मैं कह रहा हूं
    न गजल है
    न जल है
    न पल है
    पर शब्‍दों का एक
    अद्वितीय बल है
    बहुत सबल है।
    जो सीखने को मिला है
    वो शब्‍दों का संबल है।
    मैं गजलों पर अपरिहार्य कारणोंवश टिप्‍पणी करने से महरूम रह गया। इसलिए इस रूम (टिप्‍पणी रूम) में जो मन में आया, कह गया। वैसे कल आगरा में मदन मोहन अरविंद जी का सुखद सान्निध्‍य प्राप्‍त हुआ था।

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  5. @अरविन्द जी "उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."

    अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@षायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाशा को देखिए वहां मेहनत हुई है। इसी से ब्रज भाशा में “ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-
    कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
    भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।
    एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।
    आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं।
    अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये।
    अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी।
    ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।

    जवाब देंहटाएं
  6. @अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प्रयोग के माध्यम से देखना चाहता था वह थी उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."

    अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने, उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@शायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाषा को देखिए वहां मेहनत हुई है। इसी से ब्रज भाषा में ‘ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-
    कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
    भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।
    एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।
    आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं।
    अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये।
    अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी।
    ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।

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  7. @अरविन्द जी "एक और खास बात जिसका असर मैं इस प्रयोग के माध्यम से देखना चाहता था वह थी उर्दू ग़ज़ल में 'तेरा' को तिरा, 'मेरा' को मिरा या 'तुम आये' को तुमाये करने की छूट. हिंदी छंद शास्त्र में मात्राओं को इस तरह दबाने और शब्दों को इस तरह चबाने की छूट नहीं. वहां तो यह एक भयंकर और अक्षम्य दोष माना गया है. पहली तीन ग़ज़लों को इस दोष से पूरी तरह मुक्त रखते हुए चौथी में इस बुराई का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस पर विद्वान जरुर कुछ कहेंगे ऐसी उम्मीद भी थी पर खाली गयी."

    अरविन्द जी उर्दू में तेरा को तिरा मेरा को मिरा आदि मात्रा गिराना है, तुम आये को तुमाये करना जहां तक मुझे याद है नियम है ‘अलिफ् वस्ल‘ और ये दोनों कोई बुराई नहीं हैं। हिन्दी में भी तो समास है। आप समास का प्रयोग करिये किसने मना किया है। हर भाशा का अपना मिजाज होता है, अपना व्याकरण होता है। ये सब उसी के तहत है। भाशा को मांझने, उसे कविता जैसी कोमल काया के लायक बनाने के लिए कवि@शायर ऐसी छूटें लेते हैं या नये नियमों की स्थापना करते हैं। हिन्दी खड़ी बोली के साथ दुर्भाग्य से ऐसी मेहनत हो नहीं पायी। ब्रजभाषा को देखिए वहां मेहनत हुई है।

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  8. इसी से ब्रज भाषा में ‘ाब्दों की लोच का कोई जवाब नहीं-
    कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
    भरे भौन में करत है नैनन हीं सों बात।
    एक-एक क्रिया से पूरे-पूरे वाक्य का काम लेना! किस भाशा में इतनी सामथ्र्य है। ये सामथ्र्य पैदा की है सूर-बिहारी जैसे कवियों ने।
    आपने मात्रा गिराने की बात की है तो घनाक्षरी छन्द क्या है वहां तो सारी की सारी मात्राएं गिरा दी जाती हैं।
    अब बात कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने पर क्या ये छूटें ली जायें तो मुझे लगता है कि ये ग़ज़लकार की सामथ्र्य के ऊपर है। हिन्दी में ग़ज़लों का मिजाज “ाब्दों से तय नहीं होगा। ग़ज़ल आप किसी भी भाशा में कहें ग़ज़ल तब होगी जब उसमें ग़ज़लपन होगा। उर्दू में तो क्रियायें हिन्दी की हैं लेकिन उर्दू वालों ने कुछ कहा नहीं तो हम ग़ज़ल लिखने के लिए ये सब क्यों सोचें। हां ये बात निष्चित है कि हर ग़ज़ल प्रेमी ग़ज़ल के स्वरूप से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं करेगा। एक घटना है देखिए-मैं मैनपुरी सन् 1997 में गया तो वहां एक कवि श्री सरल तिवारी जी से मुलाकात हुई उन्होंने कहा कि मैंने नये तरह से ग़ज़लें कही हैं। उन्होंने मतला सुनाया लेकिन एक पंक्ति का मैंने कहा ये क्या है तो वे बोले कि मतला एक पंक्ति का ही रखा है। मैंने कहा आप इसे ग़ज़ल ही क्यों कहते हो। ये तो आपने नयी चीज खोजी है इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लीजिये।

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  9. अब कुछ और कहने का भी मन हो रहा है। आज टोकाटाकी करने वालों को बहुत बुरी नजर से देखा जाता है। चाहे आपका “ाहर हो, मोहल्ला हो या यहां कविता हो। हम अपने बचपन में देखते थे कि गांव के किसी भी व्यक्ति को गांव के किसी भी बच्चे को किसी भी गलती पर टोकने का यहां तक कि पिटाई लगाने का भी अधिकार था। मैं एक बार होली पर सिगरेट पीने की कोषिष करने वाला था। हाथ में पकड़ी हुई थी तभी बड़े भाईसाहब के दोस्त मिल गये मैंने चुपचाप सिगरेट फंंेक दी उन्हें पता नहीं लगने दिया लेकिन उन्होंने गंध से पता लगा लिया और घर कह दिया उस घटना का ये प्रभाव हुआ कि मेरी कभी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। समय ने ऐसा चक्र घुमाया है कि अब किसी को टोकने की हिम्मत की तो लोग उस पर ऐसे चढ़ बैठते हैं जैसे उससे ज्यादा अवांछित व्यक्ति कोई नहीं। आलोचक, नकारात्मक न जाने क्या-क्या सम्मानोपाधियां उस पर थोप दी जाती हैं। ये समाज की तरक्की नहीं अवनति का लक्षण है। ये सब गड़बड़ी फेलाई कमजोर लोगों ने। आगरा में सन् 1970 के आस-पास कविता की आलोचना गोश्ठियां होती थीं। कुछ कमजोर लोगों ने अपनी कविता की आलोचना से कुपित होकर अपनी अलग संस्थाएं बना लीं जहां सिर्फ प्रषंसाएं होने लगीं। लेकिन समय ने दिखाया कि वे अलग हुए कवि आज भी उसी श्रेणी के हैं। वे बड़ी लकीर नहीं खींच पाये क्योंकि उनमें आलोचना को सहने की ताकत नहीं थी। सुप्रसिद्ध गीतकार आनन्द “ार्मा जी के बारे में कहा जाता है कि उनसे किसी बड़े कवि ने कहा था कि आनन्द तुम बहुत ज्यादा आगे नहीं जा पाओगे क्योंकि तुम्हारा कोई आलोचक नहीं है। कारण था कि आनन्द जी इतने परफेक्ट थे उनके गीतों में कोई कमी मिलती ही नहीं थी। नतीजा यही रहा कि आनन्द जी के गीती की संख्या 40-50 से ज्यादा नहीं हो पायी।
    ये सब बातें यहां इसलिए कहने का मन था क्याकि मुझे लगता है कि साखी का यही उद्देष्य है कि कविता का एक ऐसा मंच जहां खुले मन से चर्चा की जाये। ये सब बातें किसी एक के लिए नहीं हैं सब के लिए हैं मैं भी इसमें “ाामिल हूं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कहीं भी लम्बी-लम्बी विष्लेशणात्मक टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं। कुछ सीखने को मिलता है।

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  10. गौतम भाई।
    तम कहीं भी हो
    गो होना चाहिए
    गो अंग्रेजी ही सही
    तम जाना ही चाहिए
    उजाला लाने को
    तीन टिप्‍पणियां ही क्‍यों
    एक पोस्‍ट श्रंखला चलानी चाहिए
    आप नुक्‍कड़ पर पधारिये
    तम को भगाइये
    उजाले को मन में बसाइये
    रोशनी सबके मन उपवन में उगाइये।

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हां, आज ही, जरूर आयें

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